उत्तराखंड के झिलमिल झील आरक्षित वन क्षेत्र में प्राकृतिक वन संपदा के अन्वेषण के दौरान विभिन्न प्राकृतिक वानस्पतिक प्रजातियां चिह्नित की गई हैं। यह क्षेत्र एक नवसृजित संरक्षित क्षेत्र है और इसके बारे में अभी कोई अभिलेख उपलब्ध नहीं है। रचना तिवारी अपने इस लेख में राज्य के तराई क्षेत्र की जैव-विविधता के संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता बता रही हैं
झिलमिल झील कटोरीनुमा दलदली क्षेत्र है जो उत्तराखंड में हरिद्वार वन प्रभाग के चिड़ियापुर क्षेत्र में गंगा नदी के बायें तट पर स्थित है। यह झील लगभग 3783.5 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली हुई है। जैव-विविधता से भरपूर इस क्षेत्र में हिरणों की पांच प्रजातियां (चीतल, सांभर, काकड़, बारहसिंघा, पाड़ा) हाथी, नीलगाय, तेंदुआ, व बाघ इत्यादि जानवर बहुलता से पाये जाते हैं। सर्दी के मौसम में यहां प्रवासी पक्षी भी आते हैं। यहां लगभग 160 प्रकार के स्थायी व प्रवासी पक्षी पाये जाते हैं। यह क्षेत्र अपनी उत्पादकता के कारण कृषि के लिए भी उपयोगी है तथा बारहसिंघे की एक प्रजाति के लिए प्रसिध्द है। किंतु वन विभाग द्वारा क्षेत्र में अधिक मात्रा में यूकेलिप्टस वृक्षों के रोपण से बारहसिंघों का यह प्राकृतिक आवास सिकुड़ता जा रहा है। झिलमिल झील इस प्रजाति के लिए अंतिम आश्रय स्थल है। अगस्त 2005 में राज्य सरकार ने पारिस्थितिकी, प्राणि जगत, वनस्पति एवं भू-विविधता के आधार पर इसे संरक्षित क्षेत्र घोषित किया है।
बारहसिंघे पहले गंगा व ब्रह्मपुत्र के तटीय वनों में पाये जाते थे। यह प्रजाति सदाबहार दलदली वनों में रहने की आदी है। बढ़ते मानवीय दखल से सिकुड़ते जा रहे वन क्षेत्र के कारण ये बारहसिंघे भी सिमट गए हैं और लुप्त होने की कगार पर हैं।
बारहसिंघे को आईयूसीएन (इंटरनैशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर एंड नेचुरल रिसोर्सेस) द्वारा संकटग्रस्त प्रजाति घोषित किया गया है। पिछली शताब्दी में इनकी संख्या काफी थी किंतु अब शोचनीय दशा तक घट चुकी है। बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप और 'विकास कार्यों' के कारण इनके प्राकृतिक आवास सिमटते जा रहे हैं। झिलमिल झील इस संदर्भ में विशेष संवेदनशील है। यह पर्यावरणविदों के लिए चिंता का बड़ा विषय है।
झिलमिल झील गूजरों व स्थानीय निवासियों की मिलीजुली आबादी वाला क्षेत्र है। ये लोग अपनी रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति के लिये इन्हीं जंगलों पर निर्भर हैं तथा कृषि व पशुपालन के परंपरागत कार्यों के अलावा मत्स्यपालन, केकड़ा व घोंघा पालन, जड़ी-बूटी उत्पादन इत्यादि का कार्य करते हैं। गांव के लोगों ने इस झील के संरक्षण के लिए जिम्मेदार भूमिका निभायी है। संरक्षण जैसे शब्द से परिचित न होने के बावजूद ये लोग मानव व प्रकृति के सहज रिश्तों व प्राकृतिक नियमों से भलीभांति परिचित हैं।
