जोहड़ का उपयोग प्राचीनकाल से होता आया है लेकिन मध्यकाल आते-आते लोगों ने जोहड़ को भुला दिया था जिससे जलसंकट उत्पन्न हो गया। लेकिन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित श्री राजेन्द्र सिंह जी ने 1985 में अलवर से जोहड़ों के पुनर्निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया। जिसके फलस्वरूप जहां-जहां पर जोहड़ के निर्माण का कार्य आरम्भ किया गया वहां-वहां पर जलसंकट के समाधान के साथ-साथ बहुत-सी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को भी कम किया गया। समाज के विकास में जल का बड़ा महत्व है, परन्तु जल का संरक्षण न हो पाने से जल संकट उत्पन्न हो गया है और साथ ही साथ बहुत-सी सामाजिक-आर्थिक समस्याएं जन्म ले रही हैं। जल की समस्या का समाधान करने के लिए सभी व्यक्तियों को मिलजुल कर प्रयास करने होंगे एवं जल संरक्षण के परम्परागत तरीकों को पुनर्जीवित करना होगा जैसे अलवर में जोहड़ को पुनर्जीवित करके बहुत-सी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को हल कर लिया गया है।
जल व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। जल के बिना कोई भी विकास कार्य नहीं किया जा सकता है। सामाजिक-आर्थिक विकास की प्रक्रिया में पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने के लिए जल सबसे महत्वपूर्ण है। जोहड़ वर्षा जल संरक्षण की एक परम्परागत संरचना है। इस विधि को लोगों ने अलवर जिले में अपनाकर जल संकट के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को भी बहुत हद तक दूर कर लिया है। यहां पर जोहड़ के इतिहास का एक संक्षिप्त विवरण दिया जाएगा।
जोहड़ संरक्षण की सामाजिक अभिव्यक्ति है ‘जोहड़ आंदोलन’। इसका स्वरूप संगठित अथवा असंगठित हो सकता है लेकिन उद्देश्य एक है जोहड़ बचाना।भूमिगत एवं सतह जल का स्तर गिरता जा रहा है। साफ पेयजल की उपलब्धता विश्व स्तर पर बड़े सवाल के रूप में उभरी है। कहा जाता है कि तीसरा विश्वयुद्ध जल के प्रश्न पर होगा। यह तो आने वाला समय बताएगा, लेकिन जल की उपलब्धता घटी है, यह सत्य है।
जोहड़ वर्षा जल संरक्षण की एक परम्परागत संरचना है। राजस्थान के अलवर एवं भरतपुर जिलों में कहलाने वाले ‘जोहड़’ को बीकानेर, गंगानगर, बाड़मेर एवं जैसलमेर में ‘सर’ कहते हैं तो जोधपुर में ‘नाड़ा’-‘नाड़ी’ के नाम से जानते हैं। कहीं-कहीं पर ‘तालाब’ कहते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘पोखर’ कहते हैं। इस प्रकार जोहड़ को देश भर में अनेक नाम से जाना जाता है।
जोहड़ का उपयोग प्राचीनकाल से होता आया है लेकिन मध्यकाल आते-आते लोगों ने जोहड़ को भुला दिया था जिससे जल संकट उत्पन्न हो गया। लेकिन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित श्री राजेन्द्र सिंह जी ने 1985 में अलवर से जोहड़ों के पुनर्निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया। जिसके फलस्वरूप जहां-जहां पर जोहड़ के निर्माण का कार्य आरम्भ किया गया वहां-वहां पर जल संकट के समाधान के साथ-साथ बहुत-सी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को भी कम किया गया।
जोहड़ का सामाजिक-ऐतिहासिक अध्ययन।
अध्ययन हेतु अलवर जिले के कुछ चुने हुए गांवों का अध्ययन किया गया है जिसमें गोपालपुरा माण्डलवास, अंगारी, भूरियावास एवं गुर्जरों की लोसल आदि गांव सम्मिलित हैं।
प्रस्तुत अध्ययन के लिए वैयक्तिक अध्ययन पद्धति का प्रयोग किया गया है जिसमें साक्षात्कार, अवलोकन, डायरी, पत्र, जीवन-इतिहास, प्रलेख आदि का प्रयोग किया गया है। इस अध्ययन हेतु सामाजिक-ऐतिहासिक उपागम का प्रयोग किया है एवं इसकी प्रकृति विवरणात्मक है।
