किसान से कब बंधुआ मजदूर बन गया, यह नंदकिशोर को पता ही नहीं चला। महंगे कीटनाशक, महंगे बीज और रासायनिक खाद ने उसे कर्जदार बना दिया। अपने एक भाई, दो बेटियों और बुजुर्ग मां सहित छह सदस्यों का भरण-पोषण चार एकड़ खेती से संभव नहीं रहा और इधर साहूकार का 50 हजार का कर्ज सिर पर था। खेती की जिम्मेदारी भाई को सौंपकर खुद बंधुआ मजदूर बनकर साहूकार के ट्रेक्टर की ड्राईवरी करने लगा। कुछ सालों तक बंधुआ मजदूर बने रहकर उसे लगा कि इससे तो कभी कर्ज उतरेगा नहीं। लिहाजा उसने बटाई पर खेती करने का उपाय सोचा। नंदकिशोर ने उसी साहूकार की 20 बीघा जमीन 25 हजार रुपए में बटाई पर ली, जिसके यहां वह बंधुआ था। ये 25 हजार रुपए भी उसके सिर पर कर्ज के तौर पर बढ़ गए, जिसकी जमानत के रूप में उसने पत्नी के चांदी के जेवर गिरवी रखे। इस तरह बंधुआ मजदूरी और खेती साथ-साथ चलने लगी। इस बीच बेटी बीमार हो गई, जिसके इलाज के 10 हजार रुपए भी उसी साहूकार से उधार लेने पड़े। बढ़ते कर्ज के बावजूद खेतों में लहलहाती फसलें उसमें उत्साह पैदा कर रही थीं। लेकिन ठंड पड़ते ही पाला पड़ गया और पूरी फसल तबाह हो गई। लहलहाती फसलों के बर्बाद होने का सदमा वह झेल नहीं पाया और कीटनाशक पीकर अपनी जिंदगी खत्म कर ली।''
मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के दमोह जिले के हर्रई नामक गांव के नंदकिशोर की यह कहानी बताती है कि किस तरह लघु और सीमांत किसान मजदूर में तब्दील होते जा रहे हैं। पिछले दो महीनों में मध्यप्रदेश में 38 किसानों ने आत्महत्या के प्रयास किए, जिनमें 22 किसानों ने हमेशा के लिए अपनी जिंदगी खो दी। इसके पीछे पाला पड़ना और फसलों का तबाह होना मुख्य कारण माना जा रहा है। गौरतलब है कि इन 38 किसानों में से 26 किसान एक से पांच एकड़ खेती वाले हैं, जबकि तीन किसान सात से दस एकड़ तथा तीन किसान पन्द्रह से बीस एकड़ जमीन के मालिक रहे हैं। इनमें दो किसान ऐसे भी पाए गए, जिनके पास अपनी जमीन नहीं है, बल्कि वे बंटाई पर जमीन लेकर खेती करते रहे हैं। यानी आत्महत्या करने वाले किसानों में सर्वाधिक तादाद लघु और सीमांत किसानों की है।
किसानों की आत्महत्या के पीछे कर्ज एक बड़ा कारण है। लोगों का मानना है कि कम भूमि वाले किसानों के लिए बगैर कर्ज के खेती करना असंभव हो गया है। बैंकों से मिलने वाला कर्ज अपर्याप्त तो है ही, साथ ही उसे पाने के लिए खूब भाग-दौड़ करनी पड़ती है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित बैंकों की शाखाएं अभी भी नौकरशाही से मुक्त नहीं हो पाई है, जो लघु व सीमांत किसानों के लिए असुविधाजनक है। इस दशा में किसान आसानी से साहूकारी कर्ज के चंगुल में फंस जाते हैं। मध्यप्रदेश में पिछले दो महीनों में आत्महत्या करने वाले किसान 20 हजार से लेकर 3 लाख रुपए तक के साहूकारी कर्ज में दबे थे। साहूकारी कर्ज की ब्याजदर इतनी ज्यादा होती है कि सालभर के अंदर उस कर्ज की मात्रा दुगुनी हो जाती है। ऐसे में यदि फसल खराब हो जाए तो आने वाले समय में यह संकट और भी बढ़ जाता है। आत्महत्या करने वाले पांच एकड़ जमीन वाले छह किसानों पर तो एक लाख रुपए से अधिक का कर्ज था। जिन 38 किसानों ने आत्महत्या के प्रयास किए उनके नाम पर कुल मिलाकर साहूकारों के 45 लाख रुपए और बैंको के 11 लाख रुपए का कर्ज है। इस तरह उनके कुल कर्ज का 80 प्रतिशत हिस्सा भारी ब्याज वाले साहूकारी कर्ज का है। यानी ग्रामीण क्षेत्रों तक बैंकों की पहुंच और किसान क्रेडिट कार्ड के बावजूद किसान साहूकारों के सामने हाथ पसारने को विवश है।