वन्य जंतुआें की समृध्द विविधता के अतिरिक्त यह क्षेत्र वानस्पतिक विविधता से भी परिपूर्ण है। पिछले दो साल में बारहसिंघों के भोजन व रहन-सहन के तरीकों पर शोध के दौरान इस लेखिका ने कई ऐसी पादप प्रजातियों को चिह्नित किया जिनके इस क्षेत्र में होने की विस्तृत व व्यवस्थित जानकारी पहले उपलब्ध नहीं थी। ये प्रजातियां न सिर्फ औषधीय रूप से, बल्कि यहां के जीव जंतुओं के लिए भी उपयोगी हैं। वस्तुत: यहां का जैव व वानस्पतिक वैविध्य प्रकृति-जीव व मानव के सह-अस्तित्व का अनूठा उदाहरण है और इसे हर हाल में संरक्षित व संवर्धित किये जाने की आवश्यकता है। इससे न सिर्फ पर्यावरणीय संतुलन को बनाये रखने, बल्कि इस क्षेत्र के निवासियों के पारम्परिक जीवन व आजीविका के संवर्धन में भी सहायता मिलेगी। यहां के निवासी अपनी विभिन्न आवश्यकताओं जैसे- चारा, रेशा, ईंधन, जड़ी-बूटियां, इमारती लकड़ी इत्यादि के लिए इसी जंगल पर प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से निर्भर हैं।
जैव-विविधता की प्रचुरता व प्राकृतिक सौंदर्य के कारण इस क्षेत्र में इको-टूरिज्म को भी प्रोत्साहित किया जा सकता है। इससे इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए स्थायी रोजगार की संभावनाओं में वृध्दि होगी। साथ ही औषधीय पादपों के उचित संरक्षण व संवर्धन के लाभ भी उन तक पहुंच सकेंगे। यूकेलिप्टस की जगह मिश्रित वृक्षों के रोपण पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि जीव-जंतुओं को सहज प्राकृतिक वातावरण मिल सके। शासन द्वारा इस दिशा में प्रयास जरूर किए जा रहे हैं, पर वे पर्याप्त नहीं हैं। उन्हें व्यवस्थित कर उनमें जनसहभागिता को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। इसके साथ ही इस क्षेत्र में वन गूजरों के स्थायी पुनर्वास की भी आवश्यकता है, ताकि जंगल को अनियंत्रित मानवीय हस्तक्षेप से बचाया जा सके।
हिमालय की तराई में इस तरह के वन न सिर्फ जैव-विविधता की दृष्टि से उपयोगी हैं, बल्कि इस क्षेत्र में आवश्यक नमी बनाये रखने में भी सहायक हैं। इसके फलस्वरूप हिमालयी क्षेत्र में वर्षा के लिए आवश्यक स्थितियां बनी रहती हैं। वस्तुत: ये वन संपूर्ण उत्तर भारत की जलचक्रीय इकाई का अभिन्न अंग है। अत: इनके विकास और संरक्षण की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। जलवायु परिवर्तन व अधांधुध दोहन की प्रवृत्ति इन्हें संकट की ओर धकेल रही है। इसके चलते न सिर्फ वन नष्ट होते जा रहे हैं बल्कि संपूर्ण हिमालय भी गहरे पर्यावरणीय संकट से जूझ रहा है। हिमालय का यह संकट संपूर्ण दक्षिण एशिया की मानव सभ्यता का संकट है। अत: इस क्षेत्र व इसी तरह के अन्य वन क्षेत्रों के उचित संरक्षण व संवर्धन की महती आवश्यकता है।
संदर्भ-बाबू, सी.आर. (1997). हरबेशियस फ्लोरा ऑफ देहरादून, सीएसआईआर पब्लिकेशन, नई दिल्ली
-बाबू, एम.एम. इत्यादि (1999), फ्लोरा ऑफ डबल्यूआईआई कैम्पस, चंद्रबणी
-गौड़, आर.डी. (1999). फ्लोरा ऑफ द डिस्ट्रिक्ट गढ़वाल नार्थ वेस्ट हिमालया विद एथनोबॉटनिकल नोट्स, ट्रांसमीडिया, 811 पृष्ठ
-मेसन, डी., मारबर्गर, जे.ई., अजीत कुमार, सी.आर. तथा प्रसाद, वी.पी. (1996). इलेस्टे्रटड फ्लोरा ऑफ केवलादेव नैशनल पार्क, भरतपुर, राजस्थान। ऑक्फोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, मुम्बई
