महाराष्ट्र के गढ़-चिरौली का एक गांव मेंढ़ा लेखा जहां के लोगों का कहना है कि अपने गांव में हम स्वयं ही सरकार हैं। और दिल्ली, मुंबई की सरकार हमारी सरकार है। यानि इनके लिए सरकार का मतलब सिर्फ राज्य और देश की राजधानी में बैठे चंद नेता नहीं हैं, बल्कि यहां के लोगों की खुद की एक सरकार है और यहीं असली सरकार राज चलता है। धनोड़ा तहसील में बसे मेंढ़ा गांव में गोंड आदिवासियों के 84 परिवार (2007 तक जनसंख्या 434) हैं। भारत के अन्य गावों की तरह इस गांव की भी अपनी समस्याएं है लेकिन एक मामले में गांव सबसे अलग है। और वो है गांव के विकास से जुड़े मामलों में निर्णय लेने की प्रक्रिया। 1996 से यहां के सारे निर्णय गांव वाले मिल-जुल कर खुद ग्राम सभा (गांव-समाज सभा) में करते हैं। किसी भी निर्णय पर पहुंचने से पहले गांव वाले संबंधित समस्या का गहन अध्ययन करते हैं। इसके लिए बाकायदा एक अध्ययन केंद्र भी बनाया गया है।
मूलत: यह गांव एक वन क्षेत्र है और गांव वालों की निर्भरता भी इन्हीं वन संसाधनों पर है। गांव वालों को 1950 में ही राज्य सरकार से एक अधिकार मिला था जिसे निस्तारण पत्राक कहते हैं और यह राजस्व दस्तावेज के तौर पर पटवारी के रिकार्ड में दर्ज होता था। जिसके मुताबिक वन प्रबंधन का अधिकार गांव वालों के हाथ में आ गया था। बाद में सरकार ने इसे वापस ले लिया। गांव के लोगों ने इसके खिलाफ एक लंबी लड़ाई लड़ी। अंत में लोगों ने वन सुरक्षा समिति बनाकर 16000 हेक्टेयर में फैले वन का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया। साथ ही जंगल से मिलने वाले संसाधनों के बदले एक पैसा भी नहीं देने का फैसला किया। इसके अलावा ग्राम सभा में ये फैसला लिया गया कि कोई भी बाहरी आदमी या सरकारी अधिकारी बिना ग्राम सभा की अनुमति के जंगलों का किसी भी रूप में इस्तेमाल नहीं कर सकता।
गांव वालों को जब लगा कि फल, फूल, पत्तियों या शहद के लिए पेड़ की कटाई अनुचित है तो ग्राम सभा में ये तय किया गया कि यदि कोई पेड़ काटता है तो उस पर 150 रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा। जंगलों में बांस की कटाई रोकने के लिए मेंढ़ा लेखा की ग्राम सभा ने पेपर मिल को अपने क्षेत्र में आने से मना कर दिया। इसके लिए उन्होंने चिपको आंदोलन भी चलाया। गांव में शराब बंदी के लिए आम सहमति बन सके इसलिए एक साल तक इंतजार किया गया। ग्राम सभा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई गई।
इस गांव के गोंड आदिवासियों की एक परंपरा थी। गोतुल जिसमें जवान लड़के-लड़कियां एक जगह मिलते थे। गांव के प्रभावशाली (जो आदिवासी नहीं थे) लोगों ने इस प्रथा को बंद करवा दिया था। लेकिन जब ग्राम सभा को लगा कि यह प्रथा उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था थी, तो उसे फिर से लागू करने का निर्णय लिया गया। इस गांव में एक नेता विपक्ष भी होता है जो ग्राम सभा के हरेक प्रस्ताव का विरोध करता है। लेकिन गांव वाले उस व्यक्ति को दुश्मन नहीं अपना दोस्त समझते हैं क्योंकि यहीं वो आदमी है जो ग्राम सभा के प्रस्तावों में त्रुटियों को पहचानता है और ग्राम सभा को बताता है। इस गांव की ग्राम सभा में निर्णय बहुमत के बजाए पूर्ण सहमति के आधार पर लिया जाता है, चाहे इसके लिए कितना भी इंतजार क्यों न करना पड़े।
/articles/maendhaa-laekhaa-gaanva