12.1 बैरगनियाँ
बैरगनियाँ प्रखंड का जो पिपराढ़ी गाँव है उसका पुनर्वास मिला शिवहर में। आधे लोग गए और आधे लोग अभी भी गाँव में हैं। जो सक्षम थे वह चले गए और जो अक्षम थे वह रह गए। हमारे यहाँ सक्षम की परिभाषा थोड़ी भिन्न है। जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं था वह सक्षम था, वह गरीब भूमिहीन पुनर्वास में गया और जिसके पास घर-द्वार, खेती-बाड़ी थी वह उसे छोड़ कर जाने में अक्षम था, वह पुरानी जगह पर ही रह गया।
अध्याय-1 के चित्र-1.3 में बागमती और लालबकेया के दोआब में सीतामढ़ी के उत्तरी छोर पर नेपाल की सीमा से लगा हुआ बैरगनियाँ प्रखंड दिखाया गया है। लालबकेया के पूर्वी किनारे और बागमती के पश्चिमी किनारे के बीच बसे इस प्रखंड का कुल क्षेत्रफल 6,438 हेक्टेयर और आबादी 1,01,630 (2001 जनगणना) है। 24 आबाद गाँवों वाले इस प्रखंड तथा सीतामढ़ी के ही मेजरगंज प्रखंड के कुछ हिस्सों को काट कर अब सुप्पी नाम का एक नवनिर्मित प्रखंड बना दिया गया है। बैरगनियाँ का रामपुर कंठ और अखता गाँव का कुछ हिस्सा अब सुप्पी में चला गया है। इस प्रखंड का एक गाँव मधुछपरा लालबकेया के पश्चिम में अवस्थित है और दोनों नदियों के दोआब से बाहर है। इस तरह प्रायः पूरा का पूरा बैरगनियाँ प्रखंड लालबकेया और बागमती के दोआब में बसा हुआ है। बैरगनियाँ बाजार नेपाल के साथ का सीमावर्ती गाँव होने के कारण लम्बे समय से एक अच्छा खासा व्यापारिक केन्द्र रहा है जिसमें नेपाल से भी आवश्यक वस्तुओं का आयात और निर्यात होता रहा है। 1950 के दशक में बैरगनियाँ में एक डीजल चालित सरकारी बिजली घर हुआ करता था जिसे सरकार ने इमरजेन्सी काल में मुंबई के किसी उद्योगपति को बेच दिया। स्थानीय जनता इस के विरोध में खड़ी हो गयी। धीरे-धीरे यह विद्युत केन्द्र बंद हो गया और इसका बहुत सा सामान और कल-पुजरे लोग उठा-उठा कर ले गए। 1950 के दशक तक यहाँ चार चावल मिलें हुआ करती थीं तथा बैरगनियाँ में तेलहन और लकड़ी की एक बड़ी मंडी हुआ करती थी। मुजफ्फरपुर गजैटियर (1958) लिखता है, ‘‘...सीतामढ़ी अनुमंडल का बैरगनियाँ बाजार अभी भी चावल की मंडी के रूप में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बैरगनियाँ और आस-पास के इलाकों में बहुत बड़ी मात्रा में धान पैदा होता है। सीमावर्ती नेपाल की तराई का हिस्सा और चम्पारण के कुछ भाग तथा गंगा घाटी के उत्तरी मैदानी क्षेत्र की गिनती धान पैदा करने वाले सर्वोत्तम क्षेत्रों में होती है।’’ बैरगनियाँ तेलहन, कपड़ा तथा गहनों का अभी भी अच्छा बाजार है मगर चावल मिलें अब नहीं रहीं। खाद, बीज, बिजली की व्यवस्था का न होना, मजदूरों का पलायन और नेपाल में चावल मिलों का खुलना स्थानीय चावल मिलों के बंद होने का कारण बताया जाता है। समस्तीपुर से नरकटिया गंज को जोड़ने वाली छोटी लाइन बैरगनियाँ होकर गुजरती है और यही संपर्क का एक मात्र स्थापित साधन है। इस वर्ष (2010) इसे बड़ी लाइन में बदलने का काम शुरू हुआ है। सीतामढ़ी से बैरगनियाँ आने-जाने के लिए बागमती पर कोई पुल नहीं था इसलिए नदी को नाव से ही पार करना पड़ता था। यही हालत प्रखंड के पश्चिम में लालबकेया नदी के साथ भी थी।लालबकेया और बागमती तटबंधों के बीच फंसे बैरगनियाँ प्रखंड की स्थिति बड़ी अजीब है। 11 नवम्बर 1963 के दिन जब केन्द्रीय सिंचाई मंत्री डॉ. के. एल. राव सीतामढ़ी आये थे तब स्थानीय लोगों ने उनसे बैरगनियाँ को घेरते हुए एक रिंग बांध की मांग की थी। बागमती और लालबकेया नदी पर तटबंधों के निर्माण के बाद यह रिंग बांध एक तरह से खुद-ब-खुद तैयार हो गया। तकनीकी दृष्टि से 1970 के दशक में तटबंध के निर्माण हो जाने के कारण इस इलाके को बाढ़ सुरक्षित क्षेत्र कहा जाता था जबकि रिंग बांध बन जाने के बाद भी इस सुरक्षित क्षेत्र की जनता वर्ष में 6 महीने अनिश्चितता और बाढ़ के आतंक में जीती थी।
हुआ यह कि जब बागमती परियोजना के अधीन लालबकेया और बागमती पर तटबंध बने तब बैरगनियाँ प्रखंड पर पूरब, पश्चिम और दक्षिण की तरफ से तटबंधों का पहरा बैठ गया। बैरगनियाँ की उत्तरी सीमा नेपाल से लगती है अतः उधर तटबंध पहले नहीं बनाया गया। उत्तर की ओर से आता हुआ बारिश का पानी इस रिंग बांध के दक्षिणी छोर पर जमुआ के पास अटक जाया करता था जहाँ स्लुइस गेट बनाने के लिए एक छोटा सा गैप छोड़ा गया था। इससे पानी की निकासी हो नहीं पाती थी। इसके अलावा नेपाल सीमा से लेकर जमुआ तक जमीन का ढाल लगभग 10 मीटर है। जमुआ में 2.5 से 3 मीटर गहरा अटका पानी पीछे की ओर हिलोरें मारता था जिससे एक तिहाई से आधा बैरगनियाँ डूबता था। रिंग बांध के अंदर के अधिकांश गाँव एक तरह से इस रिंग बांध के डूब क्षेत्र में आ गए। बागमती परियोजना से मिली बाढ़ सुरक्षा का इन गाँवों का यह पहला अनुभव था। विधायक सुरेन्द्र राम ने 1975 की बाढ़ में फंसे परेशान हाल बैरगनियाँ की कहानी कुछ इस तरह बयान की। ‘‘...अभी भी बैरगनियाँ प्रखंड में जमुआ, अखता, चकवा, पिपराही, मझौलिया, बराही आदि पानी से घिरे हुए हैं। गत साल वहाँ 58 नावें दी गई थीं और इस बार 10 नाव दो दिन चलीं और नदी में डूब गईं और बेकार हो गईं। जब मैं 6 तारीख को यहाँ से गया और एस. डी. ओ., श्री ए. के. चौधरी, से नाव के लिये रिक्वेस्ट किया तो उन्होंने कहा कि हम नाव देने के लिए तैयार हैं लेकिन आपके बी. डी. ओ. नहीं ले जाते हैं, 7-8 तारीख को या आज कहीं पहुँचा होगा। वहाँ के कुछ बिजिनेसमैन और कार्यकर्ताओं ने अपने प्राण को न्योछावर करके गाँवों में राशन पहुँचाया; 4-5 आदमी डूब गए; लेकिन इन्हीं की बदौलत उन्हें निकाला गया यह नाजुक परिस्थिति है। मैंने आपके चीफ सेक्रेटरी, राजस्वमंत्री, श्री नवल किशोर सिंह, कृषि मंत्री ऑफिस में नोट करा दिया था कि यहाँ पर किस तरह की नाजुक परिस्थिति है। 