कान्ह और सरस्वती नदियों के लिए संघर्ष

इंदौर के बुद्धिजीवियों का संगठन अभ्यास मंडल का कान्ह को लेकर धरना
इंदौर के बुद्धिजीवियों का संगठन अभ्यास मंडल का कान्ह को लेकर धरना

इंदौर शहर में बुद्धिजीवियों के संगठन अभ्यास मंडल के धरने में शामिल लोगों में इस बात को लेकर ख़ासा आक्रोश था कि एक तरफ़ नगर निगम शहर को सजाने-सँवारने पर करोड़ों रूपए की फिजूलखर्ची कर रहा है लेकिन एक समय में इंदौर की पहचान रही शहर के मध्य से गुज़रने वाली कान्ह और सरस्वती नदियों के नाम पर सिर्फ़ खानापूर्ति ही की जाती रही है. अब तक करोड़ों रूपए खर्च होने के बावजूद न तो इनकी साफ़-सफ़ाई ढंग से हो पा रही है और न ही इनके आसपास किए गए अतिक्रमणों को हटाने की कोई ठोस कार्ययोजना बनाई गई है. कोर्ट की लगातार फटकार और एनजीटी के दखल के बावजूद इन नदियों की हालत नहीं बदली है.

इंदौर में अभ्यास मंडल लगभग 64 वर्षों से शहर में जनहित के मुद्दों पर व्याख्यान और अन्य गतिविधियों में सक्रिय है. अभ्यास मंडल ने इस मुद्दे पर इससे पहले भी कई बार धरना प्रदर्शन तथा अन्य तरीकों से विरोध जताया है. वर्ष 2008 में मंडल की पहल पर ही सबसे पहले नदियों के पुनर्जीवन के लिए प्रयास करने की पहल हुई थी. इसके बाद से लगातार श्रमदान से घाटों की सफ़ाई, नदी किनारे दीपोत्सव, मानव श्रृंखला, महिला रैली, हस्ताक्षर अभियान, परिचर्चा और व्याख्यान आदि के ज़रिए इस मुद्दे को चर्चा में बनाए रखा. अभ्यास मंडल से जुड़े और जल सत्याग्रही किशोर कोडवानी ने इसे लेकर हाईकोर्ट और एनजीटी राष्ट्रीय हरित न्यायालय सहित सम्बन्धित विभागों में भी याचिका और ज्ञापन के माध्यम से गुहार लगाई. वे इसके लिए तब से जुटे हुए हैं और ढलती उम्र के बावजूद ज़ोश और जुनून से लगातार संघर्ष कर रहे  हैं.                 

रामेश्वर गुप्ता और शिवाजीराव मोहिते ने बताया कि धरने से पहले इन लोगों ने कई बार महापौर और अधिकारियों से लेकर प्रधानमंत्री तक अपनी बात पहुँचाई लेकिन अब तक सुनवाई नहीं हुई तो इन्हें यह कदम उठाना पड़ा. उन्होंने नगर निगम के ड्रेनेज और जल यंत्रालय के अफ़सरों सहित जन प्रतिनिधियों पर भी इस मामले में लापरवाही बरतने क़ा आरोप लगाते हुए बड़े अधिकारियों तथा स्थानीय जन प्रतिनिधियों को भी कठघरे में खड़ा किया. वक्ताओं ने सवाल उठाए कि लंबे समय से नदियों की सफ़ाई के नाम पर करोड़ों का बजट ख़त्म होने के बाद भी इन नदियों की हालत क्यों नहीं सुधर रही है ? ड्रेनेज आउटफाल बंद करने के बावजूद कान्ह- सरस्वती नदियों में अभी भी सीवर का गन्दा पानी कहाँ से और क्यों मिल रहा है ? गाद क्यों जमी हुई है ? दोनों नदियों में कचरा कहाँ से आ रहा है ? नदियों पर छह जगह सीवर ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी ) के आसपास पानी साफ़ और लबालब भरा नज़र आता है तो उनके थोड़ा आगे चलकर नदियों की हालत बदतर क्यों हो जाती है ?   