नोट: नव चिह्नित पादप प्रजातियों की सूची यहां नहीं दी जा रही है। इसके लिए लेखिका रचना तिवारी से ईमेल पर संपर्क करें:lucygray(at)gmail.com
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झिलमिल झील कटोरीनुमा दलदली क्षेत्र है जो उत्तराखंड में हरिद्वार वन प्रभाग के चिड़ियापुर क्षेत्र में गंगा नदी के बायें तट पर स्थित है। यह झील लगभग 3783.5 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली हुई है। जैव-विविधता से भरपूर इस क्षेत्र में हिरणों की पांच प्रजातियां (चीतल, सांभर, काकड़, बारहसिंघा, पाड़ा) हाथी, नीलगाय, तेंदुआ, व बाघ इत्यादि जानवर बहुलता से पाये जाते हैं। सर्दी के मौसम में यहां प्रवासी पक्षी भी आते हैं। यहां लगभग 160 प्रकार के स्थायी व प्रवासी पक्षी पाये जाते हैं। यह क्षेत्र अपनी उत्पादकता के कारण कृषि के लिए भी उपयोगी है तथा बारहसिंघे की एक प्रजाति के लिए प्रसिध्द है। किंतु वन विभाग द्वारा क्षेत्र में अधिक मात्रा में यूकेलिप्टस वृक्षों के रोपण से बारहसिंघों का यह प्राकृतिक आवास सिकुड़ता जा रहा है। झिलमिल झील इस प्रजाति के लिए अंतिम आश्रय स्थल है। अगस्त 2005 में राज्य सरकार ने पारिस्थितिकी, प्राणि जगत, वनस्पति एवं भू-विविधता के आधार पर इसे संरक्षित क्षेत्र घोषित किया है।
बारहसिंघे पहले गंगा व ब्रह्मपुत्र के तटीय वनों में पाये जाते थे। यह प्रजाति सदाबहार दलदली वनों में रहने की आदी है। बढ़ते मानवीय दखल से सिकुड़ते जा रहे वन क्षेत्र के कारण ये बारहसिंघे भी सिमट गए हैं और लुप्त होने की कगार पर हैं।
बारहसिंघे को आईयूसीएन (इंटरनैशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर एंड नेचुरल रिसोर्सेस) द्वारा संकटग्रस्त प्रजाति घोषित किया गया है। पिछली शताब्दी में इनकी संख्या काफी थी किंतु अब शोचनीय दशा तक घट चुकी है। बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप और 'विकास कार्यों' के कारण इनके प्राकृतिक आवास सिमटते जा रहे हैं। झिलमिल झील इस संदर्भ में विशेष संवेदनशील है। यह पर्यावरणविदों के लिए चिंता का बड़ा विषय है।
झिलमिल झील गूजरों व स्थानीय निवासियों की मिलीजुली आबादी वाला क्षेत्र है। ये लोग अपनी रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति के लिये इन्हीं जंगलों पर निर्भर हैं तथा कृषि व पशुपालन के परंपरागत कार्यों के अलावा मत्स्यपालन, केकड़ा व घोंघा पालन, जड़ी-बूटी उत्पादन इत्यादि का कार्य करते हैं। गांव के लोगों ने इस झील के संरक्षण के लिए जिम्मेदार भूमिका निभायी है। संरक्षण जैसे शब्द से परिचित न होने के बावजूद ये लोग मानव व प्रकृति के सहज रिश्तों व प्राकृतिक नियमों से भलीभांति परिचित हैं।
