प्रयाग की धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक धारा गंगा की धारा के साथ जीवन्त होती है। दूसरी ओर गंगा प्रयाग के लाखों लोगों का आर्थिक अवलम्बन भी है।प्रयाग और गंगा का परस्पर अटूट सम्बन्ध है। कभी-कभी प्रश्न उठता है कि प्रयाग का जन्म पहले हुआ या फिर प्रयाग मे गंगा पहले आई। प्रयाग का शाब्दिक अर्थ है प्र+याग = प्रयाग। ‘याग’ से तात्पर्य यज्ञ से है और ‘प्र’ उपसर्ग है। ‘प्रकृष्टं यजनं यत्र स प्रयाग’ जहाँ निरन्तर यज्ञ होते रहे हों, उस स्थान का नाम प्रयाग है। प्रयाग यज्ञ भूमि है। यहाँ ब्रह्मा ने भी यज्ञ किया था। द्वादश वेणी माधव के रूप में भगवान विष्णु, भगवान शिव तथा ललिता नाम से इक्यावन शक्ति पीठों में से एक प्रयाग की अधिष्ठात्री है। प्रयाग में प्रलय में भी नष्ट न होने वाला ‘अक्षय वट’ भी है। प्रयाग धर्म, अर्थ, काम मोक्ष चतुष पुरूषार्थों को देने वाला है। इसीलिये चौदह प्रयागों में से यह प्रयाग ‘तीर्थराज‘ के रूप में प्रतिष्ठित है। प्रयाग की ‘गंगा’ अन्य तीर्थस्थलों की गंगा से भिन्न महत्त्व रखती है।
वेद स्मृति एवं पुराण इस बात के साक्षी हैं कि प्रयाग में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती मिलकर त्रिवेणी का जो स्वरूप लेती है, उसके स्नान से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह अत्यन्त दुर्लभ है। गंगा-यमुना तथा अन्त:सलिला सरस्वती का मिलन ही ‘त्रिवेणी’ है। ‘गंगा’ का जल, जल नहीं जीवन है, जीवन धारा है, प्राणतत्त्व है। महाभारत में इसे यशस्वनी, बृहती विश्वरूपा के रूप में जाना गया है। इसे विष्णुपदी, विष्णुद्रव, जाहृी सुरसरि के रूप में जाना जाता है। इसे ‘त्रिपथगा’ भी कहा गया है। गंगा की तीन धारायें हैं- पाताल गंगा, भागीरथी गंगा और आकाश गंगा। इन तीनों में पृथ्वी जल और तेज रूपी शक्ति व्याप्त है। आपको अन्तरिक्ष का देवता माना गया है। आप में तेज तत्त्व अर्थात अग्नि समाहित है। जल का मूल तत्त्व पार्थिव है जो भेषज रूप है, जिससे मनुष्य को जीविका प्राप्त होती है। निष्कर्ष यह कि आपके ही तीन रूप गंगा के तीन रूप हैं, जो प्रयाग में साक्षात दृष्टिगत होते हैं।
गंगा ही ब्राह्मी, नारायणी, वैष्णवी, भागीरथी आदि नामों से अभिहित है। इसमें सृष्टि की उत्पत्ति एवं विकास का रहस्य छिपा हुआ है। सूर्य एवं चन्द्र भगवान विष्णु की शक्ति हैं और वही शक्ति प्रयाग की धरती पर गंगा के रूप में विद्यमान है। गंगा की सत्ता प्रत्येक मानव के शरीर में व्याप्त है। योगी इसे इडा, पिंगला एवं सुषुम्ना में देखता है। ज्ञानी, ज्ञान तत्त्व के रूप में। मानव आस्था एवं विश्वास के भाव से जुड़ा है।
प्रयाग में माघ स्नान के जब छ: वर्ष पूरे हो जाते हैं तब ‘अर्द्ध कुम्भ’ तथा जब बारह स्नान पर्व हो जाते हैं तब ‘कुम्भ’ पर्व लगता है। भारत-वर्ष का यह एक ऐसा केन्द्र बिन्दु है जहाँ से अनेकता में एकता का सन्देश सम्पूर्ण विश्व को मिलता है। उस समय तम्बुओं का एक ऐसा शहर बसता है जो लघु भारत को प्रतिबिम्बित करता है। ज्ञान-वैराग्य एवं भक्ति का ऐसा मेला विश्व में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता है। कल्पवास अर्थात ‘कायाकल्प’ का अद्भुत स्वरूप आपको प्रयाग की इस घरती पर ही देखने को मिलेगा।