1972 में भी मुख्यमंत्री जी से इसके सम्बंध में कहा था कि इसके सम्बंध में आप कुछ उपाय करें। लेकिन आज तक कोई कारगर उपाय नहीं किया जा सका है। आज बाढ़ से समूचा घर-द्वार दह (बह) गया है। नीचे में पानी है, ऊपर खुला आसमान है और वर्षा होती है लेकिन, एक भी टेन्ट का इन्तजाम नहीं है। लोग बाढ़ का पानी पी कर रह रहे है, लोग बीमार पड़े हुए हैं, कॉलरा हो गया है।’’
बाद के वर्षों में बरसात के समय यह आये दिन का किस्सा हो गया। दो नदियों के बीच में बसा होने के कारण अच्छे मौसम में भी संचार व्यवस्था यहाँ विच्छिन्न ही रहती थी। वर्षा के समय यह पूर्णतः खत्म हो जाती थी। हालात से निबटने के लिए गाँव वालों ने संगठित होकर पानी की निकासी के लिए तटबंध को काटना शुरू किया। 1983 में जमुआ गाँव वालों ने तटबंध काटा था जिस वजह से उन पर मुकद्दमें चले। 1985 में भी लालबकेया के तटबंधों को जमुआ के पास काटा गया और इस बार लोगों ने पहले से अधिकारियों को सूचना देकर यह अनुष्ठान संपन्न किया था। जन-विरोध का सम्भवतः ख्याल करके 1985 में लोगों पर मुकद्दमें नहीं चलाये गए। 1986 में बसबिट्टा और अखता में लोगों का तटबंधों को काटने का कार्यक्रम था जिसकी उस वर्ष आवश्यकता नहीं पड़ी। दरभंगा नरकटिया गंज रेल लाइन के दक्षिण बसे गाँव हसमा, पकड़िया, बिलारदे, मरपाकोठी, पताही, चकवा, बरवा, जोरियाही, परसौनी, बेल, बेंगाही, पंचटकी राम, पंचटकी जदू और 8 टोलों वाला बड़ा गाँव जमुआ और रेलवे लाइन के उत्तर बसे गाँव सिन्दूरिया, आदम बांध, मसहा आलम, मसहा नरोत्तम, मसहा माहटोला, मोठ टोला, बैरगनियाँ और असोगी आदि गाँव प्रति वर्ष बाढ़ की विभीषिका झेलते थे और वर्षों से फसल के नुकसान की वजह से आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह टूट चुके थे। उसके बाद तो बैरगनियाँ का रिंग बांध न जाने कितनी बार टूटा और कितनी बार काटा गया। जहाँ अधिकारिक तौर पर इन्हें बाढ़ से सुरक्षित माना जाता था वहीं यह लोग स्वयं को मौत के कुएँ का बशिंदा बताते थे। हाल के वर्षों तक मरपा कोठी और जमुआ के आस-पास बैरगनियाँ रिंग बांध का काटा जाना एक वार्षिक कर्मकाण्ड हुआ करता था।
इधर 2008 में, रिंग बांध के निर्माण के लगभग 30 वर्ष बाद जमुआ में स्लुइस गेट के निर्माण का काम पूरा हुआ और तब जाकर हालात कुछ बेहतर हुए। इसके पहले नेपाल से लगी सीमा पर भी बांध बनाने का काम पूरा कर लिया गया था और इस तरह से अब बैरगनियाँ आदम बांध से लेकर जमुआ तक पूरा का पूरा रिंग बांध के अंदर है।
