खुले में शौच जाता है आधा भारत

संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय के ज़फ़र अदील ने कहा, ‘ये एक विडंबना ही है कि भारत में, जहाँ लोगों के पास इतना पैसा है कि आधी आबादी के पास मोबाइल फ़ोन की सुविधा है, वहाँ आधे लोगों के पास शौचालयों की सुविधा मौजूद नहीं है।’

भले ही भारतीय अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने चाँद तक अपने पैर जमा लिए हों, लेकिन आज भी हर दूसरे भारतीय के पास शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं है। हर दिन क़रीब आधा भारत खुले में शौच जाता है। हालाँकि आंकड़े बताते हैं कि 1992 -93 में जहाँ एक ओर 70 प्रतिशत भारतीयों के पास शौच जाने की सुविधा नहीं थी, वहीं 2007-08 में 51 प्रतिशत ही ऐसे लोग रह गए हैं जिनके पास ये सुविधा उपलब्ध नहीं थी।

लेकिन अब भी भारत में साफ़-सफ़ाई का स्तर ख़ासा ख़राब है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में क़रीब 36 करोड़ लोगों के पास ही साफ़ शौचालय की सुविधा है।

हाल ही में विश्व शौचालय दिवस पर हुए एक समारोह में भी ये बात निकल कर आई थी कि अब भी भारत में काफ़ी काम किया जाना बाक़ी है।

आंकड़े


एक भारतीय गैर सरकारी संगठन सुलभ के प्रमुख बिंदेश्वर पाठक का मानना है कि अब तक आधा काम ही हुआ है।

उनका कहना था कि ग्रामीण भारत में 66 प्रतिशत लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है जहाँ शहरों में ये आंकड़ा मात्र 19 प्रतिशत ही है।

हाल ही में आई मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स इंडिया की रिपोर्ट में झारखंड सबसे नीचे है. वहाँ मात्र 17 प्रतिशत लोगों के पास शौचालय की सुविधा उपलब्ध है।

बिहार में ये आंकड़े 17 प्रतिशत के हैं। छत्तीसगढ़ बिहार से थोडा ही ऊपर है। वहां 17.9 प्रतिशत लोगों के पास साफ़ सुथरे शौचालय की सुविधा है।

ये आंकड़ा राजस्थान में 25.1 और उत्तर प्रदेश में 26.4 प्रतिशत है। वहीं आंकड़ों के हिसाब से दिल्ली सबसे ऊपर है। यहाँ के आंकड़े बताते हैं कि क़रीब 94.3 प्रतिशत लोगों के पास यहाँ शौचालय की सुविधा उपलब्ध है तो केरल में 96.7 और लक्षद्वीप में 98.8 और मिजोरम में 98.2 प्रतिशत।

ये आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत के जिन प्रदेशों में ग़रीबी ज़्यादा है, वहाँ लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है। हालाँकि पूर्वोतर के राज्य इस मामले में भारत के कईं अन्य राज्यों से बेहतर हैं।

शौचालयों से ज़्यादा मोबाइल


संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय की ओर से जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाले देश भारत में करोड़ो लोगों के पास मोबाईल की सुविधा तो है लेकिन उससे बड़ी संख्या में लोग शौचालय जैसी मूल सुविधा से वंचित हैं। विश्वविद्यालय ने अपनी रिपोर्ट में कुछ सिफ़ारिशें भी की हैं जिनका मक़सद है कि सफ़ाई व्यवस्था से वंचित लोगों की संख्या में कैसे कमी लाई जाए। भारत की 45 प्रतिशत आबादी के पास करीब 55 करोड़ मोबाइल फ़ोन हैं। लेकिन अगर हम वर्ष 2008 के आकड़ों को देखें तो पता चलेगा कि देश की मात्र 31 प्रतिशत आबादी के पास सुधरी हुई सफ़ाई व्यवस्था मौजूद है।

ये एक विडंबना ही है कि भारत में, जहाँ लोगों के पास इतना पैसा है कि आधी आबादी के पास मोबाईल फ़ोन की सुविधा है, वहाँ आधे लोगों के पास शौचालयों की सुविधा मौजूद नहीं है।