दमोह जिले के कुलुआकला गांव में बटाई पर खेती करने वाले 25 वर्षीय नंदराम रैकवाल पर करीब सवा लाख रुपए का साहूकारी था। इसी कर्ज की चिंता में उसने खुद को आग लगाकर जान दे दी। सागर जिले के देवरी गांव में 7 एकड़ जमीन पर खेती करने वाले त्रिलोकी पर डेढ़ लाख रुपए का कर्ज था। कीटनाशक पीकर आत्महत्या का प्रयास करने वाले दमोह जिले के मोहन रैकवार पर डेढ़ लाख रुपए के साहूकारी कर्ज का बोझ है। छतरपुर जिले के नाथनपुर्वा गांव के कुंजीलाल के पास मात्र 7 एकड़ जमीन थी और कर्ज की मात्रा तीन लाख। विदिशा जिले के रंगई गांव में तीन एकड़ जमीन के मालिक दौलतसिंह पर साहूकारों का 50 हजार रुपए का कर्ज है। कर्जदार किसानों की यह फेहरिश्त यहीं खत्म नहीं होती है, बल्कि मध्यप्रदेश के लगभग सभी लघु और सीमान्त किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं। यदि मध्यप्रदेश में किसानों पर कर्ज की मात्रा का आकलन करें तो इसका ग्राफ दस हजार करोड़ से ऊपर पहुंच दिखाई देता है। क्योंकि अपेक्स बैंक के रिकॉर्ड में प्रदेश के किसानों पर साढ़े सात हजार करोड़ रुपए कर्ज के रूप में दर्ज है। इसमें यदि कम से कम ढाई हजार करोड़ रुपए साहूकारी कर्ज से जोड़ दे तो यह आंकड़ा दस हजार करोड़ को पार कर लेता है। वर्ष 2006 में गठित राधाकृष्णन समिति ने भी किसानों की आत्महत्या के लिए कर्ज को मुख्य कारण माना है।
भारत सरकार द्वारा किसानों की कर्ज माफी की घोषणा को राहत के रूप में देखा गया था। किन्तु 32 लाख से भी अधिक किसानों पर आज भी बैंकों का कर्ज बकाया है। सहकारी संस्थाओं में हुए घोटालों की वजह से किसानों के सौ करोड़ से भी अधिक के कर्ज माफ नहीं हो पाए।
इस बार प्रदेश में पाले का असर कई किसानों के लिए जानलेवा साबित हुआ है। प्रदेश सरकार ने किसानों को राहत पहुंचाने के लिए तत्परता से कदम उठाए। किन्तु प्रशासन का रवैया संवेदनशील नहीं रहा है। एक ओर मध्यप्रदेश सरकार केन्द्र से किसानों की हालत बताकर राहत पैकेज की मांग करती रही है, वहीं दूसरी ओर उसके प्रशासनिक अधिकारी यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि किसानों की आत्महत्या के पीछे खेती संबंधी कोई कारण है। दमोह जिले के जनसम्पर्क कार्यालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में नंदराम रैकवार की आत्महत्या का कारण पारिवारिक कलह बताया गया, वहीं सीहोर जिले में कर्ज के कारण आत्महत्या करने वाले शिवप्रसाद को पागल करार देने की कोशिश की गई। शिवप्रसाद के 16 वर्षीय पुत्र ने बताया कि जिला कलेक्टर ने यह कहने के लिए उस पर दबाव डाला की उसके पिता पागल थे। छतरपुर जिले में 40 वर्षीय लखनलाल को मानसिक रूप से विक्षिप्त बताया गया। लखनलाल की विधवा हीराबाई अपना दुख व्यक्त करते हुए कहती है कि ''चाहे मुझे सहारा मत दो, पर भगवान के लिए मेरे पति को पागल मत कहो।'' आत्महत्या का प्रयास करने वाले बैतूल जिले के एक किसान को जिला प्रशासन ने शराबी बताया, जबकि डॉक्टर ने उसके पेट में शराब के बजाय ''इंडोसल्फान'' नामक कीटनाशक पाया।
