जल-निकासी

1998-99 के आस-पास नमूने के तौर पर राज्य के जल-संसाधन विभाग ने जल-निकासी की कुछ योजनाओं पर काम करना चाहा मगर जब इंजीनियर इन कार्यस्थलों पर पहुँचे तो उन्हें पता लगा कि इलाके की टोपोग्राफी पूरी तरह बदल गयी है और उनके द्वारा बनायी गयी योजनाओं का उसी रूप में क्रियान्वयन हो ही नहीं सकता। तब बुद्धू लौट कर घर आ गए। अब काम तो होगा बाद में, पहले सर्वेक्षण और डिजाइन नये सिरे से तैयार करनी पड़ेंगी। इस दिशा में फिलहाल कोई प्रगति नहीं हो रही है।

किसी भी समस्या से निपटने के दो तरीके हो सकते हैं। एक यह कि बल प्रयोग करके दूसरे पक्ष को शांत कर दिया जाए अथवा दूसरे पक्ष के सारे हमलों को निरस्त कर दिया जाए कि उसका हौसला ही समाप्त हो जाय। हमारी व्यवस्था ने नदियों को दुश्मन की तरह देखा है और वह उससे बल प्रयोग कर के निपटना चाहती है। यह बल प्रयोग नदियों के किनारे तटबंध या रिंग बांध बनाकर किया गया है मगर नदियों का पलड़ा इस मुकाबले में हमेशा भारी रहा है। तालिका-13.1 में पिछले 23 वर्षों में तटबंध टूटने की 370 घटनाएं इसकी पुष्टि करती हैं। नदियों की बाढ़ से निपटने का दूसरा तरीका जल-निकासी का है। बाढ़ का पानी पूरे इलाके पर फैलने के बाद अगर जल्दी से निकल जाए तो अल्पकालिक असुविधा के बाद कोई दिक्कत बाकी नहीं होती। जमीन की उर्वरा शक्ति भी बची रहेगी। सीतामढ़ी जिले में इस व्यवस्था का उदाहरण देते हुए कोड़लहिया के चन्द्र भूषण कुमार बताते हैं, ‘‘...मुजफ्फरपुर से सीतामढ़ी के बीच में आपको अभी भी बहुत से पुराने लोहे वाले पुल देखने को मिलेंगे। उन पुलों की लम्बाई बहुत ज्यादा नहीं होती थीं मगर उनके ठीक बगल में एक लम्बा लचका हुआ करता था। समान्य स्थिति में नदी का पानी पुल से होकर गुजर जाता था मगर ज्यादा पानी होने पर लचका काम आता था और उसके ऊपर से होकर बाढ़ का पानी निकल जाता था। इससे पुल की भी रक्षा होती थी, पानी और गाद ज्यादा बड़े इलाके पर फैलती थी और रास्ता उतने ही समय के लिए बंद होता था जब तक लचके के ऊपर से पानी बहता था। अब सड़कें ऊँची कर दी गयीं हैं और लचके गायब हैं। अब रास्ता तो चालू रहता है मगर पानी रुक जाने से बाढ़ ज्यादा दिन टिकती हैं। वैसे बाढ़ का पानी इन ऊँची सड़कों को भी बख्शता नहीं है। उनके ऊपर से भी होकर बहता है मगर हमें डुबा कर बहता है।’’

दुर्भाग्यवश बाढ़ के पानी से निपटने के अब तक जो भी प्रयास हुए हैं उन्होंने जल-जमाव को स्थाई बनाया है। 2007 की बाढ़ जल-निकासी में अवरोध का बहुत कठोर उदाहरण है जिसके बारे में हमने अध्याय-3 में चर्चा की है। जल-निकासी की बात किसान तो करते हैं मगर जल-संसाधन विभाग इसे कभी गंभीरता से नहीं लेता। कोसी पर 1950 के दशक में जब तटबंध बने थे उसी समय दरभंगा जिले के घनश्यामपुर, बिरौल और कुशेश्वर स्थान प्रखंडों में जल-जमाव की समस्या उग्र रूप से सामने आयी। उससे निपटने के लिए बिहार सरकार की तरफ से केदार पाण्डेय ने विधान सभा में आश्वासन भी दिया था (1959)। उनका कहना था, ‘‘...कमला और कोसी नदियों के जल का अच्छी तरह से निष्कासन करने के विषय पर भारत सरकार ने एक समिति की स्थापना का प्रस्ताव रखा है जिसमें कुछ समय लग जायेगा। अतः इस साल के कार्यकाल में उक्त काम के आरंभ होने की कोई आशा नहीं है। ...इस कमिटि का फंक्शन केवल स्कीम को एक्ज़ामिन करना ही नहीं है, बल्कि कमला और वेस्ट कोसी बेसिन में इन्टिग्रेटेड वे में फ्लड कन्ट्रोल मेजर्स (समेकित रूप से बाढ़ नियंत्रण की प्रक्रिया-ले.) पर भी विचार करना है और उसके बाद में फैसला देना है।’’ यह फैसला आज तक (जून 2010) नहीं दिया गया। 1988 में एक विशेष टास्क-फोर्स द्वारा जल-निकासी की कुछ योजनाएं तैयार की गईं मगर उनके क्रियान्वयन के लिए कभी पैसा ही नहीं हुआ। उसके बाद से जल-संसाधन विभाग शायद हर तीन-चार साल पर इन योजनाओं के एस्टीमेट को फिर से सुधारता रहता है और यह फाइलें केन्द्रीय जल आयोग, योजना आयोग, वित्त मंत्रालय और गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग में कहीं ठोकरें खाती रहती हैं। इधर कई वर्षों से इस सारे मसले पर एकदम चुप्पी है यद्यपि आश्वासनों की खैरात बांटने में कभी कमी नहीं होती।