मकसद


ये एक विडंबना ही है कि भारत में, जहाँ लोगों के पास इतना पैसा है कि आधी आबादी के पास मोबाईल फ़ोन की सुविधा है, वहाँ आधे लोगों के पास शौचालयों की सुविधा मौजूद नहीं है।

इन सिफ़ारिशों को जारी करने का मक़सद है सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य में चिन्हित किए गए लक्ष्यों के अनुसार पानी और सफ़ाई व्यवस्था से वंचित लोगों की संख्या को आधा करना।

विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ़ के अनुसार अगर ताज़ा आंकड़ों की दिशा और रफ़्तार यही रही तो करीब एक अरब लोगों को सफ़ाई व्यवस्था पहुँचाने के वर्ष 2015 तक के लक्ष्य को पूरा नहीं किया जा पाएगा।

उधर ज़फ़र अदील का कहना है कि जो लोग इस मुद्दे पर बात नहीं करना चाहते, इसे अभद्र बताते हैं, उन्हें इस काम की बागडोर दूसरों के हाथ में दे दे देनी चाहिए क्योंकि ये लाखों बच्चों के भविष्य का सवाल है। ज़फ़र अदील ने उन लोगों की ओर भी ध्यान दिलाया जो हर साल गंदे पानी और अस्वस्थ वातावरण की वजह से मारे जाते हैं।

विश्वविद्यालय की रिपोर्ट के मुताबिक एक शौचालय बनाने में करीब 15 हज़ार का खर्चा आता है।

अव्यवस्था और उदासीनता के शिकार शौचालय


विनीत खरे
थिंक टैंक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन (ओआरएफ़) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ हर दिन 60 लाख से ज़्यादा लोग मुंबई की लोकल रेल से सफ़र करते हैं, लेकिन रेलवे स्टेशनों पर स्थित शौचालयों की स्थिति काफ़ी दयनीय है। मुंबई की लोकल रेलवे जैसे इस शहर की रफ़्तार की परिचायक है, लेकिन इन शौचालयों को देखकर लगता है कि यहां की रेलवे व्यवस्था में अव्यवस्था, गंदगी और उदासीनता का राज है। लाखों लोगों के लिए हैं सिर्फ़ 355 टॉयलट सीटें और 673 पेशाबघर जो कि नाकाफ़ी हैं। जो शौचालय हैं भी उनमें से कई गंदे हैं और कुछ बंद।

रिपोर्ट के मुताबिक़ लोकल ट्रेनों पर पड़ रहे बोझ को देखते हुए स्टेशनों पर कम से कम 12 हज़ार छह सौ टॉयलट सीटों की व्यवस्था होनी चाहिए, यानि कमी 12 हज़ार से ज़्यादा की है।

ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन की इस रिपोर्ट को तैयार करने वाली वर्षा राज कहती हैं, 'वर्ष 2008-2009 में नए शौचालयों को बनाने का केंद्रीय रेलवे का वार्षिक बजट 14 लाख रुपए था, लेकिन एक ग़ैर-सरकारी संस्था के मुताबिक़ एक शौचालय बनाने में क़रीब 12 लाख रुपए का ख़र्च आता है। इसका मतलब साफ़ है कि हर साल सिर्फ़ एक शौचालय बनेगा और अधिकारी नए शौचालयों को बनाने को लेकर गंभीर नहीं हैं।'

उदासीनता

बहुत देर तक शौचालय नहीं जाने से युरीनरी ट्रैक्ट इन्फ़ेक्शन हो जाता है। किसी भी इन्फ़ेक्शन के बार-बार होने से एनिमिया या किडनी स्टोन की संभावना भी बढ़ जाती है।

रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2006-07 में पश्चिमी रेलवे ट्रेन नेटवर्क पर लोगों की सुविधाओं के लिए क़रीब डेढ़ करोड़ की पूंजी लगी, लेकिन इसमें से एक रुपए सफ़ाई सुधारने के लिए आवंटित नहीं किए गए थे।

रिपोर्ट के मुताबिक़ रेलवे स्टेशनों पर गंदे शौचालयों के होने का एक बड़ा कारण है- आस-पास झोपड़पट्टियों में रह रहे लोगों का इन शौचालयों को इस्तेमाल करना। दरअसल, शौचालयों की कमी का मुद्दा सिर्फ़ मुंबई के रेलवे स्टेशनों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ये मुंबई के लाखों लोगों के लिए परेशानी का सबब है।