नूर मोहम्मद शेख़ ने बताया कि शहर में ड्रेनेज हेतु बार-बार योजनाएँ बनी, जिनमें हजारों करोड़ की राशि खर्च हुई लेकिन आज तक मूल योजना को मूर्त रूप नहीं दिया गया. इससे समस्या बनी हुई है. ड्रेनेज ओवरफ्लो होकर नदी को दूषित करता है. नाला टैपिंग पर किए गए काम इसके उदाहरण हैं.            

सुरेश उपाध्याय ने बताया कि शहर के बीच से लगभग 4 किमी लंबाई में सौंदर्यीकरण के नाम पर जो काम किए गए, उनका कोई लाभ न तो नदियों को मिला और न लोगों को. इतना ही नहीं कई कार्य तो नदी के बहाव क्षेत्र में ही कर दिए गए जो नदियों के लिए बाधा बन रहे हैं. रसूखदार लोगों के अतिक्रमण हटाने के लिए अब तक किसी ने कोई बड़ा कदम नहीं उठाया. इन नदियों को सदानीरा बनाने के लिए जल विशेषज्ञों तथा बुद्धिजीवियों की एक विशेषज्ञ समिति बनाई जानी चाहिए. इसमें शहर के अनुभवी और वरिष्ठ लोगों से राय मशविरा बनाकर ऐसी कार्ययोजना बनाई जाए ताकि आने वाली पीढ़ी को हम एक सुंदर शहर ही नहीं  बल्कि जीने योग्य प्राकृतिक संसाधन भी सौंप सकें.                

धरने के लिए सुबह से ही राजबाड़े के पास कान्ह नदी के किनारे कृष्णपुरा छत्री पर धरने के लिए लोगों के आने का सिलसिला शुरू हो गया था. दोपहर तक काफ़ी लोग जुट गए थे. ये अपने साथ जो तख्तियाँ लाए थे, उन पर लिखा था- ‘कान्ह-सरस्वती से हमारा मान, मत करो उनका अपमान ‘, ‘नदियाँ करे पुकार, जीवन कर लो साकार’, ‘हरा-भरा इंदौर हो, मध्य में कान्ह की बहार हो’                                       

अभ्यास मंडल के पदाधिकारियों के अनुसार नदियों के उद्गम रालामंडल की पहाड़ियों से कान्ह नदी की दो सहायक नदियों चंद्रभागा व सरस्वती के साथ कस्तुरबाग्राम, बिलावली व पिपल्यापाला तालाब के अतिरिक्त पानी के प्रवाह से कभी यह नदी सदानीरा बनी रहती थी.जनश्रुतियों में इसके घाटो पर स्नान-ध्यान, पूजन-पाठ और हाथीपाला पर हाथियों को नहलाने के किस्से प्रचलित हैं. होल्कर शासको ने कई जल संरचनाओं का निर्माण कर कान्ह नदी का जल प्रवाह सुनिश्चित किया था. यहाँ तक कि इंदौर शहर के मास्टर प्लानर पैट्रिक गिडेंस की सलाह से नदी प्रणाली को अक्षुण्ण रखते हुए इसे सुंदर स्वरूप दिया गया था. नदी किनारे के घाट, छोटे-छोटे बाँध  और छत्रियाँ इसके प्रमाण हैं.  

लेकिन बाद के दिनों में शहर के सीवरेज का मास्टर प्लान नहीं बनने से मल-मूत्र तथा गंदे पानी को सीधे नदी मे छोड़ा जाने लगा.उद्योगों ने तमाम नियमों को ताक पर रखकर अवशिष्ट पदार्थों को नदी में बहाना शुरू कर दिया. नदी किनारे के पेड़ों की कटाई तथा नदी के प्रवाह क्षेत्र में वैध-अवैध अतिक्रमण ने इस समस्या को और बढ़ा दिया. कुछ सालों पहले तक तो हालात यहाँ तक पहुँच गए थे कि दोनों नदियों के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग रहे थे. कुछ बुद्धिजीवी लोगों और जल सत्याग्रही किशोर कोडवानी के प्रयासों से सौ साल पुराने नक्शों के आधार पर नदियों को ज़मीन पर तलाशा गया. तब कहीं जाकर नदी की सीमा रेखा और उसके चिह्न नज़र आए. इसका एक बड़ा नुकसान इंदौर को यह भी हुआ कि नदी ख़त्म हो जाने से शहर का जल स्तर बहुत गहरे धँस गया. स्थिति इतनी बुरी हुई कि लगभग सवा सौ किमी दूर नर्मदा से अरबों का खर्च कर इस शहर की प्यास बुझाना पड़ रही है.                  