इस तरह प्रशासन किसी को पागल तो किसी को शराबी कहकर समस्या से पल्ला झाड़ने की कोशिश करता रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि प्रदेश के 276 तहसीलों के 38464 गांवों के करीब 37 लाख किसानों की फसलें बुरी तरह बर्बाद हुई है। लघु व सीमांत किसानों के लिए फसलों की बर्बादी उन्हें बंधुआ मजदूरी की ओर धकेलती है। ऐसे समय में प्रशासन ने उनकी आत्महत्या के अन्य कारण कैसे ढूंढ निकाले, यह समझ से परे है।
मध्यप्रदेश में पिछले पांच सालों में 8360 किसानों द्वारा आत्महत्या की गई। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों की रिपोर्ट से पता चलता है कि पिछले साल पूरे देश में आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद 17 हजार थीं, जिसमें 62 प्रतिशत किसान महाराष्ट्र, आंध्रपदेश, कर्नाटक और मध्यप्रदेश के थे। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों की रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश मे वर्ष 2007 में 1263 किसानों द्वारा आत्महत्या की गई थी, जिनकी संख्या वर्ष 2009 में बढ़कर 1500 हो गई।
मध्यप्रदेश में किसानों की हालत पर प्रदेश सरकार द्वारा 600 करोड़ रुपए और केन्द्र सरकार 424 करोड़ रुपए की राहत राशि आवंटित करने की घोषणा की गई है। हालांकि केन्द्र सरकार द्वारा आवंटित राशि ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। राज्य सरकार द्वारा 2 हेक्टेयर से अधिक भूमि वाले किसानों को 50 प्रतिशत से अधिक नुकसान होने पर 3400 रुपए प्रति हेक्टेयर और इससे कम भूमि वाले किसानों को 4500 रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया है। किन्तु यह राहत राशि उनकों हुए नुकसान की तुलना में बहुत कम है। केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा आवंटित कुल राशि 1024 करोड़ रुपए है, जबकि किसानों के नुकसान का अनुमान 985237 लाख रुपए का है। यानी सरकारी राहत राशि किसानों के कुल नुकसान का सिर्फ 10 प्रतिशत ही है।
एक ओर खेती की बढ़ती लागत ने किसानों को कर्जदार बना दिया, वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी और सुविधाएं सिकुड़ती जा रही है। आधुनिक खेती उन्नत बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशक पर निर्भर है, जिनकी आसमान छूती कीमतें किसान की पहुंच से बाहर होती जा रही है। मध्यप्रदेश के किसानों को अन्य राज्यों की तुलना में इनकी ज्यादा कीमत चुकानी पड़ रही है। पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक और गुजरात में 465 से 485 रुपए प्रति बोरी बिकने वाले डीएपी खाद की कीमत मध्यप्रदेश में 527 से 530 रुपए प्रति बोरी है। वहीं जो कीटनाशक पांच साल पहले 300 रुपए प्रति लीटर था, आज उसकी कीमत 500 रुपए से 15000 रुपए प्रति लीटर हो चुकी है। प्रदेश में बिजली की बिगड़ती दशा ने भी किसानों को नुकसान पहुंचाया है। गौरतलब है कि पिछले दो महीनों में बुंदेलखंड क्षेत्र के दमोह जिले में कर्ज से त्रस्त होकर 13 किसानों द्वारा आत्महत्या का प्रयास किया गया, उसी बुंदेलखंड में बिजली कंपनी ने किसानों से 3 करोड़ 98 लाख 82 हजार रुपए का लाभ कमाया। यहां बिजली कंपनी द्वारा 11000 किसानों को अस्थाई कनेक्शन इस वायदे के साथ दिए गए थे कि उन्हें प्रतिदिन कम से कम 10 घंटे बिजली दी जाएगी, जबकि उन्हें मात्र 3 से 5 घंटे ही बिजली दी गई।