जोहड़ सदैव दोयज के चांद की तरह कॉनकेव (अभयतलीय) चन्दाकार होते हैं, लेकिन जोहड़ के जिस हिस्से पर जल दबाव अधिक हो सकता है, उसका आधार लगभग दो गुना या तीन गुना अधिक रखते हैं। किनारे की पाल का आधार सात हाथ है, तो बीच चौदह हाथ से इक्कीस हाथ तक होता है। बीच में हुए अभयतलीय स्थान को ‘कोहनी’ कहते हैं। इसमें स्थान के हिसाब से कुछ भिन्नता अवश्य रहती है, पाल का आधार देखने से पता चलता है कि उसकी मोटाई इक्कीस हाथ के लगभग ही होती है। ऊपरी सतह पूरी पाल की लगभग एक समान होती है जोकि प्रायः पांच हाथ रखी जाती है। पाल का आधार तय करते समय पाल की ऊंचाई को ध्यान में रखकर पहले बीच की दो लाइनें खींची जाती हैं जिससे जोहड़ की ऊपरी सतह एक गोलाई चक्र में आ सके।
कभी-कभी जोहड़ में मुख्य जलधारा के सामने पाल को थोड़ा कॉनवैक्स स्वरूप देते हैं जिससे पाल के ऊपर के जल का दबाव दो तरफ बंट जाता है। जोहड़ के पाल के अन्दर की साइड लगभग चार हाथ की ऊंचाई तक पाल कच्ची हो या पक्की, उसे सीधी रखते हैं। इनकी गहराई अधिक होती है, लम्बाई-चौड़ाई अपेक्षाकृत कम होती है, ऐसा इसलिए करते हैं कि जल वाष्पीकरण हो करके कम न हो।
पहाड़ी व पठारी क्षेत्रों में दो ऊंचे स्थानों को एक मिट्टी की पाल बनाकर जोड़ते हैं। कहीं-कहीं पर बड़े-बड़े त्रिभुजाकार जैसी झील भी बन जाती हैं, कहीं-कहीं छोटी-छोटी तलाई जैसी बन जाती हैं। एक विशेष प्रकार की मिट्टी जिसे ‘मुरूम’ कहते हैं। जहां मुरूम होती है वहां पर ही जोहड़ बनाते हैं जिससे ज्यादा दिनों तक पानी रोका जा सकता है।
जोहड़ में सिल्टिंग नहीं होते इसके लिए जलधाराओं पर खुर्रें बना देते हैं। ये कोरे पत्थर के होते हैं, जिनके ऊपर से जल बह जाता है, मिट्टी आदि वहीं पर रुकी रहती हैं जिससे भूमि कटाव व जमाव दोनों ही रूक जाते हैं।
जोहड़ का निर्माण व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक दोनों प्रकार की भूमि पर किया गया है। जो जोहड़ व्यक्तिगत जमीन पर बने होते हैं उसमें संगठन (तरुण भारत संघ) आधा ही सहयोग करते हैं। वैसे जोहड़ बन जाने के बाद वह सार्वजनिक ही हो जाता है, लेकिन खातेदारी की जमीन पर बना होने के कारण फसल का अधिक लाभ कुछ ही परिवारों को मिल पाता है। इसलिए अधिक लाभ लेने वाले परिवारों से अधिक श्रमदान लिया जाता है। गांव के लोग भी देखकर ही लाभ के अनुसार श्रमदान का बंटवारा करते हैं।
तरुण भारत संघ नामक संगठन जोहड़ के निर्माण में लोगों के साथ लगा हुआ है। 2 अक्टूबर, 1985 को अन्य तरुणों के साथ यह संगठन अलवर जिले के किशोरी गांव में पहुंचा था। अब यह संगठन जोहड़ बनाने वाले संगठन के रूप में जाना जाता है। यहां पर कुछ चुने हुए गांवों का अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है।
गोपालपुरा गांव में जोहड़ बनाने का अनुभव : लगभग 700 वर्ष पुराना गोपालपुरा गांव ‘मीणा’ जाति बाहुल्य है जिसमें 52 परिवार निवास करते हैं। उन्नीसवीं सदी के अंत तक यह गांव समृद्ध रहा, क्योंकि यहां का प्रकृति चक्र लगातार बना रहा। अच्छी जमीन, सिंचाई के लिए ‘जोहड़’, वन तथा पशुपालन के अच्छे गोचर थे। लेकिन धीरे-धीरे लोग परम्परागत तौर-तरीके भूलते गए और सदियों से चला आ रहा प्रकृति चक्र टूट गया। अकाल पड़ने के कारण इनकी आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गई थी। यहां के युवा लोग घर छोड़कर मजदूरी के लिए निकल जाते थे।
पशुपालन, जो इनकी आय का स्रोत रहा, वह भी सूखे के कारण जर्जर हो गया था। बचे-खुचे पशुओं को लोग छोड़-छोड़ कर शहरों की तरफ भाग गए थे। ओवर ग्रेजिंग के कारण आस-पास की पहाडि़यां पहले ही बिल्कुल नंगी हो गयी थी।
गांव की वीरान स्थिति में 1986 में तरुण भारत संघ ने इस गांव में जोहड़ बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। यहां पर वर्षा के बाद भी सूखे का कारण समझकर कार्य आरम्भ किया गया था। इस क्षेत्र में 60 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा होती है और कुल भूमि के 30 प्रतिशत भाग पर ही खेती की जाती है। इसका 9 प्रतिशत भाग सिंचित है, 21 प्रतिशत असिंचित और शेष 70 प्रतिशत अरावली पर्वत शृंखलाओं का है। इतनी कम सिंचित भूमि होने के बाद भी यहां पर लगातार जल का स्तर गिरता जा रहा था। महिलाओं का अधिकतर समय पानी की व्यवस्था में ही गुजरता था।
