महानदी -2

कर रहे महानदी! इस भाँति करुण-क्रंदन क्यों तेरे प्राण?
देख तव कातरता यह आज, दया होती है मुझे महान्।
विगत-वैभव की अपने आज, हुई क्या तुझे अचानक याद?
दीनता पर या अपनी तुझे, हो रहा है आंतरिक विषाद?

सोचकर या प्रभुत्व-मद-जात, कुटिलता-मय निज कार्य-कलाप।
धर्म-भय से कंपित-हृदय, कर रही है क्यों परिताप?
न कहती तू अपना कुछ हाल, ठहरती नहीं जरा तू आज।
धीवरों के बंधन से तुझे, छूटने की है अथवा लाज?

हजारों लाखों कीट-पतंग; और गो-महिष आदि पशु-भीर
उदर में तेरे हुए विलीन, हुई पर तुझको जरा न पीर।
दर्प से फैलाकर निज अंग, तीर के शष्यों का कर नाश,
लिया तूने बलपूर्वक छीन, दीन-कृषकों के मुख का आस।

बहु काल से निश्चल थे खड़े, करारे पर तेरे जो झाड़।
बहा ले गई सदा के लिए, हाय! तू जड़ से उन्हें उखाड़।
कहाँ ऊब तेरा वह औद्धत्य, आज क्यों फूटा तेरा भाग?
जल रही तेरे उर में देख, निरंतर ‘धू-धू’ करके आग।

पथिक दल को तूने था कभी, व्यर्थ रक्खा दिन-दिन-भर रोक
वही तेरी छाती को आज, कुचलता चलता है हा! शोक !!
उग्र लहरों में अपनी डाल, उलट दी तूने जिसकी नाँव;
उसी धीवर दंपति ने तुझे, कैद में डाला पाकर दाँव।

बहा देती थी कोसों कभी मत्त नागों को भी तू जीत,
रोक सकती है तुझको आज, क्षुद्र-तम यह बालू की भीत।
बता हे महानदी विख्यात कहाँ तव महानता है आज?
कहाँ वह तेरा गर्जन घोर कहाँ जलमय विस्मृत-साम्राज्य?

प्राप्त करके कुछ पाशव-शक्ति, न होता तुझको जो अभियान,
न होती तो शायद इस भाँति, दुर्दशा तेरी आज महान।
विनय है तुझसे चित्रोत्पले, भरे जो फिर तेरे कूल,
मोद में तो यह कातर-रुदन, कभी मत जाना अपना भूल।

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