कुंभ : आस्था और विज्ञान

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कुंभ की आस्था


आपने कुंभ राशि के प्रतीक के रूप में कलश को देखा होगा। कलश यानी ‘घट’ अर्थात घड़ा! आस्था कहती है कि समुद्र मंथन के दौरान निकले अमृत कलश को दानवों से बचाने के लिए दैवीय शक्तियां 12 दिन तक उसे ब्रहाण्ड में छिपाने की कोशिश करती रहीं। इस दौरान उन्होंने जिन-जिन स्थानों पर अमृत कलश को रखा, वे स्थान कुंभ के स्थान हो गये। गर्ग संहिता आदि पुराणों में यह उल्लेख मिलता है, तो अथर्ववेद कहता है कि समुद्र मंथन के समय अमृत से पूर्ण कुंभ जहां-जहां स्थापित किया गया, वे चार स्थान कुंभ के तीर्थ हो गये। अन्य पुराण 12 वर्षों में सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति के योगायोग के चार प्रभाव बिंदुओं को कुंभ का स्थान मानते हैं। नासिक (महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी का तट, उज्जैन (मध्यप्रदेश) में शिप्रा के तट पर, इलाहाबाद में गंगा-यमुना की संगमस्थली प्रयाग और हरिद्वार में गंगा का किनारा... ये चार स्थान आज भी कुंभ के स्थान बने हुए है।आस्था कहती है। दैवीय शक्तियां कुंभ को लेकर 12 दिन तक चक्कर लगाती रहीं। उनका एक दिव्य दिवस मृत्युलोक के एक वर्ष के बराबर होता है। अतः 12 दिव्य दिवस मानव गणना के 12 वर्ष हो गये और इन 12 वर्षों के अंतराल को दो कुंभ का अंतराल मान लिया गया।

 

कुंभ का विज्ञान


इस ब्रह्माण्ड को भरा हुआ कुंभ ही कहा गया है। वैज्ञानिक इसी से दिन, रात, महीना और 12 महीनों का एक वर्ष की गणना करते रहे हैं। पृथ्वी एक दिन में अपनी धुरी पर एक बार और 12 महीनों में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है। यह हम सभी जानते हैं। भारत के ऋषि वैज्ञानिक तर्क देते हैं कि ब्रह्माण्ड में दो तरह के पिण्ड हैं, ऑक्सीजन प्रधान और कार्बन डाइऑक्साइड प्रधान। ऑक्सीजन प्रधान पिण्ड ‘जीवनवर्धक’ होते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड प्रधान पिण्ड ‘जीवनसंहारक’। जीवनवर्धक पिण्डों और तत्वों का सर्वप्रधान केन्द्र होने के नाते ग्रहों में बृहस्पति का स्थान सर्वोच्च माना गया है। शुक्र सौम्य होने के बावजूद संहारक है। शायद इसीलिए पुराणों ने बृहस्पति की देवों और शुक्र की आसुरी शक्तियों के गुरू के रूप में कल्पना की है। शनि ग्रह जीवनसंहारक तत्वों का खजाना है। सूर्य के द्वादशांश को छोड़ दें, तो शेष भाग जीवनवर्धक है। सूर्य पर दिखता काला धब्बा ही वह हिस्सा है, जिसे जीवनसंहारक कहा गया है। अमावस्या के निकट काल में जब चन्द्रमा क्षीण हो जाता है, तब संहारक प्रभाव डालता है। शेष दिनों में... खासकर पूर्णिमा के निकट दिनों में चन्द्रमा जीवनवर्धक हो जाता है। मंगल.. रक्त और बुद्धि दोनों पर प्रभाव डालता है। बुध उभय पिण्ड है। जिस ग्रह का प्रभाव अधिक होता है, बुध उसके अनुकूल प्रभाव डालता है। छाया ग्रह राहु-केतु तो सदैव ही जीवनसंहारक यानी कार्बन डाइऑक्साइड से भरे पिण्ड हैं। इनसे जीवन की अपेक्षा करना बेकार है।

 

कुंभ की भिन्न तिथियों व स्थानों का औचित्य


ज्योतिष विज्ञान अलग-अलग ग्रहों को अलग-अलग राशियों के स्वामी मानता है। जीवनवर्धक ग्रहों का प्रधान ग्रह बृहस्पति जब-जब संहारक ग्रहों की राशि में प्रवेश कर जीवनसंहारक तत्वों के कुप्रभावों को रोकने की कोशिश करता है; ऐसी तिथियां शुभ मानी गई हैं। ऐसे चक्र में एक समय ऐसा आता है, जब बृहस्पति ग्रह जीवनसंहारक शनि की राशि कुंभ में प्रवेश करता है। इसी काल में जब सूर्य और चन्द्रमा मंगल की राशि मेष में आ जाते हैं, तब इनके प्रभाव का केन्द्र बिंदु हरिद्वार क्षेत्र बनता है। इसी प्रकार एक समय बृहस्पति ग्रह दैत्यगुरू शुक्र की राशि वृष में प्रवेश करता है तथा सूर्य और चन्द्रमा का शनि की राशि मकर में प्रवेश होता है। यह ऐसी तिथि होती है, जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होता है। सूर्य का उत्तरायण होना कर्मकाण्ड की दृष्टि से शुभ माना जाता है। ऐसे समय में उत्तर प्रदेश का इलाहाबाद प्रभाव क्षेत्र बनता है। 2013 का वर्तमान कुंभ ऐसे ही संयोग का परिणाम है।

जब भादों की भयानक धूप होती है, तब सूर्य के मारक प्रभाव से बचाने के लिए बृहस्पति सूर्य की राशि सिंह में प्रवेश करता है। इसी समय जब तक सूर्य चन्द्र सहित सिंह राशि पर बना रहता है, तब तक महाराष्ट्र का नासिक इसका केन्द्र बिंदु बनता है। ऐसे समय नासिक में गोदावरी तीरे कुंभ पर्व की तरह मनाया जाता हैं। जब बृहस्पति सिंहस्थ हो, सूर्य मंगल की मेष राशि में हो और चन्द्रमा शुक्र की राशि तुला में पहुंच जाये, तो महाकाल का पवित्र क्षेत्र उज्जैन इसका प्रभाव बिंदु बनता है। कुंभ के भिन्न समय व स्थान का यही विज्ञान है।

 

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