लोगों को डीलिंक करती केन-बेतवा लिंक परियोजना


नदी जोड़ परियोजना के अंतर्गत कुल 30 नदी जोड़ प्रस्तावित हैं, जिसमें से 14 हिमालयी भाग के और 16 प्रायद्वीपीय भाग के हैं। इन्हीं नदी जोड़ परियोजनाओं में बुंदेलखंड की केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना लाइन में सबसे आगे है। परियोजना में कुल 7 बांध बनने वाले हैं और 1 बांध से 10 हजार हेक्टेयर जमीन डूब क्षेत्र में आएगी। न केवल पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क, केन घड़ियाल अभ्यारण्य खत्म हो जाएंगे बल्कि बुंदेलखंड में पानी के लिए जंग होने के आसार भी हैं। परियोजना के खतरों से रूबरु करा रहे हैं आशीष सागर।

केन-बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना में सुप्रीम कोर्ट के सहमति के पश्चात सुकवाहा गांव में सर्वे कार्य चल रहा है। पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क संरक्षित वन क्षेत्र है यदि लिंक बनता है तो यहां कि बायोडायवर्सिटी के विलोपन का खतरा है। साथ ही प्रस्तावित केन-बेतवा नदी गठजोड़ में डाउनस्ट्रीम में स्थित केन घड़ियाल अभ्यारण्य भी पूरी तरह जमींदोज हो जायेगा। तथा जल जमाव, क्षारीयकरण, जल निकास व जैव विविधता से जो उथल-पुथल होगी उससे न सिर्फ सैकड़ों वन्यजीवों पर संकट के बादल आयेंगे बल्कि बुंदेलखंड पानी की जंग के दौर से गुजरेगा ऐसे आसार हैं।

राष्ट्रीय नदी विकास अभिकरण (एन.डब्लू.डी.ए.) द्वारा देश भर में प्रस्तावित तीस नदी गठजोड़ परियोजनओं में से सबसे पहले यूपी. एम.पी. के बुंदेलखंड क्षेत्र से केन-बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना पर अमलीकरण प्रस्तावित है। 19 अप्रैल 2011 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के पूर्व मुखिया जयराम रमेश ने केन-बेतवा लिंक को एन.ओ.सी. देने से मना कर दिया है। क्योंकि वे खुद ही इस लिंक के दायरे में आ रहे पन्ना टाइगर नेशनल रिजर्व पार्क के प्रभावित होने के खतरे को भांप चुके थे। बड़ी बात ये है कि वर्ष 2009 तक परियोजना के डी.पी.आर. पर ही 22 करोड़ रु. खर्च हो चुके हैं। केन-बेतवा लिंक परियोजना को आगे बढ़ाने तथा विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करने के लिये परियोजना को हाथ में लेने हेतु म.प्र. तथा उ.प्र. राज्यों व केंद्र सरकार के बीच इस पर 25 अगस्त 2005 को अंतिम रूप दिया गया। जिस पर म.प्र. व उ.प्र. के सी.एम. बाबूलाल गौड़ व मुलायम सिंह यादव ने संयुक्त रूप से हस्ताक्षर किये थे।

इस परियोजना के सामाजिक आर्थिक एवं कृषि आधारित मुद्दों पर सर्वेक्षण की जिम्मेदारी केंद्र सरकार ने एन.डब्लू.डी.ए. राष्ट्रीय नदी विकास अभिकरण, एन.सी.ए.इ.आर. (नेशनल काउसिंल फॉर एप्लायड इकॉनामिक रिसर्च) को सौंपी थी। यह सर्वेक्षण परियोजना के लिये पूर्व संभावित परिस्थितियों के प्रभाव के अध्ययन पर आधारित था। बांधों-नदियों एवं लोगों का दक्षिण एशिया नेटवर्क (सेन्ड्रप) में एक विश्लेष्णात्मक अध्ययन बुंदेलखंड के इस लिंक से होने वाले पर्यावरणीय हालातों के मद्देनजर किया था। अध्ययन करने के बाद जो तथ्य निकल कर सामने आये उसकी रिपोर्ट पर सेन्ड्रप ने इसे भविष्यगामी जल त्रासदी एवं पानी का युद्ध करार दिया है।

