अगर यहाँ कुछ उपजता है तो वह किसानों के अपने पुरुषार्थ से। फर्क बस इतना ही आया है कि सिंचाई के पारम्परिक स्रोत समाप्त हो गए। अब बीज, पानी, कीट नाशक, खलिहान, दंवरी, ओसौनी सब के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है। अतः खेती घाटे का सौदा बन कर रसातल को चली गयी तथा किसान मजदूर बन कर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक या तमिलनाडु चला गया। जहाँ तक अधवारा समूह की नदियों से सिंचाई का प्रश्न है, उसमें सरकार की तरफ से कोई प्रयास नहीं किया गया है।
आश्चर्य यह था कि योजना तो स्वीकृत हुई मार्च 1982 में मगर तटबन्ध निर्माण यानी बाढ़ नियंत्रण का काम इससे पूर्व पूरा हो चुका था 1979 में। सिंचाई के क्षेत्र में जरूर कोई काम न तब तक हुआ था और न अब तक हुआ है। केन्द्रीय जल आयोग द्वारा योजना को स्वीकृति मिलते-मिलते मई 1985 बीत गया जिसकी प्रशासनिक स्वीकृति बिहार सरकार के सिंचाई विभाग द्वारा 11 जुलाई 1984 को दी गई थी। स्वीकृतियाँ अपनी जगह मगर योजना का काम चालू ही नहीं बल्कि, वह खत्म भी हो चुका था। बिहार सरकार द्वारा नियुक्त लोक लेखा समिति (संख्या 366/2002) कहती है, ‘‘...सरकार द्वारा कार्यालय भवन और कर्मचारियों के क्वार्टरों के निर्माण के लिए 37.79 लाख रुपये की प्रशासनिक स्वीकृति सितम्बर 1982 में प्रदान की गयी। कार्यपालक अभियंता, बागमती मुख्य कार्य प्रमण्डल-2 (सीतामढ़ी) द्वारा सितम्बर 1982 में 5 ठेकेदारों के बीच यह कार्य अप्रैल 1983 तक पूरा करने के लिए आवंटित कर दिया गया जबकि कार्यालय भवन और क्वार्टरों के निर्माण कार्य प्रगति में ही थे तब समूचा बैराज अंचल और उसके अन्तर्गत कार्यरत दो प्रमण्डलों को कार्यालय और कर्मचारियों सहित स्वर्णरेखा बहूद्देशीय सिंचाई परियोजना, गालूडीह (सिंहभूम) को स्थानान्तरित कर दिया गया।मई 1983 में निर्माण कार्य रोक दिया गया। तब 15 क्वार्टर निर्मित हो चुके थे और निर्माण कार्य पर 20.12 लाख रुपये व्यय हो चुके थे। निर्मित क्वार्टरों के रख-रखाव की कोई व्यवस्था नहीं थी और यह भी पता नहीं था कि वह अधिकृत कब्जे में थे या कब्जे से मुक्त।’’ रिपोर्ट आगे कहती है, ‘‘...बागमती बराज निर्माण हेतु निविदा आमंत्रित की गयी परन्तु नेपाल सरकार द्वारा प्रस्तावित बराज स्थल से कुछ किलोमीटर ऊपर में बराज निर्माण के कारण इसकी उपादेयता पर प्रश्न चिह्न लग गया। फलतः वर्ष 1990 में निर्माण बन्द कर देना पड़ा और सृजित कार्यालयों को साज-सज्जा सहित अन्यत्र स्थानान्तरित कर दिया गया।’’ मगर इस पूरी कहानी का क्लाइमेक्स अभी बाकी था और इसको इस मुकाम तक लाने का काम किया बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर सिंह ने जब उन्होंने 24 मार्च 1984 को गम्हरिया में प्रस्तावित बागमती बराज का विधिवत शिलान्यास किया।
