जल: आज जो पानी हम पीते हैं, वही पानी करोड़ों साल पहले विशालकाय डायनासोरों के युग में एक या अन्य रूपों में मौजूद था। वायुमंडल में रिसाइकिल होकर हमारे गिलास तक पहुंचने वाले धरती पर मौजूद इस स्वच्छ जल की मात्रा इतने वर्षों से तकरीबन लगातार स्थिर है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर यह पानी गया कहां? साल दर साल जनसंख्या विस्फोट के चलते पानी के अति उपयोग स्वच्छ और प्रचुर मात्रा में जल की आपूर्ति समस्या बनती गई।
जरूरत: चाहे कोई भी हो, जीवित रहने के लिए व्यक्ति को पानी आवश्यक है। केवल मनुष्य ही नहीं, इस प्राकृतिक संसाधन की जरूरत खाद्य पदार्थों से लेकर सभी तरह के उत्पादों के निर्माण में होती है। बेकार अपशिष्ट पदार्थों को नष्ट करने एवं हमें और हमारे पर्यावरण को स्वस्थ रखने में पानी का कोई सानी नहीं है।
जीवन : दुर्भाग्य से मानव एक अक्षम जल उपभोक्ता साबित हुआ है। पानी के बेतरतीब उपयोग से स्थिति और बदतर होती जा रही हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार पिछली सदी में आबादी बढ़ने की दर की दोगुनी पानी के उपयोग में वृद्धि हुई है। इसके उपयोग के प्रकार, इसमें बढ़ोतरी और जलवायु परिवर्तन के चलते 2025 तक 1.8 अरब लोग ऐसे क्षेत्रों में रहने पर विवश होंगे जहां पानी का अकाल होगा और दुनिया की दो तिहाई आबादी को इसकी किल्लत से जूझना पड़ सकता है। ऐसे में इस अनमोल प्राकृतिक संसाधन का संरक्षण, उपयोग और कमी बड़ा मुद्दा है।
जेठ के इस महीने में सब तरफ पानी की ही चर्चा। पानी-पानी चिल्लाते लोग! पानी के लिए झगडा-मारपीट! लेकिन पानी है कहां? सूखते चेहरे, सूखती नदियां-कुएं-तालाब-झीलें! चटकती धरती और पानी की टूटती परंपराएं व कानून! सब कुछ जैसे बेपानी होने को लालायित है। यह है महाशक्ति बनने का दंभ भरता भारत! पर ताज्जुब है कि आज अपनी इस नाकामी पर कोई भी पानी-पानी होता नजर नहीं आता; न समाज, न सरकार, न नेता और न ही अफसर।
1951 में देश में जल की उपलब्धता 5177 घनमी प्रति व्यक्ति थी। यह अब घटकर 1650 रह गई है। संकट साफ है; फिर भी हम वर्षा, बर्फवारी और हिमनद के रूप में प्रतिवर्ष प्राप्त होने वाले 4000 अरब घन मी. पानी में से 2131 अरब घन मी. यूं ही बह जाने देते हैं। क्यों?
हम क्यों भूल जाते है कि मेसोपोटामिया से लेकर दिल्ली के उजड़ने-बसने का कारण पानी ही रहा? हम यह समझने में क्यों असमर्थ हैं कि इसकी कमी से बड़ी आर्थिक तरक्की नहीं टिकती?… या सब जानते हुए भी हम अकर्मण्य हो गये हैं?