बुंदेलखंड के उ.प्र. और म.प्र. में प्रस्तावित केन-बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना प्रतिवेदन के आधार पर इस लिंक से प्रभावित होने वाले आदिवासी बाहुल्य छतरपुर जनपद के बिजावर तहसील से आने वाले किसनगढ़ क्षेत्र के दस गांव हैं। इस बात का खुलासा एन.सी.ए.ई.आर. ने अपनी रिपोर्ट में किया है। जबकि सेन्ड्रप का अध्ययन इस लिंक से 19 गांव के विस्थापन की बात करता है। दोनों ही रिर्पोटों में प्रभावित गांव की कितनी जनसंख्या विस्थापित होगी इसकी पुख्ता जानकारी किसी ऐजेंसी के पास नहीं है। राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण ने बीते वर्ष इंडिया एलाइव टीम को आर.टी.आई. में जो जानकारियां दी हैं उनके मुताबिक प्रभावित क्षेत्र में आने वाले जिन किसानों के नाम भूमि नहीं है और जो भूमि का उपयोग कर अपना आजीविका संवर्धन कर रहे हैं उन परिवारों को मुआवजा राशि नेशनल रिहैबिलिटेशन एवं रिसिटिलमेंट पॉलिसी 2007 व आई.आर.एम.पी. 2002 के बाबत अलग-अलग दिया जाना है। इसमें भी बी.पी.एल., लघु सीमांत किसान, मध्यम किसान के लिये गांव और जनसंख्या व भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार मुआवजे का प्राविधान रखा गया है ऐसा आर.टी.आई. के जवाब मे लिखा है।

गौरतलब है कि प्रस्तावित बांध परियोजना में 6 बांध में से एक ही ग्रेटर गगंऊ बांध को ध्यान मे रखकर रिपोर्ट तैयार की गयी है। 212 किमी. लम्बी कंकरीट युक्त नहर इस लिंक के द्वारा केन नदी का पानी जो बुंदेलखंड के झांसी जिले के बरूआसागर अपस्ट्रीम में म.प्र. के टीकमगढ़ जिले में बेतवा नदी पर प्रस्तावित एक अन्य बांध में डाला जाना है। जानकार बताते हैं कि इस बांध के बायें किनारे पर 2 विद्युत परियोजना 30 व 20 मेगावाट की बनायी जानी है। इसके अलावा इस लिंक की कुल अनुमानित लागत वर्ष 1989-90 में 1.99 अरब रु. आंकी गयी थी जबकि परियोजना पूर्ण प्राक्कलित लागत वर्ष 2008 के अनुसार 7,614.63 करोड़ रु. अनुमानित की गयी है। परियोजना क्षेत्र में संरक्षित वन क्षेत्र पन्ना टाइगर नेशनल रिजर्व पार्क का दक्षिणी हिस्सा भी इस लिंक की सीमा में आता है। डूब क्षेत्र में आने वाले दस गांव में चार गांव पहले ही वन विभाग विस्थापित करा चुका है।

दीगर बात यह है कि अनुसूचित जाति व जनजाति की संख्या इन गांवों में 34.38 व 15.54 प्रतिशत सर्वाधिक है। उदाहरण के तौर पर गुघरी गांव में 91.84 प्रतिशत लोग अनुसूचित जनजाति से संबंध रखते हैं। स्थलीय आकृति के मद्देनजर दौधन (बांध स्थल), खरियानी (दौधन से पांच किमी. दक्षिण), पलकोहा (दौधन से 4.5 किमी. दक्षिण पश्चिम), सुकवाहा (पलकोहा से 6 किमी. दक्षिण पश्चिम), भोरखुहा (दक्षिण पश्चिम) आदि क्षेत्र डूब क्षेत्र मे आते हैं।

केन-बेतवा लिंक में विस्थापित होने वाले दस गांव में से ज्यादातर बराना और श्यामरी नदी की तलहटी में बसते हैं। विस्थापित होने वाले गांव में टीम ने साहपुरा, सुकवाहा, कूटी, बसुधा का दौरा किया। जबकि विस्थापित होने वाले दस गांवों में से साहपुरा, सुकवाहा, दौधन, वसुधा, पलकोहा, भोरकुआं, गुघरी, खरियानी, कूपी व मैनारी हैं। टीम ने जिन तीन गांवों का भ्रमण किया है वहां कि रहवासी अपनी मिट्टी को छोड़कर नहीं जाना चाहते हैं। कूपी गांव के प्रधान मिथला कुरेड़िया बताती है कि मेरे गांव में 250 घर सोर आदिवासियों के हैं। सोर आदिवासी भले ही कृषि जमीन से संपन्न नहीं है। मगर फिर भी उनमें अपने पूर्वजों की संस्कृति से विस्थापित होने का डर है। मिथला कुरेड़िया की आस-पास के क्षेत्र मे फैली चाक (खड़िया) की खदानें हैं। इसी गांव के राजू सोर ने बताया कि कूपी में 27 फुट पर पानी है। यदि इतनी गहराई पर पानी नहीं निकला तो पत्थर ही निकलता है।

