विकसित देश अपने यहां कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के बजाए ऐसी तकनीक पर निवेश करना चाहते हैं, जिससे आकाश और समुद्र वातावरण में व्याप्त प्रदूषण को सोख लें। लेकिन प्रकृति की नैसर्गिकता से छेड़-छाड़ से अरबों व्यक्तियों का जीवन खतरे में पड़ सकता है। क्या हम मानव निर्मित प्रलय को स्वयं ही बुलावा नहीं दे रहे हैं? खतरनाक समस्या के आत्मघाती समाधान को व्याख्यायित करता महत्वपूर्ण आलेख।
विशेषज्ञों और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने हाल ही में बान में सम्पन्न हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में चेतावनी दी है कि अब ये वार्ताएं खतरनाक रास्तों पर चल पड़ी हैं। वरिष्ठ वैज्ञानिक सिवान कार्था का कहना है कि कार्बन उत्सर्जन को कम करने में विकासशील देश, धनी देशों की बनिस्बत अधिक प्रयत्नशील हैं। इस दौरान सभी महाद्वीपों से आए 125 संगठनों ने सरकारों से आग्रह किया है कि वे भू-अभियांत्रिकी (जीओ इंजीनियरिंग) पर अंतर्राष्ट्रीय रोक संबंधी अपने वर्तमान वायदे को पुनः स्वीकारें।स्विटजरलैंड के जेनेवा स्थित अंतर्सरकार विचार केन्द्र, साउथ सेंटर के कार्यकारी निदेशक मार्टिन खोर ने मीडिया से कहा कि ‘दिसम्बर 2007 में हमारी सहमति बनी थी कि हम जलवायु परिवर्तन के वर्तमान विनाशकारी प्रभावों से निपटने के मद्देनजर एक बेहतर व्यवस्था का निर्माण करेंगे। परंतु किसी नई व्यवस्था के गठन के बजाए हम एक ऐसी अविश्वसनीय पहल देख रहें हैं जिसके माध्यम से वर्तमान में मौजूद कमजोर व्यवस्था तक को समाप्त करने का प्रयत्न किया जा रहा है।’ बान में इसी प्रेस वार्ता में स्टॉकहोम इन्वायरमेंट इंस्टीट्यूट के कार्था ने रहस्योद्घाटन किया कि विकासशील देश अपने यहां जलवायु प्रदूषण को घटाने के प्रयत्न विकसित देशों से अधिक कर रहे हैं।
खोर का कहना है सन् 2020 तक विकसित देशों द्वारा व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से उत्सर्जन को कम करने हेतु वैधानिक रूप से बाध्यकारी प्रणाली विकसित करने के बजाए अब वे ‘स्वैच्छिक प्रतिज्ञा’ को अपनाने की सोच रहे हैं। ऐसे में प्रत्येक देश द्वारा उत्सर्जन की मात्रा तय नहीं की जा सकेगी और किसी औपचारिक पद्धति के विकसित होने की संभावना भी समाप्त हो जाएगी। इससे विकासशील देश हतोत्साहित ही होंगे क्योंकि वे देखेंगे कि जिन धनी देशों पर इस प्रक्रिया में तेजी लाने की जवाबदारी है वे ही इससे पीछे हट रहे हैं। कार्था का कहना है इसके बावजूद अनेक अध्ययन बता रहे हैं कि वर्तमान विपरीत घटनाक्रम के बावजूद विकासशील देशों ने विकसित देशों के बनिस्बत अधिक मात्रा में उत्सर्जन में कमी की है। इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि यदि इस चूक का फायदा विकसित देश उठाते रहे तो विकसित देशों द्वारा किए जाने वाले उत्सर्जन की मात्रा में वास्तव में सन् 2020 तक वृद्धि हो जाएगी और यह उसके बाद भी जारी रहेगी।
वैज्ञानिकों का कहना है कि ‘यह सोच ही त्रुटिपूर्ण है कि हमें मूलतः उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बढ़ते प्रदूषण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। वैसे भी इन अर्थव्यवस्थाओं ने तो उत्सर्जन कमी की योजनाओं पर गंभीरता से कार्य करना प्रारंभ कर दिया है। वास्तविकता यह है कि विकसित देशों द्वारा अपने यहां उत्सर्जन में कमी की गंभीर आवश्यकता है। इसी के साथ उन्हें विकासशील देशों का उत्सर्जन कम करने वाली तकनीक उपलब्ध करवाने एवं इस हेतु आर्थिक सहयोग देने के अपने वायदे को भी पूरा करना चाहिए। इसी के आधार पर हम तापमान वृद्धि की सीमा 1.5 सेंटीग्रेड से 2 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच रख पाएंगे।
भू-अभियांत्रिकी कार्यक्रम को वापस लें -
