पृष्ठभूमि
लखनदेई के पूर्वी (बायें) किनारे पर एक छोटा सा महाराजी तटबंध हुआ करता था। पानी कम होने पर नदी के सुरक्षित प्रवाह के लिए धनकौल/नारायणपुर मार्ग से लखनदेई आने वाला पानी इस नदी में खप जाता था मगर ज्यादा पानी होने पर लखनदेई या तो अपने पश्चिमी किनारे से बह निकलती थी या कभी-कभी अपने तटबंध को तोड़ कर पूरब की ओर निकल जाती थी। आमतौर पर लखनदेई के पूर्वी किनारे पर बसा मोरसंड गाँव इस पानी के दंश को सबसे पहले और सबसे ज्यादा समय तक झेलता था। उन दिनों मोरसंड के मुखिया थे जगन्नाथ सिंह जो काफी प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनके प्रयास से लखनदेई के पूर्वी तटबंध को सरकार द्वारा 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में मजबूती से बंधवा दिया गया।
पानी की कमी के कारण संघर्षों की कहानियों की तलाश में बहुत सी संस्थाएँ और लोग आजकल बड़े मनोयोग से लगे हुए हैं। ‘जल ही जीवन है’ का संदेश सारी दुनियाँ में प्रमुखता पा रहा है और यह सच भी है कि जल के बिना सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती। यहाँ से बात जब आगे बढ़ती है तब यह वनों के विनाश, प्रदूषण, ओजोन परत का क्षरण, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, वैश्विक तापक्रम में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन, ग्लेशियर का पिघलना तथा पानी को लेकर होने वाले अगले विश्वयुद्ध की भविष्यवाणी तक पहुँचती है। इन सभी शीर्षकों की तह में पानी की कमी की एक अन्तर्धारा बहती रहती है। बाढ़ या पानी की अधिकता, भले ही वह थोड़े समय के लिए ही क्यों न हो, की अगर कोई चर्चा करता भी है तो सिर्फ इतनी कि जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ के परिमाण और तीव्रता में वृद्धि होगी और ग्लेशियरों के पिघलने के कारण बरसात के बाद नदियों में पानी कम हो जायेगा और वे सूख जायेंगी और फिर सूखा या दुर्भिक्ष पड़ेगा। कुल मिलाकर बात फिर पानी की कमी और सूखे पर लौट आती है। आम धारणा यही है कि पानी के लिए द्वन्द्व या युद्ध क्षेत्र तक पहुँचने वाला रास्ता पानी की कमी वाली गली और सूखे वाले रास्ते से हो कर गुजरता है।यह मान्यता आंशिक रूप से ही सच है। पानी से संबन्धित बहुत सी समस्याओं को एक ही लाठी से हाँकने वाले विशेषज्ञों तक को यह समझा पाना बड़ा मुश्किल होता है कि बाढ़ क्षेत्रों की समस्या सूखे वाले क्षेत्रों से ठीक उलटी होती हैं-वैसी ही जैसी आइने में हम अपनी शक्ल देखते हैं। आइने में जो कुछ भी दिखता है वे हमारी ही छवि होने के बावजूद हमारे अक्स का ठीक उल्टा होता है। पानी की थोड़ी बहुत कमी से लोग बड़ी आसानी से निबट लेते हैं मगर परेशानी तब होती है जब कमी ‘किल्लत’ बन जाती है। उसी तरह कम गहराई की विस्तृत इलाके पर आई बाढ़ का जहाँ स्वागत होता है वहीं बड़ी बाढ़ की चपेट में कोई भी पड़ना नहीं चाहता। यही वजह है कि बाढ़ क्षेत्र के हर व्यक्ति की यह चाहत होती है कि उसका अतिरिक्त पानी दूसरे लोगों के पास चला जाए या दूसरे क्षेत्र से ही हो कर बहे तो अच्छा है। यही कारण है कि नदी के इस पार या उस पार तथा नदियों पर बने तटबन्धों के अन्दर और बाहर रहने वाले लोगों के बीच पूरे बरसात के मौसम में अपना पानी दूसरे के इलाके में बहा देने की एक होड़ सी लगी रहती है। यह होड़ ऐसे लोगों के बीच होती है जिनकी आपस में मित्रता और रिश्तेदारियाँ होती हैं और बाढ़ के मौसम को छोड़ कर उनका आपस में रोज का उठना-बैठना और भोजन-भात चलता रहता है। बाढ़ के समय तटबन्ध उन्हें दो पालों में बाँट देता है और उनकी तात्कालिक सुरक्षा की जरूरतें कभी-कभी संघर्ष का रूप ले लेती हैं जिससे आपसी हमले में पहले जहाँ लाठी, गँड़ासों और भालों का उपयोग होता था, आजकल बदलते समय के साथ बन्दूकों और बमों का भी प्रयोग होने लगा है।