वन्य जंतुआें की समृध्द विविधता के अतिरिक्त यह क्षेत्र वानस्पतिक विविधता से भी परिपूर्ण है। पिछले दो साल में बारहसिंघों के भोजन व रहन-सहन के तरीकों पर शोध के दौरान इस लेखिका ने कई ऐसी पादप प्रजातियों को चिह्नित किया जिनके इस क्षेत्र में होने की विस्तृत व व्यवस्थित जानकारी पहले उपलब्ध नहीं थी। ये प्रजातियां न सिर्फ औषधीय रूप से, बल्कि यहां के जीव जंतुओं के लिए भी उपयोगी हैं। वस्तुत: यहां का जैव व वानस्पतिक वैविध्य प्रकृति-जीव व मानव के सह-अस्तित्व का अनूठा उदाहरण है और इसे हर हाल में संरक्षित व संवर्धित किये जाने की आवश्यकता है। इससे न सिर्फ पर्यावरणीय संतुलन को बनाये रखने, बल्कि इस क्षेत्र के निवासियों के पारम्परिक जीवन व आजीविका के संवर्धन में भी सहायता मिलेगी। यहां के निवासी अपनी विभिन्न आवश्यकताओं जैसे- चारा, रेशा, ईंधन, जड़ी-बूटियां, इमारती लकड़ी इत्यादि के लिए इसी जंगल पर प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से निर्भर हैं।
जैव-विविधता की प्रचुरता व प्राकृतिक सौंदर्य के कारण इस क्षेत्र में इको-टूरिज्म को भी प्रोत्साहित किया जा सकता है। इससे इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए स्थायी रोजगार की संभावनाओं में वृध्दि होगी। साथ ही औषधीय पादपों के उचित संरक्षण व संवर्धन के लाभ भी उन तक पहुंच सकेंगे। यूकेलिप्टस की जगह मिश्रित वृक्षों के रोपण पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि जीव-जंतुओं को सहज प्राकृतिक वातावरण मिल सके। शासन द्वारा इस दिशा में प्रयास जरूर किए जा रहे हैं, पर वे पर्याप्त नहीं हैं। उन्हें व्यवस्थित कर उनमें जनसहभागिता को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। इसके साथ ही इस क्षेत्र में वन गूजरों के स्थायी पुनर्वास की भी आवश्यकता है, ताकि जंगल को अनियंत्रित मानवीय हस्तक्षेप से बचाया जा सके।
हिमालय की तराई में इस तरह के वन न सिर्फ जैव-विविधता की दृष्टि से उपयोगी हैं, बल्कि इस क्षेत्र में आवश्यक नमी बनाये रखने में भी सहायक हैं। इसके फलस्वरूप हिमालयी क्षेत्र में वर्षा के लिए आवश्यक स्थितियां बनी रहती हैं। वस्तुत: ये वन संपूर्ण उत्तर भारत की जलचक्रीय इकाई का अभिन्न अंग है। अत: इनके विकास और संरक्षण की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। जलवायु परिवर्तन व अधांधुध दोहन की प्रवृत्ति इन्हें संकट की ओर धकेल रही है। इसके चलते न सिर्फ वन नष्ट होते जा रहे हैं बल्कि संपूर्ण हिमालय भी गहरे पर्यावरणीय संकट से जूझ रहा है। हिमालय का यह संकट संपूर्ण दक्षिण एशिया की मानव सभ्यता का संकट है। अत: इस क्षेत्र व इसी तरह के अन्य वन क्षेत्रों के उचित संरक्षण व संवर्धन की महती आवश्यकता है।
संदर्भ-बाबू, सी.आर. (1997). हरबेशियस फ्लोरा ऑफ देहरादून, सीएसआईआर पब्लिकेशन, नई दिल्ली
-बाबू, एम.एम. इत्यादि (1999), फ्लोरा ऑफ डबल्यूआईआई कैम्पस, चंद्रबणी
-गौड़, आर.डी. (1999). फ्लोरा ऑफ द डिस्ट्रिक्ट गढ़वाल नार्थ वेस्ट हिमालया विद एथनोबॉटनिकल नोट्स, ट्रांसमीडिया, 811 पृष्ठ
-मेसन, डी., मारबर्गर, जे.ई., अजीत कुमार, सी.आर. तथा प्रसाद, वी.पी. (1996). इलेस्टे्रटड फ्लोरा ऑफ केवलादेव नैशनल पार्क, भरतपुर, राजस्थान। ऑक्फोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, मुम्बई
नोट: नव चिह्नित पादप प्रजातियों की सूची यहां नहीं दी जा रही है। इसके लिए लेखिका रचना तिवारी से ईमेल पर संपर्क करें:lucygray(at)gmail.com
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