1998-99 के आस-पास नमूने के तौर पर राज्य के जल-संसाधन विभाग ने जल-निकासी की कुछ योजनाओं पर काम करना चाहा मगर जब इंजीनियर इन कार्यस्थलों पर पहुँचे तो उन्हें पता लगा कि इलाके की टोपोग्राफी पूरी तरह बदल गयी है और उनके द्वारा बनायी गयी योजनाओं का उसी रूप में क्रियान्वयन हो ही नहीं सकता। तब बुद्धू लौट कर घर आ गए। अब काम तो होगा बाद में, पहले सर्वेक्षण और डिजाइन नये सिरे से तैयार करनी पड़ेंगी। इस दिशा में फिलहाल कोई प्रगति नहीं हो रही है।

बागमती परियोजना क्षेत्र में जो जल-जमाव की स्थिति है उसे देखने समझने के लिए बरसात के मौसम में लहेरियासराय से समस्तीपुर तक की यात्रा करनी चाहिये। उस समय यह पूरा इलाका समुद्र की तरह दिखायी पड़ता है। यह समुद्र मानव निर्मित है। ग्राम गोदाई पट्टी, पो. रुपौली, जिला समस्तीपुर के एडवोकेट रामस्वार्थ चौधरी ने लेखक को बताया कि 1954-55 के आस-पास जब करेह नदी पर तटबंधों का निर्माण शुरू हुआ तब स्थानीय लोगों ने दरभंगा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष रामानंद चौधरी के नेतृत्व में इस निर्माण का विरोध किया था। उनका साथ देने के लिए भोगेन्द्र झा, कर्पूरी ठाकुर, सूरज नारायण सिंह, गंगा प्रसाद सिंह, महेन्द्र चौधरी, श्रीकांत और कालीकांत चौधरी जैसे नेता मौजूद थे। उनका कहना था कि इस निर्माण से वहाँ के जल-जमाव की स्थिति विकट हो जायेगी। तत्कालीन सिंचाई मंत्री राम चरित्र सिंह ने दरभंगा जाकर आन्दोलनकारियों को समझाया बुझाया तब जाकर आन्दोलन शांत हुआ। कहते हैं कि राम चरित्र सिंह ने जनता को आश्वासन दिया था कि उन्हें अगर कोई नुकसान होता है तो सरकार समाधान की उचित व्यवस्था करेगी। सोरमार हाट से नीचे बने इन तटबंधों के कारण घोघराहा में शांति धार का मुंह बंद हो गया और खरसर के पास बागमती की जो धारा फूट कर बूढ़ी गंडक की ओर जाती थी उसका भी मुह बंद हो गया। अब सारी नदियाँ सिमट कर समस्तीपुर-दरभंगा रेल लाइन के हायाघाट के पास करेह के तटबंधों के बीच आ गयी। रेल लाइन के पुल की यह क्षमता नहीं थी कि सारे पानी को सुगमतापूर्वक नीचे पार कर दे। उस हालत में पानी पीछे फैला और पहले से ज्यादा समय तक वहाँ रहने लगा। इसकी वजह से बाढ़ का पानी हायाघाट, बहादुरपुर और दरभंगा सदर प्रखंडों में फैलने लगा और इसका असर जाले, सिंघवारा तथा समस्तीपुर के कल्याणपुर प्रखंड तक पड़ा। इस तटबंध की वजह से इलाके की पूरी जल-निकासी की व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गयी।