तरुण भारत संघ के सदस्यों ने काम चालू किया, गांव का पूरा सहयोग नहीं मिलने पर भी काम चलता रहा। ग्रामसभा ने जल के साथ-साथ जंगल संरक्षण का काम भी संगठन के साथ मिलकर आरम्भ कर दिया। गांव के सदस्यों ने अपने जोहड़ को स्थायी बनाए रखने हेतु उसके कैचमेंट को भी हरा-भरा करने का अभियान चलाया था। साथ ही साथ पौधों को लगाने का कार्य भी किया गया था।
इस गांव में पेड़ काटने वाले अपने भाई का जाति बहिष्कार तक किया गया। प्राकृतिक संसाधनों के विकास हेतु यहां ग्रामकोष का निर्माण किया गया है। गांव वालों ने चार रुपये प्रति भेड़-बकरी के हिसाब से ग्रामकोष के लिए कोष इकट्ठा किया है। एक वर्ष में प्रत्येक परिवार का एक सदस्य लगभग 12 दिन श्रमदान करता है। माण्डलवास गांव में जोहड़ बनाने का अनुभव: दूसरा वर्ष तरुण भारत संघ के लिए मधुर अनुभवों का था जिनमें माण्डलवास गांव मुख्य था, यह गांव गोपालपुरा गांव के पास का गांव था। यहां के लोग गोपालपुरा से होकर निकलते हैं। माण्डलवास गांव वन्यजीव अभ्यारण्य सरिस्का के बफर ज़ोन में स्थित है। मीणा जनजाति के यहां 75 परिवार हैं। यहां के लोग स्वभाव से सहज, सरल हैं। ये दूध के लिए पशु पालते हैं तथा भोजन के लिए खेती करते हैं।
ग्रामवासियों ने पास के गांव गोपालपुरा में तरुण भारत संघ द्वारा बनाए गए जोहड़ को देखकर अपने गांव में भी जल प्रबन्ध ‘जोहड़’ बनाने का काम चालू कर दिया। गांव के दक्षिण में जिधर से गांव की सारी कृषि को नुकसान पहंचाने वाला पानी आता था, उधर से गांववालों ने मिलकर पानी रोकना प्रारम्भ किया। सबसे पहले ‘धान वाला जोहड़’ बनाया, इसको बनाने से ही कुएं में पानी रहने लगा। फिर उसके बाद दूसरे पहाड़ के नीचे दूसरा ‘सरसा वाला जोहड’ बनाया। उसके बाद गांव के पश्चिम में पहाड़ का पानी रोकने के लिए बहुत गहरा जोहड़ बनाया गया जिसमें अब पूरे वर्ष वर्षा का पानी भरा रहता है। उसके बाद पूर्व के पहाड़ की तरफ एक छोटी जोहड़ बनाई गई। इस प्रकार गांव के चारों ओर से बहकर जाने वाले पानी को गांव में ही रोकने का सफल प्रयास किया गया जिससे अब अन्न की पैदावार में बढ़ोत्तरी हुई एवं पशुओं के चारे की बहुतायत हो गई है। मिट्टी व पानी के संरक्षण के साथ-साथ जंगल बचाने का बड़ा भारी काम इन लोगों ने किया है।
अंगारी के जोहड़ का अनुभव : अरावली पर्वत की उत्तरी-पूर्वी शृंखलाओं में अलवर जिले की थानागाजी तहसील में स्थित ‘अंगारी’ गांव के निवासियों ने मिलकर तरुण भारत संघ की प्रेरणा से यहां एक जोहड़ 1988 में बनाया। यह संघ के काम का तीसरा वर्ष था।
इस गांव का कुल क्षेत्रफल 1,163 हेक्टेयर है जिसमें 95 हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई होती है। 336 हेक्टेयर असिंचित खेती है, शेष 732 हेक्टेयर भूमि पर पहाड़ी शृंखलाएं हैं। गांव वालों ने मिलकर एक 900 फीट लम्बा और 10 फीट गहराई वाला जोहड़ बनाया। जुलाई 1988 की वर्षा में यह जोहड़ पूरा भर गया। इसका लगभग 7 हेक्टेयर भराव क्षेत्र है जिसमें पानी फैल गया था और यह सारा पानी अक्टूबर के अंत तक खाली हो गया और इस सारी भूमि में गेहूं बो दिए गए। इसमें बिना किसी प्रकार का खाद डाले ही बहुत अच्छी गेहूं की फसल पैदा हुई।
नीचे की तरफ के सात कुओं में जल स्तर ऊपर आ गया था। इस प्रकार कुओं के द्वारा लगभग 23 हेक्टेयर क्षेत्रफल कुओं से दो या तीन बार सिंचित होने लगा। जोहड़ के निर्माण से लगभग 50 हेक्टेयर भूमि का कटाव या जमाव रूक गया। इस जोहड़ के निर्माण से 200 क्विंटल अतिरिक्त अनाज पैदा होने लगा और पशुओं के लिए चारा मिलने लगा। एक जोहड़ के बनने से लगभग 100 व्यक्तियों को अपनी ही उसी जमीन पर 90 दिन का अतिरिक्त रोजगार मिल गया।
भूरियावास गांव में जोहड़ बनाने का अनुभव : ग्राम भूरियावास अलवर जिले के थानागाजी तहसील के दक्षिण में स्थित है। यह गांव अरावली पर्वत शृंखलाओं से घिरा हुआ लम्बाई में 5 किलोमीटर और चौड़ाई में 2 किलोमीटर है। और गुर्जर, मीणा, बलाई बाहुल्य है। बनिया, राजपूत, ब्राह्मण, कुम्हार, रैगर एवं कीर अन्य सभी जातियों को निवास देने वाला यह गांव कुछ अर्थों में एक आदर्श गांव है।