प्रयाग में आज भी प्रतिदिन हजारों-लाखों की संख्या में उत्तर, दक्षिण, पूरब एवं पश्चिम से लोग आकर स्नान, दान कर अक्षय वट के दर्शन करते हैं। ‘प्रयागे मुण्डनं’ अर्थात प्रयाग में मुण्डन की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। स्त्रियाँ तो अपने पति की सहमति से ‘वेणी’ का दानकर सौभाग्य की कामना करती हैं। कुम्भ, अर्द्ध कुम्भ में तो यह संख्या लाखों में हो जाती है। प्रयाग के पण्डे और झण्डे, पण्डों के बहीखाते एक ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। सच पूछिये तो यहाँ का जन-जीवन गंगा, त्रिवेणी, संगम के इर्द-गिर्द आस्थामय है। एक ओर दशनामी अखाड़ों में से जूना, निरंजनी, उदासीन अखाड़ों के मुख्य केन्द्र दूसरी ओर रामानन्दाचार्य से लेकर अन्य आचार्य सम्प्रदायों के सन्तों के आश्रम प्रयाग के धार्मिक वैभव में चार चाँद लगा रहे हैं। भोर होते ही मीलों पैदल चलकर स्नान के लिये जाते स्त्री, पुरूष, मन्दिरों में बजती घड़ी घंट, माँ गंगा की आरती, दीपदान प्रयाग के वैभव को अभी भी जागृत कर रखा है।
बस चिन्ता है तो सिर्फ गंगा जल की, उसके सतत प्रवाह की, उसमें बहने वाली गन्दगी की, बढ़ते प्रदूषण की, मैली हो रही गंगा की, करोड़ों की आस्था डिगने की। चिन्ता है करोड़ों को जीवन देने वाली यह त्रिवेणी कहीं रूठ न जाए।
भारद्वाज मुनि की नगरी प्रयाग को सदैव से गंगा का आशीर्वाद प्राप्त होता रहा है। गंगा इस नगर की शृंगार है, शोभा है। प्रयाग की धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक धारा गंगा की धारा के साथ जीवन्त होती है। दूसरी ओर गंगा प्रयाग के लाखों लोगों का आर्थिक अवलम्बन भी है। प्रयाग में गंगा का प्रवेश शृंगवेरपुर के पास होता है, जहाँ वनवास में निकले श्री रामचन्द्र जी ने गंगा को पार कर वन की ओर प्रस्थान किया था। पूरब की ओर आगे बढ़ती, विभिन्न गाँवों से गुजरती गंगा प्रयाग में आकर यमुना को अपने में समाहित कर पुन: आगे की ओर प्रस्थान कर अनेक गाँवों और कस्बों से गुजरते हुए लगभग 80 किलोमीटर की यात्रा पूर्ण कर मिरजापुर जनपद में प्रवेश करती है। प्रयाग में गंगा किनारे प्रयाग की धार्मिक, सांस्कृितक और सामाजिक धारा गंगा की धारा के साथ जीवन्त होती है। दूसरी ओर गंगा प्रयाग के लाखों लोगों का आर्थिक अवलम्बन भी है।
कितनी जनसंख्या आबाद है इसका कोई सही- सही आँकड़ा नहीं है परन्तु अनुमान लगाया जाता है कि लगभग दस लाख लोग गंगा किनारे आबाद है। इनमें से अधिकांश लोग किसी न किसी रूप में जीवन-यापन के लिये गंगा पर निर्भर हैं। गंगा के किनारे प्रमुख रूप से फाफामऊ, झूंसी, और नैनी ही आबाद है।
