जल संचयन एवं सिंचाई प्रबन्धन में संरक्षित खेती का योगदान


वर्तमान भारतीय परिस्थिति में संरक्षित खेती ही एक ऐसी नूतन तकनीक-युक्त खेती है जो किसानों के व्यवसाय एवं आय को बढ़ावा देने के साथ-साथ जल संरक्षण एवं सिंचाई क्षमता, दोनों को बढ़ावा देकर हमारे देश के किसानों हेतु टिकाऊ एवं समृद्ध कृषि के सपने को साकार बना सकती है। जल उपयोगिता की दृष्टि से सतही सिंचाई से 30-40 प्रतिशत, स्प्रिंकलर द्वारा 40-50 प्रतिशत एवं ड्रिप सिंचाई द्वारा जल की उपयोगिता 80-90 प्रतिशत बढ़ाई जा सकती है और यह संरक्षित खेती में प्रयोग होने वाले मुख्य अंग है एवं इसके ऊपर अधिक शोध अथवा व्यय की आवश्यकता भी नहीं है।

जल संचयन एवं प्रबंधनदेश के 3290 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में लगभग 63 प्रतिशत अभी भी वर्षा-सिंचित है। जल सम्बन्धित इन विषम परिस्थितियों में आयवर्धक टिकाऊ एवं संवृद्ध खेती तभी सम्भव होगी जबकि हम संरक्षित कृषि तकनीक को बढ़ावा दें।

संरक्षित खेती क्या है और यह कैसे हमारे किसानों को लाभ पहुँचा सकती है। और यह कैसे जल संरक्षण एवं सिंचाई क्षमता एवं दक्षता दोनों को बढ़ावा देती है और खेती को टिकाऊ एवं संवृद्ध बनाती है इसका वर्णन आगे किया जा रहा है। संरक्षित खेती एक ऐसी नवीनतम तकनीक है जिसके अन्तर्गत विविध प्रकार की संरचनाएँ एवं ढकने वाली सामग्रियाँ (कवरिंग मैटीरियल्स) होती हैं जिसके अन्तर्गत खेती करने पर फसलों को न्यायपूर्ण, उचित एवं कम-से-कम पानी एवं सिंचाई का उपयोग होता है। प्राकृतिक प्रकोपों एवं जैविक प्रकोपों दोनों से संरक्षण प्राप्त होता है। इसलिये इसे हम वैज्ञानिक बोलचाल की भाषा में ‘संरक्षित खेती’ कहते हैं चूँकि यह फसलों एवं जल दोनों को संरक्षित करती है।

संरक्षित खेती के अन्तर्गत आने वाली विविध प्रकार की संरचनाएँ जैसे ग्लासहाउस, पॉलीहाउस, नेटहाउस, प्लास्टिक मल्चिंग, लो-टनल आदि आती हैं। इन संरचनाओं का नाम उनके बनाने वाले या कवर करने वाले प्लास्टिक मैटीरियल के नाम पर रखा गया है, इन सभी संरचनाओं का अलग-अलग कार्य सिद्धान्त है जोकि अपने-अपने कवरिंग मैटीरियल के अनुसार कार्य करता है जिसका क्रमशः वर्णन आगे किया जा रहा है।

संरक्षित संरचनाओं में यदि पॉलीहाउस की बात करें तो पॉलीहाउस 200 माइक्रॉन वाली पारदर्शी पॉलीथीन द्वारा बनाया जाता है जिसकी पारदर्शिता प्रथम वर्ष में लगभग 90 प्रतिशत तक होती है। फिर धीरे-धीरे घटकर 70-80 प्रतिशत हो जाती है। इसका प्रभाव यह पड़ता है कि पॉलीहाउस के अन्दर जो सूर्य प्रकाश जाता है वह पराबैंगनी किरणों के बगैर छनकर जाता है जिसके कारण फसलों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। परन्तु प्रकाश की यह घटी मात्रा वाष्पीकरण, प्रकाश संश्लेषण एवं श्वसन (रेस्पिरेशन) क्रिया द्वारा होने वाला पानी एवं नमी का ह्रास बाहर की अपेक्षा लगभग 20-25 प्रतिशत कम होता है। दूसरे, पॉलीहाउस संरचनाएँ चारों तरफ से बन्द होने के कारण तेज हवाओं का आदान-प्रदान व प्रभाव अन्दर बिल्कुल नहीं पड़ता है। जिससे भूमि की नमी का ह्रास भी 15-20 प्रतिशत कम होता है। तीसरे, पॉलीहाउस के अन्दर होने वाली खेती के अन्तर्गत टपक सिंचाई एवं फागर सिस्टम दोनों अवश्य लगे होते हैं जिसमें टपक सिंचाई के माध्यम से दोनों में औसतन 50-60 प्रतिशत पानी की बचत हो सकती है जबकि खुले खेतों में बहाव सिंचाई के कारण जल का अत्यधिक अपव्यय होता है। इसलिये पॉलीहाउस में भूमि-नमी संरक्षण एवं सिंचाई के तरीकों में सुधार करके सिंचाई की संख्या में कमी लाई जा सकती है। इस प्रकार पानी की बचत करते हुए कम पानी से पूरे फसल जीवनकाल में सिंचाई करते हुए, जल-संचयन को बढ़ावा देते हुए, पानी गुणवत्ता एवं दक्षता दोनों को बढ़ाया जा सकता है।

