मैंग्रोव क्षेत्रों की सुरक्षा हेतु पारिस्थितिकीय सिद्धान्तों पर आधारित प्रबन्धन योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाना चाहिये। मैंग्रोव वनों से सटे क्षेत्रों में पर्यावरण-विकास के लिये व्यवहारिक योजनाएं बनानी होंगी। मैंग्रोव संरक्षण हेतु लीक से हटकर कुछ प्रयास किये जाने चाहिए।
मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र का पुनरुद्धार
किसी पारिस्थितिकी तंत्र को वापस उनकी मूल (पुरानी) दशा में लाने की क्रिया को पुनरुद्धार (Restoration) कहते हैं। इसको पुनः स्थापना या पुनरुज्जीवित करना भी कहते हैं। वर्तमान में पर्यावरणविदों की कार्यसूची में मैंग्रोव वनों का पुनरुद्धार सबसे ऊपर है।
मैंग्रोव संरक्षण, विशेष रूप से मैंग्रोव पुनरुद्धार के लिए मानव सहायता प्राप्त कर पुनःस्थापना और निर्धारित समय अवधि की प्रबन्धन योजना को अपनाया जाना चाहिए। सौभाग्यवश, मैंग्रोव में पुनरुज्जीवन की प्राकृतिक क्षमता पायी जाती है। इसलिए पर्याप्त संरक्षण मिलने पर उजड़े हुए मैंग्रोव क्षेत्र पुनः जीवित हो सकते हैं। परन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रकृति की पुनरुज्जीवन की क्षमता की भी सीमा है और मैंग्रोव वनों का, उस सीमा से अधिक विनाश होने पर पुनरुज्जीवन सम्भव नहीं है।
मैंग्रोव पुनरुद्धार के मुख्य उद्देश्य निम्नांकित हैं :
(i) समृद्ध जैव विविधता का संरक्षण।
(ii) मत्स्य तथा वन संसाधनों का उपयोग आदि।
(iii) ज्वारीय तरंगों तथा चक्रवातों के विनाशकारी परिणामों से तटीय क्षेत्रों की रक्षा।
मैंग्रोव क्षेत्रों का पुनरुज्जीवन दो प्रकार से सम्भव है, पहला प्राकृतिक पुनरुज्जीवन तथा दूसरा कृत्रिम पुनरुज्जीवन।
प्राकृतिक पुनरुज्जीवन
इस प्रक्रिया में मैंग्रोव पौधों के ‘बीज’ प्राकृतिक रूप से स्थापित होकर नये पौधों को जन्म देते हैं। इस प्रक्रिया का यह लाभ है कि इससे पैदा होने वाले मैंग्रोव क्षेत्र मूल वन क्षेत्र के समान होते हैं। यह तरीका सस्ता और प्राकृतिक आवास के लिए कम विनाशकारी है। यह तरीका उन स्थानों पर सफल नहीं है, जहां खरपतवार या कूडा-करकट अधिक है या जहां पर मिट्टी उपजाऊ नहीं है।
कृत्रिम पुनरुज्जीवन
इस प्रक्रिया में बीजों या पौधों का रोपण किया जाता है। पौधशालाओं में बीजों को अंकुरित कर बनाये गये छोटे पौधों को नये क्षेत्रों में लगाया जा सकता है। इसमें बहुत श्रम की आवश्यकता होती है। क्षेत्र में वनस्पतिक प्रवर्धन को भी पुनःस्थापित किया जा सकता है। यह एक महंगी और जटिल प्रक्रिया है। लेकिन इसके अपने लाभ भी हैं। इस प्रकार पुनरुज्जीवित किये जाने वाले मैंग्रोव क्षेत्रों में पौधों की प्रजातियों के प्रकार तथा उनके वितरण तथा उनके घनत्व को सीधे नियंत्रित किया जा सकता है। आनुवंशिक रूप से उन्नत पौधे भी विकसित किये जा सकते हैं। उजड़े हुए मैंग्रोव क्षेत्रों का पुनरुद्धार किया जा सकता है और संरक्षण तथा टिकाऊ पैदावार जैसे उद्देशयों की पूर्ति मानव के लाभ के लिए की जा सकती है।
पुनरुद्धार के मापक
मैंग्रोव क्षेत्र के लिए पौधों की प्रजातियों का चयन, स्थान का चयन, पौधारोपण तथा निगरानी महत्वपूर्ण है।
प्रजातियों का चयन
जैव विविधता के संरक्षण के लिए मूल प्रजातियों की सुरक्षा तथा नयी प्रजातियों का समागम आवश्यक है। नयी प्रजातियां, मूल प्रजातियों के अनुकूल होनी चाहिए जिससे वन पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता में वृद्धि हो। अधिकतर मैंग्रोव प्रजातियों का चयन, उस क्षेत्र में पायी जाने वाली मूल प्रजातियों से किया जाता है। चयन की प्रक्रिया कभी-कभी रोपित की जाने वाली सामग्री (ऊतक सवंर्धन) की उपलब्धता तथा परिपक्वता पर भी निर्भर करती है। प्रजातियों का चयन अक्सर पौधारोपण की लागत को ध्यान में रख कर किया जाता है। पौधों या बीजों को एकत्र कर सीधे रोपित कर देने से भंडारण की आवश्यकता नहीं रहती, परन्तु जब रोपित की जाने वाली सामग्री को दूर से मंगाना हो तो पौधों की जीवन क्षमता को बनाये रखने के लिए उचित भंडारण आवश्यक है। कुछ प्रजातियों जैसे - एविसेनिया, जाइलो कॉर्पस तथा सोनेरेटिया के पौधे, पौधशाला में तैयार किये जाते हैं