अन्य स्थानों की तरह प्रयाग में भी गंगा के विभिन्न पक्षों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष धार्मिक ही माना जाता है। ब्रह्मा जी ने दस अश्वमेध यज्ञ संगम तट के समीप किये जिसकी स्मृति में दशास्वमेध घाट यहाँ मौजूद है। महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार माघ मास में तीन करोड़ दस हजार तीर्थ प्रयाग में एकत्र होते हैं। जबकि पदम पुराण में प्रयाग के माघ मास में तीन बार स्नान करने पर पृथ्वी पर एक हजार अश्वमेध यज्ञ से भी ज्यादा फल प्राप्त होता है। गोमुख से लेकर प्रयाग तक जहाँ भी गंगा में कोई नदी मिली उसे प्रयाग नाम मिला, जैसे देव प्रयाग, रुद्र प्रयाग, कर्ण प्रयाग आदि, लेकिन यहाँ तीनों नदियों के संगम के कारण इसे ‘प्रयागराज’ की उपाधि प्राप्त हुई।
गंगा यहाँ हजारों लोगों की जीवन रेखा की तरह है। गंगा से उसका जुड़ाव और उसका मेल- मिलाप ऐसा है जैसे कि परिजन या प्रियजन से होता है। उनकी दिनचर्या ही गंगा मिलन से प्रारम्भ होती है। पैंसठ वर्षीय पी. एन. केसरवानी लम्बे अर्से से प्रात: गंगास्नान करते हैं। पूरे माघ मास कल्पवास का कार्यक्रम पहले से तय रहता है। आस-पास के लोगों की जिन्दगी में गंगा की धारा इस हद तक प्रभावित करती है। जन्म से लेकर मरण तक के संस्कार इससे जुड़े हुए हैं। हजारों परिवार ऐसे हैं जोकि हर सुखद अवसर पर गंगा को निशान (बांस में लगी पताका) चढ़ाना नहीं भूलते।
‘गंगा मैया तोहे पिइरी चढैइबे’ की गूँज घाटों पर सुनी जा सकती है। ऐसे परिवारों की एक बड़ी संख्या है जहाँ मुण्डन संस्कार, कर्ण छेदन, उपनयन संस्कार हो रिस्तों का चुनाव-सब गंगा की गोद में बैठकर होता है। मोक्ष की कामना के चलते गंगा घाटों पर अन्तिम संस्कार का प्रचलन बढ़ रहा है। सरकार के जनजागरण का अभी तक कोई प्रभाव यहाँ नहीं दिखता है। अनेक असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति यहाँ प्रतिदिन स्नान दान करते या फिर जीवन में केवल गंगा जल का सेवन करते मिल जाएँगे। उन्हें विश्वास है कि माँ गंगा उन्हें असाध्य रोगों से मुक्ति दिलायेगी। आज भी तमाम ऐसे परिवार मिल जाएँगे जो आपसी विवादों को गंगा की गोद में बैठकर उन्हें साक्षी मानकर निपटाते हैं। प्रयाग में गंगा सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक पक्षों को परिभाषित करती है।
प्रयाग के संगम तट पर स्थित बड़े हनुमान जी (लेटे हनुमान जी) का मन्दिर देश-विदेश के करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र है। सामान्य दिनों में 10 से 15 हजार श्रद्धालु तो विशेष पर्व अथवा माघ मेले, कुम्भ मेले के समय लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहाँ पूजा, अर्चना और दर्शन को आते हैं। बदलते समय के साथ यह मन्दिर केवल धार्मिक आस्था का ही केन्द्र नहीं रह गया है। प्रयाग के सबसे प्राचीन मठों में से एक ‘बाघम्बरी गद्दी मठ’, जिसके पास इस मन्दिर की पूजा-अर्चना व व्यवस्था का दायित्व है, ने एक अनूठी पहल की है। इसके महन्त स्वामी नरेन्द्र गिरि व उनके शिष्य योगाचार्य आनन्द गिरि ने गंगा को प्रदूषण से बचाने के लिए अपने सहयोगियों के साथ एक संकल्प लिया है। हनुमान जी मन्दिर में पूजा-अर्चना के चलते प्रतिदिन कई-कई कुंतल फूल-मालायें मन्दिर में एकत्र हो जाती थीं।
