मानवाधिकारों को सहेजने का जतन

देश की मौजूदा व्यवस्था में मानवाधिकारों के प्रति असंवेदनशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण ड्रग ट्रायल के मामले में मिलता है। 2005 से लेकर सात साल तक देशभर में हजारों लोगों को इसलिए ‘गिनी पिग’ की तरह इस्तेमाल किया गया, क्योंकि विदेशों में इस तरह के ‘चूहों’ को ‘मौत के लिए राजी करने’ में लाखों डॉलर का खर्च आता है। दूसरी ओर भारत में इस मामले में यह मान पाना असंभव है कि देश की सर्वोच्च नियामक संस्था ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया पर बहुराष्ट्रीय और भारतीय दवा कंपनियों का दबाव नहीं था। मानवाधिकार दिवस पर एक बार पुनः पीछे पलटकर देखने और समझने की आवश्यकता है। साथ ही यह मूल्यांकन किया जाना भी आवश्यक है कि इस मुद्दे पर हमारा देश कहां खड़ा है। बीते साल भारत में मानवाधिकार हनन के 68 हजार से ज्यादा मामले दर्ज हुए, वहीं पड़ोसी पाकिस्तान का आंकड़ा हमसे सात गुना कम है। मानवता और समरसतावादी व्यवस्था की दुहाई देने वाला हमारा देश इंसान के प्रकृति प्रदत्त अधिकारों की सबसे ज्यादा अवहेलना करने वाला देश बनता जा रहा है। यह आज से नहीं, बल्कि कई दशकों से होता आ रहा है। इससे त्रस्त देश की 121 करोड़ आबादी ने आखिरकार अपने बुनियादी अधिकारों के आगे बाकी मानवाधिकारों की एक तरह से तिलांजलि दे दी है। दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक लापरवाही भोपाल गैस त्रासदी को घटे 29 साल गुजर चुके हैं। इन करीब तीन दशकों में इक्का-दुक्का मौकों को छोड़कर शायद ही कभी किसी ने यह देखने की कोशिश की कि इसमें मारे गए उन 20 हजार लोगों के परिजनों और लाखों प्रभावितों के हकों का संरक्षण हो रहा है या नहीं। यूनियन कार्बाइड संयंत्र में पड़े 350 मीट्रिक टन रासायनिक कचरे ने आसपास के भूजल को पीने लायक नहीं छोड़ा। फिर भी उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवहेलना करते हुए 29 कॉलोनियों को टैंकर का पानी पिलाया जा रहा है। गैस प्रभावितों के मुआवजे पर 1989 में हुए अदालती समझौते को भी 24 साल हो गए हैं और इस पर पुनर्विचार के लिए दायर केंद्र सरकार की याचिका पर पिछले तीन साल में एक बार भी सुनवाई न हो पाना, क्या मानवाधिकारों को लेकर न्यायपालिका की बेफिक्री को नहीं दर्शाता?

अगर हम हमारे दूसरे पड़ोसी श्रीलंका में तमिल युद्धबंदियों के खिलाफ राजपक्षे सरकार के कथित अत्याचार के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ के निंदा प्रस्ताव का समर्थन कर सकते हैं तो हमारी अपनी ही सरकारों के उस रवैए का विरोध क्यों नहीं कर पाते, जिसमें वह औपनिवेशक काल के राजद्रोह कानून का इस्तेमाल विरोधियों के दमन के लिए करती है? कुडनकुलम परमाणु बिजलीघर के खिलाफ खड़ा हुआ जनआंदोलन सरकार को देशद्रोह लगता है। वह शांतिपूर्ण तरीके से सुरक्षित पर्यावरण में जीने का हक मांग रहे लोगों पर डंडे बरसाती है। इतना ही नहीं, आखिर में आंदोलन को सख्ती से कुचल दिए जाने के कुछ माह बाद ‘बागियों’ की बस्ती में बम धमाके किए जाते हैं, ताकि वे अपनी जगह छोड़कर चले जाएं। मध्य प्रदेश में इंदिरा सागर बांध से प्रभावित 254 गांवों के लोग यदि बेहतर जीवन के अधिकार की खातिर न्यायसंगत मुआवजा मांगते हैं तो ऐसे में उनकी क्या गलती है? संविधान में सभी को समानतापूर्ण अधिकार का वादा करने वाली सरकार को विस्थापितों की मांग क्यों नागवार लगती है? क्या वह पूंजीवादी विकास के रास्ते में अवाम के प्रजातांत्रिक अधिकारों की, बल्कि उनके मानवाधिकारों की भी बलि चढ़ा चुकी है? अगर ऐसा नहीं तो फिर उसे शांतिपूर्ण विरोध को कुचलने के लिए अलोकतांत्रिक रास्ते क्यों अपनाने पड़ते हैं?