मैंग्रोव प्रजातियों की अनुक्षेत्र अभिरुचि | |
ज्वारीय क्षेत्र | वरीय प्रजातियां |
उच्च और मध्य स्तरीय जल | एविसेनिया मेरीना, ब्रूगेरिया सायलिंड्रिका, ब्रूजिम्नोरहिजा, ब्रू. पेरविफ्लोरा, ब्रू. सेक्सेंगुला, सेरिओपा डिसेंड्रा, से. टगल, ऐक्सेरिया, ऐजेलोका, सिफिफोरा जाइलोकार्पस ग्रांट्रम एवं जा. मेकोंगिंसिस |
मध्य और निम्न स्तरीय जल | राइजोफोरा प्रजाति, सोनेरेशिया एल्बा और ऐजिसिरस नाइपा, उच्च स्तरीय जल फ्रुटसियन एवं ल्यूमिनिटेजरा |
तथा बाद में नयी जगह रोपित किये जाते हैं। इससे पौधारोपण की लागत बढ जाती है। उद्भिद्-बीज-धारी (विविपैरस) पौधे सीधे रोपित किये जा सकते हैं, इससे पौधारोपण की लागत कम हो जाती है। सामान्यताः छोटे पौधे छाया में लगाये जाते हैं जबकि बड़े वृक्ष सूर्य के प्रकाश में अच्छी वृद्धि करते हैं।
विभिन्न स्थानों पर मैंग्रोव प्रजातियों की अनुकूलता | |
मैंग्रोव प्रजातियां | अनुकूलता या वरीयत स्थान |
एविसेनिया मारीना | अपेक्षाकृत शुष्क ज्वारीय भूमि, नदी मुहाने या उच्च लवणीय समतल, बंजर क्षेत्र |
ब्रूगेरिया जिम्नोरहिजा | मीठे जल की वृहद आपूर्ति |
सेरिओरस टगल | उच्च लवणीय क्षेत्र |
नाइपा फ्रुटसियन | यह क्षेत्र निम्न स्तरीय ज्वारी वाली घासों से ढका रहता है, निम्न लवणता |
राइजोफारा अेपिक्यूलेटा | कीचड़ युक्त क्षेत्र नदीमुख एवं कीचड़ समतल वाला |
राइजोफारा मुक्रोनेटा | कीचड़ युक्त क्षेत्र नदीमुख एवं कीचड़ समतल वाला |
राइजोफारा स्टयलोसा | सागर के समीप, यह निम्न ज्वारीय आयाम में उगता है |
सोनेरेशिया एल्बा | सागर के समीप, उच्च लवणीय क्षेत्र |
जाइलोकापर्स ग्रांट्रम | निम्न ज्वारीय क्षेत्र |
स्थान का चयन
चयनित स्थान ही निर्धारित करता है कि कौन सी प्रजाति वहां पनपेगी। सभी प्रजातियों के शारीरिक अनुकूलन समान नहीं होते हैं। उदाहरणतः हर प्रजाति की ऑक्सीजन की कमी के दबाव को झेलने की क्षमता भिन्न-भिन्न हैं।
वृक्षारोपण के उद्देश्य से प्रजातियों का चुनाव | |
वृक्षारोपण का उद्देश्य | प्रत्याशी प्रजातियां |
प्राकृतिक पुनरुज्जीवन | ऐविसिनिया मेरिना, ऐ. ओफिशिंलिस, ऐजिसिरसर कोर्निक्यूलेटम, एक्सोरिया एगलोसा, एकेन्थस इलसिकोलिस |
ज्वारीय जल, क्षरण एवं चक्रवातों से तटीय सुरक्षा के लिए | राइजोफोरा एपिक्यूलेटा, रा. मुक्रोनेटा, सोनेरेशिय एल्बा, ऐविसिनिया मेरीना, ऐ. ऑफिसिनेलिस, हेरिटियेरा, फॉमस्, कैन्डेलिया केंडेल |
मुहानों एवं नदीमुखों की सुरक्षा के लिए | ऐविसिनिया मेरिना, ऐ. एल्बा, ऐ. ऑफिसिनेलिस, ब्रूगेरिया सिलिंड्रका, राइजोफोरा ऐपिक्यूलेटा, रामुक्रोनेटा, रा.स्ट्रइलोसा, सोनेरिशया, कैसेओलारिस, से. एल्बा, कैन्डेलिया केंडेल, एकेन्कथ लिसिफोलियस |
सागर एवं जलकृषि क्षेत्रों के लिए बांध की सुरक्षा के लिए | ऐविसिनिया मेरिना, ऐ. एल्बा, ऐ. ऑफिसिनेलिस, सेरिओरस टगल, राइजोफोरा ऐपिक्यूलेटा, रा. स्ट्रइलोबा, सोनेरिशया, कैसेओलारिस, ब्रूगेरिया जिम्नोरिजा, एक्सोकेरिया एगेलोचा |
बंजर तटों पर हरियाली के लिए | ऐविसिनिया ऑफिसिनेल, सेरिओप्स टगल |
खनन क्षेत्रों के पुनरुज्जीवन के लिए | राइजोफोरा एसपीपी |
नवीन कीचड़समतल के प्रवेश के लिए | राइजोफोरा मुक्रोनेटा, रा. एपिक्यूलेटा, ऐविसिनिया मेरीना, ऐ. ऑफिसिनेलिस, ऐजिसिरस कोर्नक्यूलेटम |
इमारती लकड़ी, काठकोयला और जलावन लकड़ी आदि वन उत्पादों के लिए | सोनेरिशया एल्बा, से. एप्टेला, ऐविसेनिया मेरीना, ऐ. ऑफिसिनेल, राइजोफोरा एपिक्यूलेटा, रा. मुक्रोनेटा, केरिओप्स टगल, ब्रूगेरिया जिम्नोरिजा, कैन्डेलिय कैंडेल, हेरिरियेटा फॉर्मस्, जाइलोकार्पस ग्रांट्रम |
मत्स्य संसाधनों की वृद्धि के लिए | ऐविसिनिया प्रजाति, ब्रूगेरिया प्रजाति |
सामान्यतः ऑक्सीजन की कमी वाली भूमि के लिए ऐविसेनिया प्रजाति, राइजोफोरा की अपेक्षा अधिक उपयुक्त है।
मैंग्रोव क्षेत्र के पुनरुज्जीवन के लिए प्रजातियों का अनुक्षेत्र वर्गीकरण महत्वपूर्ण है।