कुछ वर्ष पूर्व तक ये फूल मालायें समीप में बह रही संगम में डाल दी जाती थीं। संगम तट पर जब साधु-सन्तों ने गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर विचार-विमर्श किया तो एक तथ्य यह भी आया कि गंगा तट पर बने मन्दिरों के फूलों से भी प्रदूषण बढ़ रहा है। स्वामी नरेन्द्र गिरि ने तय किया कि अब हनुमान जी के चरणों में समर्पित फूल संगम में नहीं डालेंगे। समस्या थी कि इन फूलों का क्या किया जाए? साधु-सन्तों से विचार-विमर्श में सुझाव आया कि फूलों से खाद बनाई जाए। खाद बनाने वाले विशेषज्ञों से बातचीत के बाद खाद बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। मठ में खाली पड़ी भूमि में एक बड़ा गड्ढा खोदा गया। अब मन्दिर में अर्पित फूलों को उसी गड्ढे में डाल दिया जाता है। मन्दिर से फूलों को मठ तक ले जाने की समस्या आई तो एक ट्रैक्टर भी खरीद लिया गया। अब मन्दिर के फूलों को ट्रैक्टर पर लादकर मठ पहुँचा दिया जाता है। खाद बनाने वाले विशेषज्ञों का दल 6 माह में एक बार आकर उसका निरीक्षण कर जाता है और फूलों से बनी यह खाद मठ की उन उपजाऊ जमीनों में डाली जाती है, जहाँ अन्न का उत्पादन हो रहा है।
स्वामी नरेन्द्र गिरि जी के शिष्य योगाचार्य आनन्द गिरि ने संगम तट के घाटों की साफ-सफाई के लिए ‘गंगा सेना’ के नाम से युवाओं का एक दल बनाया है। गंगा सेना के सदस्य सामान्यत: प्रत्येक रविवार को संगम के किलाघाट से दारागंज तक स्थित सभी घाटों पर एकत्र फूल-मालाओं, पॉलीथिन आदि को निकालते हैं और उन्हें घाटों से दूर गड्ढे बनाकर ढँक देते हैं। प्रयाग के संगम तट पर गंगा घाटों की सफाई एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, लेकिन जिस प्रकार से स्वामी आनन्द गिरि के नेतृत्व में सफाई कार्य प्रारम्भ हुआ है उससे प्रेरित होकर अनेक स्वयंसेवी संस्थायें भी इस कार्य में आगे आ रही हैं।
वेद स्मृति एवं पुराण इस बात के साक्षी हैं कि प्रयाग में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती मिलकर त्रिवेणी का जो स्वरूप लेती है, उसके स्नान से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह अत्यन्त दुर्लभ है। गंगा-यमुना तथा अन्त:सलिला सरस्वती का मिलन ही ‘त्रिवेणी’ है। ‘गंगा’ का जल, जल नहीं जीवन है, जीवन धारा है, प्राणतत्त्व है। महाभारत में इसे यशस्वनी, बृहती विश्वरूपा के रूप में जाना गया है। इसे विष्णुपदी, विष्णुद्रव, जाहृी सुरसरि के रूप में जाना जाता है। इसे ‘त्रिपथगा’ भी कहा गया है। गंगा की तीन धारायें हैं- पाताल गंगा, भागीरथी गंगा और आकाश गंगा। इन तीनों में पृथ्वी जल और तेज रूपी शक्ति व्याप्त है। आपको अन्तरिक्ष का देवता माना गया है। आप में तेज तत्त्व अर्थात अग्नि समाहित है। जल का मूल तत्त्व पार्थिव है जो भेषज रूप है, जिससे मनुष्य को जीविका प्राप्त होती है। निष्कर्ष यह कि आपके ही तीन रूप गंगा के तीन रूप हैं, जो प्रयाग में साक्षात दृष्टिगत होते हैं।