.सरकार ने शटल कॉक की तरह इसे लेकर कई योजनाएँ बीते पंद्रह सालों में बनाई है और कितने सपने दिखाए पर धरातल में वही ढ़ाक के तीन पात. कभी इसे झील का रूप देकर इसमें नाव चलाने का झूठा सपना दिखाया तो कभी अहमदाबाद की साबरमती की तरह रिवर साइड डेवलप करने का दिवास्वप्न बताया गया. कभी नदी कॉरिडोर के नाम पर भारी-भरकम खर्च किया गया तो कभी सिंहस्थ में क्षिप्रा को इसके गंदे पानी से बचाने के  लिए जतन किए गए.  आज तक ऐसी कोई सार्वजनिक जानकारी सामने नहीं आई है कि इनके सफ़ाई और सौन्दर्यीकरण की विभिन्न योजनाओं पर कब-कब और कितना खर्च हुआ. यदि यह आंकड़ा सामने आता है तो यकीनी तौर पर चौंकाने वाला होगा. यदि संकल्प शक्ति के साथ काम किया जाता तो इसके चौथाई हिस्से में नदियों का पुनर्जीवन संभव था.    

कान्ह नदी इंदौर से आगे चलकर उज्जैन से कुछ पहले क्षिप्रा में मिल जाती है और क्षिप्रा के साथ-साथ चलते हुए चम्बल और अंततः गंगा में पहुँचती है. उज्जैन में बीते सिंहस्थ से पहले क्षिप्रा को कान्ह के गंदे पानी से बचाने के लिए उज्जैन से पहले डायवर्ट कर अरबों की लागत से उज्जैन के बाद इसका पानी छोड़ना पड़ा था. यह सिर्फ़ अस्थाई योजना थी लेकिन अब सवाल यह है कि अगले सिंहस्थ में क्या ऐसा फिर से करना पड़ेगा. कान्ह साफ़ हो जाती है तो इसका खर्च और श्रम भी बच सकता है.

अधिकारी फिलहाल कान्ह-सरस्वती नदी के पुनर्जीवन के लिए जिन प्रयासों की बात कर रहे हैं, उनमें सिर्फ़ इंदौर के शहरी हिस्से में रिटेनिंग वाल, कचरा व गाद निकालना, कचरारोधी जालियाँ लगाना, पुलों को बड़ा करना, नाला टैपिंग, बाग़-बगीचे, वर्टिकल गार्डन, सीवर ट्रीटमेंट प्लांट आदि की बात है जो महज नदी के शहरी हिस्से की कॉस्मेटिक सर्जरी से ज़्यादा कुछ नहीं है. इन सबसे तो वह अंततः नाले की तरह ही नज़र आएगी.

इससे उलट अभ्यास मंडल के लोग चाहते हैं कि इंदौर की जनता की भावनाओं का सम्मान करते हुए कान्ह-सरस्वती नदियों का पुनर्जीवन ही इसका एकमेव ठोस, प्राकृतिक, बेहतर और स्थाई विकल्प है. इनके उद्गम से संधि स्थल और आगे उज्जैन तक वैज्ञानिक तौर-तरीकों से नदियों का साफ़-सुथरा और सदानीरा रूप दिया जाए. सबसे पहले नदियों का सीमांकन कर सभी अतिक्रमण हटाने होंगे. एनजीटी के निर्देशों के मुताबिक दोनों किनारों पर 30 मीटर तक की ज़मीन खुली छोडनी होगी. सीवर, औद्योगिक अपशिष्टों और गंदगी को नदियों में मिलने से सख्ती से पाबंदी लगानी पड़ेगी, पहाड़ियों और तालाबों से आने वाले बरसाती पानी की प्राकृतिक चैनलों को फिर से नदियों तक पहुँचाने की पहल करना पड़ेगी, तब ही ये नदियाँ इंदौर की एक बार फिर पहचान बन सकेंगी. 
 

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