क्षिप्रा धारा

बहती है क्षिप्रा की धारा
इसमें धुलते पैर तुम्हारे
जो कोमल हैं अरुण कमल-से
इसमें मिलता सौरभ मादक
जल में लहराते अंचल से,
पर न ठहरती क्षिप्रा-धारा
ले जाती है जो कुछ पाया
सब कुछ पाया, कुछ न गँवाया
धुलकर तेरा रूप मनोहर
अपना सौरभ लेकर आया।
बहती जाती क्षिप्रा-धारा
लेकर तेरा सौरभ सारा
पर न ठहरती, ले जाती है
एक घाट से किसी दूसरे
घाट यहाँ है जो कुछ पाया
इसमें सारा तत्व समाया।
बहती है क्षिप्रा की धारा
लेकर तेरा सौरभ सारा
किंतु न जल का प्रवाह रुकता
चलता जाता कूल-किनारा
यहां घाट आ गया पुराना
कटा हुआ टूटा-सा मंदर
जिसके दोनों ओर उछलता
लहरों का वह साफ समंदर
यहाँ गांव की प्रिया नहातीं
गरम दुपहरी में फुरसत से
उसके साधारण कपड़ों को
वे धोतीं, चलतीं मेहनत से
उनकी काली खुली पीठ पर
खूब चमकता सफेद सूरज
उनके मोटे कपड़ों को वह
जल्द सुखाता सफेद सूरज
मुझे यहां तक आ जाने पर
नवीन आकुल अनुभव होता
सौंदर्याकुल मन होकर भी
यहां अधिक मैं मानव होता।
मेरी अंत्ःक्षिप्रा-धारा
युगों-युगों से प्रवाह जारी
पर अब बदला कूल-किनारा
असंख्य लहरें, असंख्य धारा
प्रथम बही जो प्रासादों के
सुंदर श्यामल मैदानों में
आज वहीं निज मार्ग बदलकर
अपना जीवन-कार्य बदलकर
अधिक सबल हो, अधिक प्रबल हो,
अधिक मत्त होकर चंचल हो
खुल पड़ती है उन्हीं गरीबों
के प्यासे खेतों से होकर
उनके सूखे धूलि-कणों से
अपना धारामय तन धोकर।
मेरी अंतःक्षिप्रा- धारा
युगों-युगों से प्रवाह जारी
पर अब बदला कूल- किनारा
असंख्य लहरें, असंख्य धारा
असंख्य स्रोतों से मिल - भरकर
आगे-आगे महान् बनकर
क्षिप्रा-धार चली प्रबलतर
आत्मा-धारा विशाल सुंदर
गंभीर, लहरिल, तन्मय मंथर
बहती है क्षिप्रा की धार।

संभावित रचनाकाल 1937-39, उज्जैन ‘विचार’ (कलकत्ता), मई, 1941 में प्रकाशित

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