कारगर प्रयास हो, तो संभव है सुखाड़ से मुक्ति

सुखाड़ और अकाल पलामू की नियति बन चुकी है। मानसून की तानाशाही के कारण। झारखंड का यह इलाका गुजरे कई सालों से सूखे की चपेट में है। नतीजा यह कि इसने आजीविका के संकट से लेकर भुखमरी, पलायन और कृषि समस्या तक को बुरी तरह प्रभावित किया है। पेश है इस संबंध में शोधपरक रिपोर्ट की पांचवी और अंतिम कड़ी :

1993-96 में पानी चेतना मंच ने सुखाड़ से मुक्ति की राह दिखायी थी। इससे जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता मेघनाथ बताते हैं कि ‘बड़े बांध आम लोगों का कतई भला नहीं करते। इसके बजाय आहर, चैकडैम ज्यादा बेहतर हैं। इसी अनुरूप 92-93 में तत्कालीन उपायुक्त पलामू संतोष मैथ्यू ने नागरिक संगठनों और सीधे प्रभावित लोगों की सक्रिय भागीदारी से सूखा मुक्ति अभियान चलाया। 1996 तक पांच सौ गांवों में पानी पंचायत बना कर 125 से अधिक छोटे बांध बने। लेकिन ठेकेदारों व बिचौलियों के हस्तक्षेप से मुक्त अभियान होंने के कारण स्वार्थी तत्व इसके विरोधियों की कमी नहीं थी। फ़िर चूंकि यह अभियान एक व्यक्ति यानी पलामू डीसी पर निर्भर था, इसलिए उनके तबादले के बाद यह असमय खत्म होता गया। पर अभी भी मनिका व छतरपुर में डोकिसिरी, कोकरो, किरकीकलां, जौरा, जमुना, सुशीगंज, सौलंगा। हरिहरगंज में मिथिहा, कोसीला, तिलिहा, पाटन में चूड़ादोहर, मनातू, भेंसासुर, बरवाडीह, कुटकु, महुआडांड में पुटरुंगी ओद में चैकडैम देखे जा सकते हैं। अब तो राजनीतिक दलों के पास न क्रियेटिव एजेंडा है और न ही ब्यूरोक्रेसी का डिलीवरी मैकेनिज्म सही है।’

भूगर्भशास्त्री डॉ नीतीश प्रियदर्शी कहते हैं कि पलामू की भौगोलिक बनावट और ‘रेन शैडो’प्रभाव के कारण माइक्रो इरिगेशन व वाटरशेड प्रोजक्ट तथा वर्षा जल संरक्षण की वाटर हारवेस्टिंग तकनीकें ही ‘डॉर्ट प्रूफ़िंग’ में कारगर रहेंगी।

सुखाड़ को प्राकृतिक आपदा कह कर भाग्य या सरकार के भरोसे रहने के रवैये से मुक्त होना होगा। पलामू डीसी अमिताथ कौशल कहते हैं कि ‘लोगों को डेढ़ सौ दिन मैच्योरिटी वाला धान ही चाहिए। जबकि उन्हें जमीन व वातावरण के अनुकूल खेती पर ध्यान देना चाहिए।‘

सामाजिक कार्यकर्ता सुनील मिंज कहते हैं कि ’सदियों से लाभप्रद रही खेती की सामूहिक व पारंपपरक ‘मदैत’ व्यवस्था ओदवासी समाज में खत्म हो रही है। लोग वाटर हारवेस्टिंग योजनाओं को वह लाभ नहीं उठा रहे हैं, जो उन्हें उठाना चाहिए। मनरेगा के जरिये गांव के लिए स्थायी संपत्ति का निर्माण हो, ऐसे सोच से समस्याएं स्वत: हल होंगी।‘

सुप्रीम कोर्ट के कमिश्नर के पूर्व सलाहकार रहे डॉ रमेश शरण कहते हैं कि सवरेपपर प्राथमिकता कृषि तंत्र में हावी सामंतवाद को खत्म करने की है। इसके लिए भूमि सुधार, भूमिहीनों में भूमिवितरण अपपरहार्य है तो खाद-बीज ओद कृषि आगतों की किफ़ायती व्यवस्था, तकनीकी ज्ञान तथा ग्रामीण व शहरी बाजार तक सबकी सहज उपलब्धता भी जरूरी है। रुरल कनेक्टिविटी, रुरल वेज में बढ़ोतरी, भूमिहीनों को जमीन वितरण, महिलाओं की स्थिति में सुधार से तकदीर बदल सकती हैं। इसके अलावा जनजातीय बहुल अधिसूचित क्षेत्रों में कृषि व अर्थतंत्र को स्थानीयता के अनुरूप समृद्ध करना श्रेयस्कर होगा। आउटडेटेड हो चुके फ़ेमिन कोड की भी समीक्षा करने की जरत है।’