बहरहाल, बात करें रेलवे स्टेशनों पर स्थित शौचालयों की तो सबसे ज़्यादा परेशानी महिलाओं को होती हैं। कई महिलाओं ने हमें बताया कि वो इन शौचालयों का प्रयोग नहीं करती हैं, और अपने दफ़्तर या फिर किसी रिश्तेदार के घर पहुँचने का इंतज़ार करती हैं।

बीमारी


पेशे से डॉक्टर कामाक्षी भाटे के मुताबिक़ ये बाद में चलकर महिलाओं के लिए और बड़ी समस्याओं को जन्म दे सकती हैं।

लोगों को गंदे शौचालयों की इतनी आदत हो गई है कि वो इस बारे में अब सोचते भी नहीं। उन्हें पता है कि अधिकारी कुछ करेंगे भी नहीं तो इसलिए उन्होंने अपने हक़ की बात करनी भी बंद कर दी है।

वर्षा राज, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन की रिपोर्ट को तैयार करने वाली वो कहती हैं, 'बहुत देर तक शौचालय नहीं जाने से युरीनरी ट्रैक्ट इन्फ़ेक्शन हो जाता है। किसी भी इन्फ़ेक्शन के बार-बार होने से एनिमिया या किडनी स्टोन की संभावना भी बढ़ जाती है।' हमने जब रेलवे अधिकारियों से उनका पक्ष जानना चाहा और उनसे बात करनी चाही, चाहे वो पश्चिमी रेलवे के डिविज़नल रेलवे मैनेजर गिरीश पिल्लई हों, या फिर केंद्रीय रेलवे के मुंबई डिवीज़न के डिवीज़नल रेलवे मैनेजर एमसी चौहान, उन्होंने बात करने के वायदे तो किए, लेकिन बात नहीं की।

वर्षा राज कहती हैं, 'लोगों को गंदे शौचालयों की इतनी आदत हो गई है कि वो इस बारे में अब सोचते भी नहीं। उन्हें पता है कि अधिकारी कुछ करेंगे भी नहीं तो इसलिए उन्होंने अपने हक़ की बात करनी भी बंद कर दी है।'

रिपोर्ट के मुताबिक़ वीटी, चर्चगेट, दादर, कुर्ला, बांद्रा, ठाणें, कल्याण जैसे बड़े स्टेशनों में भी शौचालयों की हालत ख़स्ता है, हालांकि नवी मुंबई में स्थिति थोड़ी बेहतर है।

रिपोर्ट में भविष्य के लिए पब्लिक प्राइवेट मॉडल पर ज़ोर दिया गया है जिसके मुताबिक़ सरकार शौचालय के लिए ज़मीन मुहैया करे और निजी क्षेत्र की ज़िम्मेदारी इन शौचालयों को चलाने और देखभाल की हो।

स्थिति में सुधार


पश्चिमी रेलवे उपनगरीय नेटवर्क की ओर से दिए गए जवाब के मुताबिक़ उन्होंने शौचालयों की स्थिति सुधारने के लिए क़दम उठाए हैं।

जवाब के मुताबिक़, ' जिन स्टेशनों पर यात्रियों की संख्या ज़्यादा है , वहाँ डीलक्स शौचालयों का फ़ैसला किया गया है. ऐसे शौचालय बांद्रा टर्मिनस, अंधेरी स्टेशनों पर पहले ही चल रहे हैं, और दादर, बोरिवली, भयंदर, वसई और विरार स्टेशनों पर भी ऐसे ही शौचालयों को बनाने पर विचार चल रहा है। कई शौचालयों की मरम्मत का काम चरणों में किया जा रहा है। इसकी शुरुआत रेलवे बजट में आदर्श स्टेशनों के लिए नामांकित किए गए स्टेशनों से होगा।'

जवाब के मुताबिक़, ' इनमें से कुछ को मरम्मत की वजह से और कुछ को पानी की कमी की वजह से बंद रखना पड़ा है। कुछ स्थानों पर सुरक्षा या फिर शौचालयों के दुरुपयोग की वजह से उन्हें बंद रखना है।'

पश्चिमी रेलवे का कहना है कि उनकी लाईन पर महिलाओं के लिए 75 शौचालय हैं।
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