किलकिला

किलकिला नदी का उद्गम पन्ना जिले की बहेरा के निकट छापर टेक पहाड़ी से हुआ है। यह नदी पन्ना से उद्गमित होकर पन्ना जिला में ही प्रवाहित केन नदी में विसर्जित हो जाती है। यह पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा को बहती है।

निजानंद सम्प्रदाय के तीर्थ स्थल एवं हिन्दू धर्म के कुछ धार्मिक मंदिर और ऐतिहासिक स्थान इसके तट पर बने हुए हैं। यह एक छोटी नदी है लेकिन इसका निजानंद सम्प्रदाय यानि प्रणामि आलम में विशेष धार्मिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से महत्व है। इसके तट पर पद्मावती देवी का प्राचीन मंदिर स्थित है जिनके नाम से प्रणामियों के तीर्थ पन्ना का नाम पद्मावती पुरी धाम पड़ा है। इसी मंदिर के निकट आगे चलकर यह नदी एक छोटा सा स्थानीय जलप्रपात भी बनाती है। इस नदी की विशेषता यह भी है कि इसका पन्ना जिले में ही उदय होता है और पन्ना जिले के सलैया और भापतपुर के बीच में केन नदी में यह अस्त हो जाती है।

किलकिला के किनारे पर मोहनगढ़ी, पुराना पानी, पद्मावती देवी का मंदिर, हनुमान मंदिर, महामति प्राणनाथ मंदिर, देवचंद्र मंदिर, राजवाई का मंदिर, गंगा-जमुना, (केशवकुण्ड, चोपरा जी) आदि प्रणामी आलम के लगभग सभी स्थान इसी के तट पर विद्यमान हैं। किलकिला नदी के पानी से रानीबाग, मोहन निवास, अगरा मुहल्ला, धाम मुहल्ला, झिन्ना और सलैया के निवासी निस्तार एवं सिंचाई के उद्देश्य से इसका उपयोग करते हैं।

आश्चर्य की बात यह है कि झिन्ना के निकट लगभग 25 किलोमीटर की दूरी एवं विसर्जन के पूर्व 5 किलोमीटर पर इसको लोग किलकिला न कहकर ‘माहौर’ नाम से पुकारते हैं। एक ही नदी के ये दो नाम एक महत्वपूर्ण बात है।

ऐसी जनश्रुति है कि- ‘जब घोड़ा किलकिला नदी का दूषित जल पी लेता था तो उसके दुष्प्रभाव से सवार मर जाता था। यदि सवार पानी पी लेता था तो उसके दुष्प्रभाव से उसका घोड़ा तक मार जाता था इससे सिद्ध होता है कि यह नदी पुरातन काल में बहुत अधिक विषैली थी।’

स्वामी लाल दास कृत ‘बीज’ में एक वृत्तांत के अनुसार-

किलकिला नदी को कुढ़िया भी कहते हैं। क्योंकि एक जमाने मे इसका जल अत्यंत विषैला था। ऐसी प्राचीन मान्यता है कि इसका उपयोग करने से कोढ़ भी हो सकता था। अतः लोग इस सरिता को कुढ़िया नदी भी कहते थे। मण्डला रामनगर मे छत्रसाल के भतीजे देवकरण की पहली भेंट उनके पाँच हजार सुन्दर साथ सहित प्राणनाथ से हुई। प्राणनाथ एक ऐसे योद्धा की तलाश में थे जो तत्कालीन शासक औंरगजेब से युद्ध कर सके। चूंकि छत्रसाल गोरिल्ला युद्ध (छापामार युद्ध) मुगल सेना के विरुद्ध लड़ते थे, अतः देवकरण के निमंत्रण एवं विशेष प्रार्थना पर महाप्रभु प्राणनाथ संवत् 1684 में बुन्देलखण्ड पन्ना के सघन वन क्षेत्र में स्थित किलकली नदी के किनारे सर्वप्रथम पदार्पण किया। यह पवित्र स्थल किलकिला का अमराई घाट कहलाता है।

पद्मावती देवी के मंदिर के पास किलकिला नदी एक छोटा सा जल प्रपात बनाती है। यही स्थान अमराई घाट कहलाता है। इस घाट का निजानंद सम्प्रदाय में बहुत महत्व है। यहीं पहली बार महामति प्राणनाथ ने किलकिला का विषाक्त जल पावन किया था। यहाँ स्थित प्रपात की ऊँचाई लगभग 20 फुट है। यह एक सरपट जलप्रपात है। जिसका जल ऊँचाई से न गिरकर ढलान के सहारे गिरता है।