ज्वार के समय, मध्यम जल स्तर से निम्न जल स्तर तक के क्षेत्र में राइजोफोरा प्रजाति के पौधे अच्छे पनपते हैं जबकि ऐविसेनिया प्रजाति के पौधे मध्यम जल स्तर वाले स्थानों पर (निम्न जल स्तर पर नहीं) अच्छे पनपते हैं। मृदा में पोषक तत्वों की उपलब्धता एक महत्वपूर्ण पैमाना है परन्तु सिर्फ यही अपने में पूर्ण नहीं है क्योंकि मृदा में पोषक तत्वों की मात्रा में ऋतु आदि के अनुसार काफी अधिक बदलाव आता है। ऐविसेनिया प्रजाति के पौधों के वातरंध्र (जड़ो में मौजूद वह छिद्र जिनके द्वारा हवा अंदर आती है) यदि स्वस्थ हैं तो वे अधिक कार्बनिक पदार्थ वाली मिट्टी में भली-भांति पनपते हैं। जबकि राइजोफोरा प्रजाति के पौधे उस गहरी दलदली मिट्टी में ज्यादा अच्छे पनपते हैं जिसमें हाइड्रोजन सल्फाइड गैस की मात्रा अधिक होती है। सामान्यतः मैंग्रोव रेतीली या चूनामय मिट्टी की अपेक्षा मुलायम चिकनी, दलदली भूमि को प्राथमिकता देते हैं।
प्रजातियों की जटिलता
वृक्षारोपण के लिये ऐविसेनिया तथा सोनेरेटिया प्रजातियां अधिक पसन्द की जाती हैं क्योंकि ये तीव्र गति से वृद्धि करते हैं। ऐविसेनिया मेरीना की प्रतिरोधक क्षमता, गर्म तथा शुष्क जलवायु तथा सूर्य की तीव्र किरणों के प्रति अधिक है तथा यह प्रजाति शुष्क क्षेत्रों के लिए अच्छी है। कुछ प्रजातियां जैसे लुम्नित्जेरा रेसिमोसा, लु. लिट्टोरिया, जाइलोकार्पस गे्रनेटम, सिरियोपस टेगल, आदि भी शुष्क जलवायु में अच्छी पनपती हैं। परन्तु नाइपा फ्रूटिकान्स, हेरिटियेरा फोमिस तथा साइनोमेट्रा इरिपा आदि प्रजातियां गर्म तथा शुष्क क्षेत्रों के लिए अनुकूल नहीं है। ऐकेन्थस इलिसीफोलियस, बफ्रगेरिया जिम्नोराइजा, ब्रु. सिलिन्ड्रिकल तथा सिरियोपस डिकेन्ड्रा आदि प्रजातियां छायादार स्थानों के लिए अनुकूलित हैं। पहले से विद्यमान वृक्षों के बीच में उचित प्रजाति के पौधों के पौधारोपण से कीटों की समस्या पर काबू पाया जा सकता है। भू-आकृतिक परिवर्तनों को रोका जा सकता है तथा प्रजातियों के अनुक्रम को बनाया जा सकता है।
प्रजातियों का चयन करते समय उनके अनुकूलन का भी ध्यान रखना चाहिए। उदाहरणतः ऐविसेनिया तथा ऐजिसेरस प्रजातियां नमक उत्सर्जक प्रजातियां है जबकि जाइलोकार्पस नमक संचायक प्रजाति है।
तटीय सुरक्षा
भारत, चीन, वियतनाम तथा बांग्लादेश में सोनेरेटिया ऐपिटाला, ऐविसेनिया ऑफिनेलिस, तथा राइजोफोरा प्रजातियों के प्रवेश से तटों की सुरक्षा को बहुत लाभ मिला है। यद्यपि बहुत बड़े स्तर पर पुनः पौधारोपण कार्यक्रम के लिए उपयुक्त प्रजाति का चयन करने के संबंध में योजनाबद्ध कार्य अभी नहीं हुआ है। राइजोफोरा प्रजाति के पौधे हवा के तीव्र प्रवाह को झेलने में सक्षम हैं। यह पाया था कि राइजोफोरा मंगल पौधों को एण्ड्रयु नामक चक्रवात से कोई विशेष हानि नहीं हुई थी जबकि लैगनकुलेरिया रेसिमोसा के बडे़ वृक्षों को बहुत अधिक क्षति हुई थी।
मैंग्रोव संरक्षण के अतिरिक्त लाभ
मैंग्रोव पारिस्थितिकी में अनॉक्सिता (ऐनोक्सिया) कभी-कभी मेथेन गैस के उच्च स्तर से सम्बद्ध होती है। वे प्रजातियां जिनमें वातरंध या श्वसन मूल होते हैं उन प्रजातियों की अपेक्षा अधिक मेथेन गैस का उत्सर्जन करती है जिनमें श्वसन जड़ें नहीं होती है। इसलिए वातरंध वाली प्रजातियां अधिक मिथेन की मात्रा का मुकाबला करने के लिए अपेक्षाकृत अधिक अनुकूलित होती हैं। राइजोफोरा प्रजाति, वातावरण में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का मुकाबला अच्छी तरह कर सकती है। अतः पर्यावरण के वैश्विक परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए राइजोफोरा के पौधों का रोपण लाभप्रद हो सकता है। कुछ प्रजातियों जैसे राइजोफोरा की धातु-प्रदूषण से मुकाबला करने की क्षमता का अध्ययन किया जा रहा है।
ऐविसेनिया प्रजाति का पौधा कार्बनिक प्रदूषण के प्रति अधिक सहनशील है। इन्डोनेशिया में जलकृषि या मत्स्यपालन (एक्वाकल्चर) के लिए उपयोग किए गए तालाबों में वर्षा ऋतु में खारेपन तथा पीएच को नियंत्रित करने के लिए ऐविसेनिया तथा एकेन्थस इलिसीफोरस पौधों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया है।
मैंग्रोव पौधशालाओं का प्रबंधन