गंगा ही ब्राह्मी, नारायणी, वैष्णवी, भागीरथी आदि नामों से अभिहित है। इसमें सृष्टि की उत्पत्ति एवं विकास का रहस्य छिपा हुआ है। सूर्य एवं चन्द्र भगवान विष्णु की शक्ति हैं और वही शक्ति प्रयाग की धरती पर गंगा के रूप में विद्यमान है। गंगा की सत्ता प्रत्येक मानव के शरीर में व्याप्त है। योगी इसे इडा, पिंगला एवं सुषुम्ना में देखता है। ज्ञानी, ज्ञान तत्त्व के रूप में। मानव आस्था एवं विश्वास के भाव से जुड़ा है।
प्रयाग में माघ स्नान के जब छ: वर्ष पूरे हो जाते हैं तब ‘अर्द्ध कुम्भ’ तथा जब बारह स्नान पर्व हो जाते हैं तब ‘कुम्भ’ पर्व लगता है। भारत-वर्ष का यह एक ऐसा केन्द्र बिन्दु है जहाँ से अनेकता में एकता का सन्देश सम्पूर्ण विश्व को मिलता है। उस समय तम्बुओं का एक ऐसा शहर बसता है जो लघु भारत को प्रतिबिम्बित करता है। ज्ञान-वैराग्य एवं भक्ति का ऐसा मेला विश्व में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता है। कल्पवास अर्थात ‘कायाकल्प’ का अद्भुत स्वरूप आपको प्रयाग की इस घरती पर ही देखने को मिलेगा।
प्रयाग में आज भी प्रतिदिन हजारों-लाखों की संख्या में उत्तर, दक्षिण, पूरब एवं पश्चिम से लोग आकर स्नान, दान कर अक्षय वट के दर्शन करते हैं। ‘प्रयागे मुण्डनं’ अर्थात प्रयाग में मुण्डन की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। स्त्रियाँ तो अपने पति की सहमति से ‘वेणी’ का दानकर सौभाग्य की कामना करती हैं। कुम्भ, अर्द्ध कुम्भ में तो यह संख्या लाखों में हो जाती है। प्रयाग के पण्डे और झण्डे, पण्डों के बहीखाते एक ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। सच पूछिये तो यहाँ का जन-जीवन गंगा, त्रिवेणी, संगम के इर्द-गिर्द आस्थामय है। एक ओर दशनामी अखाड़ों में से जूना, निरंजनी, उदासीन अखाड़ों के मुख्य केन्द्र दूसरी ओर रामानन्दाचार्य से लेकर अन्य आचार्य सम्प्रदायों के सन्तों के आश्रम प्रयाग के धार्मिक वैभव में चार चाँद लगा रहे हैं। भोर होते ही मीलों पैदल चलकर स्नान के लिये जाते स्त्री, पुरूष, मन्दिरों में बजती घड़ी घंट, माँ गंगा की आरती, दीपदान प्रयाग के वैभव को अभी भी जागृत कर रखा है।
बस चिन्ता है तो सिर्फ गंगा जल की, उसके सतत प्रवाह की, उसमें बहने वाली गन्दगी की, बढ़ते प्रदूषण की, मैली हो रही गंगा की, करोड़ों की आस्था डिगने की। चिन्ता है करोड़ों को जीवन देने वाली यह त्रिवेणी कहीं रूठ न जाए।
भारद्वाज मुनि की नगरी प्रयाग को सदैव से गंगा का आशीर्वाद प्राप्त होता रहा है। गंगा इस नगर की शृंगार है, शोभा है। प्रयाग की धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक धारा गंगा की धारा के साथ जीवन्त होती है। दूसरी ओर गंगा प्रयाग के लाखों लोगों का आर्थिक अवलम्बन भी है। प्रयाग में गंगा का प्रवेश शृंगवेरपुर के पास होता है, जहाँ वनवास में निकले श्री रामचन्द्र जी ने गंगा को पार कर वन की ओर प्रस्थान किया था। पूरब की ओर आगे बढ़ती, विभिन्न गाँवों से गुजरती गंगा प्रयाग में आकर यमुना को अपने में समाहित कर पुन: आगे की ओर प्रस्थान कर अनेक गाँवों और कस्बों से गुजरते हुए लगभग 80 किलोमीटर की यात्रा पूर्ण कर मिरजापुर जनपद में प्रवेश करती है। प्रयाग में गंगा किनारे प्रयाग की धार्मिक, सांस्कृितक और सामाजिक धारा गंगा की धारा के साथ जीवन्त होती है। दूसरी ओर गंगा प्रयाग के लाखों लोगों का आर्थिक अवलम्बन भी है।
