| नाइट्रोजन | फा. एसिड | पोटाश |
रेंड़ की खली | 5.0% | 2.9% | 2.6% |
मूंगफली की खली | 7.5% | - | - |
सरसों की खली | 6.5% | 2.0% | 1.3% |
अलसी की खली | 5.75% | 2.0% | - |
तिल की खली | 5.0% | 1.9% | .9% |
बिनौला की खली | 6.2% | 3.0% | 1.5% |
जानकारी के लिए यह दिया है, तो भी यह ध्यान में रखना होगा कि ढोरों के आहार में चिकनाई की कमी है। ऐसी दशा में, उन्हें खली न देकर, खेत में खली देना हिन्दुस्तान में पुसायेगा नहीं। ढोरों को खली देकर उनके मल-मूत्र से जो द्रव्य मिलेंगे, उसी से संतुष्ट रहने में बुद्धिमानी है।
हर पुख्ता ढोर से हन महीने में 600 पौंड गोबर (गीला) और 450 पौंड पेशाब मिलेगा, ऐसा विशेषज्ञ मानते हैं। उनमें से नीचे लिखे नाइट्रोजन आदि मिलेंगे।
| नाइट्रोजन (पौंड) | फा. एसिड | पोटाश |
गोबर 600 पौंड | .32%X6=1.920 | .21%X 6=1.260 | .16%X6=.960 |
पेशाब 450 पौंड | .95%X4.5=4.275 | .03%X4.5=.135 | .95%X4.5=4.275 |
कुल एक महीने में | 6.195 पौंडX12 | 1.395 पौंडX12 | 5.235 पौंडX12 |
कुल एक साल में | 74.340पौंड | 16.740पौंड | 62.820पौंड |
ऊपर के आँकड़े बड़े और ठीक-ठाक दाना-चारा मिलनेवाले पशु के हैं। हिन्दुस्तान के ढोरों की वर्तमान हालत हम जानते ही हैं। पशुओं के सारे गोबर-पेशाब की खाद नहीं बनायी जाती। पशु चरने के लिए जंगलों में भेजे जाते हैं या यदि बंजर जमीन में चरते हैं तो वहाँ पड़ने-वाले उनके गोबर-पेशाब का उपयोग करना कठिन ही है। ईंधन की कमी होने से गोबर जलाया भी जाता है। कुल गोबर का 30% जंगल में गिरता होगा, 40%जलाया जाता होगा और 30% की खाद बनायी जाती होगी, ऐसा विशेषज्ञों का अन्दाज है। एक-तिहाई गोबर की खाद बनती है, ऐसा मोटे तौर पर मानें, तो हर पशु के पीछे 25 पौंड नाइट्रोजन, 5.5 पौंड फा.एसिड और 21 पौंड पोटाश मिलेगा।
सेंद्रिय खाद-द्रव्य मिलने का और एक जरिया मानवीय मल-मूत्र है। जापान के सरकारी खेती-केन्द्रों को भेजे गये एक परिपत्र में से श्री पाध्येजी ने नीचे के आँकड़े दिये हैं:
(फी आदमी सालभर के आँकड़े, पौंडों में)
| मल 115 पौंड | मूत्र 710 पौंड | कुल 825 पौंड |
नाइट्रोजन | 1.20 | 3.55 | 4.75 पौंड |
फा. एसिड | 0.41 | 0.66 | 1.07 पौंड |
पोटाश | 0.39 | 2.00 | 2.39 पौंड |
पाश्चात्य देशों में से मंटूझ और जिरार्ड ने नीचे लिखे आँकड़े दिये हैं:
फी आदमी हर रोज का मल-मूत्रादि (वजन ग्राम में)
| मल | मूत्र |
असली हालत में | 133.0 ग्राम | 1200.0 ग्राम |
सूखी हालत में | 30.30 ग्राम | 64.0 ग्राम |
नाइट्रोजन | 2.10 ग्राम | 12,10 ग्राम |
फा. एसिड | 1.64 ग्राम | 1.80 ग्राम |
पोटाश | 0.73 ग्राम | 2.22 ग्राम |
ऊपर के आँकड़ों का हिसाब एक साल का और पौंड में करने से नीचे अनुसार आयेगाः
| मल 105 पौंड | मूत्र 145 पौंड | कुल 1050 पौंड |
नाइट्रोजन | 1.66 पौंड | 9.50 पौंड | 11.16 पौंड |
फा. एसिड | 1.25 पौंड | 1.25 पौंड | 2.50 पौंड |
पोटाश | .60 पौंड | 1.80 पौंड | 2.40 पौंड |