इस अवसर पर बिहार के तत्कालीन सिंचाई मंत्री कृष्णा नन्द झा और रामदुलारी सिन्हा, पूर्व केन्द्रीय मंत्री, मौजूद थीं। इस मौके पर लगाया शिलान्यास पट्ट कुछ वर्षों पहले तक गम्हरिया के पास बागमती के पूर्वी तटबन्ध पर मौजूद था मगर अब वहाँ नहीं है। बराज निर्माण में नियुक्त इंजीनियरों का तबादला पूरी ‘साज-सज्जा सहित’ मई 1983 में ही कर दिया गया था और बागमती परियोजना के मेले को पीछे छूटे हुए साल भर से ज्यादा का समय बीत चुका था। चन्द्रशेखर सिंह ने इस बराज का शिलान्यास किया था या उसके समाधि स्थल पर स्मरण पट्टिका लगायी थी-यह सवाल उनसे किसी ने पूछा हो यह सुनने में नहीं आया।
यह योजना थी या मखौल यह कह पाना तो मुश्किल है मगर इसे उपहास का पात्र बनाने में बिहार के सिंचाई विभाग, गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग, केन्द्रीय जल आयोग और संभवतः इस योजना के निर्माण के लिए संसाधन की व्यवस्था करने वाले वित्त मंत्रालय ने लापरवाही दिखाने में कभी कोई कमी नहीं की। बागमती घाटी में सिंचाई की व्यवस्था आज वहीं है जहाँ 1953 में थी जब ठाकुर गिरिजा नन्दन सिंह ने बागमती नदी को व्यवस्थित करने की बात कही थी। अगर यहाँ कुछ उपजता है तो वह किसानों के अपने पुरुषार्थ से। फर्क बस इतना ही आया है कि सिंचाई के पारम्परिक स्रोत समाप्त हो गए। अब बीज, पानी, कीट नाशक, खलिहान, दंवरी, ओसौनी सब के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है।
अतः खेती घाटे का सौदा बन कर रसातल को चली गयी तथा किसान मजदूर बन कर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक या तमिलनाडु चला गया। जहाँ तक अधवारा समूह की नदियों से सिंचाई का प्रश्न है, उसमें सरकार की तरफ से कोई प्रयास नहीं किया गया है। वहाँ जो भी बात चलती है वह बाढ़ नियंत्रण पर होती है और जनता यह मांग करती है कि उन नदियों पर तटबन्ध बनाकर उनमें स्लुइस गेट लगा दिया जाए ताकि वहाँ सिंचाई हो सके। यह एक बहुत ही दिलचस्प अध्ययन होगा कि अब तक इन नदियों के किनारे कितने स्लुइस गेट बने हैं और उनमें से कितने काम करते हैं। जहाँ यह बने हैं, वहाँ लोग परेशान हैं और जहाँ नहीं बने हैं, वहाँ लोग मांग करते हैं।
बागमती परियोजना का एक तथ्यपरक मूल्यांकन करते हैं विधायक ललितेश्वर झा जिनका कहना है, ‘‘...हमारा जिला अधवारा रिवर्स और बागमती के प्रकोप से अस्त व्यस्त हो गया है। उस जिले को विपन्न बना दिया है, इन दोनों बागमती और अधवारा ग्रुप की नदियों ने। हाल ही में हमारे जिला के बीस-सूत्री प्रभारी मंत्री बाबू राजेन्द्र प्रसाद सिंह, जो गए थे दौरा करने उस इलाके का, जहाँ कि बागमती का इलाका है। मैं भी उनके साथ था। त्राहिमाम कहते हुए वहाँ के लोगों ने कहा कि आप इस योजना को वापस ले जाइये।
अध्यक्ष जी, कई करोड़ रुपये खर्च हुए उस योजना में और एक व्यक्ति विशेष के कुछ खास लोगों को उपकृत करने के लिये उस योजना की स्वीकृति प्रदान की गयी और उस योजना की कोई उपलब्धि नहीं है। उपलब्धि अगर है तो उस योजना ने कुछ गुंडों को जरूर तैयार किया है। सारे नौजवान लोगों को ये ठीकेदारी दिलवा कर वहाँ गुंडा साम्राज्य स्थापित किया गया और कई लाख का यंत्र वहाँ पर सड़ रहा है उस पर पीपल के पेड़ जम गए हैं।’’ जहाँ तक बागमती परियोजना से सिंचाई का संबंध है, इसके बाद कुछ कहने को नहीं बचता क्योंकि पूर्व की स्थिति अभी तक बरकरार है।
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