कुंभ निवेदन

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ए नये भारत के दिन बता!
ए नदिया जी के कुंभ बता!
उजरे-कारे सब मन बता!!
क्या गंगदीप जलाना याद तुम्हें
या कुंभ जगाना भूल गये ?
या भूल गये कि कुंभ सिर्फ नहान नहीं,
गंगा यूं ही है महान नहीं।
नदी सभ्यतायें तो कई जनी,
पर संस्कृति गंग ही परवान चढ़ी।
“नदियों में गंगधार हूं मैं’’
क्या श्रीकृष्ण वाक्य तुम भूल गये?
ए नये भारत के दिन बता.....

यहीं मानस की चौपाई गढ़ी,
क्या रैदास कठौती याद नहीं?
न याद तुम्हें गौतम-महावीर,
तुम भूल गये नानक-कबीर!
तुम दीन-ए-इलाही भूल गये,
तुम गंगा की संतान नहीं !
हर! हर!! गंगा की तान बड़ी,
पर अब इसमें कुछ प्राण नहीं।
ए नये भारत के दिन बता....
हा! कैसी हैं हम संतानें!
मार रही खुद ही मां को।
सिर्फ मल बहाना याद हमें,
सीने पर बस्ती खूब बसी।
अपनी गंगा को बांध-बांध,
सिर्फ बिजली बनाना याद रहा।
वे कुंभ कहां? भगीरथ है कहां?
गंगा किससे फरियाद करे??
ए नये भारत के दिन बता....

गंगोत्री से गंगासागर तक,
अब एक ही अपना नारा हो।
हम भी शामिल हों उनमें,
जिनने जीवन गंगाजी पे वारा हो।
जो बांध रहें...उनको बांधें,
जो बचा रहें...उनको साधें।
सिर्फ मात नहीं.. मां से बढ़कर,
यह बात सदा ही याद रहे।
ए नये भारत के दिन बता......
 

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