जापान के आँकड़े और पश्चिम के आँकड़ों पर जरा नजर डालिए। पोटाश दोनों में समान है। लेकिन दूसरे दोनों द्रव्य जापान से पश्चिम के देशों में सवा दो गुना हैं। इसकी वजह यह होगी कि पश्चिम के लोगों को अधिक पौष्टिक अन्न मिलता है। आज हिन्दुस्तान के एक पशु से मिलने वाले नाइट्रोजन आदि से जब हम पश्चिम के मानवीय मल-मूत्र में से मिलने वाले द्रव्यों की तुलना करते हैं, तो पशु से करीब आधे द्रव्य हमें मिलेंगे, ऐसा दिखता है। जब कभी हिन्दुस्तान के लोगों को पश्चिम के सम्पन्न देशों के लोगों के जितना पौष्टिक आहार मिलेगा, तब की यह बात हुई। उसकी अभी छोड़ दें। जापान के जो आँकड़े हैं, वे हिन्दुस्तान पर लागू हैं, ऐसा माने-न-मानने के लिए कोई खास कारण नहीं है-तो भी एक पशु से मिलनेवाले खाद-द्रव्य से एक-चौथाई खाद द्रव्य तो मिलेंगे ही। हिन्दुस्तान में पशुओं से मनुष्यों की संख्या दुगुनी है, यह बात ध्यान में रखें, तो पशु की अपेक्षा आधे द्रव्य मिलेंगे, ऐसा अर्थ होता है। आगे जाकर सोचें तो हमारी आबादी बढ़ती है और यंत्रीकरण के प्रवाह का पशु-संख्या पर क्या असर होगा, कोई नहीं जानता। ऐसी हालत में निश्चित रूप से मिलने वाले मानवीय मल मूत्र का खाद के तौर पर उपयोग होना चाहिए, यह आग्रह अनुचित नहीं है। यह जानकर हमें आश्चर्य और आनन्द भी होगी कि 1893 में वोएलकर ने और 1895 में लेघर ने इस बात की ओर ध्यान खींचा था। वे दोनों हिन्दुस्तान के कृषि-विभाग के बड़े अधिकारी थे। उन्होंने लिखा है कि हिन्दुस्तान की खेती की एक महत्व की गरज यह है कि मानवीय मल-मूत्र की खाद-द्रव्य जमीन को हम वापस कैसे दें। क्योंकि खाने के काम में आनेवाली फसलें जमीन में से द्रव्य खींचती हैं, उनमें से करीब आधे द्रव्य इन दो चीजों में-मानवीय मल और मूत्र में होते हैं।
मानवीय मल-मूत्र की खाद से फसल की पैदावार कितनी बढ़ती है, इस बारे में अभी अनुभव-सिद्ध आँकड़े नहीं मिले हैं। फिर भी नीचे की जानकारी पर से कुछ कल्पना आयेगी। सुरगाँव (वर्धा) में एक किसान ने पहले साल बिना खाद दिए धान बोया। दूसरे साल सोनखाद देकर बोया। पहले साल से दूसरे साल एक तिहाई रकवे में धान बोया था, फिर भी पहले साल से कुछ ही कम धान पैदा हुआ। हिसाब लगाने पर पहले साल से पौने तीन गुना अनुपात पड़ा बारिश आदि अन्य कारणों को ख्याल में लें, तो भी डेढ़गुनी फसल आमतौर से होगी, ऐसा मानने में कोई हर्ज नहीं है। कम-से-कम गोबर की खाद से जितनी पैदावार बढ़ती है, उतनी तो बढ़ेगी ही।
सोन-खाद, किस फसल को कितनी मात्रा में देनी चाहिए इस बारे में भी प्रयोग होना बाकी है। फिर भी हम कह सकते हैं कि जहाँ निश्चित रूप से पानी दे सकते हैं। वहाँ गोबर-खाद की मात्रा में और अन्य जगह गोबर-खाद की दो-तिहाई मात्रा में उसे दें।
मानवीय मल-मूत्र का खाद के तौर पर उपयोग करने में कोई-कोई आरोग्य हानि की आशंका करते हैं। उस पर भी विचार कर लें। भिन्न-भिन्न रोग जंतुमूलक हैं, यह बात अब करीब-करीब सर्वंमान्य है। कॉलरा, भिन्न-भिन्न प्रकार के टाइफॉइड आदि आँतों के भयंकर रोगों के जन्तुओं का मानवीय मल-मूत्र से निकट का सम्बन्ध है। पाश्चात्य देशों में मानवीय मल-मूत्र की ठीक ढंग से व्यवस्था करने से ऊपर के रोग काफी हद तक काबू में आ गये हैं, यह भी सही है। जिस जमीन को अभी-अभी आदमी का मैला खाद के तौर पर दिया गया हो, उस जमीन में पैदा की गयी तरकारियों का