हमारे पास सब कुछ है। कम पानी की फसलें, जीवनशैली, ज्ञान, वनक्षेत्र, हिमनद, लाखों तालाब-झीलें, हजारों नदियों का नाडीतंत्र, स्पंजनुमा शानदार गहरे एक्युफर। बंजर भूमि-मरुभूमि विकास, एकीकृत जल संसाधन प्रबधन, कैचमेंट एरिया डेवलपमेंट, रिवर रिवाइवल से लेकर मनरेगा तक जाने कितने नाम व बजट पानी बचाने और संजोने में लगे हैं। फिर भी हम बेपानी होते देश हैं।
शायद इसलिए कि इन सब में पानीदार लोगों की समझ व साझेदारी नहीं है। इसलिए भी कि हमें पानी का नहीं, पानी से कमाई का लालच है। हमने पानी साफ करने के लिए खरबों रुपये एसटीपी में बहाए, लेकिन पानी गंदा करने वालों को रोकने की जुर्रत नहीं की। हमने संकटग्रस्त इलाकों में अतिदोहन रोकने के लिए लाइसेंस-अनुमति का चक्रव्यूह रचा, लेकिन उद्योगों को धकाधक पानी खींचने दिया। हमने मनरेगा के तहत तालाब के नाम पर ऐसे बंद डिब्बे बनाये, जिनमें न पानी आने का रास्ता है और न जाने का।
मुझे ये सारी बेसमझी देश के जाने-माने लोकसभा क्षेत्र अमेठी की एक छोटी सी उज्जयिनी नदी की पदयात्रा मंे एक साथ ही देखने का मौका मिला। सरकार ने नदी का नाम बदलकर गुलालपुर ड्रेन रख दिया और जिम्मेदारी से मुक्ति पा ली। यह प्रमाण है कि नेता से लेकर अधिकारी तक सभी को पानी के मामले में साक्षर करने की जरूरत है। देश के एक बड़े समुदाय को अभी भी यह समझने की जरूरत है कि हमारी परंपरागत छोटी-छोटी स्वावलंबी जल संरचनायें ही हमें वह सब कुछ लौटा सकती हैं, जो पिछले तीन दशक में हमने खोया है। इस दावे को यहां कागज पर समझना जरा मुश्किल है। लेकिन लेह, लद्दाख, कारगिल और लाहौल-स्पीति के शुष्क रेगिस्तानों को देखकर आसानी से समझा जा सकता है कि यदि पानी संजोने का स्थानीय कौशल न होता, तो यहां मानव बसावट ही न होती। आइए! पानी का रोना रोना छोड़कर फावड़ा-कुदाल उठायें और इस बारिश से पहले आसमान से बरसी हर बूंद को सहेजने में जुट जायें, ताकि हम जिंदा रहें।
उतरता पानी: बैठती धरती
आज देश का एक भी विकास खण्ड भूजल की दृष्टि से सुरक्षित नहीं है। आजादी के वक्त 232 गांव संकटग्रस्त थे। आज दो लाख से ज्यादा यानी हर तीसरा गांव पानी की चुनौती से जूझ रहा हैं। देश के 70 फीसदी भूजल भंडारों पर चेतावनी की छाप साफ देखी जा सकती है। पिछले 16 वर्षों में 300 से ज्यादा जिलों के भूजल में चार मीटर से ज्यादा गिरावट दर्ज की गई है। जम्मू, हिमाचल, से लेकर सबसे ज्यादा बारिश वाले चेरापूंजी तक में पेयजल का संकट हैं। पंजाब के भी करीब 40 से अधिक ब्लॉक डार्क जोन हैं। बेचने के लिए पानी के दोहन ने दिल्ली में अरावली के आसपास जलस्तर 25 से 50 मीटर गिरा दिया है। राजस्थान के अलवर-जयपुर में एक दशक पहले ही अति दोहन वाले उद्योगों को प्रतिबंधित कर देना पड़ा था। उत्तर प्रदेश के 820 में से 461 ब्लॉकों का पानी उतर रहा है। मध्य प्रदेश के शहरों का हाल तो बेहाल है ही, सुदूर बसे कस्बों में भी आज 600-700 फीट गहरे नलकूप हैं। …सब जगह पानी का संकट है। क्या कोई बेपानी देश महाशक्ति बन सकता है ? सोचिए और बताइये।
बढता जहर: तड़पते लोग
‘हमें क्या मालूम था कि चीनी बनाने आई फैक्टरी एक दिन हमारी ही हत्यारी बनेगी’ -सोमपाल, गांव भनेडा खेमचंद, सहारनपुर। दूषित नदियों के किनारे स्थित गांवों का सच यही है। कृष्णा नदी के तट पर स्थित इस गांव का भूजल जहर बन चुका है। काली नदी के किनारे क्रोमियम-लेड से प्रदूषित है। हिंडन किनारे बसी कॉलोनी लोहिया नगर-गाजियाबाद की धरती में जहर फैलाने वाली चार फैक्टरियों में ताले मारने पड़े। कानपुर, बनारस, पटना, बोकारो, दिल्ली, हैदराबाद …गिनते जाइये कि नदी से भूजल में पहुंचे प्रदूषण के उदाहरण कई हैं। गिरते भूजल के कारण गुणवत्ता में आई कमी का परिदृश्य भी कम खतरनाक नहीं है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, गुजरात में फ्लोराइड की अधिकता नई नही हैं। उत्तर प्रदेश में कई जिले इसके नये शिकार हैं। उत्तर प्रदेश के ही जौनपुर, झारखंड के साहेबगंज और पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद के भूजल में आर्सेनिक की मिलावट डराने वाली है। इससे हो रही सेहत की बर्बादी का चित्र और भी खतरनाक है, …. इतना खतरनाक कि ऐसे विकास से तौबा करने का मन चाहे।
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