वृहद् स्तर पर मैंग्रोव पौधों के रोपण के लिए पौधशाला का विकास किया जाता है। छोटे पौधों को तैयार करने हेतु पौधशाला ऐसे स्थान पर होनी चाहिए, जहां पर वर्ष भर ताजा पानी उपलब्ध हो। आवश्यकता होने पर बीजों का पूर्वोपचार किया जाना चाहिए। ऐविसेनिया प्रजाति के फल एक सप्ताह तक प्रतिदिन ज्वारीय पानी के सम्पर्क में आने के बाद ही बुवाई के लिए तैयार होते हैं। जबकि सोनेरेटिया ऐपरटला के फलों को पांच दिनों तक प्रतिदिन 12 घंटे खारे पानी में भिगोकर 12 घण्टे धूप में सुखाया जाता है। उसके बाद फल को खारे पानी से धोया जाता है और अपघटित हो रहे फल से बीज निकाला जाता है।
प्रारम्भिक दिनों में छोटे पौधे को छाया की आवश्यकता हो सकती है। यद्यपि छोटे पौधे के ‘कठोरीकरण’ के लिए पौधारोपण से एक माह पूर्व छाया हटा दी जाती है। अन्तर ज्वारीय क्षेत्र के ऊंचाई वाले भाग में स्थित होने के कारण मैंग्रोव पौधशालाओं में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। लघु ज्वार क्षेत्र में आने वाले पौधों में दिन में एक बार पानी देने की आवश्यकता होती है। अन्तर ज्वारीय क्षेत्र से दूर स्थित पौधशाला में दिन में दो बार पानी देने की आवश्यकता होती है।
छोटे पौधों तथा पत्तियों का कीटों द्वारा होने वाले नुकसान के लिए निरीक्षण किया जाना चाहिए। केंकड़ों, इल्लियों तथा कीटों से छोटे पौधों की रक्षा की जानी चाहिए।
पौधारोपण का प्रकार
मैंग्रोव वृक्षों का पौधारोपण निम्नांकित दो प्रकार से किया जाता हैः
(i) बीज अथवा प्रावर्ध्य (मातृ वृक्ष पर ही बीज से तैयार पौधा) को सीधे ही दलदली क्षेत्रों में रोपित किया जाता है।
(ii) बीजों से पौधशाला में तैयार पौधों को रोपित किया जाता है।
उन क्षेत्रों में जहां कीट-प्रकोप अधिक होता है, पौधशाला में तैयार अपेक्षाकृत बडे़ पौधों के रोपण की सलाह दी जाती है। पौधारोपण के समय मैंग्रोव वनस्पति के प्राकृतिक अनुक्षेत्र वर्गीकरण का भी ध्यान रखना चाहिये। उदाहरणः के लिए लम्बे प्रावर्ध्य उच्च ज्वारीय क्षेत्र में स्थापित होते हैं जबकि वे प्रावर्ध्य जिनकी लम्बाई अपेक्षाकृत कम होती है, अन्तर ज्वारीय क्षेत्र के भूमि की ओर वाले भाग में स्थापित होते हैं। पौधारोपण का आदर्श समय वह है जब जलस्तर कम हो। अधिक लम्बे प्रावर्ध्य को रोपित करते समय उसकी गहराई बढ़ायी जा सकती है। पौधारोपण के समय प्रावर्ध्य का नुकीला सिरा मिट्टी के अन्दर होना चाहिये। छोटे आकार के बीज मिट्टी में धीरे से रख दिये जाते हैं। पौधों के बीच की दूरी सामान्यतः 1.5 से 2 मीटर के बीच रखी जाती है। पौधों के बीच सही दूरी बनाये रखने के लिए एक लम्बी सीधी रस्सी का प्रयोग किया जाता है।
पौधारोपण का समय या पौधारोपण का मौसम रोपित की जाने वाली प्रजाति, पौधों की उपलब्धता, पानी के खारेपन का अनुकूल स्तर आदि कारकों द्वारा निर्धारित होता है। पानी की लवणीयता अधिक होने पर या तीव्र वायु गति के कारण लहरों का वेग तीव्र होने पर पौधों रोपण की सलाह नही दी जाती है। मानसून के बाद का समय जब पानी की लवणीयता मध्यम स्तर पर होती है, पौधारोपण के लिये उपयुक्त रहता है। नव रोपित पौधों की उचित देखरेख होनी चाहिये और क्षतिग्रस्त या मृत पौधों को तुरन्त हटा कर उनके स्थान पर नये पौधे लगाने चाहिये। यद्यपि मैंग्रोव क्षेत्रों का पुनरूद्धार एक अच्छा कार्य है परन्तु वर्तमान में विद्यमान मैंग्रोव क्षेत्रों का संरक्षण उनके पुनरुद्धार से कहीं अधिक अच्छा है। मैंग्रोव वनों के संरक्षण के लिये मानव की उन पर निर्भरता को कम करना होगा। स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर प्रतिरोधक (बफर) क्षेत्र में ईंधन की लकड़ी देने वाले पौधांे की विकसित प्रजातियों का वृहद स्तर पर रोपण किया जाना चाहिये।
संयुक्त वन प्रबंधन
मैंग्रोव क्षेत्रों के संरक्षण तथा प्रबन्धन के कार्यक्रम में स्थानीय लोगों को सम्मिलित किया जाना आवश्यक है। इसके लिये उन्हीं लोगों को निर्णय की अनुमति देना चाहिये, क्योंकि वे ही इन वनों की वर्तमान दशा तथा इनके भविष्य के लिये जिम्मेदार हैं। संरक्षण तथा प्रबन्धन में स्थानीय लोगों की भागीदारी को संयुक्त वन प्रबन्धन या सह-प्रबन्धन कहा जाता है। संक्षेप में, इस प्रकार के प्रबन्धन में सरकार, वन संसाधनों का उपयोग करने वाले स्थानीय लोगों, बाहरी संस्थानों (गैर सरकारी संगठन या शिक्षण संस्थाएं) तथा अन्य सम्बन्धित व्यक्तियों (मत्स्य व्यापारियों तथा पर्यटन संस्थाओं) को जिम्मेदारी तथा प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन के निर्णय लेने में भागीदार बनाया जाता है।