देश की मौजूदा व्यवस्था में मानवाधिकारों के प्रति असंवेदनशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण ड्रग ट्रायल के मामले में मिलता है। 2005 से लेकर सात साल तक देशभर में हजारों लोगों को इसलिए ‘गिनी पिग’ की तरह इस्तेमाल किया गया, क्योंकि विदेशों में इस तरह के ‘चूहों’ को ‘मौत के लिए राजी करने’ में लाखों डॉलर का खर्च आता है। दूसरी ओर भारत में इस मामले में यह मान पाना असंभव है कि देश की सर्वोच्च नियामक संस्था ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) पर बहुराष्ट्रीय और भारतीय दवा कंपनियों का दबाव नहीं था। डीसीजीआई ने सर्वोच्च न्यायालय में दायर रिपोर्ट में कहा है कि बीमार लोगों पर उन रसायनों का परीक्षण किया गया, जिन्हें दुनिया के किसी भी देश में इंसानों पर परीक्षण की अनुमति नहीं मिली थी। साफ है कि पूरे मामले में उन मरीजों के स्वस्थ जीवन जीने के अधिकार को अनदेखा किया गया, जो गरीब होने के कारण इलाज का खर्च नहीं उठा पाते। इतना ही नहीं, अब तो सरकारों के नीतिगत और व्यवस्थागत कदम भी मानवाधिकारों के सीधे उल्लंघन का कारण बन रहे हैं। मध्य प्रदेश के 15 लाख कुपोषित बच्चों को बेहतर स्वास्थ्य का हक दिलाने के लिए पोषाहार बांटने की समूची योजना जब ठेके पर दे दी जाती है, तब भी क्या हमें सरकार से मानवाधिकारों के संरक्षण की उम्मीद करनी चाहिए?

मानवाधिकारों को आदर्श रूप से तब तक लागू नहीं किया जा सकता, जब तक देश में प्रभावशील लोगों को दंड से छूट की परंपरा कायम रहती है। मानवाधिकारों का उल्लंघन उन्हीं परिस्थितियों हो सकता है, जब व्यवस्था या नीति ही इस तरह की बनाई जाए, जिसमें बाहरी लोगों के हस्तक्षेप का रास्ता खुला हो। इंसानी हक का हनन तब भी होता है, जब सरकारें अपने संवैधानिक दायित्वों से मुंह मोड़कर निजीकरण के रास्ते पर चल पड़ती है। निजीकरण के पैरोकारों की यह सोच भी मानवाधिकार विरोधी है कि अगर सरकारें आम जनता की बेहतरी के इंतजाम नहीं कर पा रही हैं तो उसे सेवाओं का निजीकरण कर देना चाहिए। ऐसी दलीलें पेश करते समय हम यह नहीं देख पाते कि एक आम नागरिक को संविधान ने जो अधिकार दिए हैं, निजीकरण से उनकी बहाली की उम्मीद नहीं की जा सकती। विकास के मानकों में से एक मध्य प्रदेश की कुछ मशहूर फोर लेन सड़कों को ही लें, जहां सेवाओं का समूचा मामला निजी हाथों में छोड़ दिया गया है। उन वाहन चालकों के बारे में सोचिए जो कि सड़क पर चलने के अपने मौलिक हक के बदले टोल टैक्स चुकाने के बावजूद कुछ मीटर चलने के बाद गड्ढों में फंसकर झटके खाने पर मजबूर हो जाते हैं।

दरअसल जब विकास की मौजूदा अवधारणा ही दूसरों का हक छीनकर आगे बढ़ने की हो तो वहां मानवाधिकारों के मूल्यानुगत संरक्षण की उम्मीद बेमानी ही होगी। अफसोस की बात यह है कि हमारा समाज बड़ी तेजी से इस अमानवीय, निष्ठुर, असमानतापूर्ण अवधारणा को आत्मसात करता जा रहा है। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाए जाने की जरूरत है, क्योंकि मानवाधिकार हनन के सबसे ज्यादा मामले झेलने वाली पुलिस भी इसी समाज से आती है और नीति-निर्धारक भी। वास्तव में हमारी सबसे पहली प्राथमिकता ऐसी परिस्थिति का निर्माण होनी चाहिए, जहां समाज के हर तबके के लिए बराबरी की जगह हो। मानवाधिकारों के संरक्षण का अगला मोड़ इसी रास्ते से आ सकता है।

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