कैसे हो निपटान प्लास्टिक वेस्ट का


केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार देश में अनुमानित रूप से 9,205 टन प्रतिवर्ष प्लास्टिक का कूड़ा, जोकि कुल प्लास्टिक कूड़े का 60 प्रतिशत है, एकत्र करके रिसाइकिल यानी पुनर्चक्रित किया जाता है। बाकी 6,137 टन कूड़ा अनएकत्रित और जहाँ-तहाँ पड़ा रहा जाता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार 60 बड़े प्रमुख शहरों से प्रतिदिन 15,342.46 टन प्लास्टिक का कूड़ा प्रतिदिन निकलता है। आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि हर घंटे में सिर्फ 2,50,000 प्लास्टिक की बोतलें कूड़े में फेंकी जाती हैं, तो सोचिए भविष्य में स्थिति कितना विकराल रूप धारण कर लेगी। सीएसआईआर-राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला (सीएसआईआर-एनपीएल) ने सिरदर्द बन रहे प्लास्टिक के कूड़े के निपटान के लिये एक टेक्नोलॉजी विकसित की है। इस टेक्नोलॉजी के माध्यम से सस्ती और टिकाऊ टाइलें बनाई हैं जिनका उपयोग सस्ते शौचालय बनाने में किया जा सकता है।

क्या आपने देखे हैं बड़े-बड़े लैंडफिल, जहाँ लिखा होता है कृपया कूड़ा यहाँ डाले या फिर जगह-जगह फैले कूड़े के ढेर, जिनमें अधिकतर प्लास्टिक वेस्ट यानी रंग-बिरंगे पॉलीथिन बैग, टूटी-फूटी प्लास्टिक की बोतलें आदि दिखाई देती हैं, जो नॉन-बायोडिग्रेडेबल वस्तुएँ हैं। आज ये समस्या इतनी बढ़ गई है कि ये हमारे पर्यावरण के लिये बड़ा खतरा बन गई है। उपयोग में ये वस्तुएँ जितनी सुविधाजनक होती हैं इनका निपटान उतना ही कठिन होता है।

भारत सरकार की अपशिष्ट प्रबन्धन नीति के अनुसार प्लास्टिक के कूड़े को लैंडफिल साइट में ही फेंका जाना चाहिए, जहाँ इनके पूर्णतः सड़ने में लगभग 1000 साल लग जाते हैं। लेकिन इनसे जो एक अन्य समस्या खड़ी होती है वो हमारे पर्यावरण के लिये और भी खतरनाक हो जाती है। क्योंकि इसके सड़ने की अवस्था में जो विषैले पदार्थ निकलते हैं वो मिट्टी में अवशोषित होकर भूजल तक पहुँच कर उसे प्रदूषित कर देते हैं।

प्लास्टिक पदार्थों को जलाना भी बहुत हानिकारक है, क्योंकि उसे जलाने पर जो जहरीली गैसों का अम्बार निकलता है उनमें कार्बन मोनोऑक्साइड, फॉस्जीन, नाइट्रोजन ऑक्साइड, डाइऑक्सिन आदि सम्मिलित हैं। परन्तु सबसे बड़ी चौंकाने वाली बात यह है कि एक किलो प्लास्टिक का कूड़ा जलाने पर 3 किलो कार्बन डाइऑक्साइड गैस निकलती है जो ग्लोबल वार्मिंग का एक बड़ा कारण है। ऐसे भयावह परिणामों को देखते हुए सरकार ने भी प्लास्टिक के कूड़े के प्रबन्धन के लिये कुछ विशेष नियम बनाए हैं।

यूँ तो प्लास्टिक पदार्थों के बिना आज जिन्दगी अधूरी है। पॉलीमर साइंस एवं टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में हुए विकास से ऐसे अद्भुत एवं अनोखे पदार्थ प्लास्टिक का जन्म हुआ। शीघ्र ही जिन्दगी के हर क्षेत्र में प्लास्टिक ने अपनी ऐसी पैठ बना ली कि जहाँ देखो वहाँ प्लास्टिक-ही-प्लास्टिक। अपने अच्छे टिकाऊपन के कारण यद्यपि प्लास्टिक से बनी वस्तुएँ आम जीवन में काफी प्रचलन में आ गई हैं, लेकिन जो सबसे ज्यादा आज सिरदर्द बन गए हैं वे हैं प्लास्टिक के बने थैले।

जिन्हें सभी कूड़ा घरों, नदी-नालों में बहते देखा जा सकता है। इन्हीं प्लास्टिक के बने थैलों ने जहाँ-तहाँ ड्रेनेज सिस्टम चोक करके रख दिया है। यही कारण है कि बाढ़ आने पर लोगों के घरों में गन्दा पानी बैक फ्लो करने लगता है। पर इसके बाद भी हम आप नहीं चेतते और धड़ल्ले से इनका प्रयोग करते हैं। प्लास्टिक बैग के बैन होने के बावजूद हम से नो टू प्लास्टिक (say no to plastic) कहकर अपने कर्तव्य कि इतिश्री मान लेते हैं।