सम्बन्धित व्यक्तियों की पहचान
संरक्षण के प्रयास के लिये इन क्षेत्रों से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सम्बन्धित व्यक्तियों की सही ढंग से पहचान किया जाना आवश्यक है। इन वनों से सम्बद्ध लोग निम्नलिखित हो सकते हैं।
(i) स्थानीय उपभोक्ता समुदाय : इस समुदाय के लोग मैंगरोव वन क्षेत्रों में या उनके आसपास रहते हैं तथा मछली, लकड़ी, पत्तियों तथा डालियों जैसे संसाधनों का सीधे उपयोग करते है।
(ii) स्थानीय समुदाय : इस समुदाय के लोग मैंग्रोव वन के संसाधनों का उपयागे नहीं करते, लेकिन चक्रवात आदि से सुरक्षा के लिये वन क्षेत्र में निवास करते हैं।
(iii) दूरूरस्थ उपभोक्ता समुदाय : इस समुदाय के लागे दरू -दराज क्षेत्रों से आते हैं और मैंग्रोव क्षेत्रों का उपयोग झींगा और मत्स्य उत्पादन के लिये करते हैं।
(iv) सरकारी संस्थाएं : इन पर मैंग्रोव वे क्षेत्रों के संरक्षण तथा प्रबंधन की जिम्मेदारी है।
(v) मैंग्रोव उपभोक्ता समुदाय के पक्षधरः गैर सरकारी संस्थाएं तथा अन्य स्वयंसेवी संस्थायें।
(vi) शोध एवं शिक्षण संस्थाएं : ये मैंग्रोव क्षेत्रों की दशा का आकलन करते हैं।
वास्तविक भागीदारी में, प्रबन्धन तथा संरक्षण सम्बन्धी निर्णय लेने में सभी सम्बद्ध व्यक्तियों की सक्रिय भूमिका होती है। वे मैंग्रोव संसाधनों के प्रबन्धन की योजनाएं बनाने, उनके क्रियान्वयन तथा निरीक्षण से सीधे जुडे़ होते हैं। स्थानीय लोगों को मैंग्रोव वनों के आर्थिक तथा पर्यावरण सम्बन्धी महत्व के बारे में शिक्षित करना उनके (वनों के) संरक्षण की दिशा में एक सार्थक कदम हो सकता है। संसाधनों के बेहतर प्रबन्धन से स्थानीय लोग अपने घरेलू उपयोग के लिये ईंधन की लकड़ी इस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं जिससे वनों को कोई हानि न हो।
वैश्विक (अंतर्राष्ट्रीय) संस्थाओं की भूमिका
अनेक संस्थाएं जैसे संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को), मैंग्रोव पारिस्थितिकी के लिये अंतर्राष्ट्रीय समिति (आई.एस.एम.ई.), अंतर्राष्ट्रीय उष्णकटिबन्धीय इमारती लकड़ी संगठन (आई.टी.टी.ओ.), ए.डी.बी., सी.आई.डी.ए., डी.ए.एन.सी.ई.डी., ई.यू., एफ.ए.ओ., आई.यू.सी.एन., आई.यू.एफ.आर.ओ., जे.आईसी.ए., रामसर कन्वेंशन, यू.एन.डी.पी., यू.एन.ई.पी., यू.एस.ए.आई.डी. तथा वेटलैण्ड इन्टरनेशनल आदि ने मैंग्रोव क्षेत्रों के संरक्षण तथा प्रबन्धन के कार्यक्रमों को प्रमाणित किया है। इन कार्यक्रमों के कार्यक्षेत्र में निम्नलिखित बिन्दु आते हैं।
• प्रशिक्षण तथा सामथ्र्य बढ़ाना
• सर्वेक्षण तथा सूचीबद्ध करना
• डाटाबेस विकसित करना
• पर्यावरण तथा पर्यटन की वस्तुस्थिति अध्ययन (केस स्टडी)
• मैंग्रोव क्षेत्रों में पौधशाला निर्माण तथा वृक्षारोपण
• मैंग्रोव भ्रमण मार्गों का निर्माण
• सुरक्षित क्षेत्रों की स्थापना
• रेलमार्गों तथा बन्दरगाहों की पुर्नसंरचना
• मैंग्रोव वनों में मधुमक्खी पालन
• मैंग्रोव पर पुस्तिका तथा वैश्विक मानचित्रावली का प्रकाशन
रामसर सम्मेलन
इस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आरम्भ सन् 1971 में रामसर (ईरान) में अंतर्राष्ट्रीय महत्व की नमभूमि (वेटलैण्ड) की सुरक्षा के लिये किया गया था। इस सम्मेलन के हस्ताक्षर कर्ता देशों ने लगभग 830 रामसर स्थलों का निर्धारण किया है। इनमें से एक तिहाई स्थान मैंग्रोव वन क्षेत्र हैं। इस सभा के सदस्य देशों ने 150 लाख हेक्टेयर से अधिक मैंग्रोव नमभूमि के संरक्षण तथा उनके विवेकपूर्ण उपयोग पर सहमति व्यक्त की है। इन स्थानों में बांग्लादेश में सुन्दरवन (जो विश्व के सबसे बड़े मैंग्रोव क्षेत्रों में एक है) इक्वाडोर में 35,042 हेक्टेयर तथा सुरीनाम में 12,000 हैक्टेयर क्षेत्र मुख्य हैं।
मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्रों के लिये अंतर्राष्ट्रीय समिति (आई. एस.एम.ई)
यह सन् 1990 में ओकीनावा (जापान) में प्रारम्भ हुई एक गैर सरकारी संस्था है। इसके उद्देश्य निम्नांकित हैं -