यहां सोर बिरादरी की श्रम शक्ति दिल्ली व फरीदाबाद पलायन कर चुकी है। इसी गांव के मनसुख अहीरवार बताते हैं कि 17 साल पहले वर्ष 1995 में भीषण बाढ़ में मेरी चार एकड़ कृषि भूमि तबाह हो गयी थी जिसका मुआवजा आज तक म.प्र. सरकार ने नहीं दिया है। मनसुख का लड़का सुर्रा दिल्ली में बीते पांच वर्षों से परिवार का पेट पालने के लिये मजदूरी करता है। उसका यह भी तर्क है कि मनरेगा में बुजुर्गों को काम क्यों नहीं मिलता? गांव के प्रधान 100 रु. की मजदूरी देते हैं जबकि 1 अप्रैल 2012 से 133 रु. मजदूरी हो गयी है। हालात देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि कूपी के बाशिंदे केन-बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना से बेहद आहत है। वसुधा गांव में ज्यादातर कोंदर जाति के आदिवासी रहते हैं। साहपुरा के रतीराम यादव का कहना है कि हमारे गांव के कुछ एक परिवारों को बाढ़ के समय 9000 रु. मुआवजा मिला था और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया था लेकिन उसके बाद से इन गांवों में आज तक कोई नहीं आया।

कूपी के जागरूक किसान संतोष राय की माने तो पलकोहा और खरियानी के विस्थापन से पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क का विस्तार होना था जिस पर सरकार ने दस लाख रु. प्रति एकड़ विस्थापित परिवारों को मुआवजा देने की बात कही थी। वसुधा गांव में करीब 400 लोग बसर करते हैं और यहां पर भी कोंदर जाति के आदिवासी रहते है। वसुधा गांव के मंगल कोंदर ने वार्ता के दौरान बताया कि हमारे तीस घर आदिवासियों के हैं और ग्राम पंचायत कूपी है। कूपी में साहपुरा, वसुधा, इमलीचैक, कूपी आते हैं। वसुधा के राजाराम कोंदर, जलमा यादव, चिरौंजी लाल, भगवती यादव जैसे तमाम अन्य परिवार लिंक से अपनी कृषि भूमि खोना नहीं चाहते हैं क्योंकि जमीन ही उनकी जिंदगी का सहारा है। इन गांव के बाशिंदों का कहना है कि हमारी गुजर-बसर जंगलों में खड़े खैर (कत्था) के वृक्षों से हुआ करती थी। प्रशासन को जब जंगलों में कत्थे की भट्टियां चलने की जानकारी हुई तो उन्होंने वन विभाग के सहारे वृक्षों को ही कटवा दिया।

अब जबकि खैर के वृक्ष नहीं हैं तो लिंक प्रभावित क्षेत्र मे उजड़े जंगलों पर वन विभाग का पहरा है। इसी गांव के राजाराम की 5 एकड़ कृषि भूमि बांध एरिया में अधिग्रहित की गयी है। इमलीचैक निवासी ऊदल ने बताया कि केन-बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना में सुप्रीम कोर्ट के सहमति के पश्चात सुकवाहा गांव में सर्वे कार्य चल रहा है पन्ना टाइगर नेशनल रिजर्व पार्क से विस्थापित परिवारों को सरकार ने प्रति परिवार दस लाख और पांच एकड़ कृषि जमीन देने का वादा किया है। ऊदल का यह भी कहना है कि पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क संरक्षित वन क्षेत्र है यदि लिंक बनता है तो यहां कि बायोडायवर्सिटी के विलोपन का खतरा है। साथ ही प्रस्तावित केन-बेतवा नदी गठजोड़ में डाउनस्ट्रीम में स्थित केन घड़ियाल अभ्यारण्य भी पूरी तरह जमींदोज हो जायेगा। तथा जल जमाव, क्षारीयकरण, जल निकास व जैव विविधता से जो उथल-पुथल होगी उससे न सिर्फ सैकड़ों वन्यजीवों पर संकट के बादल आयेंगे बल्कि बुंदेलखंड पानी की जंग के दौर से गुजरेगा ऐसे आसार हैं। केन्द्र सरकार के आधे-अधूरे अध्ययन रिपोर्टों पर आधारित केन-बेतवा लिंक की जमीनी सच्चाई को जानकर यह लगता है कि-
‘‘नदियों को कल-कल बहने दो, लोगों को जिंदा रहने दो”

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