कविता के बीच

हमेशा बहती रहती है
मेरे अंदर यह नदी
जैसे धमनियों के अंदर
बहता है खून मुझे जिंदा किए हुए
मेरे अंदर उसी तरह
रहता है मेरा गांव व
लहलहाते खेत, खलिहान,
मस्त हवा में झूमते पेड़
जैसे जीवन के आखिरी पलों तक
रहती है मां की याद और
मेरे बाद भी यह नदी
यह बलुहे तट
यह मझधार में तैरती
नावों पर गूंजता मांझी गीत और
बंसी की डोर से कसे
तट के सन्नाटे को तोड़ती
वह एक सुनहली मछली
रहेगी मेरी कविता के
शब्दों के बीच।
‘उत्तर प्रदेश’ पत्रिका, लखनऊ, सितंबर, 1991 में प्रकाशित

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