कुंभ में उठी नदियों की जीवंतता को संवैधानिक दर्जे की मांग

ganga sansad
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आज भी भारत में नदियों को ‘वाटरबॉडी’ नहीं, मां कहा जाता है। क्या ऐसे भारत देश में नदियों को ‘नैचुरल पर्सन’ संवैधानिक दर्जा नहीं मिलना चाहिए? बहन मीनाक्षी द्वारा उछाले इस सवाल से मुझे नदियों की सेहत सुनिश्चित करने वाली एक खिड़की खुलती दिखाई दी। नदियों को मां कहने वाले देश में तो नदियों को ‘नैचुरल पर्सन’ से दो कदम आगे बढ़कर ‘नैचुरल मदर’ के संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए। कुंभ को शुरू हुए एक पखवाड़ा पूरा होने को है। इस बीच कुंभ के गलियारे में ख़बरें तो कई आई। दो शंकराचार्यों के बीच बद्रिकाश्रम पीठ पर दावे पर शास्त्रार्थ की चुनौती, चतुष्पथ को लेकर शंकराचार्य के कुंभ छोड़ने से लेकर सपा सांसद रेवती रमण सिंह के एक फोन पर कुंभ वापस आने तक, अजन्मी बेटियों की हत्या से लेकर बढ़ते पश्चिमी दुनिया के भारतीय संस्कृति पर दुष्प्रभाव की चिंता तक; लेकिन नदी की चिंता करने वाली ख़बरें सीमित ही थी। नदी की चिंता के कारण किसी शंकराचार्य ने कुंभ नहीं छोड़ा। खैर, नदी की चिंता करने वाली ख़बरें सीमित सही, पर अब आने लगी हैं। ‘ग्लोबल ग्रीन’ संस्था द्वारा इलाहाबाद नगर निगम के साथ मिलकर लिया गया ग्रीन कुंभ का सपना! इस सपने को सच करने को लेकर हाईकोर्ट द्वारा लगाया गया पॉली पन्नियों के उपयोग पर प्रतिबंध!...यह दोनों ख़बरें कुंभ शुरू होने से पहले ही आ गई थीं। खबर है कि उत्तराखंड के लोगों ने कुंभ में आकर जताया गंगा की अविरलता के साथ उत्तराखंड में हो रहे खिलवाड़ पर विरोध। कुंभ में नदी चिंता की दूसरी कवायद है वैज्ञानिक, संगठन, संत, शिक्षाविद और प्रशासनिक अधिकारियों की सहभागिता से संपन्न ‘गंगा संसद’ और उसमें लिए गंगा संकल्प! व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठकर गंगा हितार्थ जुटेंगे; गंगा के प्रवाह की आज़ादी सुनिश्चित करके रहेंगे आदि, आदि....।

संकल्प पत्र में नदियों की चिंता को पाठ्यक्रम में शामिल कराने, गंगा किनारे के जल का वाटर ऑडिट यानी जल अंकेक्षण करने तथा रिवर-सीवर को अलग-अलग रखने के सिद्धांत की मांग को मंजूरी दिलाने, राष्ट्रीय नदी के सम्मान से समझौता बर्दाश्त नहीं करने जैसी बातें खास हैं। हालांकि ये संकल्प पहले भी कई बार दोहराये जा चुके हैं; लेकिन नदियों की जीवंतता को संवैधानिक दर्जा दिलाने का एक संकल्प ऐसा है, जिसका इज़हार इस तरह साझे और सार्वजनिक रूप पहली बार किया गया है। गंगा संसद की निगाह में नदियों के लिए इस दर्जे का कितना महत्व है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जारी 18 सूत्री संकल्प पत्र में यह दर्जा सबसे पहले नंबर पर दर्ज है।यह संकल्प पत्र जलबिरादरी के अध्यक्ष जलपुरुष राजेन्द्र सिंह और गोविंदबल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के निदेशक प्रदीप भार्गव की ओर से संयुक्त रूप से जारी किया गया।