खेती का संकट दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। एक ओर खेती की लागत बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर जोतों का आकार भी कम हुआ है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार देश में 62 प्रतिशत किसानों के पास एक हेक्टेयर या इससे कम जमीन है। भूस्वामित्व के आकार में पिछले चार दशकों में 60 प्रतिशत की कमी आई है। नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार सन् 1960-61 में भूस्वामित्व का औसत आकार लगभग ढाई हेक्टेयर था, जो सन् 2002-03 में एक हेक्टेयर के करीब रह गया। इसके पीछे मुख्य कारण जमीन का बंटवारा होने के साथ ही औद्योगिक विकास के नाम पर होने वाला भूमि अधिग्रहण है। भूस्वामित्व के आकार में होने वाली कमी के आंकड़ो से यह बात स्पष्ट होती है कि पिछले चार दशकों में लघु एवं सीमांत किसान बड़े पैमाने पर भूमिहीन मजदूर में तब्दील हुए हैं।
इन तथ्यों से स्पष्ट है कि मध्यप्रदेश में पिछले दो महीनों में किसानों द्वारा आत्महत्या का तत्कालिक कारण पाला और कर्ज है। जबकि प्राकृतिक प्रकोपों से तो किसान सदियों से जूझते आ रहे हैं। अब फर्क यह आया है कि किसान ने इन प्रकोपों को झेलने और उनसे जूझने की क्षमता खो दी है। इसके पीछे सरकारी नीतियां जिम्मेदार है। ऐसा लगता है कि खेती सरकार की प्राथमिकता से बाहर का विषय बन गया है। उद्योगों के लिए बेरहमी से जमीन अधिग्रहण करने वाली सरकार को आखिर किसानों के लिए राहत पैकेज जारी करने में इतना समय क्यों लगा। सरकार अपनी शान के लिए हजारों करोड़ रुपए का बजट कॉमनवेल्थ खेलों के लिए आवंटित करती है, किन्तु उसकी तुलना में एक प्रतिशत राशि की किसानों को राहत के लिए आवंटित नहीं कर सकी है। इससे सरकार के नियम और नीति पर संदेह होना स्वाभाविक है।
- राजेन्द्र बंधु, 163, अलकापुरी, मुसाखेड़ी, इन्दौर, मध्यप्रदेश, पिन- 452001, फोनः- 08889884676 एवं- 09425636024
मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के दमोह जिले के हर्रई नामक गांव के नंदकिशोर की यह कहानी बताती है कि किस तरह लघु और सीमांत किसान मजदूर में तब्दील होते जा रहे हैं। पिछले दो महीनों में मध्यप्रदेश में 38 किसानों ने आत्महत्या के प्रयास किए, जिनमें 22 किसानों ने हमेशा के लिए अपनी जिंदगी खो दी। इसके पीछे पाला पड़ना और फसलों का तबाह होना मुख्य कारण माना जा रहा है। गौरतलब है कि इन 38 किसानों में से 26 किसान एक से पांच एकड़ खेती वाले हैं, जबकि तीन किसान सात से दस एकड़ तथा तीन किसान पन्द्रह से बीस एकड़ जमीन के मालिक रहे हैं। इनमें दो किसान ऐसे भी पाए गए, जिनके पास अपनी जमीन नहीं है, बल्कि वे बंटाई पर जमीन लेकर खेती करते रहे हैं। यानी आत्महत्या करने वाले किसानों में सर्वाधिक तादाद लघु और सीमांत किसानों की है।
साहूकारी कर्ज से मुक्ति नहीं