(i) मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण तथा पुनरुद्धार के लिये किये जाने वाले कार्यों को सहायता देना तथा प्रोत्साहित करना।
(ii) वैश्विक मैंग्रोव डाटाबेस तथा सूचना तंत्र (जी.एल.ओ.एम.आई.एस.) द्वारा आवश्यक सूचनाएं उपलब्ध कराना।
(iii) मैंग्रोव सम्बन्धित क्रियाकलापों के लिए धन एकत्र करना।
सन् 1991 में आई.एस.एम.ई. ने एक ”मैंग्रोव पर एक घोषणापत्र“ को अपनाया। इस संस्था के 70 देशों में 700 सदस्य हैं। यह संस्था जैव विविधता कार्यक्रम में स्वयं सेवकों का योगदान, मैंग्रोव वृक्षारोपण कार्यक्रमों का निरीक्षण तथा मूल्यांकन, तट रोधक (रक्षक) के रूप में मैंग्रोव का मूल्यांकन तथा मैंग्रोव एवं अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिये निपुण प्रबन्धकों का स्थानान्तरण आदि कार्यक्रमों में सम्मिलित है। इस संस्था की जी.एल.ओ.एम.आई.एस. परियोजना के चार क्षेत्रीय केन्द्र ब्राजील, घाना, फिजी तथा भारत में स्थित हैं। इस परियोजना में विशेष रूप से वैज्ञानिकों, सरकारों तथा संरक्षण और प्रबन्धन से जुडे़ व्यक्तियों के बीच सामंजस्य तथा सूचनाओं के आदान-प्रदान पर विशेष बल दिया गया है।
वेटलैण्ड इन्टरनेशनल
इस संस्था की स्थापना 1995 में हुई तथा वर्तमान में 47 देश इसके सदस्य हैं। इसका मुख्य उद्देश्य मैंग्रोव वनों से सम्बद्ध जलकुक्कुट या मुर्गाबी का संरक्षण करना है।
मैंग्रोव एक्शन प्लान
इस संस्था की स्थापना संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने सन् 1992 में 50 देशों के 300 गैर सरकारी संगठनों, 200 वैज्ञानिकों तथा शिक्षावेत्ताओं को जोड़ कर की गयी थी।
मैंग्रोव एक्शन प्लान के अंतर्गत भारतीय मैंग्रोव | ||
क्रमांक | संरक्षण प्राप्त मैंग्रोव क्षेत्र | राज्य |
1 | सुंदरवन | पश्चिम बंगाल |
2 | भितरकनिक | उड़ीसा |
3 | महानदी | उड़ीसा |
4 | सुवर्णरेखा | उड़ीसा |
5 | देवी | उड़ीसा |
6 | धामरा | उड़ीसा |
7 | कालीभंजा डीए द्वीपसमूह | उड़ीसा |
8 | कोरिन्गा | आंध्र प्रदेश |
9 | पूर्व गोदावरी | आंध्र प्रदेश |
10 | कृष्णा | आंध्र प्रदेश |
11 | पिचवरम | तमिलनाडु |
12 | केजुहुवेली | तमिलनाडु |
13 | मुथुपेट | तमिलनाडु |
14 | रामानाड | तमिलनाडु |
15 | अचरा-रत्नागिरी | महाराष्ट्र |
16 | देवगढ़ | महाराष्ट्र |
17 | विजयदुर्ग | महाराष्ट्र |
18 | मुम्ब्रा-दीवा | महाराष्ट्र |
19 | वितीरलर नदी | महाराष्ट्र |
20 | कुण्डलिका-रवदाना | महाराष्ट्र |
21 | वसासी-मनोरी | महाराष्ट्र |
22 | श्रीवर्धन-वेरल-टुरुमबादी और कालसुरी | महाराष्ट्र |
23 | चारो | गोवा |
24 | उत्तरी अंडमान | अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह |
25 | दक्षिणी अंडमान | अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह |
26 | खम्भात की खाड़ी | गुजरात |
27 | कच्छ की खाड़ी | गुजरात |
28 | कून्डापुर | कर्नाटक |
29 | होनावर क्षेत्र | कर्नाटक |
इस संस्था का उद्देश्य विश्व भर में मैंग्रोव पारिस्थितिकी को हुए नुकसान को प्रतिवर्तित करना तथा स्थानीय उपभोक्ताओं द्वारा संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग को प्रोत्साहित करना है।
कैरेबियन मैंग्रोव नेटवर्क
इस संस्था की स्थापना सन् 1996 में मैंग्रोव वनों के 25 विशेषज्ञों के साथ हुई तथा इसका उद्देश्य संस्थाओं तथा साधन सम्पन्न व्यक्तियों को जोड़कर तथा योग्य व्यक्तियों को जमा करके कैरेबियाई क्षेत्र में मैंग्रोव वनों का संरक्षण तथा टिकाऊ धारणीय प्रबन्धन करना है। यह संस्था शोध परिणामों एवं अच्छी प्रबन्धन योजनाओं के प्रचार तथा उपलब्ध सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिये एक मंच का संचालन भी करती है।
भारतीय प्रयास-भारतीय मैंग्रोव समिति (मैंग्रोव सोसाइटी ऑफ इण्डिया)
इसका मुख्यालय राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, गोवा में है। इसका उद्देश्य मैंग्रोव वनों की सुरक्षा के लिये समाज के विभिन्न स्तरों पर जागृति पैदा करना है। इस संस्था द्वारा ‘मंगल-वन’ के नाम से एक सूचना पत्र भी प्रकाशित किया जाता है।
एम.एस. स्वामीनाथन शोध संस्थान, चेन्नई
