तालाब की पाल बनाने के लिए काली मिट्टी, जिसे कनाकर माटी कहते हैं, का उपयोग किया जाता था। इस मिट्टी में पानी रोकने और कड़ी हो जाने का गुण होता है। तालाब की पाल एक बार में नहीं बनायी जाती थी। पहले पानी रोकने का उपयुक्त स्थान तय करके छोटी पाल बनाई जाती थी। इस तरह से पानी रोकने के कारण पाल की मिट्टी कड़ी हो जाती थी। यह प्रक्रिया पाल की ऊँचाई भी तय करती थी और उसे मजबूत भी बनाती थी। पाल की ऊँचाई कुछ साल लगातार गहरे निरीक्षण के बाद अंतिम रूप से तय की जाती थी। कुछ जगहों पर जहाँ पानी का दबाव अधिक होता था वहाँ मिट्टी, पत्थर, चूना और गुड़ का मसाला बनाकर लगाया जाता था।
जलाशय से सिंचाई के लिए पानी लेने की प्रक्रिया को ‘तुड़ुम’ या ‘मोंगा’ कहते थे। तालाब के आकार के अनुसार इनमें से किसी एक तरीके का उपयोग किया जाता था। छोटे तालाबों में पाल की नीवं में एक छेट बनाया जाता था जिसे ‘बोदी’ कहते थे। इसे बनाने के लिए लकड़ी का एक टुकड़ा पाल के आर-पार बैठाया जाता था। जब जरूरत होती थी तब इसे खोल दिया जाता था।
मझौले और बड़े तालाबों में पत्थरों के उपयोग से सीढ़ीनुमा ढाँचा, जिसे ‘मोंघाद’ कहते थे, बनाया जाता था और हरेक सीढ़ी पर पाल के आर-पार एक छेद, जिसे ‘डाचा’ कहते थे, बनाया जाता था। इन तालाबों के पाल की नींव पर एक सुरंग बनाई जाती थी। तालाब का आकार ‘मोंघाद’ की सीढ़ियों की संख्या से तय होता था। ‘डाचा’ लकड़ी या पत्थरों से बंद रखा जाता था और जरूरत होने पर उसे खोल देते थे।
इसकी एक और पद्धति थी जिसमें पेड़ के तने को पाल के ऊपर रखते थे। इस पेड़ पर एक और पेड़ रखते थे जिसमें बराबर की दूरी पर छेद होते थे। इन्हें लकड़ी के टुकड़ों से बंद रखा जाता था। ऐसे ‘तुड़ुम’ आजकल दिखाई नहीं देते और जहाँ हैं भी, वहाँ अब ईंटों का उपयोग किया जाने लगा है।
तालाबों और अन्य ढाँचों को बनाने में हरेक बात का ध्यान रखा जाता था। ‘तुड़ुम’ से सीधा पानी नहर में जाएगा तो अपने वेग से नहर को तोड़ सकता है इसलिए पाल के पास 3 से 4 फुट का एक और ढाँचा जिसे ‘कुतन’ कहते हैं, बनाया जाता था।
चारों तरफ से छोटे-मोटे नालों को तालाब की ओर मोड़ दिया जाता था, ताकि उसमें पानी बना रहे। यदि तालाब के आकार से ज्यादा पानी आ जाता है तो नीचे एक और तालाब बनाया जाता था एक तालाब से ‘फारस’ या ‘पोहर’ के जरिए पानी छलक कर दूसरे तालाब में पहुँचता था।
जलाशय से सिंचाई के लिए पानी लेने की प्रक्रिया को ‘तुड़ुम’ या ‘मोंगा’ कहते थे। तालाब के आकार के अनुसार इनमें से किसी एक तरीके का उपयोग किया जाता था। छोटे तालाबों में पाल की नीवं में एक छेट बनाया जाता था जिसे ‘बोदी’ कहते थे। इसे बनाने के लिए लकड़ी का एक टुकड़ा पाल के आर-पार बैठाया जाता था। जब जरूरत होती थी तब इसे खोल दिया जाता था।
मझौले और बड़े तालाबों में पत्थरों के उपयोग से सीढ़ीनुमा ढाँचा, जिसे ‘मोंघाद’ कहते थे, बनाया जाता था और हरेक सीढ़ी पर पाल के आर-पार एक छेद, जिसे ‘डाचा’ कहते थे, बनाया जाता था। इन तालाबों के पाल की नींव पर एक सुरंग बनाई जाती थी। तालाब का आकार ‘मोंघाद’ की सीढ़ियों की संख्या से तय होता था। ‘डाचा’ लकड़ी या पत्थरों से बंद रखा जाता था और जरूरत होने पर उसे खोल देते थे।
इसकी एक और पद्धति थी जिसमें पेड़ के तने को पाल के ऊपर रखते थे। इस पेड़ पर एक और पेड़ रखते थे जिसमें बराबर की दूरी पर छेद होते थे। इन्हें लकड़ी के टुकड़ों से बंद रखा जाता था। ऐसे ‘तुड़ुम’ आजकल दिखाई नहीं देते और जहाँ हैं भी, वहाँ अब ईंटों का उपयोग किया जाने लगा है।
तालाबों और अन्य ढाँचों को बनाने में हरेक बात का ध्यान रखा जाता था। ‘तुड़ुम’ से सीधा पानी नहर में जाएगा तो अपने वेग से नहर को तोड़ सकता है इसलिए पाल के पास 3 से 4 फुट का एक और ढाँचा जिसे ‘कुतन’ कहते हैं, बनाया जाता था।
चारों तरफ से छोटे-मोटे नालों को तालाब की ओर मोड़ दिया जाता था, ताकि उसमें पानी बना रहे। यदि तालाब के आकार से ज्यादा पानी आ जाता है तो नीचे एक और तालाब बनाया जाता था एक तालाब से ‘फारस’ या ‘पोहर’ के जरिए पानी छलक कर दूसरे तालाब में पहुँचता था।
Path Alias
/articles/kaaisae-banatae-thae-taalaaba