किसानों की आत्महत्या के पीछे कर्ज एक बड़ा कारण है। लोगों का मानना है कि कम भूमि वाले किसानों के लिए बगैर कर्ज के खेती करना असंभव हो गया है। बैंकों से मिलने वाला कर्ज अपर्याप्त तो है ही, साथ ही उसे पाने के लिए खूब भाग-दौड़ करनी पड़ती है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित बैंकों की शाखाएं अभी भी नौकरशाही से मुक्त नहीं हो पाई है, जो लघु व सीमांत किसानों के लिए असुविधाजनक है। इस दशा में किसान आसानी से साहूकारी कर्ज के चंगुल में फंस जाते हैं। मध्यप्रदेश में पिछले दो महीनों में आत्महत्या करने वाले किसान 20 हजार से लेकर 3 लाख रुपए तक के साहूकारी कर्ज में दबे थे। साहूकारी कर्ज की ब्याजदर इतनी ज्यादा होती है कि सालभर के अंदर उस कर्ज की मात्रा दुगुनी हो जाती है। ऐसे में यदि फसल खराब हो जाए तो आने वाले समय में यह संकट और भी बढ़ जाता है। आत्महत्या करने वाले पांच एकड़ जमीन वाले छह किसानों पर तो एक लाख रुपए से अधिक का कर्ज था। जिन 38 किसानों ने आत्महत्या के प्रयास किए उनके नाम पर कुल मिलाकर साहूकारों के 45 लाख रुपए और बैंको के 11 लाख रुपए का कर्ज है। इस तरह उनके कुल कर्ज का 80 प्रतिशत हिस्सा भारी ब्याज वाले साहूकारी कर्ज का है। यानी ग्रामीण क्षेत्रों तक बैंकों की पहुंच और किसान क्रेडिट कार्ड के बावजूद किसान साहूकारों के सामने हाथ पसारने को विवश है।
दमोह जिले के कुलुआकला गांव में बटाई पर खेती करने वाले 25 वर्षीय नंदराम रैकवाल पर करीब सवा लाख रुपए का साहूकारी था। इसी कर्ज की चिंता में उसने खुद को आग लगाकर जान दे दी। सागर जिले के देवरी गांव में 7 एकड़ जमीन पर खेती करने वाले त्रिलोकी पर डेढ़ लाख रुपए का कर्ज था। कीटनाशक पीकर आत्महत्या का प्रयास करने वाले दमोह जिले के मोहन रैकवार पर डेढ़ लाख रुपए के साहूकारी कर्ज का बोझ है। छतरपुर जिले के नाथनपुर्वा गांव के कुंजीलाल के पास मात्र 7 एकड़ जमीन थी और कर्ज की मात्रा तीन लाख। विदिशा जिले के रंगई गांव में तीन एकड़ जमीन के मालिक दौलतसिंह पर साहूकारों का 50 हजार रुपए का कर्ज है। कर्जदार किसानों की यह फेहरिश्त यहीं खत्म नहीं होती है, बल्कि मध्यप्रदेश के लगभग सभी लघु और सीमान्त किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं। यदि मध्यप्रदेश में किसानों पर कर्ज की मात्रा का आकलन करें तो इसका ग्राफ दस हजार करोड़ से ऊपर पहुंच दिखाई देता है। क्योंकि अपेक्स बैंक के रिकॉर्ड में प्रदेश के किसानों पर साढ़े सात हजार करोड़ रुपए कर्ज के रूप में दर्ज है। इसमें यदि कम से कम ढाई हजार करोड़ रुपए साहूकारी कर्ज से जोड़ दे तो यह आंकड़ा दस हजार करोड़ को पार कर लेता है। वर्ष 2006 में गठित राधाकृष्णन समिति ने भी किसानों की आत्महत्या के लिए कर्ज को मुख्य कारण माना है।
भारत सरकार द्वारा किसानों की कर्ज माफी की घोषणा को राहत के रूप में देखा गया था। किन्तु 32 लाख से भी अधिक किसानों पर आज भी बैंकों का कर्ज बकाया है। सहकारी संस्थाओं में हुए घोटालों की वजह से किसानों के सौ करोड़ से भी अधिक के कर्ज माफ नहीं हो पाए।
संवेदनहीन प्रशासन