इस संस्थान ने राज्य सरकार के वन विभाग के सहयोग से तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश तथा उड़ीसा में स्थानीय समुदाय की भागीदारी से मैंग्रोव वनों के प्रबन्धन में सफलता प्राप्त की है। इस संस्थान में सर्वप्रथम यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था कि मैंग्रोव पौधों के जीन तथा रिकॉम्बिनेन्ट डीएनए तकनीक का प्रयोग कर पौधों की ऐसी प्रजातियां विकसित की जा सकती हैं जो खारे पानी के लिये अनुकूल हों।
मैंग्रोव क्षेत्रों के संरक्षण में इस संस्थान का योगदान सूचना, प्रसार तथा शोध से निम्नांकित प्रकार से संबंधित रहा है।
(i) एक मैंग्रोव पारिस्थितिकी सूचना सेवा का आरम्भ।
(ii) राज्य सरकारों तथा मैंग्रोव आश्रित समुदायों के सक्रिय योगदान से मैंग्रोव क्षेत्रों के पुनरुद्धार की सफल तकनीक देना।
(iii) मैंग्रोव के जैव प्रौद्योगिकीय पक्षों-जैसे जीन का नक्शा और उसमें परिवर्तन एवं जैव जांच तथा सूक्ष्मसंचरण का अध्ययन करना ।
मंत्रालय द्वारा चिन्हित मैंग्रोव क्षेत्रों की प्रदेशवार सूची | |
प्रदेश/केन्द्र शासित प्रदेश मैंग्रोव क्षेत्र | |
पश्चमि बंगाल सुंदरवन | दक्षिण कन्नड़/होनवार मैंगलोर वन क्षेत्र करवार |
उड़ीसा भितरकनिक महानदी सुवर्णरेखा देवी धामरा एम.आर.जी.सी. चिलका | गोवा गोवा |
आन्ध्र प्रदेश कोरिन्गा पूर्व गोदावरी कृष्णा पुलीकट काजुवेली | महाराष्ट्र अचरा-रत्नागिरी देवगढ़-विजय दुर वेलदुर कुण्डलिका-रवदाना मुम्ब्रा-दीवा विकरोली श्रीवर्धन वैतरन वसासी-मनोरी मालवन |
अंडमान और निकोबार उत्तरी अंडमान निकोबार | गुजरात कच्छ की खाड़ी खम्बात की खाड़ी डुमास-उबरत |
केरल वेम्बानाद कन्नूर |
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कर्नाटक कून्डापुर | तमिलनाडु पिचवरम मुथुपेट |
गोदरेज औद्योगिक समूह की मैंग्रोव परियोजना
यह एशिया का प्रथम नमभूमि (वेट लैण्ड) कार्यक्रम है जो व्यक्तिगत रूप से चलाया जा रहा है। यह सम्भवतः अपनी तरह का पहला कार्यक्रम है जिसे आई.एस.ओ. 14001 प्रमाण पत्र प्राप्त है। विश्व बैंक के सहयोग से 100 एकड़ भूमि पर मैंग्रोव वृक्ष लगाये गये हैं तथा 500 से अधिक वन्य जीवों का पुनर्वास किया गया है। मैंग्रोव के बारे में शिक्षा तथा प्रसार के उद्देश्य से थाणे में खाड़ी के साथ-साथ एक प्रदर्शन स्थल का निर्माण किया गया है।
सरकार की सहभागिता
सरकार द्वारा पर्यावरणविदों, शोधकर्ताओं तथा विशेषज्ञों को, इस बहुमूल्य संसाधन के परिस्थितिकी प्रबन्धन के विभिन्न पक्षों पर कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उजाड़ हो चुके क्षेत्रों में पुनः वन रोपण का कार्य प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। कुछ मैंग्रोव क्षेत्रों को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए। केवल तभी हम आश्वस्त हो सकते हैं कि ये अद्भुत पौधे जीवित रहें और वैश्विक चक्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते रहें।
मैंग्रोव वनों के संरक्षण के प्रयास सर्वप्रथम स्वतंत्रता से पूर्व वर्ष 1892 में किये गये थे। तब सुन्दरवन मैंग्रोव क्षेत्र के लिए प्रबन्धन योजना तैयार की गयी थी।
प्रसन्नता की बात यह है कि भारत सरकार ने इस दिशा में कुछ सकारात्मक पहल की है। सन 1979 में पर्यावरण तथा वन मंत्रालय ने तटीय पर्यावरण पर शोध तथा उसके विकास और प्रबन्धन के लिए एक राष्ट्रीय समिति का गठन किया। इसी समिति को यह जिम्मेदारी भी सौंपी गयी कि वह सरकार को मैंग्रोव क्षेत्रों के संरक्षण के लिए कार्ययोजना बनाने, नीति निर्धारण करने, मैंग्रोव पर शोध तथा प्रशिक्षण करने तथा संरक्षण के लिए स्थानों का चयन करने के बारे में सलाह दे। साथ ही वित्तीय सहायता देने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं तथा अन्तर्राज्जीय निकायों के सहयोग से मैंग्रोव क्षेत्रों का संरक्षण करने में सरकार की मदद करें।
इसी समिति की तरह राज्य स्तर पर संचालन समितियों का गठन 1986 में किया गया। प्रबन्धन कार्ययोजना में वनरोपण, उजड़े हुए मैंग्रोव क्षेत्रों का पुनरुद्धार, सुरक्षात्मक उपाय, पर्यावरण विकास तथा मैंग्रोव के संरक्षण से संबंधित शिक्षा तथा प्रसार कार्यों को सम्मलित किया जाता है ताकि इन क्षेत्रों पर मानवीय दबाव को कम किया जा सके।
