नरेंद्र पुंडरीक
नरेंद्र पुंडरीक
कविता के बीच
Posted on 05 Dec, 2013 11:02 AMहमेशा बहती रहती हैमेरे अंदर यह नदी
जैसे धमनियों के अंदर
बहता है खून मुझे जिंदा किए हुए
मेरे अंदर उसी तरह
रहता है मेरा गांव व
लहलहाते खेत, खलिहान,
मस्त हवा में झूमते पेड़
जैसे जीवन के आखिरी पलों तक
रहती है मां की याद और
मेरे बाद भी यह नदी
यह बलुहे तट
यह मझधार में तैरती
नावों पर गूंजता मांझी गीत और
बंसी की डोर से कसे