पिछले करीब दो दशकों से पर्यावरणविद्, ऐसे सॉलिड वेस्ट जो प्रतिदिन हमारे घरों से निकलता है, के प्रबन्धन की तकनीकों के विकास में जुटे हुए हैं। इसके लिये उन्होंने अंग्रेजी के अक्षर ‘R’ को 5 बार प्रयोग में लाया है यानी Reduce, Recycle, Reuse, Recover and Residuals Management। यदि इन पाँच ‘आर’ पर कड़ाई से अमल किया जाये तो काफी हद तक ऐसे कूड़े का प्रबन्धन किया जा सकता है।

घरों से निकलने वाले कूड़े में सड़ने वाले यानी बायोडिग्रेडेबल और न सड़ने वाले यानी नॉन-बायोडिग्रेडेबल कूड़े का मिश्रण होता है। और यह न सड़ने वाला कूड़ा, जिसमें प्लास्टिक बोतलें, रबड़, गिलास, डिब्बे, विनाइल, स्टाइरोफोम और एल्युमिनियम, लोहे और टिन जैसी धातुएँ शामिल हैं, आज हमारे लिये एक भयंकर सिरदर्द बनकर रह गया है।

इसे न तो जलाया जा सकता है और न ही इसे जमीन में गाड़ा जा सकता है। इसे जलाने से विषैली गैसें निकलती हैं जो पर्यावरण को प्रदूषित करती हैं और मिट्टी में दबाए जाने पर एक हजार साल तक भी नष्ट नहीं होतीं। बल्कि इससे निकलने वाले विषैले पदार्थ मिट्टी में अवशोषित होकर भूजल तक पहुँच जाते हैं और उसे भी प्रदूषित कर डालते हैं।

इन पदार्थों के कूड़े के बारे में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिये गए आँकड़ों में बताया गया कि केवल दिल्लीवासी 56 लाख टन प्लास्टिक का कूड़ा प्रतिवर्ष फेंकते हैं यानी प्रतिदिन 689.50 टन प्लास्टिक दिल्ली वाले एक दिन के कूड़े के तौर पर फेंकते हैं। ऐसा ही हाल कई बड़े प्रमुख शहरों का भी है।

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार देश में अनुमानित रूप से 9,205 टन प्रतिवर्ष प्लास्टिक का कूड़ा, जोकि कुल प्लास्टिक कूड़े का 60 प्रतिशत है, एकत्र करके रिसाइकिल यानी पुनर्चक्रित किया जाता है। बाकी 6,137 टन कूड़ा अनएकत्रित और जहाँ-तहाँ पड़ा रहा जाता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार 60 बड़े प्रमुख शहरों से प्रतिदिन 15,342.46 टन प्लास्टिक का कूड़ा प्रतिदिन निकलता है। आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि हर घंटे में सिर्फ 2,50,000 प्लास्टिक की बोतलें कूड़े में फेंकी जाती हैं, तो सोचिए भविष्य में स्थिति कितना विकराल रूप धारण कर लेगी।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि गाँवों में रहने वाले 70 प्रतिशत लोग अथवा लगभग 550 मिलियन लोग आज भी खुले में शौच करते हैं। यहाँ तक कि शहरों के आस-पास बसे क्षेत्रों के 13 प्रतिशत लोगों की भी यही स्थिति है। ऐसा करने से स्वास्थ्य के लिये कितने गम्भीर परिणाम हो सकते हैं यह बात शोचनीय है।

स्वच्छ भारत स्वस्थ भारत के नारे से आज कोई अपरिचित नहीं है। 2 अक्टूबर 1869 यानी गाँधी जयन्ती से शुरू किये गए स्वच्छ भारत मिशन से भारत को स्वच्छ बनाने का जो अभियान शुरू किया गया उसमें कूड़ा प्रबन्धन यानी वेस्ट मैनेजमेंट के साथ-साथ जगह-जगह शौचालय निर्माण करना भी है।

ये बात सही है कि ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों में भी भव्य मकान बनाने के बावजूद शौचालय बनाने का चलन बहुत कम था। लोग खुले में ही शौच करने जाते थे। आपने कभी सुबह-सुबह ट्रेन में यात्रा की हो तो अवश्य देखा होगा हरे-भरे खेतों के आस-पास लोगों को खुले में शौच करते हुए। ये एक चलन पहले भी था और आज भी है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को घरों में शौचालय बनाने की सोच कभी आई ही नहीं।

21वीं सदी में पहुँचने के बाद भी लोगों में हम यह जागरूकता नहीं जगा पाये कि यह गन्दगी फैलाना हमारे स्वास्थ्य के लिये कितना घातक है। यह कितने भयानक रोगों की जड़ है। धीरे-धीरे लोगों की सोच में सुधार आया और सरकारों ने पहल की और गाँवों तथा जगह-जगह जन-सुविधाएँ विकसित की गईं और आज स्वच्छ भारत मिशन के अन्तर्गत तो सरकार ने इसे और बढ़ावा दिया है।

