मेरा पानी मेरी विरासत योजना जल संरक्षण

जल संरक्षण, Pc-villageera
जल संरक्षण, Pc-villageera

प्राकृतिक जलभृत के रूप में माना जाने वाला भू जल हमारे लिए उपलब्ध सबसे आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों में से एक घरों या सार्वजनिक कार्यालयों में लगभग 33% जलापूर्ति इसी भू जल के माध्यम से होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में 90% आबादी पीने के लिए भू-जल पर निर्भर है क्योंकि कई बार शहर के जल आपूर्ति विभाग या कंपनियां उन्हें पीने के लिए पानी की बुनियादी आवश्यकता प्रदान करने में विफल रहती हैं। वर्ष 2015 में लगभग 48% सिंचाई प्रक्रिया इसी भू-जल के माध्यम से की गई थी और तब से जल स्तर तेजी से घट रहा है। 

भू-जल के ह्रास  के  लिए केवल सिंचाई ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि बढ़ती जनसंख्या भी इसके ह्रास का अन्य प्रमुख कारण है। भू-जल संसाधन की कमी और गिरावट का मुकाबला करने के लिए, इसका प्रबंधन वर्तमान और भविष्य की पीढ़ी के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। 'मेरापानी मेरी विरासत' योजना स्थायी भू-जल संसाधन प्रबंधन के उद्देश्य से हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर द्वारा शुरू की गई है। इस योजना के तहत हरियाणा के डार्क जोन में आच्छादित क्षेत्रों में धान की खेती छोड़कर, धान की जगह अन्य वैकल्पिक फसलों की बुवाई करने वाले किसानों को राज्य सरकार द्वारा 7000 रुपये प्रति एकड़ की प्रोत्साहन राशि प्रदान की जाएगी। इस योजना के तहत, पहले चरण में राज्य के 19 खंडो को शामिल किया गया है, जिसमें भू-जल की गहराई 40 मीटर से अधिक है, इनमें कैथल में सीवान और गुहला, सिरसा, फतेहाबाद में रतिया और कुरुक्षेत्र में शाहाबाद, इस्माइलाबाद, पिपली और बबैन सहित 8 खंडो में अधिक धान की रोपाई हुई है।

इसके अलावा हरियाणा में 'मेरा पानी मेरी विरासत' योजना के तहत ऐसे क्षेत्र भी बनाए गए हैं जहां 50 हॉर्स पावर से अधिक क्षमता के ट्यूबवेल का उपयोग किया जा रहा है। राज्य में धान के स्थान पर मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, तिल, कपास, सब्जी की खेती जैसे अन्य वैकल्पिक निर्णय लिए जा सकते हैं। भू-जल के विवेकपूर्ण उपयोग के बारे में किसानों को जागरूक करने के लिए गांवों में कई प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रम आयोजित किए गए। जहां किसानों को सिंचाई और घरेलू कामों के लिए पानी बचाने की तकनीक के बारे में बताया गया। 'मेरापानी मेरी विरासत योजना' किसानों को वर्षा जल के संरक्षण खेती के लिए वैकल्पिक फसल लेने, सूक्ष्म सिंचाई की और बढ़ने, किसानों को अपने क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता के अनुसार फसल उगाने के लिए प्रोत्साहित करती है और संचयन रणनीतियों को बढ़ावा देती हैं।

कृषि में जलसंरक्षण तकनीक किसी भी वस्तु का संरक्षण करने में सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि उस वस्तु विशेष का उपयोग बहुत ही मितव्यता के साथ आवश्यकता के अनुसार ही करें उपलब्ध उपयोगी जल की 70% मात्रा का प्रयोग कृषि कार्यों एवं खाद्यान्न उत्पादन में किया जाता है। वर्तमान समय तक भी हमारी कृषि पद्धति जल संरक्षण के संपूर्ण उपायों को नहीं उपयोगी बना पायी बल्कि प्रयोग किये गये जल की अधिकांश मात्रा व्यर्थ ही बहा दी जाती है।

