कुंभ: साझी समझ से बासी आडंबर तक

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पौराणिक संदर्भ प्रमाण हैं कि कभी नदियों की समृद्धि के काम में राजा-प्रजा-ऋषि... तीनों ही साझीदार हुआ करते थे। तीनों मिलकर नदी समृद्धि हेतु चिंतन करते थे। यही परिपाटी लंबे समय तक कुंभ की परिपाटी बनी रही। कुंभ सिर्फ स्नान का पर्व कभी नहीं रहा। अनुभव बताता है कि जब समृद्धि आती है, तो वह सदुपयोग का अनुशासन तोड़कर उपभोग का लालच भी लाती है और वैमनस्य भी। ऐसे में दूरदृष्टि और कुछ सावधान मन ही रास्ता दिखाते हैं। ऐसे में जीवनशक्तियों को जागृत होना पड़ता है। एकजुट होकर विमर्श करना पड़ता है। तब कहीं समाधान निकलता है। गलत काम रुक जाते हैं और अच्छे कामों का प्रवाह बह निकलता है। कुभ का यही कार्य है। यही मंतव्य!

 

प्रकृति का चिंतन पर्व थे कुंभ


भारतवर्ष में नदियों के उदगम् से लेकर संगम तक दिखाई देने वाले मठ, मंदिर अनायास यूं ही नहीं हैं। ऋषि-प्रकृति का प्रतिनिधि होता है। समाज ने ऋषियों को ही नदियों की पहरेदारी सौंपी थी। यह ऋषियों का ही जिम्मा था कि वे नदी किनारे आने वाले समाज को सिखाये कि नदी के साथ कैसे व्यवहार करना है। ऋषियों ने यह किया भी; तभी हमारी नदियां इतने लंबे समय तक समृद्ध बनी रहीं। लेकिन जब कभी विवाद हुआ या नदी के सम्मान में किसी ने चोट पहुंचाई तो ऋषि ने निर्णय अकेले नहीं दिया। ऋषियों ने कहा कि नदी अकेले न समाज की है, न ऋषि की और न राजा की; नदी तो सभी की साझा है।

राज-समाज-ऋषि से लेकर प्रकृति के प्रत्येक जीव व वनस्पति का इस पर साझा अधिकार है। अतः इसकी समृद्धि और पवित्रता के हक में सभी को बैठकर साझा निर्णय लेना होगा। बस! यह एक दस्तूर बन गया। राज-प्रजा-ऋषि... सभी एक निश्चित अंतराल पर नदियों के किनारे जुटने लगे। आज भी किसी न किसी बहाने भारत का समाज अपनी-अपनी नदियों के किनारे जुटता ही है: गंगापूजा, कांवड़ियों का श्रावणी मेला, कार्तिक पूर्णिमा, छठपूजा, मकर संक्रान्ति, पोंगल, बसंत पंचमी...। यदि कोई छेड़छाड़ न की जाये, तो भी सामान्यतः 150 सालों में नदी प्रवाह की दिशा और दशा में बदलाव आता है। छेड़छाड़ हो तो यह पहले भी हो सकता है; जैसा कि तटबंधों में फंसी उत्तर बिहार की नदी-कोसी के साथ आये साल हो रहा है। संभवतः इसीलिए 144 वर्षों में महाकुंभ का निर्णायक आयोजन तय किया गया। महाकुंभ के निर्णयों की अनुपालना और निगरानी के लिए हर छह बरस पर अर्धकुंभ और 12 वर्ष पर कुंभ के आयोजन की परंपरा बनी।

अनुसंधान प्रसार का माध्यम थे कुंभ: कहा तो यह भी जाता है कि कालांतर में कुंभ... ऋषियों द्वारा किए गये अनुसंधानों को समाज के बीच पहुंचाने का भी एक बड़ा माध्यम बन गये थे। हमारे यहां प्रत्येक परिवार द्वारा किसी न किसी से गुरू परिवार से दीक्षा लेने की परंपरा हमेशा से रही है। प्रत्येक गुरू का शिष्य समाज उनसे मिलने कुंभ में आता था। इसे आज हम ‘कल्पवास’ के नाम से जानते हैं। जैसा राजा भगीरथ ने मां गंगा का वचन दिया था, परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त ऐसे सज्जन कल्पवास में जुटते थे। राजा हो या प्रजा.. सभी गुरू आदेश की पालना ईश्वरीय आदेश की तरह करते थे। इसीलिए कुंभ में ऋषि अपने अनुसंधानों को गुरूओं के समक्ष प्रस्तुत करते थे। कल्पवासी गुरू आदेश के अनुसार ऋषि अनुसंधानों को अपने परिवार व समाज में व्यवहार में उतारते थे। धीरे-धीरे समाज के कलाकार, कारीगर, वैद्य आदि हुनरमंद लोग भी अपने हुनर के प्रदर्शन के लिए कुंभ में आने लगे। यहां तक तो सब ठीक रहा, लेकिन बाद में आया बदलाव कुंभ को उसके असल मंतव्य से ही भटका गया।