पद्मावती देवी या बड़ी देवी का मंदिर-वैसे बुन्देलों की कुल देवी विन्ध्यवासिनी हैं परन्तु महाराजा छत्रसाल ने अपनी राज्य लक्ष्मी पद्मावती देवी को ही स्वीकार किया। इसीलिए पन्ना का राजपरिवार की कुल देवी पद्मावती ही मानी जाती हैं। पुरातन काल से पन्ना पद्मावतीपुरी के नाम से जाना जाता है। पन्ना का पुराना नाम परना भी है। ऐसी मान्यता है कि पद्मावती देवी पन्ना एवं उसके आस-पास रहकर नगर निवासियों की रक्षा करती हैं। इस नगर को सुख और समृद्धि का उनका वरदान है।

किलकिला नदि के उत्तर पश्चिम में पन्ना का सबसे प्राचीन मंदिर पद्मावती देवी के नाम से जाना जाता है। इसे स्थानीय भाषा में बड़ी देवी या बड़ी देवन भी कहते हैं। ऐसा कहा जाता है कि यह मंदिर 2000 वर्ष पुराना है। भविष्य पुराण के अनुसार बुन्देलखण्ड का यह भाग पद्मावती कहलाता है। सुन्दरी तन्त्र के एक श्लोक में कहा गया है कि- ‘कलियुग में पद्मावती की उत्पत्ति विन्ध्य क्षेत्र में हुई थी।’

पद्मावती केन शारदे, विन्ध्य पृष्ठ विराजते, इन्दिरा नाम सा देवी, भविष्यति कालियुगे।

-पद्मपुराण

विष्णु पुराण के अनुसार नाग, भारशिव नाम का राजा पद्मावती में रहता था। वह शिव और अपनी कुल देवी महालक्ष्मी पद्मावती के प्रति समर्पित था। भागवत पुराण के अनुसार किलकिला क्षेत्र के राजा के रूप में ये शासक प्रसिद्ध हुए।

महालक्ष्मी को कमल का पुष्प पसन्द है। वे कमलदल समूह में निवास करती हैं। कमल पर ही विराजती हैं एवं अपने हाथों में कमल ही धारण करती हैं। इसी कारण उनका नाम पद्मावती पड़ा। पद्म का अर्थ होता है। ‘कमल’।

गुम्मट जी में साक्षात् महामति श्री प्राणनाथ जी विराजमान हैं। उनकी महिमा शब्दातीत है। श्री निज मंदिर, श्री गुम्मट जी की बराबरी अन्य कोई स्थान अथवा मंदिर नहीं कर सकता क्योंकि यह पूज्य परमधाम का मुख्य द्वार है। इसे श्री प्राणनाथ मंदिर नाम की पात्रता है। यह पात्रता अन्य स्थानों में निर्मित मंदिरों को प्राप्त नहीं है।

पाँच शक्तियों का प्रतीक स्वर्ण पंजा मंदिर के मुख्य मठ के ऊपर प्रतिष्ठित किया गया। मंदिर में महाप्रभु की श्री वाणी (श्री तारतम सागर) जो स्वयं श्री कृष्ण पूर्ण ब्रह्मा परमात्मा के जोस से अवतरित हुई। इस पर मुरली, मुकुट और पीताम्बर वस्त्र आदि धारण कराकर अष्ट प्रहर पूजा होती है।

प्राणरूपाः प्रियाः सर्वास्तासां नाथोअक्षरात्परः,
तेनासो प्राणनाथो हि नाम्नाख्यातः प्रियेश्वरः।


अनादि अक्षरातीत परमात्मा रूपी ब्रह्माङ्गनाओं के प्राणस्वरूप पति हैं, नाथ हैं, वे ही पारब्रह्म स्वामी सुन्दर स्वरूप ब्रह्मङ्गनाओं के प्राणनाथ हैं।

आज इस मंदिर का मुक्तिधाम के रूप में विशेष महत्व है। मुक्ति धाम मंदिर पन्ना के 314 मंदिरों में से प्रमुख मंदिर है। महाप्रभु ने कुल 14 ग्रंथ लिखे हैं जो कुलजम स्वरुप एवं तारतम सागर महाग्रंथ में संग्रहित हैं। कुलजम स्वरूप ग्रंथ में 18758 चौपाइयाँ संकलित हैं। यह पावन ग्रंथ जन-जन को आज भी आत्म जागृत करने का प्रेरणा दे रहा है। इन ग्रंथों को प्रणामी संप्रदाय में बहुत ही आदर की दृष्टि से देखा जाता है एवं भक्ति भाव से पूजा की जाती है। श्री निजानंद सम्प्रदाय में केवल श्री पद्मावती पुरी मुक्तिपीठ के अतिरिक्त श्री प्राणनाथ मंदिर अन्यत्र कहीं नहीं है।