‘‘पेड़ बचाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’’ का नारा इसी ग्रामसभा ने बुलन्द किया था तथा पदयात्रा इसी गांव से एक अगस्त, 1989 को आरम्भ हुई थी। इस ग्रामसभा ने जंगल में अपराध करने वालों से आर्थिक दण्ड भी वसूल किया है। इस प्रकार वसूल की गई धनराशि को भी जोहड़ निर्माण एवं वृक्षारोपण जैसे कार्यों में लगाया गया है।
भूरियावास गांव के आरम्भ में भांवता वाला जोहड़ सुन्दरा गुर्जर के प्रयास से बनाया गया है। वह व्यक्ति इस गांव का सज्जन-सरल व्यक्ति था, इसने देव का देवरा तथा हमीरपुर साईड में बने जोहड़ों को देखकर अपने गांव में जोहड़ बनाने का काम चालू करने का विचार किया था तभी वह तरुण भारत संघ के आश्रम में आया था। स्कूल के पास पूरे परिवार को तथा गांव को लगाकर अपना जोहड़ बना लिया था। स्कूल के पास इस जोहड़ के बाद दो छोटे जोहड़ कोल्याला, भूरियावास स्कूल के पास में बने जिसमें पूरे ग्राम ने श्रमदान किया था।
इस गांव में सार्वजनिक सम्पदा संरक्षण के भाव प्रबल थे, इसलिए इन्होंने जोहड़ बनाने के साथ-साथ अपने जंगल बचाने के बहुत अधिक प्रयास किए।
गुर्जरों की लोसल के जोहड़ बनाने का अनुभव : यह गांव 70 परिवारों की बस्ती है। इसमें पशुपालन व खेती का काम करने वाले गुर्जर जाति के लोग रहते हैं। यहां पर खेती का औसत एक एकड़ प्रति परिवार होगा। इस गांव में कुल 22 कुएं हैं, लेकिन ये गत वर्ष सूखे पड़े थे। पीने के पानी का भी संकट था। अंत में ग्रामवासियों ने निर्णय लिया और बिना किसी से बातचीत किए गांव के ऊपर उत्तर (पहाड़) दिशा में बड़ा जोहड़ बनाने की ठान ली।
जोहड़ पूरा होने के चार दिन बाद वर्षा बहुत जोरों से हुई। जोहड़ आधा भर गया। वर्षों के बाद आज भी वह अपनी शान से खड़ा है। इसके नीचे कुओं में जल बना रहता है जिससे मक्का की बहुत अच्छी फसल होती है।
गांव के प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति ने 125 दिन गांव के लिए निःशुल्क श्रमदान किया। ये सब लोग ग्रामसभा के काम के लिए धन देने हेतु सदैव तैयार रहते हैं। यहां भी ‘ग्रामकोष’ है। 50 रुपये प्रत्येक परिवार से ग्रामकोष के लिए अलग से इकट्ठे हुए हैं। इस गांव में जोहड़ बनाने के लिए तरुण भारत संघ ने 25,000 रुपये दिये थे। इस रकम को गांववालों ने बराबर-बराबर परिवार के हिसाब से बांट लिया था। इन्हें जो रकम मिली उसे इन्होंने मजदूरी नहीं सहायता के रूप में देखा। इनका जोहड़ इनकी स्वप्रेरणा एवं स्वश्रम से बना है।
जोहड़ धीरे-धीरे लेकिन असरदार होते हैं। इनका हमारे जीवन से बहुत गहरा संबंध है। इन्हीं से हमारी पेयजल पूर्ति होती थी तथा 1950 में भारत में कुल सिंचित क्षेत्र की 17 प्रतिशत सिंचाई भी जोहड़ से की जाती थी। 1950 से पहले तो हमारे जोहड़ ही सिंचाई के प्रभावी साधन थे। सुदूर भूतकाल में तो 80 प्रतिशत से भी अधिक सिंचाई इन्हीं जोहड़ों से ही होती थी। ये जोहड़ भारत के हर कोने में पाए जाते रहे हैं। सबसे अधिक समुद्रतटीय जिलों में तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार एवं राजस्थान में। इनसे होने वाली सिंचाई का क्षेत्रफल 1860 तक निरन्तर बढ़ता रहा था। इस स्वावलम्बी सिंचाई योजना को अंग्रेजों ने जानबूझकर खत्म करने का जो षडयन्त्र रचा था उसे स्वतंत्र भारत के योजनाकारों ने बरकरार रखा था।
जोहड़ जो कि अकाल एवं बाढ़ से बचाता है, अलवर जैसे सूखे जिले में भूमि की पुनः सिंचाई करके कुएं आदि से पेयजल उपलब्ध कराता है। भूमि कटाव रोककर ‘पर्यावरण’ को बनाए रखता है। पशुओं के लिए पेयजल की सर्वोत्तम व्यवस्था ‘जोहड़’ ही है। ये गांव में होने वाले मरण, विवाह आदि के संस्कारों के कारण भी सम्मान का प्रतीक हैं। साथ ही साथ जोहड़ों के पुनर्निर्माण एवं वर्षा जल का संरक्षण हो जाने के कारण लोगों का पलायन रूका एवं लोग खेतीबाड़ी करने लगे।
लोगों ने पशुओं को पालना फिर से प्रारम्भ कर दिया जिससे वे लोग दूध का व्यवसाय एवं साथ-साथ दूध से सम्बन्धित अन्य व्यवसाय भी करने लगे।