सम्बन्ध भी आँतों के रोगों से जोड़ा गया है। डॉ. रिचर्डसन ने, जो छह साल चीन में थे, 1943 में हिन्दुस्तान के खेती-केमिस्ट आदि के सामने अपने व्याख्यान में कहा था कि चीन की जमीन के उपजाऊपन में गोबर-खाद का कम हिस्सा हो। मुख्य हिस्सा मानवीय मैले का है। और चीन यदि मानवीय मैले का उपयोग नहीं करता, तो वह इतनी बड़ी आबादी को जिला नहीं सकता, यह भी सकता, यह भी सही है। फिर भी मैं आदमी के मैले का इस तरह उपयोग करने की हिन्दुस्तान को सलाह नहीं दूँगा, क्योंकि चीन में मृत्यु-प्रमाण हजार में तीस याने दुनिया के कोई भी बड़े देश से ज्यादा है। स्वास्थ्य-विशेषज्ञों का अंदाज है कि ऊपर के 30 में से कम-से-कम एक-चौथाई याने 8 आदमियों की मृत्यु मैले से सम्बन्ध रखनेवाले याने टाइफॉइड, कॉलरा आदि रोगों से होती होगी। मृत्यु-परिणाम ही ज्यादा नहीं है, बीमारी भी बहुत ज्यादा है। मैं चीन में छह साल था। उस अरसे में मैले की वजह से, दो करोड़ लोग मृत्यु के मुँह में और बीस करोड़ लोग कम-ज्यादा परिणाम में बीमार पड़े होंगे।
छांदिष्ट (फडिस्ट) और भ्रमिष्ट लोगों को सब बातों का कारण या उपाय एक ही दिखता है। ऐसा कुछ प्रकार रिचर्डसन का भी प्रतीत होता है। जिसको दूध का अभाव खटकता है, वह कहता है, दूध नहीं मिलता, इसलिए मृत्यु-परिणाम इतना अधिक है। जिसको बाल-विवाह खटकता है, वह कहता है, सब अनर्थों का कारण बाल-विवाह ही है। असल में ये सभी कारण होते हैं। फिर भी थोड़ी देर के लिए, रिचर्डसन के कथनानुसार वैसी स्थिति चीन में है, ऐसा मानें तो उसका कारण यह होगा कि चीनी लोग मैले का ही या उसे ठीक गलाये बिना ही खाद के तौर पर उपयोग करते होंगे। मैले की खाद का खाद के तौर पर उपयोग नहीं करते होंगे। मैले की पक्वखाद हुए बिना, खाद के तौर पर उपयोग करें, तो ऊपर के दुष्परिणामों की सम्भावना हो सकती है। मैला पक्व होने के बाद याने सड़कर पूरा गल जाने के बाद खाद के नाते उपयोग करें, तो ऊपर की तरह का कोई दुष्परिणाम होने की संभावना नहीं है। महात्माजी के आश्रमों में तथा अन्य कई संस्थाओं में सालों से आदमी के मैले की खाद का उपयोग सभी फसलों में किया जाता रहा है और उससे नुकसान हुआ, ऐसा मानने का कोई सबूत नहीं है। इसलिए बिना संकोच के हम आदमी के मल-मूत्र की खाद का उपयोग कर सकते हैं।
आखिर में श्रीयुत किंग की किताब “चालीस सदी के किसान” में से एक उद्धरण देकर इस विषय को पूरा करेंगे। “जिनमें से आमतौर से कम ही, एक सदी से काम में लाये गये हैं, ऐसे अपने खेती फार्मों के घटते हुए उपजाऊपन को और उन फार्मों में से पुसानेवाली फसलें निकालने के लिए प्रचण्ड मात्रा में जो खनिज (कृत्रिम) खादें दी जाती हैं, उन पर सोचते हैं, तब साफ जाहिर होता है कि मंगोलियन जातियाँ (चिनी, कोरियन, जापानी आदि) कितनी ही सदियों से (खेती के बारे में) जो तरीके अपनाती आयी हैं उनकी ओर खूब लक्ष्य देने का समय आ गया है।”
ये हैं शब्द उस आदमी के, जिसने खेती का तज्ञ होने के साथ ही, पश्चिम और पूरब, दोनों के खेती के ढंगों का बारीकी से और शास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन किया था।
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