अगस्त 1970 में बिहार की बागमती और लखनदेई के दोआब में इसी तरह से दो विपरीत हितों वाले समूह अपनी बाढ़ का पानी एक दूसरे को देने के उद्देश्य से अस्त्र-शस्त्र के साथ आमने-सामने आ गए थे जिसमें कई लोगों को अपनी जान गवांनीं पड़ गयी थी। यह महज इतिफाक है कि यह सभी गाँव उसी काले पानी वाले इलाके में अवस्थित हैं जिनके बारे में हमने पिछले अध्याय में चर्चा की थी। आज से चालीस साल पहले हुई यह दुर्घटना जब घटित हुई थी तब ऊपर दी हुई शब्दावली विनाश, प्रदूषण आदि में से वनों के विनाश को छोड़ कर शायद दूसरे शब्द-समूह प्रचलन में भी नहीं आये थे। इतना कह कर हम उस संघर्ष के बारे में बात करते हैं।
लोहासी (सीतामढ़ी) कांड
18 अगस्त 1970 के दिन पटना से प्रकाशित समाचार पत्रों-दि इण्डियन नेशन, दि सर्चलाइट और आर्यावर्त में इस घटना की खबर छपी थी। आर्यावर्त का कहना था, ‘‘...16 अगस्त की शाम को सीतामढ़ी से 16 मील (27 किलोमीटर) दूर रुन्नी-सैदपुर के लोहासी गाँव में बांध काटने के प्रश्न पर हथियारों से लैस संघर्षरत ग्रामीणों के दो दलों को तितर बितर करने के लिए पुलिस को 11 राउण्ड गोलियाँ चलानी पड़ीं जिससे तीन व्यक्ति घटना स्थल पर ही मारे गए तथा 15 घायल हुए। घायलों में से 7 को सीतामढ़ी अस्पताल पहुँचाया गया जहाँ एक की मृत्यु हो गयी। शेष 6 की हालत चिन्ताजनक बतायी जाती है। कहा जाता है कि बाढ़ से डूब रहे एक गाँव को बचाने के लिए खोपा-ओइना रिंग बांध को उस गांव के लोग काटना चाहते थे तथा दूसरे गांव के लोग आपत्ति कर रहे थे। इसी बात को लेकर पिछले कुछ दिनों से तनाव चल रहा था और एक मजिस्ट्रेट की देख रेख में वहाँ पुलिस भी तैनात कर दी गयी थी। लेकिन कल तनाव ने संघर्ष का रूप ले लिया और पुलिस को गोली चलानी पड़ी। ...सूचना मिलते ही घटनास्थल पर सीतामढ़ी के अनुमण्डल अधिकारी श्री एस. के. मुखर्जी और उप-आरक्षी अधीक्षक बालस्वरूप शर्मा के साथ मुजफ्फरपुर के जिलाधिकारी श्री श्रीकृष्ण पाटणकर पहुँचे। स्थिति नियंत्रण में है।’’
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रे...

जब कठौर, गिसारा, लोहासी, बेनीपुर और धुरबार गाँव के लोग बांध काटने के लिए आगे बढ़े तब लखनदेई के पूर्वी किनारे पर दूसरे पक्ष के लोग अस्त्र-शस्त्र के साथ मौजूद थे। पश्चिम वालों की समस्या यह थी कि वह पानी के रास्ते गए थे इसलिए इन गाँवों के लोग नीचे पड़ते थे। इन लोगों को तटबन्ध भी काटना था और अपनी जान भी बचानी थी। परिस्थितियाँ उनके अनुकूल नहीं थीं। दूसरे पक्ष के लोगों ने लखनदेई के पूर्वी तटबन्ध पर मोर्चा संभाल रखा था और ऊँचाई पर होने तथा पानी के सीधे संपर्क में न होने के कारण वे बेहतर स्थिति में थे। फिर भी पश्चिम के गाँवों के यह लोग लखनदेई को पार कर के तटबन्ध तक पहुँच गए। इस पूरे संघर्ष का विवरण दोनों पक्षों के गाँव वालों ने लेखक को जो बताया वह यहाँ दिया जा रहा है।