 

दिखावटी आयोजन में बदल गये कुंभ


पता नहीं कब और कैसे कुंभ चिंतन पर्व से बदलकर सिर्फ एक स्नानपर्व बनकर रह गया? बहुत कुरेदने पर एक संत ने बताया कि कैसे 50 के दशक तक साधुओं के अखाड़ों में रोटी रूखी, लेकिन निष्ठा व सम्मान बहुत ऊंचा था। इसी दौरान धर्माचार्यों के एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ, जिनके आभूषण सोने के थे, आसन चांदी के और रसोई.. छप्पन भोगों से परिपूर्ण। बावजूद इसके जब वे लंबे समय तक सम्मानित साधु समाज की अगली पंक्ति में शामिल नहीं हो सके, तो उन्होने अनैतिकता की ओर कदम बढ़ाया। रोटी सुधारने के नाम पर धीरे-धीरे उन्होंने अखाड़ों को अपने वैभव के आकर्षण में लिया। घी-चुपड़ी देकर अखाड़ों में अपने लिए सम्मान हासिल लिया। हासिल सम्मान के प्रचारित करने के लिए कुंभ में दिखावे का सहारा लिया। शाही स्नान के नाम पर कुंभ अब अखाड़ों, संप्रदायों, मतों के धर्माचार्यों के वैभव प्रदर्शन का माध्यम बन गये हैं। लिखते दुख होता है कि जो संत समाज कभी कुंभ के दौरान समाज को निर्देशित कर एक नैतिक, अनुशासित और गौरवमयी विश्व के निर्माण का दायित्वपूर्ण कार्य करता था, उसी संत समाज के उत्तराधिकारियों ने कुंभ को महज् दिखावटी आयोजन बना दिया। आज कुंभ के दौरान लोग पवित्र नदियों में स्नान करने तथा स्नान के दौरान कचरा बहाकर नदी को और गंदा करने आते हैं; नदी को समृद्ध बनाने नहीं। अब तो कुंभ नवाचारों के प्रचार का भी माध्यम नहीं रहा। कुंभ का ऐसा मंतव्य कभी नहीं था। आइये! कुंभ को वापस उसके मूल मंतव्य की ओर ले चलें। इसे वैचारिक चिंतन, श्रमनिष्ठा और सद्संकल्प का महापर्व बनायें। प्रकृति, समाज और विकास.. तीनों को बचायें! अपना दायित्व निभायें!!

 

गंगा रक्षा सूत्र


आइये! पालना करें
“पुण्यतोया श्रीगंगाजी में मैला फेंकना, मल-मूत्र त्याग, मुंह धोना, दांत साफ करना, कुल्ला करना, बदन मलना, रतिक्रीड़ा आदि नहीं करने चाहिए। पहने हुए वस्त्र को छोड़ना, बालों को प्रवाहित करना, जल पर आघात करना या जलक्रीड़ा वर्जित है। बदन में तेल मलकर या मैले बदन गंगाजी में प्रवेश नहीं करना चाहिए। गंगाजी किनारे वृथा बकवाद करना, झूठ बोलना, गंगाजी के प्रति कुदृष्टि रखना, अभक्तिक कर्म करना और ऐसे कर्मों को न रोकना.. दोनो ही पाप हैं। इनसे बचें।’’

पुराणों में उल्लिखित उक्त गंगा रक्षा सूत्र की पालना कर हम गंगा रक्षा की ओर एक कदम आगे बढ़ सकते हैं। क्या आप ऐसा करेंगे? गंगा को जवाब की प्रतीक्षा है।

 

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