महिलाएं जो पेयजल के लिए दूर-दूर तक जाती थीं, अब गांव में ही मिल जाने के कारण उनकी भी समस्याएं समाप्त हो गई। जोहड़ों को पुनर्जीवित करने से जल संकट के समाधान के साथ-साथ बहुत सारी हमारी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को भी हल किया गया।
(लेखक वाराणसी के काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में डॉक्टोरल फेलो हैं। ई-मेल : dpssocio@gmail.com )
परिचय
जल व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। जल के बिना कोई भी विकास कार्य नहीं किया जा सकता है। सामाजिक-आर्थिक विकास की प्रक्रिया में पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने के लिए जल सबसे महत्वपूर्ण है। जोहड़ वर्षा जल संरक्षण की एक परम्परागत संरचना है। इस विधि को लोगों ने अलवर जिले में अपनाकर जल संकट के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को भी बहुत हद तक दूर कर लिया है। यहां पर जोहड़ के इतिहास का एक संक्षिप्त विवरण दिया जाएगा।
जोहड़ संरक्षण की सामाजिक अभिव्यक्ति है ‘जोहड़ आंदोलन’। इसका स्वरूप संगठित अथवा असंगठित हो सकता है लेकिन उद्देश्य एक है जोहड़ बचाना।भूमिगत एवं सतह जल का स्तर गिरता जा रहा है। साफ पेयजल की उपलब्धता विश्व स्तर पर बड़े सवाल के रूप में उभरी है। कहा जाता है कि तीसरा विश्वयुद्ध जल के प्रश्न पर होगा। यह तो आने वाला समय बताएगा, लेकिन जल की उपलब्धता घटी है, यह सत्य है।
जोहड़ वर्षा जल संरक्षण की एक परम्परागत संरचना है। राजस्थान के अलवर एवं भरतपुर जिलों में कहलाने वाले ‘जोहड़’ को बीकानेर, गंगानगर, बाड़मेर एवं जैसलमेर में ‘सर’ कहते हैं तो जोधपुर में ‘नाड़ा’-‘नाड़ी’ के नाम से जानते हैं। कहीं-कहीं पर ‘तालाब’ कहते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘पोखर’ कहते हैं। इस प्रकार जोहड़ को देश भर में अनेक नाम से जाना जाता है।
जोहड़ का उपयोग प्राचीनकाल से होता आया है लेकिन मध्यकाल आते-आते लोगों ने जोहड़ को भुला दिया था जिससे जल संकट उत्पन्न हो गया। लेकिन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित श्री राजेन्द्र सिंह जी ने 1985 में अलवर से जोहड़ों के पुनर्निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया। जिसके फलस्वरूप जहां-जहां पर जोहड़ के निर्माण का कार्य आरम्भ किया गया वहां-वहां पर जल संकट के समाधान के साथ-साथ बहुत-सी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को भी कम किया गया।
उद्देश्य
जोहड़ का सामाजिक-ऐतिहासिक अध्ययन।
अध्ययन क्षेत्र
अध्ययन हेतु अलवर जिले के कुछ चुने हुए गांवों का अध्ययन किया गया है जिसमें गोपालपुरा माण्डलवास, अंगारी, भूरियावास एवं गुर्जरों की लोसल आदि गांव सम्मिलित हैं।
अध्ययन विधि
प्रस्तुत अध्ययन के लिए वैयक्तिक अध्ययन पद्धति का प्रयोग किया गया है जिसमें साक्षात्कार, अवलोकन, डायरी, पत्र, जीवन-इतिहास, प्रलेख आदि का प्रयोग किया गया है। इस अध्ययन हेतु सामाजिक-ऐतिहासिक उपागम का प्रयोग किया है एवं इसकी प्रकृति विवरणात्मक है।
जोहड़ की बनावट
जोहड़ सदैव दोयज के चांद की तरह कॉनकेव (अभयतलीय) चन्दाकार होते हैं, लेकिन जोहड़ के जिस हिस्से पर जल दबाव अधिक हो सकता है, उसका आधार लगभग दो गुना या तीन गुना अधिक रखते हैं। किनारे की पाल का आधार सात हाथ है, तो बीच चौदह हाथ से इक्कीस हाथ तक होता है। बीच में हुए अभयतलीय स्थान को ‘कोहनी’ कहते हैं। इसमें स्थान के हिसाब से कुछ भिन्नता अवश्य रहती है, पाल का आधार देखने से पता चलता है कि उसकी मोटाई इक्कीस हाथ के लगभग ही होती है। ऊपरी सतह पूरी पाल की लगभग एक समान होती है जोकि प्रायः पांच हाथ रखी जाती है। पाल का आधार तय करते समय पाल की ऊंचाई को ध्यान में रखकर पहले बीच की दो लाइनें खींची जाती हैं जिससे जोहड़ की ऊपरी सतह एक गोलाई चक्र में आ सके।