इस बार प्रदेश में पाले का असर कई किसानों के लिए जानलेवा साबित हुआ है। प्रदेश सरकार ने किसानों को राहत पहुंचाने के लिए तत्परता से कदम उठाए। किन्तु प्रशासन का रवैया संवेदनशील नहीं रहा है। एक ओर मध्यप्रदेश सरकार केन्द्र से किसानों की हालत बताकर राहत पैकेज की मांग करती रही है, वहीं दूसरी ओर उसके प्रशासनिक अधिकारी यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि किसानों की आत्महत्या के पीछे खेती संबंधी कोई कारण है। दमोह जिले के जनसम्पर्क कार्यालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में नंदराम रैकवार की आत्महत्या का कारण पारिवारिक कलह बताया गया, वहीं सीहोर जिले में कर्ज के कारण आत्महत्या करने वाले शिवप्रसाद को पागल करार देने की कोशिश की गई। शिवप्रसाद के 16 वर्षीय पुत्र ने बताया कि जिला कलेक्टर ने यह कहने के लिए उस पर दबाव डाला की उसके पिता पागल थे। छतरपुर जिले में 40 वर्षीय लखनलाल को मानसिक रूप से विक्षिप्त बताया गया। लखनलाल की विधवा हीराबाई अपना दुख व्यक्त करते हुए कहती है कि ''चाहे मुझे सहारा मत दो, पर भगवान के लिए मेरे पति को पागल मत कहो।'' आत्महत्या का प्रयास करने वाले बैतूल जिले के एक किसान को जिला प्रशासन ने शराबी बताया, जबकि डॉक्टर ने उसके पेट में शराब के बजाय ''इंडोसल्फान'' नामक कीटनाशक पाया।
इस तरह प्रशासन किसी को पागल तो किसी को शराबी कहकर समस्या से पल्ला झाड़ने की कोशिश करता रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि प्रदेश के 276 तहसीलों के 38464 गांवों के करीब 37 लाख किसानों की फसलें बुरी तरह बर्बाद हुई है। लघु व सीमांत किसानों के लिए फसलों की बर्बादी उन्हें बंधुआ मजदूरी की ओर धकेलती है। ऐसे समय में प्रशासन ने उनकी आत्महत्या के अन्य कारण कैसे ढूंढ निकाले, यह समझ से परे है।
मध्यप्रदेश में पिछले पांच सालों में 8360 किसानों द्वारा आत्महत्या की गई। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों की रिपोर्ट से पता चलता है कि पिछले साल पूरे देश में आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद 17 हजार थीं, जिसमें 62 प्रतिशत किसान महाराष्ट्र, आंध्रपदेश, कर्नाटक और मध्यप्रदेश के थे। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों की रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश मे वर्ष 2007 में 1263 किसानों द्वारा आत्महत्या की गई थी, जिनकी संख्या वर्ष 2009 में बढ़कर 1500 हो गई।
राहत का सच
मध्यप्रदेश में किसानों की हालत पर प्रदेश सरकार द्वारा 600 करोड़ रुपए और केन्द्र सरकार 424 करोड़ रुपए की राहत राशि आवंटित करने की घोषणा की गई है। हालांकि केन्द्र सरकार द्वारा आवंटित राशि ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। राज्य सरकार द्वारा 2 हेक्टेयर से अधिक भूमि वाले किसानों को 50 प्रतिशत से अधिक नुकसान होने पर 3400 रुपए प्रति हेक्टेयर और इससे कम भूमि वाले किसानों को 4500 रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया है। किन्तु यह राहत राशि उनकों हुए नुकसान की तुलना में बहुत कम है। केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा आवंटित कुल राशि 1024 करोड़ रुपए है, जबकि किसानों के नुकसान का अनुमान 985237 लाख रुपए का है। यानी सरकारी राहत राशि किसानों के कुल नुकसान का सिर्फ 10 प्रतिशत ही है।
खेती की बढ़ती लागत