शांति नदी का घोघराहा और बागमती की पुरानी धार का खरसर में मुंह बंद हो जाने के कारण जल निकासी की गंभीर समस्याएं सामने आईं। राम सुकुमारी देवी ने बिहार विधान सभा में मांग की, ‘‘...दूसरी बात मैं घोघराहा बांध के बारे में कहना चाहती हूँ। यह बांध भी अभी तक अधूरा ही है। सरकार ने इस पर रुपये खर्च किये लेकिन यह खर्च किया हुआ सब बेकार हो जायेगा, इसकी कोई उपयोगिता नहीं होगी अगर इसे इस साल नहीं पूरा किया गया। यदि सोरमार हाट तक बांध को पूरा नहीं किया जाता है तब वहाँ की जनता की तकलीफ दूर नहीं होगी। शांति नदी का मुंह घोघराहा के नजदीक बांध दिया गया है जिससे सरकार को संतोष हो गया है कि अब वहाँ पर बाढ़ नहीं आ सकेगी लेकिन बात ऐसी नहीं है। उसके पश्चिम में बहुत लो लैण्ड है जिसका नतीजा होता है कि पानी ओवर फ्लो होकर के उस इलाके में चला जाता है और यह इलाका बाढ़ पीड़ित हो जाता है... इसलिए मैं कहूँगी कि वहाँ पर जो लो लैण्ड है उस पर मिट्टी दे दी जाए जिससे जमीन ऊँची हो जाए और बाढ़ से बच सके और वहाँ के खेतों की हालत अच्छी हो जाए। एक त्रिमुहानी योजना है। वारिस नगर का जो पानी रोसेड़ा की तरफ चला जाता था आज वहाँ बांध बन जाने से वारिस नगर में ही पानी रह जाता है और वहाँ इससे बहुत नुकसान होता है। इससे बचाने के लिए वहाँ प्रबंध किया जाए और स्लुइस गेट बनवा दिया जाए ताकि वहाँ के लोग इस आफत से बच सकें। ...जठमलपुर, तीरा, रजपा, मलकौली इत्यादि गाँवों के लोगों के कल्याण के लिए उन गाँवों में रिंग बांध जरूरी है।’’

राम सुकुमारी देवी ने इस बांध की समस्या को फिर एक बार बिहार विधान सभा में उठाया। उनका कहना था, ‘‘...मैं सुझाव देती हूँ कि जल्द से जल्द त्रिमुहानी, खुरसंड, घोघराहा में स्लुइस गेट बनवा दें एवं घोघराहा घाट को सोरमार हाट तक एवं जठमलपुर से हायाघाट तक के बांध को पूरा कर दें। सड़कों की मरम्मत हो ताकि लोगों को रोजी और रोटी मिल सके और सरकार का भी काम चल सके। अभी जो लाइन जठमलपुर से सोरमार हाट तक की बनी है उसमें जठमलपुर, तीरा, रजपा, मलकौली के ग्रामवासियों की जमीन पड़ जाती है जिससे उन लोगों को अपार क्षति हुई है। अतः मेरा सुझाव है कि बांध की लाइन जठमलपुर, महादेव मठ के किनारे-किनारे होकर ही बांधे तो लोगों का कल्याण हो सकेगा। अगर यह सुझाव सुविधाजनक नहीं हो तो नदी के नजदीक किनारे होकर ही बांधा जाए क्योंकि वहाँ पर जबर्दस्त पुल है हीं।’’

इस क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता उमेश राय बताते हैं, ‘‘यह तटबंध बनने लगा था तब तीरा, रजपा और मलकौली जैसे बड़े किसानों वाले गाँवों की जमीन तटबंधों में जाने लगी। तब लोगों की चिंता बढ़ी और तटबंध का अलाइनमेन्ट बदलने की बात उठी थी। इन तटबंधों का गरीब किसानों के योग-क्षेम से कोई लेना देना नहीं था। रही निचली जमीन पर मिट्टी भर कर उसे ऊँचा करने की बात तो यह एक नामुमकिन सुझाव था। इतना जरूर हुआ कि शांतिधार और खरसड़ में बागमती का मुंह जरूर बंद हो गया।’’ तटबंधों के इस तरह के बेतहाशा निर्माण से समस्तीपुर के इलाके भी तबाही की जद में आने लगे। वसिष्ठ नारायण सिंह ने बिहार विधान सभा में अपनी आशंका प्रकट की थी, ‘‘...मुजफ्फरपुर में बागमती की एक धारा हायाघाट से फूट कर वारिस नगर के प्रमुख स्थानों से गुजरती हुई बूढ़ी गंडक में वारिस नगर थानार्न्तगत ग्राम सिवैसिंह टोले रजवारा में मिल जाती है- यह पुरानी बागमती है। ...बूढ़ी गंडक का पानी करेह का पानी, शांति नदी का पानी सब मिलकर वारिस नगर थाने को पूर्ण रूप से क्षतिग्रस्त करता है। ...पुरानी बागमती पर बूढ़ी गंडक के संगम तक बायीं ओर हथौड़ी तक और दाहिनी ओर मादीपुर और विक्रम पट्टी गांव की सीमा तक ही बंधा है जो हथौड़ी के 16 कि.मी. नीचे तक ही है-यह चमरबांधा योजना है। बायीं ओर बंधने और दायीं ओर खुला रहने से वारिस नगर डूबता है। शांति नदी का यह तटबंध हायाघाट के ऊपर बांधा गया है और करेह हायाघाट के नीचे बंधी है। इससे शांति नदी का पानी आंशिक रूप से ही बागमती में जाने से रुकेगा और बूढ़ी गंडक का पानी उल्टा बागमती में आकर तबाही मचायेगा।’’

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Post By: tridmin
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