इस बीच 40 देशों का प्रतिनिधित्व करने वाले 120 अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय संगठनों ने जलवायु परिवर्तन पर अंतर्सरकार पैनल को एक खुला पत्र लिख कर मांग की है कि वह भू-अभियांत्रिकी पर वर्तमान में लागू अंतर्राष्ट्रीय रोक संबंधी अपने वायदे पर कायम रहें। भू-अभियांत्रिकी या जीओ इंजीनियरिंग जलवायु में परिवर्तन हेतु जानबूझ कर पृथ्वी की प्रणालियों में हेरफेर करना है जिसमें समताप मंडल में कणों का विस्फोट कर नकली ज्वालामुखी निर्मित करना (सूर्य की रोशनी में अवरोध हेतु) साथ ही समुद्रों को ‘उत्पादक’ बनाकर कार्बन पृथक्करण हेतु प्लवक उपजाने जैसी अत्यधिक जोखिम भरी तकनीकें शामिल हैं। प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि पहले विज्ञान के फंतासी उपन्यासों में भू-अभियांत्रिकी का उल्लेख जलवायु संकट से निपटने के तरीके के रूप में किया जा रहा था।
अक्टूबर 2010 में जीवविज्ञान विविधता पर हुए संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन ने भू-अभियांत्रिकी पर रोक लगा दी थी। इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन संबंधी ढांचागत सम्मेलन की कार्यकारी सचिव क्रिस्टीथ फिगर्स द्वारा अभियांत्रिकी तकनीकों की ओर इशारा करते हुए गत जून में ‘गार्डियन’ में लिखा था ‘हम ऐसे मोड़ पर पहुंच गए हैं जहां पर वातावरण से उत्सर्जन को बाहर करने (सोखने) के लिए नई शक्तिशाली तकनीकों को विकसित करना पड़ेगा।’ थर्ड वल्र्ड नेटवर्क की मीनाक्षी रमन जिन्होंने जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर्राष्ट्रीय पेनल को लिखे गए पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं, का तर्क है ‘फिगर्स का यह सुझाव पूरी तरह से दिशाहीन है कि हमें वातावरण में कार्बन उत्सर्जन कम करने के बजाए उसे सोखना चाहिए। जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर्राष्ट्रीय पेनल के लिए भी यह मानना उतना ही भटकाव भरा है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के विकल्पों में भू-अभियांत्रिकी का भी कोई स्थान है।’
रमन का कहना है ‘यह एक वैज्ञानिक नहीं बल्कि राजनीतिक प्रश्न है।’ अमेरिका और ब्रिटेन की सरकारें भू-अभियांत्रिकी के मसले पर विशेष तौर पर खुला रुख अपना रही हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है। ईटीसी समूह की सिल्विया टिबेरो कहती हैं ‘उत्तरी (धनी) सरकारों के लिए उत्सर्जन घटाने संबंधी अपने वायदों को घता बताने का यह एक सुविधापूर्ण रास्ता है। परंतु जलवायु एक जटिल प्रणाली है। इसमें एक स्थान पर छेड़छाड़ से ऐसे देशों और व्यक्तियों पर गंभीर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक प्रभाव पड़ सकते हैं जिनकी इस मामले में कोई आवाज नहीं है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ब्रह्मांड (समताप मंडल) में कणों के विस्फोट से मानसून और हवाओं का रुख बदल सकता है जिससे दो अरब व्यक्तियों के भोजन और पानी के स्त्रोत संकट में पड़ जाएंगे।’
ब्यूनसआर्यस में ज्वालामुखी की राख से हवाई अड्डे पर अटके सेस्टा एण्ड फ्रेंड्स ऑफ द अर्थ इंटरनेशनल के रिकॉर्डों नर्वारो का कहना है, ‘पूरी दुनिया ने देखा है कि किस तरह चिली के ज्वालामुखी से निकली राख ने इस सप्ताह ऑस्ट्रेलिया के हवाई उद्योग को संकट में डाल दिया है। इसके बावजूद यदि पेनल यही सब करने पर विचार करती है तो इसे एक बेतुका प्रयास ही कहा जाएगा।’
विश्व के छोटे किसानों के सबसे बड़े नेटवर्क ला वाया कंपेसिया इस बात से चिंतित है कि जलवायु से छेड़छाड़ से खेती पर सबसे अधिक प्रभाव दक्षिण (गरीब देशों) के किसानों पर पड़ेगा और समुद्र से छेड़छाड़ के परिणामस्वरूप हजारों छोटे मछुआरों की जीविका ही नष्ट हो जाएगी। समूह का कहना है ‘भू-अभियांत्रिकी जलवायु परिवर्तन का झूठा हल है। अतएव यह प्रकृति और विश्व के लोगों, दोनों के लिए खतरनाक है। इस पर प्रतिबंध लगाना ही चाहिए।’
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