 

 

 

 

 

भारत में जल संसाधनों की माँग व उपयोग

उपयोग

वर्ष 2010

वर्ष 2025

वर्ष 2050

जल माँग (बी.सी.एम.)

कुल माँग का प्रतिशत

प्रक्षेपित माँग (बी.सी.एम.)

कुल माँग का प्रतिशत

प्रक्षेपित माँग (बी.सी.एम.)

कुल माँग का प्रतिशत

सिंचाई

557

78

611

72

807

69

घरेलू

43

6

62

7

111

9

औद्योगिक

37

5

67

8

81

7

वातावरण

5

1

10

1

20

2

अन्य

68

10

93

12

161

13

कुल योग

710

100

843

100

1180

100

 

यदि नेटहाउस की बात करें तो हमारे देश में दो रंगों एवं विविध क्षमता वाली छायादार जालियाँ बाजारों में उपलब्ध हैं। इन छायादार जालियों की यह भूमिका होती है कि इनका प्रयोग गर्मियों में, तेज धूप एवं ‘लू’ आदि से बचाने हेतु किया जाता है। उसके साथ-साथ जो फसल छाया में उगने वाली होती है, उनको लगाया जाता है। इस जाली की विशेषता यह होती है कि इसमें सूर्य की रोशनी को वापस करने या रोकने की क्षमता होती है। जैसे 30, 50 या 75 प्रतिशत क्षमता वाली जाली हर बाजार में उपलब्ध है। इस जाल में इस प्रकार की गुणवत्ता होती है कि इसमें जितने प्रतिशत क्षमता वाली जाली होती है उतने प्रतिशत सूर्य की रोशनी को अन्दर नहीं आने देती और पराबैंगनी किरणों को भी रोकती है जिसके कारण शीतलन और छाया का प्रभाव अन्दर लगी फसलों में बना रहता है और भूमि की नमी लम्बे समय तक संरक्षित रहती है जिससे जल-संरक्षण में बढ़ोत्तरी एवं सिंचाई की संख्या में कमी होती है। साथ-साथ इस संरचना में टपक सिंचाई या फागर सिस्टम लगा हो तो छायादार जालीघर के अन्दर लगभग 50-60 प्रतिशत पानी की और अतिरिक्त बचत होती है। जबकि खुले खेतों में खेती करने पर अत्यधिक पानी का ह्रास होता है और बार-बार सिंचाई करनी पड़ती है जिससे श्रमिकों पर खर्च भी बढ़ जाता है।

संरक्षित खेती के अन्तर्गत आने वाली लो-टनल, हाईटनल, संरचना द्वारा भी उपरोक्त संरचनाओं की तरह सिंचाई संख्या में कमी, भूमि-नमी को लम्बे समय तक बनाए रखना तथा इसके अन्दर लगी टपक सिंचाई द्वारा भी 50-60 प्रतिशत से ज्यादा पानी की बचत हो जाती है। लो-टनल का मुख्य उपयोग फसलों को अगेती खेती द्वारा किसानों को अधिक लाभ मिलना है। साथ ही कम सिंचाई एवं लागत में लगाई जा सकती है। टपक सिंचाई के साथ इसमें पानी व भूमि नमी की 60-70 प्रतिशत बचत की जा सकती है। किसान इसको कम लागत व समय में जी.आई. तार व बाँस की खपंचियों के सहयोग से सहज ही लगा सकते हैं। इसमें 20.30 माइक्रान वाली पारदर्शी पॉलीथीन का उपयोग किया जाता है।