पलायन के दुष्प्रभावों से बच्चों को बचाने के लिए बोलांगीर, ओडिशा मॉडल बेहतर उपाय है। यानी गांवों में मौसमी पलायन के समय परिवारों के बच्चों को गांव के स्कूल में सामुदायिक हॉस्टल का रूप देकर भोजन पकाने से लेकर उनकी देखरेख की जिम्मेवारी गांव के बुजुगरें पर छोड़ दी जाती है। इस योजना को अमर्त्य सेन से सराहना मिली है। इसी तरह प्रवासी मजूदरों के बच्चों के भरण-पोषण का मध्य प्रदेश मॉडल अनुकरणीय है। प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक में खाद्दान्नों के वितरण पर मचे विवाद के परिप्रेक्ष्य में प्रो. अर्जुन सेनगुप्ता ने पीडीएस को यूनिवर्सालाइज करने की बात ठीक ही की है।

झारखंड में काम कर रहे गैरसरकारी संगठन केजीवीके, प्रदान, रामकृष्ण मिशन के काम सराहनीय हैं। ड्राउट प्रूफ़िंग मेकेनिज्म के लिए प्रदान संगठन का सिंचाई का ‘पांच इंच और तीस बाइ चालीस मॉडल’ तथा खेती के लिए ‘श्रीवृद्धि’ मॉडल फ़लदायी है। वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम द्वारा प्रायोजित ओड़िशा के रायगड़ प्रोजेक्ट में जिस तरह बोयामिटि-क राशन कार्ड, बार कोडेड फ़ूडग्रेन कूपन, स्मार्ट कार्ड ओद तथा आइटी आधारित मॉनिटरिंग सिस्टम के प्रयोग से लाभुकों को सही लाभ मिला। झारखंड में भी इनफ़ॉरमेशन एंड कम्यूनिकेशन टूल से स्थिति बदल सकती है।

भ्रष्टाचार कम करने के लिए सूचनाधिकार, जनसुनवाई, सोशल ऑडिटिंग ओद उपाय बेशक कारगर होंगे, पर पंचायतों का जल्दी गठन कल्याणकारी योजनाओं की सही पहुंच के लिहाज से उतना ही आवश्यक है।

झारखंड में कृषि व गन्ना विकास मंत्रालय/विभाग का नाम त्रुटिपूर्ण है। अविभाजित बिहार से मिले इस नामकरण के बावजूद झारखंड में गन्ना कहीं से भी मुख्य फ़सल नहीं है। इसलिए रमन आयोग ने इसका नाम ‘कृषि व खेती विकास विभाग’ नाम सुझाया है। आयोग की ये सिफ़ापरशें भी वाजिब हैं कि इकोलॉजिकल एग्रीकल्चर सिस्टम, ग्राउंड वाटर मैंनेजमेंट, कृषकों के साथ पार्टिसिपेटरी इरिगेशन मैनजमेंट, राइस बेस्ड मोनोक्रॉपिंग कल्चर की जगह क्रॉप डायवर्सिफ़िकेशन पर आधारित इंटिग्रेटेड फ़ार्मिंग सिस्टम पर जोर देना होगा।

अगस्त, 2007 में झारखंड दौर पर आये प्रतिष्ठित कृषि विज्ञानी डॉ एमएस स्वामीनाथन ने बड़े पैमाने पर खाली पड़ी परती भूमि पर आश्चर्य व्यक्त किया था, पर झारखंड में कृषि की संभावनाओं के प्रति वह आशान्वित थे। कुछ ऐसा ही अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज कहते हैं-‘इन्नोवेटिव व क्रियेटिव मेथड से कृषि का कायाकल्प हो सकता है। झारखंड में इक्वीटेबल डेवलपमेंट की जरत है। सूखे से निबटने के लिए रिलीफ़ वर्क चले। सुखाड़ व भुखमरी से निबटना कोई मिस्ट्री(रहस्य) की बात नहीं है, सोशल स्कीम का बेहतर क्रियान्वयन अच्छे परिणाम दे सकता है।’

बीते सालों से लगातार सुखाड़ व अकाल से अभिशप्त रहे पलामू की आस शायद इस मानसून सीजन में पूरी हो। राष्ट्रीय मौसम विभाग ने इस बार सामान्य और बेहतर मानसून की भविष्यवाणी की है। संभव है, यह साल उनकी तकदीर व तदबीर बदले दे। आमीन!

(सीएसडीएस के इनक्लूसिव मीडिया फ़ेलोशिप के तहत लिखे गये आलेख।)

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