बैरगनियाँ के नेपाल की सीमा से लगे इस उत्तरी बांध में 9 स्लुइस हैं जिनसे होकर उत्तर से पानी बैरगनियाँ शहर में घुसता है। यह सारे स्लुइस बागमती और लालबकेया के बीच में लगे हैं और इन्हीं नदियों के बीच बैरगनियाँ कस्बा और उसके प्रखंड के गाँव बसे हुए हैं। बरसात के मौसम में कस्बे की हालत बुरी हो जाती है और प्रखंड के दक्षिणी छोर की बदहाली में तो अभी भी कोई फर्क नहीं पड़ा है। बैरगनियाँ के एक समाजकर्मी भाई ओम प्रकाश कहते हैं कि, ‘‘...जिस समय तटबंध बना था तभी से यह किसी को स्वाभाविक चीज नहीं लगी। तटबंध बनने के पहले विशेषज्ञ लोगों के हवाले से जो बातें कही जाती थीं उनसे लगता था कि इस नदी को तटबंधों के बीच नहीं बांधना चाहिये। स्थानीय प्रबुद्ध वर्ग भी, जाहिर है, यही कहता था। किसान इसका विरोध इसलिए करते थे क्योंकि उन्हें अपनी खेती के लिए नदी के पानी के साथ आने वाली गाद में बड़ी आस्था थी। वह चाहते थे कि इसे जहाँ तक संभव हो सके पूरे इलाके पर फैलने दिया जाय। तटबंध के निर्माण से उनकी जमीन का अधिग्रहण मिट्टी काटने के लिए, जिस स्थान से होकर तटबंध को गुजरना था उसके लिए, सरकारी दफ्तरों और कर्मचारियों के आवास के लिए तथा विस्थापितों के पुनर्वास आदि के लिए किया जाना था। यह किसानों के विरोध का दूसरा कारण था। फिर लोगों को यह भी लगता था कि नदी पर बने तटबंध भविष्य में आने वाली बाढ़ से टूटते रहेंगे और नदी की पेटी हमेशा ऊपर उठती रहेगी। मैंने इस आशय का एक लेख प्रतिपक्ष नाम के अखबार में 1972 में लिखा था। इस अखबार के सम्पादक जॉर्ज फर्नान्डिस हुआ करते थे। लेकिन यह सारा विरोध सिर्फ कलम और बतकही तक था। कोई उग्र विरोध हुआ नहीं। यह योजना बनी भी तो अधूरी बनी। पूरा काम हुआ कहाँ? तटबंध के साथ हजारों हेक्टेयर जमीन की सिंचाई की बात थी। उस पर बातें तो बहुत हुईं मगर काम कुछ भी नहीं हुआ। पुनर्वास का काम अधूरा पड़ा है और लोग या तो पुनर्वास में गए ही नहीं या किसी तरह से पुनर्वास में ठुँसे पड़े हुए हैं। बैरगनियाँ प्रखंड का जो पिपराढ़ी गाँव है उसका पुनर्वास मिला शिवहर में। आधे लोग गए और आधे लोग अभी भी गाँव में हैं। जो सक्षम थे वह चले गए और जो अक्षम थे वह रह गए। हमारे यहाँ सक्षम की परिभाषा थोड़ी भिन्न है। जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं था वह सक्षम था, वह गरीब भूमिहीन पुनर्वास में गया और जिसके पास घर-द्वार, खेती-बाड़ी थी वह उसे छोड़ कर जाने में अक्षम था, वह पुरानी जगह पर ही रह गया। एक बार नेपाल में यहीं गौर बाजार में वहाँ के अवकाश प्राप्त इंजीनियरों ने एक गोष्ठी बुलायी और चर्चा का विषय था ‘तटबंधों के निर्माण का समाज पर दुष्प्रभाव’। हमने उस मीटिंग में कहा कि आप लोगों ने तो सारी उम्र तटबंधों के निर्माण में गुजार दी तो अब उसकी हानियों पर चर्चा क्यों कर रहे हैं? क्या आपकी यही इच्छा है कि आपका रोजगार कभी खत्म न हो? इसके बाद मुझे ऐसी किसी गोष्ठी में नहीं बुलाया गया।’’