कितनी जनसंख्या आबाद है इसका कोई सही- सही आँकड़ा नहीं है परन्तु अनुमान लगाया जाता है कि लगभग दस लाख लोग गंगा किनारे आबाद है। इनमें से अधिकांश लोग किसी न किसी रूप में जीवन-यापन के लिये गंगा पर निर्भर हैं। गंगा के किनारे प्रमुख रूप से फाफामऊ, झूंसी, और नैनी ही आबाद है।
अन्य स्थानों की तरह प्रयाग में भी गंगा के विभिन्न पक्षों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष धार्मिक ही माना जाता है। ब्रह्मा जी ने दस अश्वमेध यज्ञ संगम तट के समीप किये जिसकी स्मृति में दशास्वमेध घाट यहाँ मौजूद है। महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार माघ मास में तीन करोड़ दस हजार तीर्थ प्रयाग में एकत्र होते हैं। जबकि पदम पुराण में प्रयाग के माघ मास में तीन बार स्नान करने पर पृथ्वी पर एक हजार अश्वमेध यज्ञ से भी ज्यादा फल प्राप्त होता है। गोमुख से लेकर प्रयाग तक जहाँ भी गंगा में कोई नदी मिली उसे प्रयाग नाम मिला, जैसे देव प्रयाग, रुद्र प्रयाग, कर्ण प्रयाग आदि, लेकिन यहाँ तीनों नदियों के संगम के कारण इसे ‘प्रयागराज’ की उपाधि प्राप्त हुई।
गंगा यहाँ हजारों लोगों की जीवन रेखा की तरह है। गंगा से उसका जुड़ाव और उसका मेल- मिलाप ऐसा है जैसे कि परिजन या प्रियजन से होता है। उनकी दिनचर्या ही गंगा मिलन से प्रारम्भ होती है। पैंसठ वर्षीय पी. एन. केसरवानी लम्बे अर्से से प्रात: गंगास्नान करते हैं। पूरे माघ मास कल्पवास का कार्यक्रम पहले से तय रहता है। आस-पास के लोगों की जिन्दगी में गंगा की धारा इस हद तक प्रभावित करती है। जन्म से लेकर मरण तक के संस्कार इससे जुड़े हुए हैं। हजारों परिवार ऐसे हैं जोकि हर सुखद अवसर पर गंगा को निशान (बांस में लगी पताका) चढ़ाना नहीं भूलते।
‘गंगा मैया तोहे पिइरी चढैइबे’ की गूँज घाटों पर सुनी जा सकती है। ऐसे परिवारों की एक बड़ी संख्या है जहाँ मुण्डन संस्कार, कर्ण छेदन, उपनयन संस्कार हो रिस्तों का चुनाव-सब गंगा की गोद में बैठकर होता है। मोक्ष की कामना के चलते गंगा घाटों पर अन्तिम संस्कार का प्रचलन बढ़ रहा है। सरकार के जनजागरण का अभी तक कोई प्रभाव यहाँ नहीं दिखता है। अनेक असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति यहाँ प्रतिदिन स्नान दान करते या फिर जीवन में केवल गंगा जल का सेवन करते मिल जाएँगे। उन्हें विश्वास है कि माँ गंगा उन्हें असाध्य रोगों से मुक्ति दिलायेगी। आज भी तमाम ऐसे परिवार मिल जाएँगे जो आपसी विवादों को गंगा की गोद में बैठकर उन्हें साक्षी मानकर निपटाते हैं। प्रयाग में गंगा सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक पक्षों को परिभाषित करती है।