संरक्षित खेती के अन्तर्गत आने वाली प्लास्टिक पलवार (मल्चिंग का उपयोग जब फसलों को उगाने हेतु किया जाता है तो इस तकनीक के द्वारा भी लगभग 30-40 प्रतिशत पानी की बचत स्वतः होती है। क्योंकि प्लास्टिक मल्च भूमि की सतह पर जब बिछा दी जाती है और वर्षा का पानी या टपक सिंचाई का पानी इसके अन्दर एक बार चला जाता है तो भूमि के अन्दर बनी नमी लम्बे समय तक बनी रहती है जिससे पौधे अपना भोजन भूमि की नमी की उपस्थिति में लगातार बनाते रहते हैं। इसके साथ-साथ प्लास्टिक मल्च लगाने के बाद खेतों एवं क्यारियों में खरपतवार नहीं उगते हैं जिसके कारण फसलों एवं खरपतवारों दोनों के बीच जो पानी, नमी एवं पोषक तत्वों के प्रति जो प्रतिस्पर्धा होती है, वह बहुत ही कम हो जाती है। प्लास्टिक मल्च सामान्यतः काले रंगों वाली होती है और प्रायः 30-50 माइक्रॉन मोटाई वाली पॉलीथीन को खेती हेतु उपयोग में लाया जाता है। काले रंगों के कारण भूमि की सतह पर सूर्य की किरणें नहीं पहुँच पाती हैं जिसके कारण भूमि सतह से वाष्पीकरण क्रिया नहीं हो पाती है जिससे भूमि की नमी लम्बे समय तक बनी रहती है और सिंचाई के पानी की बचत एवं संरक्षण दोनों होते हैं। मल्चिंग के कारण भूमि सतह पर हवाओं का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता जिसके कारण भी भूमि की नमी लम्बे समय तक बनी रहती है। अन्यथा परम्परागत खेती में भूमि सतह के खुले रहने पर प्रत्यक्ष रूप से सूर्य का प्रकाश एवं हवाएँ दोनों मिलकर संग्रहित सिंचाईयुक्त पानी को एवं सिंचाई के बाद भूमि की नमी दोनों को वाष्पीकरण क्रिया के कारण हानि पहुँचाती रहती हैं जिससे पानी की व नमी की पर्याप्त बचत नहीं होती है।

सामान्यतः मल्चिंग तकनीक के साथ टपक सिंचाई का उपयोग अवश्य करते हैं और यह टपक सिंचाई मल्चिंग के साथ मिलकर अर्थात दोनों के संयोग (कॉम्बीनेशन) के कारण लगभग 60-70 प्रतिशत सिंचाई योग्य पानी की बचत की जा सकती है जोकि हमारी टिकाऊ खेती के लिये मील का पत्थर साबित हो रही है इस तकनीक के सहयोग से देश के सिंचित क्षेत्रफल को लगभग 10-15 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है जिससे हमारी खेती को टिकाऊ, आयवर्धक (डबल इनकम) व्यावसायिक एवं समृद्ध बनाने के साथ-साथ ‘पर ड्रॉप मोर क्रॉप’ का जो नारा प्रधानमंत्री सिंचाई योजना के अन्तर्गत दिया गया है, उस सपने को साकार बनाने में संरक्षित खेती एक अहम भूमिका निभा सकती है। और आज लगभग पूरे देश में 50-60 हजार हेक्टेयर संरक्षित खेती एवं वॉटर हार्वेस्टिंग को किसानों द्वारा अपनाकर डबल इनकम के सपने को साकार किया जा रहा है। संरक्षित खेती का आकलन करें तो सामान्य खेती की तुलना में फसलों का उत्पादन, उत्पादकता एवं गुणवत्ता तीनों में 3-4 गुना अधिक बढ़ोत्तरी होती है।

संरक्षित खेती में मूल्यवान फसलें जैसे कि लता-स्वभावी टमाटर, चेरी टमाटर, अंग्रेजी खीरा, करेला, खरबूजा, ककड़ी, चप्पन कद्दू व शिमला मिर्च के अतिरिक्त फूलों व फलों की खेती मुख्य रूप से गुलाब, जर्बेरा, स्ट्राबेरी व पपीते इत्यादि की खेती की जाती है। संरक्षित खेती में स्वस्थ नर्सरी उत्पादन की बहुत अधिक महत्ता हैं एवं जिसका प्रयोग छोटे आय-वर्गीय किसान की लघुउद्यमी खेती एक वरदान साबित हो सकती है। संरक्षित खेती के अन्तर्गत जैविक व अजैविक कारकों से होने वाली हानि से संरक्षण व मुख्य वातावरणीय माहौल का फसल के मुताबिक एवं माँग के अनुसार उत्परिवर्तन के चलते उच्च उत्पादन मिलता है। इसके अतिरिक्त जल, घुलनशील पोषक तत्वों व अन्य स्रोतों का न्यायोचित प्रयोग ही इस तकनीक को खेती के सम्बन्ध में परिशुद्ध, टिकाऊ व किसानों के लिये लाभकारी बनाता है।