मैंग्रोव के संरक्षण तथा प्रबन्धन में सामुदायिक सहभागिता को भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है। भारत सरकार द्वारा उड़ीसा में भितरकनिक मैंग्रोव वन में राष्ट्रीय मैंग्रोव आनुवांशिक संसाधन केन्द्र की स्थापना की गयी है। कई सरकारी विभाग मैंग्रोव पर शोध के लिए धन उपलब्ध कराते हैं। उदाहरणतः विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी विभाग, भू-विज्ञान विभाग, तथा जैव प्रौद्योगिकी विभाग, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, राज्य सरकारों के वन विभाग, सामाजिक संगठन, वन्यजीव सलाहकार मण्डल, मेरीन पार्क अधिकरण तथा विश्व वन्य जीव निधि (डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ.) आदि सभी संस्थाओं ने इस क्षेत्र में अनेक कार्यक्रम चलाये हैं।
जीव मण्डल संरक्षित क्षेत्र
यूनेस्को के ”मैन एण्ड बायोस्फेयर प्रोग्राम“ (एम.ए.बी.) में मैदानी तथा तटीय क्षेत्रों में जैव मण्डल संरक्षित क्षेत्रों (बायोस्फेयर रिजर्वस) की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान की गयी है। ये क्षेत्र सांस्कृतिक तथा जैव विविधता की प्राचीन धरोहर को अपने में संजोए हैं। इस कार्यक्रम का उद्देश्य इन संरक्षित क्षेत्रों की सांस्कृतिक विरासत तथा जैविक विविधता को कायम रखते हुए इन क्षेत्रों का सांस्कृतिक तथा पर्यावरण की दृष्टि से स्थायी आर्थिक तथा मानवीय विकास करना तथा शोध, निरीक्षण, शिक्षा तथा सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिये सहायता उपलब्ध कराना है।
पर्यावरण तथा वन मंत्रालय द्वारा इन क्षेत्रों के विकास के लिये राज्य सरकारों को धन उपलब्ध कराया गया है। ऐसा ही एक जैवमण्डल संरक्षित क्षेत्र (बायोस्फेयर रिजर्व) पश्चिमी बंगाल में सुन्दरवन है। भारत सरकार के पर्यावरण तथा वन मंत्रालय ने 1987 में एक मैंग्रोव संरक्षण कार्यक्रम प्रारम्भ किया था। मंत्रालय द्वारा अब तक 38 मैंग्रोव क्षेत्रों की पहचान संरक्षण तथा प्रबन्धन के लिये की जा चुकी है। इन क्षेत्रों का चयन मैंग्रोव तथा मूंगे की चट्टानों हेतु गठित राष्ट्रीय समिति की अनुशंसा पर किया गया है। मैंग्रोव क्षेत्रों में प्रबन्ध कार्य योजना (मैनेजमेन्ट एक्शन प्लान) के अन्तर्गत मैंग्रोव पौधों के रोपण, संरक्षण, तलछट नियंत्रण, प्रदूषण नियंत्रण, जैव विविधता संरक्षण, दीर्घ अवधि संसाधन प्रबन्धन, सर्वे, क्षेत्रों के चिन्हीकरण, शिक्षा तथा प्रसार आदि के लिये केन्द्र सरकार द्वारा शत प्रतिशत सहायता उपलब्ध करायी जाती है तथा कार्य योजना के सफल क्रियान्वयन के लिये शोध तथा विकास हेतु सहायता दी जाती है।
भारत में कुछ संरक्षित क्षेत्रों को समुद्री सुरक्षित क्षेत्र (मेरीन प्रोटेक्टेड एरियाज) के अन्तर्गत पूर्ण सुरक्षा प्राप्त है। भारत में कुल 26 ऐसे सुरक्षित क्षेत्र है। जिनमें 17 अभयारण्य तथा राष्ट्रीय उद्यान हैं। इन सुरक्षित क्षेत्रों के अन्तर्गत आने वाले मैंग्रोव क्षेत्र काफी हद तक सुरक्षित हैं। सुन्दरवन अब प्राकतिक विश्व धरोहर स्थल के अन्तर्गत आता है और इस श्रेणी में आने वाला यह विश्व का पहला मैंग्रोव क्षेत्र है।
भारत में लगभग एक दर्जन मुख्य संस्थानों में मैंग्रोव वनों पर शोध कार्य किया जा रहा है। इनमें से अधिकतर परियोजनाओं में प्रबन्धन संबंधी समस्याओं पर कार्य किया जा रहा है। इन परियोजनाओं में जिन विषयों पर कार्य हो रहा है उनमें मुख्यतः सर्वेक्षण तथा वितरण, दूर-संवेदन, पर्यावरण-जीवन विज्ञान, मत्स्य, जल-कृषि, शरीर क्रिया विज्ञान, मृदा विज्ञान, प्रदूषण, उत्पादकता, वनरोपण प्रबन्धन तथा वन्य जीव आदि विषय सम्मलित हैं। सन् 1992 से मैंग्रोव परिस्थितिकी पर वैज्ञानिक साहित्य को एकत्र कर पर्यावरण सूचना तंत्र (ENVIS) द्वारा प्रसारित करने का कार्य अन्नामलायी विश्वविद्यालय में किया जा रहा है। पर्यावरण तथा वन मंत्रालय द्वारा इसके लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जा रही है। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान द्वारा मैंग्रोव पर एक वेबसाइट चलायी जा रही है।
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