...1970 में बागमती नदी में बहुत बड़ी बाढ़ आयी। उस समय तक बागमती नदी का तटबन्ध बना नहीं था। बागमती का पानी छलक कर हमारे तथा आस-पास के गाँवों में भर गया और उसने इसी लखनदेई वाली धार का रास्ता पकड़ लिया। लखनदेई पर अगर तटबन्ध नहीं रहता तो यह पानी उधर से निकल जाता मगर अब यह पानी अपनी जगह पर खड़ा हो गया। नतीजा हुआ कि हमारी तरफ के बहुत से गाँव पानी में डूबने लगे। यह सब हम लोगों के लिए कोई नई बात नहीं थी मगर पानी का इतने लम्बे समय तक टिके रहना जरूर नई बात थी। चूल्हे तक में पानी घुस गया और सबका खाना-पीना बन्द। चार-चार शाम उपवास कर के रह गए लोग, बच्चे भूख से बिलबिलायें सो अलग। कहाँ तक बर्दाश्त करते? तब सारे गाँवों के लोगों ने मिल कर मंत्रणा की कि लखनदेई के तटबन्ध को काट दिया जाए तभी यह पानी निकल पायेगा क्योंकि फसल तो डूब ही गयी थी और अब जान पर भी आफत थी। हमारी इस कोशिश का विरोध उस पार वाले करेंगे यह सभी को मालुम था।

पश्चिम वाले लोग मारे भी गए और उन्हीं पर पुलिस ने मामला भी दायर किया। गिसारा के मुखिया राम लखन साह पर नामजद मामला हुआ तो पुलिस पश्चिम के गाँवों में लोगों को पकड़ने के लिए और जब्ती-कुर्की के लिए दबिश देने लगी। बाढ़ का पानी गाँव में बदस्तूर कायम था क्योंकि उधर का बांध तो अपनी जगह बना हुआ था। अब गाँव के सारे जवाँ मर्द पुलिस के डर से गाँव छोड़ कर भाग गए। गिसारा के ही जय मंगल पांडे, जुल्फी साहनी जैसे लोग जेल में थे। खूब धर-पकड़ होती थी और दिन-रात छापा पड़ता था। बाद में हम लोगों ने पुलिस में गुहार लगायी। तब मुजफ्फरपुर से वायरलेस आया कि लोग बाढ़ से पहले से ही तबाह हैं, मारे भी गए हैं, उन्हें और तंग न किया जाय। ऐसा नहीं हुआ होता तो जितने लोग पुलिस फायरिंग में नहीं मरे उससे ज्यादा भागने-छिपने की भगदड़ में डूब कर मरते। इस घटना के कोई पन्द्रह दिन बाद हालात थोड़ा सुधरे मगर बाढ़ का पानी अपनी जगह बना ही हुआ था तब गुलेरिया के दो मल्लाहों ने चौड़े मुंह वाली हंडिया में छेद कर के उसे सिर में पहन लिया ताकि वे बाहर देख सकें मगर पानी में तैरते या डुबकी लगाते समय उन्हें पहचाना न जा सके, कुदाल और भाला लेकर उस पार जा पहुँचे। वहाँ इक्का-दुक्का पुलिस का पहरा जरूर था मगर जैसे ही पुलिस गाफिल पड़ी इन दोनों ने खोंपा के दक्षिण में बांध को काट दिया। बरसात के मौसम में बांध काटने के लिए औजार का बस एक हलका सा इशारा ही काफी होता है। नदी के पानी को रास्ता मिला और वह उसी रास्ते बह निकला। जहाँ बांध काटा गया वहाँ 10-15 कट्ठा जमीन पर खाई बन गयी। उस दिन जो बांध कटा तो वह आज तक कटा ही पड़ा है।

बाद में बागमती नदी पर तटबन्ध बन गया और उस तरफ से बाढ़ का पानी आम तौर पर आना बन्द हो गया। हमारे गाँव के सामने बागमती के तटबन्ध के इस तरफ धनकौल, रमनी, जाफरपुर और ओलीपुर आदि गाँव पड़ते हैं। अब बागमती का पानी यहाँ तभी आता है जब हमारे गाँव के उत्तर या पश्चिम में उसका तटबन्ध टूट जाए। अगर बागमती का तटबन्ध यहाँ से दक्षिण में टूटता है तो पानी यहाँ नहीं आता है। बागमती का पूर्वी तटबन्ध एक बार सीतामढ़ी-नरकटियागंज रेल लाइन के उत्तर में बसबिट्टा में 1993 में टूटा था तब पानी यहाँ आया था, बलथरवा में टूटने पर भी पानी यहाँ से गुजरा था। ओलीपुर में अगर बांध टूटता है तो हमारे यहाँ पानी घूम कर आता है और इसलिए कम तबाह करता है। रमनी में टूटने पर पानी यहाँ सीधे चोट करता है और सौली, सिरसिया में बांध में दरार पड़ने पर भी हमीं लोग मरते हैं। जब बागमती का तटबन्ध नया-नया बना था तब कुअमा-बसतपुर के पास टूटा था और उस समय बागमती नारायणपुर धार से होकर बहने लगी थी, उसका पानी भी यहाँ आया था। उस बार तो बागमती की धारा इधर होकर खुल गयी थी और हम लोग जेठ के महीनें में ही पानी में फंस गए थे। बागमती का बांध जब टूटता है तो हमारे यहाँ छप्पर के ऊपर तक से पानी बह जाया करता है और हालत करीब-करीब वही हो जाती है जो 1970 में हो गयी थी।’’