एक ओर खेती की बढ़ती लागत ने किसानों को कर्जदार बना दिया, वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी और सुविधाएं सिकुड़ती जा रही है। आधुनिक खेती उन्नत बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशक पर निर्भर है, जिनकी आसमान छूती कीमतें किसान की पहुंच से बाहर होती जा रही है। मध्यप्रदेश के किसानों को अन्य राज्यों की तुलना में इनकी ज्यादा कीमत चुकानी पड़ रही है। पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक और गुजरात में 465 से 485 रुपए प्रति बोरी बिकने वाले डीएपी खाद की कीमत मध्यप्रदेश में 527 से 530 रुपए प्रति बोरी है। वहीं जो कीटनाशक पांच साल पहले 300 रुपए प्रति लीटर था, आज उसकी कीमत 500 रुपए से 15000 रुपए प्रति लीटर हो चुकी है। प्रदेश में बिजली की बिगड़ती दशा ने भी किसानों को नुकसान पहुंचाया है। गौरतलब है कि पिछले दो महीनों में बुंदेलखंड क्षेत्र के दमोह जिले में कर्ज से त्रस्त होकर 13 किसानों द्वारा आत्महत्या का प्रयास किया गया, उसी बुंदेलखंड में बिजली कंपनी ने किसानों से 3 करोड़ 98 लाख 82 हजार रुपए का लाभ कमाया। यहां बिजली कंपनी द्वारा 11000 किसानों को अस्थाई कनेक्शन इस वायदे के साथ दिए गए थे कि उन्हें प्रतिदिन कम से कम 10 घंटे बिजली दी जाएगी, जबकि उन्हें मात्र 3 से 5 घंटे ही बिजली दी गई।
छोटे हो रहे हैं खेत
खेती का संकट दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। एक ओर खेती की लागत बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर जोतों का आकार भी कम हुआ है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार देश में 62 प्रतिशत किसानों के पास एक हेक्टेयर या इससे कम जमीन है। भूस्वामित्व के आकार में पिछले चार दशकों में 60 प्रतिशत की कमी आई है। नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार सन् 1960-61 में भूस्वामित्व का औसत आकार लगभग ढाई हेक्टेयर था, जो सन् 2002-03 में एक हेक्टेयर के करीब रह गया। इसके पीछे मुख्य कारण जमीन का बंटवारा होने के साथ ही औद्योगिक विकास के नाम पर होने वाला भूमि अधिग्रहण है। भूस्वामित्व के आकार में होने वाली कमी के आंकड़ो से यह बात स्पष्ट होती है कि पिछले चार दशकों में लघु एवं सीमांत किसान बड़े पैमाने पर भूमिहीन मजदूर में तब्दील हुए हैं।
इन तथ्यों से स्पष्ट है कि मध्यप्रदेश में पिछले दो महीनों में किसानों द्वारा आत्महत्या का तत्कालिक कारण पाला और कर्ज है। जबकि प्राकृतिक प्रकोपों से तो किसान सदियों से जूझते आ रहे हैं। अब फर्क यह आया है कि किसान ने इन प्रकोपों को झेलने और उनसे जूझने की क्षमता खो दी है। इसके पीछे सरकारी नीतियां जिम्मेदार है। ऐसा लगता है कि खेती सरकार की प्राथमिकता से बाहर का विषय बन गया है। उद्योगों के लिए बेरहमी से जमीन अधिग्रहण करने वाली सरकार को आखिर किसानों के लिए राहत पैकेज जारी करने में इतना समय क्यों लगा। सरकार अपनी शान के लिए हजारों करोड़ रुपए का बजट कॉमनवेल्थ खेलों के लिए आवंटित करती है, किन्तु उसकी तुलना में एक प्रतिशत राशि की किसानों को राहत के लिए आवंटित नहीं कर सकी है। इससे सरकार के नियम और नीति पर संदेह होना स्वाभाविक है।
- राजेन्द्र बंधु, 163, अलकापुरी, मुसाखेड़ी, इन्दौर, मध्यप्रदेश, पिन- 452001, फोनः- 08889884676 एवं- 09425636024
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