ड्रिप सिंचाईसंरक्षित खेती तकनीक के साथ टपक सिंचाई तकनीक एवं फागर तकनीक का एक संयोग (कॉम्बीनेशन) होता है। जिसके चलते जल-संचयन को बढ़ावा देते हुए 100 प्रतिशत पानी की जगह 30-40 प्रतिशत पानी से ही लम्बे समय तक टिकाऊ एवं संवृद्ध खेती को संरक्षित खेती के माध्यम से बढ़ावा दिया जा सकता है। इस समय देश में लगभग 6.95 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र सूक्ष्म सिंचाई पद्धति के अन्तर्गत आच्छादित है जिसमें कि 2.7 करोड़ हेक्टेयर से अधिक टपक सिंचाई पद्धति के अन्तर्गत आता है।

भारत में अभी भी 63 प्रतिशत खेती वर्षा पर आधारित होती है। तो ऐसे क्षेत्रों में टिकाऊ एवं संवृद्ध खेती करना तथा किसानों की आय को बढ़ावा देना तथा संरक्षित खेती को बढ़ावा देना सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर है- इसलिये ऐसे क्षेत्रों में पॉलीथीन लाइनिंग, वॉटर हार्वेस्टिंग टैंकों को बनाकर वर्षा के पानी को इन टैंकों में भंडारित करके जल संचय किया जाए और इस पानी की उपयोग क्षमता को और अधिक बढ़ाने हेतु टपक सिंचाई एवं फव्वारा सिंचाई का उपयोग करें तो हम असिंचित क्षेत्रों को भी, सिंचित क्षेत्र में परिवर्तित करके किसानों की आय को दोगुना कर सकते हैं। पॉलीथीन लाइनिंग वाला जल-संचयन टैंक बनाने में औसतन कुल खर्च 125-150 रुपये प्रतिवर्ग मीटर आता है। अर्थात यदि आप 50000 घन लीटर पानी संचयन करने वाली क्षमता का टैंक बनाना चाहते हैं तो उसकी कुल लागत 6250-7500 रुपये तक आ सकती है जोकि किसानों के लिये बहुत सस्ती एवं टिकाऊ है। इन्हें सीमेंट से बनाने पर ये बहुत महँगे पड़ते हैं और यह टैंक लगभग 2-3 वर्षों के अन्दर ही वायुमण्डलीय दबाव व भूकम्प के कारण टूट या फटकर खराब हो जाते हैं जिस कारण किसानों का बहुत ही नुकसान हो जाता है।

सिंचाई एवं जल संरक्षण थीम के अन्तर्गत जब हम पानी की बचत व उचित सिंचाई प्रबन्धन की बात करें तो, जिससे हमारी खेती को टिकाऊ, आयवर्धक व्यावसायिक एवं समृद्ध बनाने के साथ-साथ ‘पर ड्रॉप मोर क्रॉप’ का जो नारा प्रधानमंत्री सिंचाई योजना के अन्तर्गत दिया गया है, उस सपने को साकार बनाने में संरक्षित खेती एक अहम भूमिका निभा सकती है। और आज लगभग पूरे देश में 50-60 हजार हेक्टेयर संरक्षित खेती एवं वॉटर हार्वेस्टिंग को किसानों द्वारा अपनाने में उनकी आय में खासी बढ़ोत्तरी हो रही है।

भारतीय जलवायु में संरक्षित खेती की अपार सम्भावनाएँ हैं जोकि हमारे देश के किसानों को विश्व के देशों में व्यवसाय का अवसर प्रदान करके उनके सम्मान को बढ़ा सकती हैं। अतः संरक्षित खेती तकनीक पर केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा मिलकर 50-80 प्रतिशत तक का अनुदान भी दिया जाता है जिससे किसानों को बहुत राहत मिलेगी। इस प्रकार हमारे विचार से संरक्षित खेती अपनाने से जल-संचयन एवं आय दोनों को बढ़ावा मिलेगा।
 

लेखक परिचय


डॉ. अवनि कुमार सिंह, डॉ. नवेद साबिर
लेखक द्वय भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, पूसा रोड, नई दिल्ली में संरक्षित कृषि प्रौद्योगिकी केन्द्र में प्रधान वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत हैं।
ई-मेल : singhawani5@gmail.com
 

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