कठौर के अवध किशोर चौधरी बताते हैं कि उनके भाई शशि किशोर चौधरी ने उसी साल मैट्रिक पास किया था और अध्यापक की ट्रेनिंग में उनका चयन भी हो गया था। पिता जी उनकी नौकरी के सिलसिले में बाहर गए हुए थे और घर में नहीं थे, माता जी थीं। पानी चारों ओर था, हल्ला हुआ बांध काटने चलS हो, चलS हो। हुजूम था, जोश था, भाई भी सब के साथ चले गए। बांध काट दिया गया। जिस दिशा में भागना था, उलटी दिशा में भागे और पानी में फंस गए। बांध कट गया और उससे निकलते पानी ने इनको खींच लिया। पानी में ही मारे गए या किसी ने मार दिया पता नहीं। हम लोग मारे भी गए और हमीं लोगों पर मुकदमा भी किया गया। इस घटना में कई लोग जेल गए थे।’
अब चलते हैं लखनदेई के पूर्वी तटबन्ध पर बसे उन गाँवों की ओर जहाँ इस संघर्ष का घटनास्थल है। ‘‘हम लोग लखनदेई के पूर्वी किनारे पर हैं। बरसात के मौसम में नदी का पानी किनारे तोड़ कर इस तरफ के गाँवों को डुबाता था। मोरसण्ड, गयघट आदि तक डूबता था और बाढ़ का पानी औराई होते हुए दरभंगा तक जाता था। मोरसंड, जो लखनदेई के पूर्वी किनारे पर है, नदी की बाढ़ से हर साल परेशान होता था। मोरसंड वालों ने 1960 के आस-पास से नदी के अपने किनारे पर तटबन्ध बनाना शुरू किया। शुरू-शुरू में यह बहुत छोटा बांध था, बाद में उसकी देख-रेख शुरू हुई और उस पर मिट्टी पड़ना शुरू हुआ। यह तटबन्ध उन लोगों का खुद थे, वे भी आ गए। सारे लोग तटबन्ध पर आ गए पर आम धारणा यह थी कि पश्चिमी किनारे वाले लोग डर से इधर आने की हिम्मत नहीं करेंगे। एक दिन शाम को इस तरफ के लोग प्रतीक्षा कर के लौट गए थे लेकिन दूसरे दिन सुबह वे सब सचमुच नदी पार कर के इस तरफ चले आये और हनुमान नगर में, जो कि ओइना गाँव का एक टोला है, उतरे। भालों, गंड़ासों से लैस होकर उन गाँवों के बहुत से लोग तो नावों से आये। काफी तादाद में लोग तैर कर भी आये थे। बांध काटने आने वालों में परसौनी तक के लोग थे।
तैर कर आने वालों में बहुत से लोगों ने सिर पर मिट्टी वाली मटकी पहन रखी थी जिनमें छेद किया हुआ था ताकि वे बाहर देख सकें पर उनकी शिनाख्त मुश्किल हो। उन्हें करना सिर्फ इतना ही था कि किसी तरह पानी में गोता लगा कर बांध तक पहुँच जाएं और भाले की मदद से बांध में छेद कर दें। बाकी काम तो पानी के दबाव से खुद-ब-खुद हो जाता। उन लोगों की तरफ से लोहासी यहाँ आये। जमादार को सबके सामने बहुत खरी-खोटी सुनायी और कहा कि भीड़ में ग्यारह राउण्ड गोली चली है, तुम कम से कम ग्यारह लाश हमारे हवाले करो। इसके बाद खेत में, नदी में, अरहर में, बांस के झुरमुट में सब जगह लाशें खोजी जाने लगीं। बाद में एस. पी. ने कहा कि दस रुपया प्रति लाश का इनाम देंगे, लाशें खोजो। जितना मुमकिन हो सका लाशें खोजी गईं। फिर पूरे इलाके को सील कर दिया गया। जितनी भी लाशें मिलीं उसे नाव पर लादा गया, बाढ़ का पानी तो सब जगह था ही। नाव अभी के एन. एच. 77 के 23 माइल पर जाकर लगी। वहाँ पुलिस की गाड़ी पहले से खड़ी थी उसमें लाशें लादी गईं। फिर उसके बाद उनका क्या हुआ किसी को नहीं मालुम।

उपसंहार

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