कभी-कभी जोहड़ में मुख्य जलधारा के सामने पाल को थोड़ा कॉनवैक्स स्वरूप देते हैं जिससे पाल के ऊपर के जल का दबाव दो तरफ बंट जाता है। जोहड़ के पाल के अन्दर की साइड लगभग चार हाथ की ऊंचाई तक पाल कच्ची हो या पक्की, उसे सीधी रखते हैं। इनकी गहराई अधिक होती है, लम्बाई-चौड़ाई अपेक्षाकृत कम होती है, ऐसा इसलिए करते हैं कि जल वाष्पीकरण हो करके कम न हो।
पहाड़ी व पठारी क्षेत्रों में दो ऊंचे स्थानों को एक मिट्टी की पाल बनाकर जोड़ते हैं। कहीं-कहीं पर बड़े-बड़े त्रिभुजाकार जैसी झील भी बन जाती हैं, कहीं-कहीं छोटी-छोटी तलाई जैसी बन जाती हैं। एक विशेष प्रकार की मिट्टी जिसे ‘मुरूम’ कहते हैं। जहां मुरूम होती है वहां पर ही जोहड़ बनाते हैं जिससे ज्यादा दिनों तक पानी रोका जा सकता है।
जोहड़ में सिल्टिंग नहीं होते इसके लिए जलधाराओं पर खुर्रें बना देते हैं। ये कोरे पत्थर के होते हैं, जिनके ऊपर से जल बह जाता है, मिट्टी आदि वहीं पर रुकी रहती हैं जिससे भूमि कटाव व जमाव दोनों ही रूक जाते हैं।
भूमि का चुनाव
जोहड़ का निर्माण व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक दोनों प्रकार की भूमि पर किया गया है। जो जोहड़ व्यक्तिगत जमीन पर बने होते हैं उसमें संगठन (तरुण भारत संघ) आधा ही सहयोग करते हैं। वैसे जोहड़ बन जाने के बाद वह सार्वजनिक ही हो जाता है, लेकिन खातेदारी की जमीन पर बना होने के कारण फसल का अधिक लाभ कुछ ही परिवारों को मिल पाता है। इसलिए अधिक लाभ लेने वाले परिवारों से अधिक श्रमदान लिया जाता है। गांव के लोग भी देखकर ही लाभ के अनुसार श्रमदान का बंटवारा करते हैं।
जोहड़ का इतिहास
तरुण भारत संघ नामक संगठन जोहड़ के निर्माण में लोगों के साथ लगा हुआ है। 2 अक्टूबर, 1985 को अन्य तरुणों के साथ यह संगठन अलवर जिले के किशोरी गांव में पहुंचा था। अब यह संगठन जोहड़ बनाने वाले संगठन के रूप में जाना जाता है। यहां पर कुछ चुने हुए गांवों का अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है।
गोपालपुरा गांव में जोहड़ बनाने का अनुभव : लगभग 700 वर्ष पुराना गोपालपुरा गांव ‘मीणा’ जाति बाहुल्य है जिसमें 52 परिवार निवास करते हैं। उन्नीसवीं सदी के अंत तक यह गांव समृद्ध रहा, क्योंकि यहां का प्रकृति चक्र लगातार बना रहा। अच्छी जमीन, सिंचाई के लिए ‘जोहड़’, वन तथा पशुपालन के अच्छे गोचर थे। लेकिन धीरे-धीरे लोग परम्परागत तौर-तरीके भूलते गए और सदियों से चला आ रहा प्रकृति चक्र टूट गया। अकाल पड़ने के कारण इनकी आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गई थी। यहां के युवा लोग घर छोड़कर मजदूरी के लिए निकल जाते थे।
पशुपालन, जो इनकी आय का स्रोत रहा, वह भी सूखे के कारण जर्जर हो गया था। बचे-खुचे पशुओं को लोग छोड़-छोड़ कर शहरों की तरफ भाग गए थे। ओवर ग्रेजिंग के कारण आस-पास की पहाडि़यां पहले ही बिल्कुल नंगी हो गयी थी।
गांव की वीरान स्थिति में 1986 में तरुण भारत संघ ने इस गांव में जोहड़ बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। यहां पर वर्षा के बाद भी सूखे का कारण समझकर कार्य आरम्भ किया गया था। इस क्षेत्र में 60 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा होती है और कुल भूमि के 30 प्रतिशत भाग पर ही खेती की जाती है। इसका 9 प्रतिशत भाग सिंचित है, 21 प्रतिशत असिंचित और शेष 70 प्रतिशत अरावली पर्वत शृंखलाओं का है। इतनी कम सिंचित भूमि होने के बाद भी यहां पर लगातार जल का स्तर गिरता जा रहा था। महिलाओं का अधिकतर समय पानी की व्यवस्था में ही गुजरता था।
तरुण भारत संघ के सदस्यों ने काम चालू किया, गांव का पूरा सहयोग नहीं मिलने पर भी काम चलता रहा। ग्रामसभा ने जल के साथ-साथ जंगल संरक्षण का काम भी संगठन के साथ मिलकर आरम्भ कर दिया। गांव के सदस्यों ने अपने जोहड़ को स्थायी बनाए रखने हेतु उसके कैचमेंट को भी हरा-भरा करने का अभियान चलाया था। साथ ही साथ पौधों को लगाने का कार्य भी किया गया था।