गंगा सफाई की ठोस शुरुआत
प्रयाग के संगम तट पर स्थित बड़े हनुमान जी (लेटे हनुमान जी) का मन्दिर देश-विदेश के करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र है। सामान्य दिनों में 10 से 15 हजार श्रद्धालु तो विशेष पर्व अथवा माघ मेले, कुम्भ मेले के समय लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहाँ पूजा, अर्चना और दर्शन को आते हैं। बदलते समय के साथ यह मन्दिर केवल धार्मिक आस्था का ही केन्द्र नहीं रह गया है। प्रयाग के सबसे प्राचीन मठों में से एक ‘बाघम्बरी गद्दी मठ’, जिसके पास इस मन्दिर की पूजा-अर्चना व व्यवस्था का दायित्व है, ने एक अनूठी पहल की है। इसके महन्त स्वामी नरेन्द्र गिरि व उनके शिष्य योगाचार्य आनन्द गिरि ने गंगा को प्रदूषण से बचाने के लिए अपने सहयोगियों के साथ एक संकल्प लिया है। हनुमान जी मन्दिर में पूजा-अर्चना के चलते प्रतिदिन कई-कई कुंतल फूल-मालायें मन्दिर में एकत्र हो जाती थीं।
कुछ वर्ष पूर्व तक ये फूल मालायें समीप में बह रही संगम में डाल दी जाती थीं। संगम तट पर जब साधु-सन्तों ने गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर विचार-विमर्श किया तो एक तथ्य यह भी आया कि गंगा तट पर बने मन्दिरों के फूलों से भी प्रदूषण बढ़ रहा है। स्वामी नरेन्द्र गिरि ने तय किया कि अब हनुमान जी के चरणों में समर्पित फूल संगम में नहीं डालेंगे। समस्या थी कि इन फूलों का क्या किया जाए? साधु-सन्तों से विचार-विमर्श में सुझाव आया कि फूलों से खाद बनाई जाए। खाद बनाने वाले विशेषज्ञों से बातचीत के बाद खाद बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। मठ में खाली पड़ी भूमि में एक बड़ा गड्ढा खोदा गया। अब मन्दिर में अर्पित फूलों को उसी गड्ढे में डाल दिया जाता है। मन्दिर से फूलों को मठ तक ले जाने की समस्या आई तो एक ट्रैक्टर भी खरीद लिया गया। अब मन्दिर के फूलों को ट्रैक्टर पर लादकर मठ पहुँचा दिया जाता है। खाद बनाने वाले विशेषज्ञों का दल 6 माह में एक बार आकर उसका निरीक्षण कर जाता है और फूलों से बनी यह खाद मठ की उन उपजाऊ जमीनों में डाली जाती है, जहाँ अन्न का उत्पादन हो रहा है।
स्वामी नरेन्द्र गिरि जी के शिष्य योगाचार्य आनन्द गिरि ने संगम तट के घाटों की साफ-सफाई के लिए ‘गंगा सेना’ के नाम से युवाओं का एक दल बनाया है। गंगा सेना के सदस्य सामान्यत: प्रत्येक रविवार को संगम के किलाघाट से दारागंज तक स्थित सभी घाटों पर एकत्र फूल-मालाओं, पॉलीथिन आदि को निकालते हैं और उन्हें घाटों से दूर गड्ढे बनाकर ढँक देते हैं। प्रयाग के संगम तट पर गंगा घाटों की सफाई एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, लेकिन जिस प्रकार से स्वामी आनन्द गिरि के नेतृत्व में सफाई कार्य प्रारम्भ हुआ है उससे प्रेरित होकर अनेक स्वयंसेवी संस्थायें भी इस कार्य में आगे आ रही हैं।
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