मुझे याद है कि नदियों की जीवंतता को संवैधानिक दर्जा देने के विचार को सबसे पहले मैने उत्तर प्रदेश की नदी नीति के निर्माण हेतु आयोजित मेरठ सम्मेलन में सुना था। अक्तूबर - 2012 के महीने में यमुना वाटरकीपर्स की मुखिया मीनाक्षी अरोरा ने इसे लेकर सभा के बीच एक सवाल उछाला था। उन्होंने कहा था कि इक्वाडोर और न्यूजीलैंड ने नदियों की जीवंतता को आधार बनाकर इन्हें ‘नैचुरल पर्सन’ का सवैंधानिक दर्जा दे दिया है। हमें उनके अनुभवों से सीखना ही चाहिए। कभी भारत की आस्था व ज्ञानतंत्र ने आधुनिक विज्ञान से पहले यह बात दुनिया को बताई थी। आज भी भारत में नदियों को ‘वाटरबॉडी’ नहीं, मां कहा जाता है। क्या ऐसे भारत देश में नदियों को ‘नैचुरल पर्सन’ संवैधानिक दर्जा नहीं मिलना चाहिए? बहन मीनाक्षी द्वारा उछाले इस सवाल से मुझे नदियों की सेहत सुनिश्चित करने वाली एक खिड़की खुलती दिखाई दी। नदियों को मां कहने वाले देश में तो नदियों को ‘नैचुरल पर्सन’ से दो कदम आगे बढ़कर ‘नैचुरल मदर’ के संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए। इस विचार को मैंने सबसे पहले हिंदी वॉटर पोर्टल के साथ साझा किया था। इस विचार के विविध आयामों पर कई पानी कार्यकर्ताओं से भी मैने चर्चा की। हाल ही में आई आई टी, कानपुर द्वारा दिल्ली में आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन में जानकारी मिली कि गंगा मास्टर प्लान-2020 के नियोजक भी नदियों की जीवंतता को संवैधानिक दर्जा दिए जाने के पक्ष में आ खड़े हुए हैं। प्लान बनाने वाले सात आई आई टी संस्थानों की टीम के बीच समन्वय की भूमिका निभा रहे प्रो. विनोद तारे ने अपने वक्तव्य में इसका इज़हार किया था। जाहिर है कि विचार था, मांग थी, लेकिन यह दर्जा दिलाने का संकल्प पहली बार सार्वजनिक हुआ। गंगा संसद इसके लिए याद की जायेगी और 2013 का कुंभ भी।

उल्लेखनीय है कि भीमगौड़ा बैराज द्वारा गंगा प्रवाह का मार्ग अवरुद्ध पर साधुओं की आपत्ति ने पहले संघर्ष की नींव रखी थी। यह इस गंगा की सेहत की चिंता का 101वां साल है। दिलचस्प है कि गंगा को लेकर आंदोलन चाहे जब और जितने हुए हों, लेकिन कुंभार्थियों की मांग ज्यादा पानी छोड़े जाने से आगे कभी नहीं बढ़ सकी। पिछला हरिद्वार कुंभ इस मामले में भिन्न कहा जायेगा। पिछले हरिद्वार कुंभ में जलबिरादरी ने ही ‘गंगा स्वच्छता संग्राम’ का ऐलान कर बड़ी पहल की थी। इस ऐलान से हरिद्वार कुंभ में गंगा को लेकर थोड़ी बेचैनी शुरू हुई थी। गंगा सेवा अभियान के सौ कार्यकर्ताओं ने कुंभार्थियों को गंगा में कचरा डालने से रोककर पहरेदारी की थी। कुंभ में दिखा यह चलन भी नया ही था। पहली बार पिछले हरिद्वार कुंभ में गंगा की चिंता को लेकर धर्माचार्यों व समाज के प्रतिनिधियों का एक वर्ग चिंतित और लामबंद हुआ था। पहली बार गंगा की मलीनता को लेकर बहिष्कार की धमकी सरकार को उसी कुंभ में मिली थी। तत्कालीन जलसंसाधन मंत्री पवन कुमार बंसल को उनकी बात सुनने के लिए कुंभ आने पर विवश होना पड़ा था। ये सब बातें मैं कैसे भूल सकता हूं!

हालांकि यह बात भी भूलने की नहीं है कि गंगा मुद्दे पर धर्माचार्यों को संगठित करने के लिए जलबिरादरी को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी।

मुझे ख्याल है कि गंगा की सेहत के समाधान को हासिल करने के लिए साझा बनाने की दृष्टि से जलबिरादरी प्रमुखों ने व्यक्तिगत निवेदन कर धर्माचार्यों को आमंत्रित किया था। पहले दिन चले संवाद में थोड़े से हो सही समाज के लोग तो बिन बुलाये आये, लेकिन धर्माचार्यों को बुलाने के लिए जलबिरादरी साथियों को बार-बार मनुहार करनी पड़ी थी। अंततः कोशिश रंग लाई। इस साझे के नतीजे 2012 के मध्य तक हमने देखे। नदियों को ‘नैचुरल मदर’ के संवैधानिक दर्जे की मांग के नतीजे भी हम आगे देखेंगे। आगाज हो चुका है। एक न एक दिन अंजाम भी आयेगा ही। वह भारत की नदियों के लिए अच्छा दिन होगा। कोशिश जारी रहे!

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