इस गांव में पेड़ काटने वाले अपने भाई का जाति बहिष्कार तक किया गया। प्राकृतिक संसाधनों के विकास हेतु यहां ग्रामकोष का निर्माण किया गया है। गांव वालों ने चार रुपये प्रति भेड़-बकरी के हिसाब से ग्रामकोष के लिए कोष इकट्ठा किया है। एक वर्ष में प्रत्येक परिवार का एक सदस्य लगभग 12 दिन श्रमदान करता है। माण्डलवास गांव में जोहड़ बनाने का अनुभव: दूसरा वर्ष तरुण भारत संघ के लिए मधुर अनुभवों का था जिनमें माण्डलवास गांव मुख्य था, यह गांव गोपालपुरा गांव के पास का गांव था। यहां के लोग गोपालपुरा से होकर निकलते हैं। माण्डलवास गांव वन्यजीव अभ्यारण्य सरिस्का के बफर ज़ोन में स्थित है। मीणा जनजाति के यहां 75 परिवार हैं। यहां के लोग स्वभाव से सहज, सरल हैं। ये दूध के लिए पशु पालते हैं तथा भोजन के लिए खेती करते हैं।
ग्रामवासियों ने पास के गांव गोपालपुरा में तरुण भारत संघ द्वारा बनाए गए जोहड़ को देखकर अपने गांव में भी जल प्रबन्ध ‘जोहड़’ बनाने का काम चालू कर दिया। गांव के दक्षिण में जिधर से गांव की सारी कृषि को नुकसान पहंचाने वाला पानी आता था, उधर से गांववालों ने मिलकर पानी रोकना प्रारम्भ किया। सबसे पहले ‘धान वाला जोहड़’ बनाया, इसको बनाने से ही कुएं में पानी रहने लगा। फिर उसके बाद दूसरे पहाड़ के नीचे दूसरा ‘सरसा वाला जोहड’ बनाया। उसके बाद गांव के पश्चिम में पहाड़ का पानी रोकने के लिए बहुत गहरा जोहड़ बनाया गया जिसमें अब पूरे वर्ष वर्षा का पानी भरा रहता है। उसके बाद पूर्व के पहाड़ की तरफ एक छोटी जोहड़ बनाई गई। इस प्रकार गांव के चारों ओर से बहकर जाने वाले पानी को गांव में ही रोकने का सफल प्रयास किया गया जिससे अब अन्न की पैदावार में बढ़ोत्तरी हुई एवं पशुओं के चारे की बहुतायत हो गई है। मिट्टी व पानी के संरक्षण के साथ-साथ जंगल बचाने का बड़ा भारी काम इन लोगों ने किया है।
अंगारी के जोहड़ का अनुभव : अरावली पर्वत की उत्तरी-पूर्वी शृंखलाओं में अलवर जिले की थानागाजी तहसील में स्थित ‘अंगारी’ गांव के निवासियों ने मिलकर तरुण भारत संघ की प्रेरणा से यहां एक जोहड़ 1988 में बनाया। यह संघ के काम का तीसरा वर्ष था।
इस गांव का कुल क्षेत्रफल 1,163 हेक्टेयर है जिसमें 95 हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई होती है। 336 हेक्टेयर असिंचित खेती है, शेष 732 हेक्टेयर भूमि पर पहाड़ी शृंखलाएं हैं। गांव वालों ने मिलकर एक 900 फीट लम्बा और 10 फीट गहराई वाला जोहड़ बनाया। जुलाई 1988 की वर्षा में यह जोहड़ पूरा भर गया। इसका लगभग 7 हेक्टेयर भराव क्षेत्र है जिसमें पानी फैल गया था और यह सारा पानी अक्टूबर के अंत तक खाली हो गया और इस सारी भूमि में गेहूं बो दिए गए। इसमें बिना किसी प्रकार का खाद डाले ही बहुत अच्छी गेहूं की फसल पैदा हुई।
नीचे की तरफ के सात कुओं में जल स्तर ऊपर आ गया था। इस प्रकार कुओं के द्वारा लगभग 23 हेक्टेयर क्षेत्रफल कुओं से दो या तीन बार सिंचित होने लगा। जोहड़ के निर्माण से लगभग 50 हेक्टेयर भूमि का कटाव या जमाव रूक गया। इस जोहड़ के निर्माण से 200 क्विंटल अतिरिक्त अनाज पैदा होने लगा और पशुओं के लिए चारा मिलने लगा। एक जोहड़ के बनने से लगभग 100 व्यक्तियों को अपनी ही उसी जमीन पर 90 दिन का अतिरिक्त रोजगार मिल गया।
भूरियावास गांव में जोहड़ बनाने का अनुभव : ग्राम भूरियावास अलवर जिले के थानागाजी तहसील के दक्षिण में स्थित है। यह गांव अरावली पर्वत शृंखलाओं से घिरा हुआ लम्बाई में 5 किलोमीटर और चौड़ाई में 2 किलोमीटर है। और गुर्जर, मीणा, बलाई बाहुल्य है। बनिया, राजपूत, ब्राह्मण, कुम्हार, रैगर एवं कीर अन्य सभी जातियों को निवास देने वाला यह गांव कुछ अर्थों में एक आदर्श गांव है।
‘‘पेड़ बचाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’’ का नारा इसी ग्रामसभा ने बुलन्द किया था तथा पदयात्रा इसी गांव से एक अगस्त, 1989 को आरम्भ हुई थी। इस ग्रामसभा ने जंगल में अपराध करने वालों से आर्थिक दण्ड भी वसूल किया है। इस प्रकार वसूल की गई धनराशि को भी जोहड़ निर्माण एवं वृक्षारोपण जैसे कार्यों में लगाया गया है।
