मुकुटधर पाण्डेय

मुकुटधर पाण्डेय
महानदी -2
Posted on 19 Jul, 2013 11:52 AM
कर रहे महानदी! इस भाँति करुण-क्रंदन क्यों तेरे प्राण?
देख तव कातरता यह आज, दया होती है मुझे महान्।
विगत-वैभव की अपने आज, हुई क्या तुझे अचानक याद?
दीनता पर या अपनी तुझे, हो रहा है आंतरिक विषाद?

सोचकर या प्रभुत्व-मद-जात, कुटिलता-मय निज कार्य-कलाप।
धर्म-भय से कंपित-हृदय, कर रही है क्यों परिताप?
न कहती तू अपना कुछ हाल, ठहरती नहीं जरा तू आज।
महानदी-1
Posted on 19 Jul, 2013 11:49 AM
कितना सुंदर और मनोहर, महानदी यह तेरा रूप
कलकल मय निर्मल जलधारा; लहरों की है छटा अनूप
तुझे देखकर शैशव की हैं स्मृतियाँ उर में उठती जाग
लेता है कैशोर काल का, अँगड़ाई अल्हड़ अनुराग
सिकता मय अंचल में तेरे बाल सखाओं सहित समोद
मुक्तहास परिहास युक्त कलक्रीड़ा कौतुक विविध विनोद
नीर-तीर वानीर निकट वह सैकत सौधों का निर्माण
तटिनी के प्रति
Posted on 19 Jul, 2013 11:37 AM
अरी ओ तटिनी, अस्थिर प्राण
कहाँ तू करती है प्रस्थान?
कंठ में है अविरल कल-कल
अमल जल आँखों में छल-छल
नहीं चल-चल में पल भी कल
चपल-पल-पल चंचल-अंचल
रुदन है या यह तेरा गान?

चरण में तन में कुछ कंपन
निरंतर नुपूर का निक्वण
नयन में व्याकुल-सी चितवन
भ्रमरियों का यह आवर्तन
विवर्तन परिवर्तन, नर्तन
कभी मुख पर नव अवगुंठन
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