लेह त्रासदी का एक सालः सुनो पर्यावरण कुछ कहता है!

वैज्ञानिकों में पर्यावरण संबंधी चिंता इस बात का स्पष्ट इशारा है कि अगर इस विषय पर कोई ठोस उपाय नहीं निकाले गए तो इसके गंभीर परिणाम सामने आ सकते हैं। समय की मांग है कि पर्यावरण पर चिंता करना और उसके उपाय ढ़ूंढ़ना केवल वैज्ञानिकों का ही नहीं बल्कि हम सब का कर्तव्य है।

पिछले वर्ष लद्दाख के लेह में बादल फटने के कारण हुई तबाही अब भी लोगों की जेहन में ताजा है। 5-6 अगस्त 2010 की रात लेह पर जैसे आसमान से कहर टूट पड़ा। बादल फटने के कारण लेह में विभिषिका का जो तांडव हुआ उसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। अचानक आई बाढ़ के कारण नदी और नाले उफान पर आ गए और पल भर में ही लेह को अपनी चपेट में ले लिया। विकराल धारा ने मीलों लंबी सड़कों, पुलों, खेत बगीचे और घरों को देखते ही देखते लील लिया। तेज बहाव ने नए और पुराने या मिट्टी या कंक्रीट से बने घरों व भवनों में कोई भेदभाव नहीं किया। करीब 257 से ज्यादा लोगों ने अपनी जाने गंवाईं। इनमें 36 गैर लद्दाखी भी शामिल हैं।

घटना के एक साल बाद भी त्रासदी की झलक लेह में देखी जा सकती है। अब भी सड़कों के दोनों किनारे मलबे के उंचे-उंचे ढेर विभिषिका की दास्तां बयां करते हैं। लेह के अधिकतर गांव इसकी चपेट में आए थे। सबसे ज्यादा तबाही चोगलमसर गांव में हुई। जहां लगभग पूरा गांव ही तबाह हो गया। हादसे में कई परिवार उजड़ गए। कहीं पूरा का पूरा परिवार ही इसकी भेंट चढ़ गया तो किसी परिवार में इक्के-दुक्के लोग ही बचे। त्रासदी के बाद केंद्र और राज्य सरकार ने पीड़ितों को राहत पहुंचाने के लिए हर संभव उपाय किए। पुर्नवास के लिए प्रत्येक परिवार को दो-दो लाख रुपए दिए गए। सरकार के गंभीर प्रयास के कारण ही पीड़ितों को जल्द नए मकान प्रदान किए गए। ताकि जीवन फिर से पटरी पर लौट सके। इस काम में केंद्र और राज्य की सरकारों के साथ-साथ कई गैर सरकारी संगठनों ने भी रचनात्मक भूमिका निभाई। इसी कोशिश का परिणाम है कि आज लद्दाख एक बार फिर मजबूत इरादों के साथ चल पड़ा है। जहां न तो पर्यटन में कोई कमी आई है और न ही स्थानीय लोगों के जज्बे में। अब भी शांति का संदेश देते सालों पुराने मठ, अनोखी छठा बिखेरते घर और गलियां तथा इन सबके बीच हिमालय का विलक्षण नजारा कराते दृश्य इसे एक मोहक स्थान प्रदान करते हैं।

दरअसल विज्ञान की भाषा में जब हम बादल फटने की बात करते हैं तो इसका अर्थ होता है कि बहुत ही कम समय में एक क्षेत्र विशेष में साधारण से तीव्रता के साथ अत्याधिक बारिश होना। मौसम विज्ञान के अनुसार जब बादल भारी मात्रा में पानी लेकर आसमान में चलता है और उसकी राह में जिस क्षेत्र में बाधा आती है तो वह अचानक वहीं फट पड़ता है। इस स्थिती में वह उस इलाके में कुछ ही मिनटों में कई लाख लीटर पानी बरसा देता है, जिसके कारण वहां तेज बहाव वाली बाढ़ आ जाती है। इसकी धारा इतनी तीव्र होती है कि उसके रास्ते में आने वाली हर चीज को वह बहा ले जाता है। समुद्र की सतह से करीब 11,500 फुट की ऊंचाई पर बसा लेह का मौसम अत्याधिक ठंडा होता है। नवंबर से मार्च के बीच तापमान शुन्य से भी 40 डिग्री नीचे चला जाता है। भारी बर्फबारी के कारण इसका संपर्क इस दौरान पूरी दुनिया से कट जाता है। यही कारण है कि इसे देश का ठंडा रेगिस्तान भी कहा जाता है। ऐसे मौसम के कारण ही यहां वर्षा की मात्रा काफी कम होती है।

प्रश्न उठता है कि ऐसी स्थिती में लद्दाख जैसे क्षेत्र में बादल फटने की घटना क्या इशारा देती है? क्या यह घटना दुनिया में तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन का नकारात्मक प्रभाव तो नहीं था? जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल की रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी लगातार गर्म हो रही है। विकास के नाम पर जंगल के जंगल उजाड़े जा रहे हैं। परिणामस्वरूप तापमान बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार 2010 में देश के उत्तरी राज्यों में तापमान में काफी वृद्धि देखी गई थी। जून में जम्मू का तापमान 47 डिग्री तक पहुंच गया था। जिसका नकारात्मक प्रभाव लद्दाख में भी देखने को मिला है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हाल के वर्षों में जिस तेजी से दुनिया में जलवायु परिवर्तन हुए हैं, यदि उसकी रफ्तार ऐसी ही कायम रही तो सभ्यता के लिए काफी खतरनाक साबित हो सकता हैं। वर्तमान में कार्बन उत्सर्जन की दर को देखते हुए यह अंदेशा जताया जा रहा है कि वर्ष 2050 तक विश्व का औसत तापमान दो डिग्री तक बढ़ जाएगा। हालांकि अमेरिकी वैज्ञानिकों के एक दल ने अपने शोध के बाद यह दावा कर कि बर्फीले इलाकों में पेड़ लगाने से पृथ्वी के तापमान में और वृद्धि हो सकती है, एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। नेशनल एकेडमी ऑफ सांइसेस में प्रकाशित इस शोध के अनुसार पेड़ की पत्तियां बर्फ को ढंक लेती है जिससे गर्मी परावर्तित नहीं हो पाती है। इसके कारण पृथ्वी पर सूर्य की रोशनी का अधिक अवशोषण होता है। शोधकर्ताओं का दावा है कि बर्फीले इलाकों में पेड़ों को काट कर बढ़ते तापमान को रोकने में मदद मिल सकती है।

बहरहाल प्रत्येक शोध में विज्ञान का एक नया स्वरूप देखने को मिलता रहता है लेकिन वैज्ञानिकों में पर्यावरण संबंधी चिंता इस बात का स्पष्ट इशारा है कि अगर इस विषय पर कोई ठोस उपाय नहीं निकाले गए तो इसके गंभीर परिणाम सामने आ सकते हैं। समय की मांग है कि पर्यावरण पर चिंता करना और उसके उपाय ढ़ूंढ़ना केवल वैज्ञानिकों का ही नहीं बल्कि हम सब का कर्तव्य है।

(चरखा फीचर्स)

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