वर्तमान समय में अधिक मात्रा में प्रयोग किये जाने वाले उर्वरकों के कारण भी फसलों की जल मांग में बढ़ोत्तरी होती है। मृदा में जैसे-जैसे जैविक अंश की कमी आई है, वैसे-वैसे जल धारण रखने की क्षमता में कमी आ रही है। इस प्रकार की स्थिति में हमें उपयोगी जल का बहुत मितव्ययता के साथ उपयोग करना चाहिए। उन्नत सिंचाई तकनीक में परंपरागत सिंचाई विधियों के उपयोग से प्रति इकाई क्षेत्र में ज्यादा पानी देना पड़ता है।

अतः वर्तमान समय में बहुत आवश्यक है कि सिंचाई की उन्नत विधियों का प्रयोग करें जैसे:

  1.  टपक / बूंद-बूंद / ड्रिप सिंचाई विधि कृत्रिम रूप से किसी पौधों की जड़ों में धीरे-धीरे सिंचाई जल को बूँद-बूँद करके पहुँचाना ड्रिप सिंचाई कहलाता है।
  2.  फव्वारा सिंचाई पद्धति का प्रयोग: इस पद्धति में प्लास्टिक अथवा एल्युमीनियम पाइपों का खेत में जाल बिछाकर ऊँचे-नीचे, रेतीले, पहाड़ी व पथरीली सभी प्रकार की जमीन में सहजता से सिंचाई की जा सकती है।
  3.  घड़ा सिंचाई पद्धति जहाँ पानी की ज्यादा कमी एवं भूमिगत जल लवणीय या क्षारीय प्रकृति के हों तथा क्षेत्र में सतही सिंचाई संभव नहीं हो वहाँ मिट्टी के घड़ों का प्रयोग करके फसल उत्पादन एवं फल उद्यान विकसित किये जा सकते हैं।
  4.  फसलों को आवश्यकतानुसार पानी दें जिन क्षेत्रों में अभी पानी की  थोड़ी बहुत उपलब्धता है उन क्षेत्रों में आज भी फसल की माँग से कई गुना पानी का प्रयोग कर देते हैं जिससे फसल की उपज में भी कमी आ जाती है।
  5. फसल योजना तैयार करना पानी की उपलब्धता के अनुसार फसल योजना तैयार करनी चाहिए पर्याप्त सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने पर मक्का-गेहूँ या बाजरा-गेहूँ फसल चक्र उपयुक्त होता है।
  6. . फसलों एवं किस्मों का चुनाव : पानी की कमी वाले क्षेत्रों में सूखा सहने वाली, कम अवधि में पकने वाली फसलों का चयन किया जाना चाहिए जैसे ज्वार, बाजरा, अरंडी, मोठ, मूंग, तिल, तारामीरा, कुसुम व चंवला आदि।
  7. वर्षा जल का संग्रहण राजस्थान में संपूर्ण वर्षा जल की लगभग 70-80% मात्रा, मात्र 2-7 दिनों में बरस जाती है। कम समय में बरसा अधिक पानी न केवल अपधावन (रनऑफ) के रूप में व्यर्थ जाता है, बल्कि अपने साथ उपजाऊ मिट्टी भी बहा ले जाता है।
  8.  खडीन का निर्माण: वर्षाजल को संग्रहित रखने के लिये ढालू खेतों में ढलान वाले क्षेत्र में वर्षाजल की उपलब्धता के अनुसार जल आगोर (कैचमेंट क्षेत्र) से उन्नत तकनीक द्वारा जल संग्रहण के लिए खडीन में वर्षा के पानी को एकत्रित कर लिया जाता है।
  9. सोख्तागड्डा : सोख्ता गड्ढे का उपयोग भू-जलस्तर को स्थाई रखने हेतु प्रयुक्त किया जाता है।
  10.  टांका इसका उद्देश्य बरसात के पानी को एक पक्के कुंड या हौज में एकत्रित करना होता है, जिसको जरूरत के मुताबिक उपयोग में लिया जा सकता है।
  11. तलाइयों का निर्माण : अधिक ढलान एवं बड़े खेतों के मध्य भाग में भी ढलानकर गड्ढे बनाए जा सकते हैं। 

 

कृषि विज्ञान केंद्र दामला, यमुनानगर चौ. चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार 

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Post By: Shivendra
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