बहरहाल, जमुआ में स्लुइस गेट के निर्माण और बंशी चाचा सेतु को आम जनता के लिए खोल देने के बाद बैरगनियाँ की हालत में जरूर सुधार हुआ है और अब पानी वहाँ नीचे के दो-तीन गाँवों में ही लगता है और अमूमन बिना कोई नुकसान पहुँचाये निकल जाता है। अब अगर रिंग बांध सलामत रहता है तो बैरगनियाँ में कुछ वर्षों के लिए आराम हो जायेगा मगर धीरे-धीरे नदियों का तल ऊपर उठने के साथ जल -निकासी की समस्या देखने में आयेगी और उसके लिए कुछ न कुछ व्यवस्था करनी पड़ेगी।
गौर बाजार- बैरगनियाँ से ही मिलती-जुलती हालत है उत्तर में, साथ में लगे नेपाल के गौर बाजार की और वहाँ भी तबाही कम नहीं है। गौर बाजार के पूरब में बागमती नदी है और पश्चिम में लालबकेया है। बीच में गौर बाजार पड़ता है। यहाँ पास में नरकटिया, भलुहियाँ, पिपरा, इनरवा, देवाही आदि गाँव हैं और यह सारे के सारे बाढ़ के कारण आपदाग्रस्त रहते हैं। ब्रह्मदेवी, राजदेवी, बसंतपुर आदि की स्थिति भी भिन्न नहीं है। यह इलाका तटबंध बनने के पहले भी छोटी-मोटी बाढ़ से परेशान रहता था मगर यह आपदाग्रस्त हो गया तटबंध बनने के बाद क्योंकि तब पानी की निकासी का रास्ता ही बंद हो गया। अब अगर ऊपरी क्षेत्रों में जम कर 2-3 घंटे बारिश हो गयी तो यहाँ पानी को निकलने में कम से कम 8 दिन का समय लग जाता है। इन दोनों नदियों के तटबंधों में कहीं-कहीं जगह छोड़ी हुई है और उनसे भी पानी इधर गौर बाजार में आ जाता है। कभी-कभी यह तटबंध टूट भी जाते हैं तब हालत और भी खराब हो जाती है। भारत की सीमा से लेकर ब्रह्मपुरी तक तटबंध नहीं है। इतना हिस्सा खुला हुआ है, जिससे पानी गौर बाजार में आ जाता है और बहुत ज्यादा तबाही होती है। बंजरहा गांव लालबकेया के किनारे पड़ता है। वहाँ पानी की निकासी के लिए तटबंध को ही तोड़ना पड़ गया है।
लालबकेया का जो तटबंध है वह उत्तर में 8-9 किलोमीटर ऊपर तक जनेरवा, बेलबिछुआ तक गया है। पूरब में बागमती का तटबंध भी लगभग करमहिया तक चला गया है। यहाँ समस्या यह है कि पूरब में बागमती का तटबंध, पश्चिम में लालबकेया का तटबंध और दक्षिण में बैरगनियाँ रिंग बांध बना हुआ है और इन तीन तरफ के तटबंधों के बीच है नेपाल के रौतहट जिले का मुख्यालय गौर बाजार। बैरगनियाँ रिंग बांध के नीचे सीतामढ़ी- नरकटियागंज रेल लाइन है और वह भी एक तरह से बांध का ही काम करती है। पानी निकलने के दो ही रास्ते बचते हैं-एक बागमती वाला रेल पुल और दूसरा लालबकेया का रेल पुल। इन नदियों में पानी का लेवेल जब तक नीचे नहीं जाता तब तक गौर बाजार में पानी रहता है। बरसात के मौसम में ऐसा एक बार नहीं, कई बार होता है। लालबकेया के किनारे बंजरहा गांव है उसमें 2009 में नदी का पानी घुस गया जबकि इस बार बाढ़ कुछ खास नहीं थी। इस साल वहाँ रिलीफ बांटनी पड़ गयी।

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