मुक्तिधाम श्री गुम्मट जी परिसर में एक और मंदिर है जो बंगला जी के नाम से जाना जाता है। बंगला जी का मंदिर का निर्माण छत्रसाल के पौत्र श्री रूपसिंह ने संवत् 1683 में करवाया था। यह महामति प्राणनाथ का दरबार है जहाँ वे अपने अनुयायियों को प्रणामी धर्म और दर्शन के उपाख्यान दिया करते थे। वर्तमान में यहाँ श्री कृष्ण के जन्म से कंस वध तक की, दीवालों पर चित्रांकन द्वारा झाँकी प्रस्तुत की गई है। जब प्रथम बार महामति पन्ना पधारे थे तब सुन्दर साथ ने इसे अस्थाई रूप से बनाया था। मंदिर के इस असाधारण रूप को छत्रसाल के पुत्र हृदय शाह और पौत्र सभासिंह ने वर्तमान स्वरूप दिया था।

यहाँ प्राणनाथ जी का सिंहासन रखा हुआ है और धार्मिक ग्रंथ कुलजम स्वरूप भी विराजमान है। मंदिर में अनेक पोट्रेट दीवालों पर सुसज्जित हैं, जिनमें बखत बली और छत्रसाल प्रमुख हैं। दीवालों पर महाप्रभु की शिक्षा एवं धर्म दर्शन के सिद्धांत उत्कीर्ण हैं। यह मंदिर 1689 में पूर्णरूपेण बनकर तैयार हुआ।

श्री बाई जू राज महारानी जू का मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा संवत् 1750 में श्री बाई जू राज जो श्री श्यामाजी स्वरूपा, महामति श्री प्राणनाथ जी की अर्द्धागनी की स्मृति में की गई। प्रणामी जगत में श्री बाई जू राज को राधिका स्वरूप मान्यता है। अत भादों शुक्ल अष्टमी को इस मंदिर में आपका जन्मोत्सव वृहद रूप में एवं बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।

लघु मंदिर का वृहताकार निर्माण श्री ब्रह्ममुनि वंशावतंश श्री भूषण दास जी धामी द्वारा किया गया। आज भी प्रणामी अनुयायी एवं अन्य लोग अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए यहाँ मानता करते हैं। इनकी महिमा अमित है। यह एक जागरूक स्थल है।

श्री चोंपड़ा मंदिर वह पुरातन स्थल है जहाँ महाराजा श्री छत्रसाल जी ने श्री प्राणनाथ जी को पूर्ण ब्रह्मस्वरूप मानकर किलकिला नदी के अमराई घाट से पालकी में बैठाकर और अपने कंधों द्वारा उठाकर सर्वप्रथम पन्ना नगर में सन् 1683 (संवत् 1740) में लाकर एवं प्रमुख द्वार से अपनी पाग और रानी की साड़ी के पांवड़े बिछाकर आरती उतारकर स्वागत किया था।

यह मंदिर महान तपोभूमि है, जहाँ कई ब्रह्म मुनियों ने पूर्ण ब्रह्म परमात्मा के साक्षात् दर्शन किये हैं।
 

छत्रसाल की हवेली


किलकिला नदी के किनारे महाराजा छत्रसाल की हवेली स्थित है। जो ठीक चोपड़ा जी मंदिर के पिछवाड़े है। इसी हवेली के रनिवास में छत्रसाल जी के कुँवर हृदय शाह का जन्म हुआ था। यह रमणीक स्थली आज भी मनमोहक और शान्ति प्रदान करने वाली है।

श्री खेजड़ा जी मंदिर वह पुण्य स्थल है, जहाँ पहले खीजड़ा का वृक्ष था। इसीलिए इसे खेजड़ा मंदिर कहते हैं। जहाँ अनन्त श्री महाप्रभु प्राणनाथ जी यदाकदा आकर विराजते थे। इसी स्थान पर महाप्रभु ने छत्रसाल को संवत् 1742 में दशहरे के पावन पर्व पर पान का बीड़ा एवं तलवार भेंट की थी। जिसे प्राप्त कर महाराजा छत्रसाल ने मुगल सेनाओं से घिरने पर उनके साथ उसी करवाल से भयंकर युद्ध कर उन्हें परास्त किया था। जिनके स्मरण स्थल आज भी विद्यमान हैं। उसी स्मृति में कालांतर में श्री सुन्दर नाथ जी द्वारा मंदिर का निर्माण हुआ।
 

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Post By: tridmin
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