बादल अब तो बरस पड़ो,
यहाँ चारों ओर निराशा है।
बरखा की बूँदों के बिन,
कहीं पपीहा प्यासा है।।
ताल-तलैया, नदियाँ-नाले,
सूख रहे, हौले-हौले।
प्यासी धरती तड़प-तड़प कर,
मांग रही जल, मुँह खोले।।
जीव-जन्तु, मानव का तन,
भीषण गर्मी से झुलस रहा।
बादल की गर्जन सुनने को,
प्राणी-प्राणी किलस रहा।।
पर हम क्यों ना समझ सके,
क्या जीवन की परिभाषा है ?
सीपी के खुलते मुख को भी,
कुछ बूँदों की आशा है।।
काट दिए हमने वन-उपवन,
जो वर्षा बुलवाते थे।
जंगल को धधकाया हमने,
जो वर्षा को लाते थे।।
स्वार्थ सिद्धी की खातिर हमने,
हरियाली ही खो दी।।
मिट्टी में पड़ती वर्षा की।
खुशबू सोंधी खो दी।।
अधिकाधिक वृक्षारोपण से,
करें आओ दूर हताशा।
बादल फिर लिखने आयेंगे,
जीवन की मृदुभाषा।।
बरखा की बूँदों के बिन,
कहीं पपीहा प्यासा है।।
सम्पर्क
श्रीमति रमा सिंघल, सहायक अध्यापक, रा.पा.वि. हल्दी पंतनगर, उधमसिंह नगर, उत्तराखण्ड
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