भूरियावास गांव के आरम्भ में भांवता वाला जोहड़ सुन्दरा गुर्जर के प्रयास से बनाया गया है। वह व्यक्ति इस गांव का सज्जन-सरल व्यक्ति था, इसने देव का देवरा तथा हमीरपुर साईड में बने जोहड़ों को देखकर अपने गांव में जोहड़ बनाने का काम चालू करने का विचार किया था तभी वह तरुण भारत संघ के आश्रम में आया था। स्कूल के पास पूरे परिवार को तथा गांव को लगाकर अपना जोहड़ बना लिया था। स्कूल के पास इस जोहड़ के बाद दो छोटे जोहड़ कोल्याला, भूरियावास स्कूल के पास में बने जिसमें पूरे ग्राम ने श्रमदान किया था।
इस गांव में सार्वजनिक सम्पदा संरक्षण के भाव प्रबल थे, इसलिए इन्होंने जोहड़ बनाने के साथ-साथ अपने जंगल बचाने के बहुत अधिक प्रयास किए।
गुर्जरों की लोसल के जोहड़ बनाने का अनुभव : यह गांव 70 परिवारों की बस्ती है। इसमें पशुपालन व खेती का काम करने वाले गुर्जर जाति के लोग रहते हैं। यहां पर खेती का औसत एक एकड़ प्रति परिवार होगा। इस गांव में कुल 22 कुएं हैं, लेकिन ये गत वर्ष सूखे पड़े थे। पीने के पानी का भी संकट था। अंत में ग्रामवासियों ने निर्णय लिया और बिना किसी से बातचीत किए गांव के ऊपर उत्तर (पहाड़) दिशा में बड़ा जोहड़ बनाने की ठान ली।
जोहड़ पूरा होने के चार दिन बाद वर्षा बहुत जोरों से हुई। जोहड़ आधा भर गया। वर्षों के बाद आज भी वह अपनी शान से खड़ा है। इसके नीचे कुओं में जल बना रहता है जिससे मक्का की बहुत अच्छी फसल होती है।
गांव के प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति ने 125 दिन गांव के लिए निःशुल्क श्रमदान किया। ये सब लोग ग्रामसभा के काम के लिए धन देने हेतु सदैव तैयार रहते हैं। यहां भी ‘ग्रामकोष’ है। 50 रुपये प्रत्येक परिवार से ग्रामकोष के लिए अलग से इकट्ठे हुए हैं। इस गांव में जोहड़ बनाने के लिए तरुण भारत संघ ने 25,000 रुपये दिये थे। इस रकम को गांववालों ने बराबर-बराबर परिवार के हिसाब से बांट लिया था। इन्हें जो रकम मिली उसे इन्होंने मजदूरी नहीं सहायता के रूप में देखा। इनका जोहड़ इनकी स्वप्रेरणा एवं स्वश्रम से बना है।
जोहड़ों का उपयोग
जोहड़ धीरे-धीरे लेकिन असरदार होते हैं। इनका हमारे जीवन से बहुत गहरा संबंध है। इन्हीं से हमारी पेयजल पूर्ति होती थी तथा 1950 में भारत में कुल सिंचित क्षेत्र की 17 प्रतिशत सिंचाई भी जोहड़ से की जाती थी। 1950 से पहले तो हमारे जोहड़ ही सिंचाई के प्रभावी साधन थे। सुदूर भूतकाल में तो 80 प्रतिशत से भी अधिक सिंचाई इन्हीं जोहड़ों से ही होती थी। ये जोहड़ भारत के हर कोने में पाए जाते रहे हैं। सबसे अधिक समुद्रतटीय जिलों में तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार एवं राजस्थान में। इनसे होने वाली सिंचाई का क्षेत्रफल 1860 तक निरन्तर बढ़ता रहा था। इस स्वावलम्बी सिंचाई योजना को अंग्रेजों ने जानबूझकर खत्म करने का जो षडयन्त्र रचा था उसे स्वतंत्र भारत के योजनाकारों ने बरकरार रखा था।
निष्कर्ष
जोहड़ जो कि अकाल एवं बाढ़ से बचाता है, अलवर जैसे सूखे जिले में भूमि की पुनः सिंचाई करके कुएं आदि से पेयजल उपलब्ध कराता है। भूमि कटाव रोककर ‘पर्यावरण’ को बनाए रखता है। पशुओं के लिए पेयजल की सर्वोत्तम व्यवस्था ‘जोहड़’ ही है। ये गांव में होने वाले मरण, विवाह आदि के संस्कारों के कारण भी सम्मान का प्रतीक हैं। साथ ही साथ जोहड़ों के पुनर्निर्माण एवं वर्षा जल का संरक्षण हो जाने के कारण लोगों का पलायन रूका एवं लोग खेतीबाड़ी करने लगे।
लोगों ने पशुओं को पालना फिर से प्रारम्भ कर दिया जिससे वे लोग दूध का व्यवसाय एवं साथ-साथ दूध से सम्बन्धित अन्य व्यवसाय भी करने लगे।
महिलाएं जो पेयजल के लिए दूर-दूर तक जाती थीं, अब गांव में ही मिल जाने के कारण उनकी भी समस्याएं समाप्त हो गई। जोहड़ों को पुनर्जीवित करने से जल संकट के समाधान के साथ-साथ बहुत सारी हमारी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को भी हल किया गया।
(लेखक वाराणसी के काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में डॉक्टोरल फेलो हैं। ई-मेल : dpssocio@gmail.com )
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Post By: pankajbagwan