इसी मिशन के अन्तर्गत सीएसआईआर - राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला (सीएसआईआर-एनपीएल) ने सिरदर्द बन रहे प्लास्टिक के कूड़े के निपटान के लिये एक टेक्नोलॉजी विकसित की है। इस टेक्नोलॉजी के माध्यम से सस्ती और टिकाऊ टाइलें बनाई हैं जिनका उपयोग सस्ते शौचालय बनाने में किया जा सकता है।

इसके लिये प्रयोगशाला, कूड़े से अलग और साफ किये गए प्लास्टिक के थैलों और बोतलों को बाजार से खरीदती है। फिर इस प्लास्टिक व्यर्थ का चूरा बनाकर एक निश्चित तापमान तक गर्म किया जाता है और इसमें फ्लाईएश और कुछ रासायनिक तत्व मिलाए जाते हैं। तब इस मिश्रण को कम्प्रेशन मोल्डिंग तकनीक द्वारा टाइल बनाने के लिये साँचों में डाल दिया जाता है। ये टाइलें भी बाजार में बिकने वाली टाइलों की तरह आकर्षक और रंग-बिरंगी हैं।

अपने इस मिशन को सीएसआईआर-एनपीएल ने- स्मार्ट टॉयलेट्स मेड ऑफ वेस्ट प्लास्टिक बैग्स का नाम दिया है। व्यर्थ प्लास्टिक बैग और बोतलों से टाइल बनाने की पूरी सुविधा इस प्रयोगशाला में है। इस प्रकार बनी टाइलों की मैकेनिकल स्ट्रैंथ, फ्लेम रिटार्डेन्सी, वाटर पर्मिएबिलिटी और सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों से सुरक्षा तथा एंटीस्टेटिक रिस्पॉन्स इस अनुसन्धान कार्य की नवीनता है।

इन टाइलों की तन्यशक्ति (Tensile Strength), ज्वलनशीलता (Flammability), थर्मल स्टेबिलिटी, ग्लास ट्रांजिशन टेम्प्रेचर, पर्यावरणीय स्थिरता (Environmental Stability), एसिड और क्षारों के प्रति रोधकता का भी परीक्षण किया गया है। एक सम्पूर्ण आधुनिक शौचालय में जो सुविधाएँ होनी चाहिए वे सब सुविधाएँ इस सस्ते शौचालय में हैं।

समाज के लिये उपयोगी इस शौचालय का मूल्य लगभग 15000 रु. के आस-पास है और यदि इसमें रोशनी के लिये आप सौलर पैनल लगाना चाहते हैं तो इसकी लागत 21000 के करीब पड़ती है। वैसे इस शौचालय में रोशनी के लिये इसकी भीतरी दीवारों में फ्लोरेसेंट पेन्ट लगाया गया है। यहाँ यह बताना भी जरूरी है कि प्लास्टिक के पुनर्चक्रण की प्रक्रिया में जो तेल निकलता है उसे ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।

इस प्रकार जो प्लास्टिक आज पर्यावरण और समाज के लिये एक भयंकर सिरदर्द बन गया है उसके निपटान के लिये एनपीएल द्वारा की गई पहल वेस्ट प्लास्टिक टू टाइल एंड वेस्ट प्लास्टिक टू ऑयल इस अवांछित प्लास्टिक के निपटान के लिये बहुत प्रभावी और देश के लिये वरदान सिद्ध हो सकती है। स्वच्छ भारत मिशन के अन्तर्गत किये गए इस कार्य में कई वैज्ञानिकों की टीम, शोध छात्र, तकनीकी स्टाफ और एनपीएल वर्कशॉप के कर्मचारी शामिल हैं।

एनपीएल के निदेशक डॉ. डी. के. असवाल के निर्देशन में डॉ. एस. के. धवन, डॉ. बृजेश शर्मा, डॉ.रामधन शर्मा, डॉ. रिधम धवन, डॉ. प्रदीप साम्ब्याल, डॉ. मो. फारुख तथा डॉ. आर. के. बिन्दल वैज्ञानिकों ने इस कार्य को नया आयाम दिया है।

इस प्रौद्योगिकी के लिये पेटेन्ट फाइल किया जा चुका है तथा व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन के लिये प्रौद्योगिक हस्तान्तरण पर कार्य किया जा रहा है। सुलभ शौचालय जैसी जगह-जगह जनसुविधाएँ उपलब्ध कराने वाली संस्था ने भी इन सस्ते शौचालयों में अपनी रुचि दिखाई है। इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी के लिये निदेशक, एनपीएल, नई दिल्ली से www.nplindia.org पर सम्पर्क किया जा सकता है।

सम्पर्क सूत्र :


श्रीमती दीक्षा बिष्ट
कार्यकारी निदेशक, सीएसआईआर-निस्केयर
डॉ. के एस कृष्णन मार्ग, नई दिल्ली 110012

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