बैतूल के हरिनारायण मालवीय को पता नहीं था कि वे अपनी नौकरी छोड़कर एक बड़ा काम करने वाले हैं। किसी तरह थोड़ी-बहुत पढ़ाई करके मध्यप्रदेश सरकार में ग्राम सेवक की नौकरी पा जाने वाले मालवीय नहीं जानते थे कि आसपास के इलाकों में उनका नाम इतने सम्मान से लिया जाएगा। असल में ग्राम सेवक के अपने प्रशिक्षण के सिलसिले में वे एक बार होशंगाबाद जिले के पँवारखेड़ा स्थित प्रशिक्षण केन्द्र में गए थे, जहाँ उनके उस्तादों ने पानी खोजने की एक विधि के बारे में बताया था। इस विधि में हाथ में जामुन या गूलर की केंटीनुमा लकड़ी लेकर चलते हैं और जहाँ भी भू-गर्भीय जल होता है। वहाँ यह लकड़ी घूमने लगती है। कहते हैं कि यह कला कुछ लोगों में ही होती है। और मालवीय जी ने पाया कि उनके शरीर में भी ऐसी शक्ति मौजूद है। बस, फिर तो वे निकल पड़े असंख्य कुओं की जगह बताने। शुरू में कुछ महीने नौकरी से छु्ट्टीयाँ मारीं और फिर तब से जिला कलेक्टर के कहने पर इस्तीफा देकर पूरी तरह इसी में रम गए। सिनेमा के पास मामूली पान की दुकान लगाने वाले उनके बेटे सुन्दर कपड़े की थैलियों में रखी ताँबे के चमकते हुए तारें से सजी गुलर की लकड़ियों का उनका ‘यंत्र’ दिखाते हुए बताते हैं कि पिताजी कहीं से भी खबर आने पर झोला लेकर निकल पड़ते थे और फिर आसपास के कई किसानों ग्रामीणों को कुआँ खोदने की ऐसी जगह बताकर ही लौटते थे, जहाँ पानी का अबाध स्रोत हो। अपने जीवन में हरिनारायण मालवीय ने महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात और अपने राज्य मध्यप्रदेश में पच्चीस हजार कुएँ खुदवाए और इनमें से 10 हजार से ज्यादा कुओं का बकायदा हिसाब-किताब भी रखा यानि कि वे कहाँ, कब, किसके खेत में और उनमें कितने हाथ पर पानी निकला आदि की जानकारी एक मोटे रजिस्टर में दर्ज की। लंदन की ‘डाऊजिंग सोसायटी’ को लिखकर इसकी वैज्ञानिक वजहें भी पता करने की कोशिशें की और खुद इस सोसायटी के सदस्य भी बने।
पानी के भू-गर्भीय स्रोत की ऐसी खबर देने वाले हरिनारायण मालवीय अकेले नहीं हैं। गोंडवाने के हर दो-चार गाँवों के पीछ एक भूमका-भगत भी मिल जाते हैं। जो अपने इलाके के ओझा गुनिया होने के अलावा पानी के स्रोतों के जानकार भी होते हैं। आजकल के जानकार कहे जाने वाले ब्लॉक और जिला मेडिकल ऑफिसरों द्वारा दी गई चेतावनियों के बावजूद भूमका-भगत आज भी गाँवों में इलाज करते हैं, चोरी पकड़ते हैं, मुहूरत बताते हैं, वर्षा, गर्मी और उपज, बीज आदि की भविष्यवाणियाँ करते हैं। जमीन में जल की धारा बताने के इनके तरीके अद्भुत हैं।
मुलताई के पास के अमरावती घाट गाँव में एक बुजुर्ग बाबा थे, जो मिट्टी देखकर बता देते थे कि कितने हाथ पर चट्टानें, कितने पर मिट्टी और कितने पर पानी निकलेगा। उनके पास खेत के चारों कोनों से निशान लगाकर अलग-अलग पुड़ियाँ में मिट्टी ले जाना पड़ता था। गुलताई के एक व्यापारी के आष्टा गाँव के खेत में बाबा ने पाँच हाथ पर कठोर पत्थर और फिर 30-35 फुट पर पानी मिलने का बताया था और खोदने पर लगभग इतनी ही गहराई पर पानी और दूसरी चीजें मिली भी थीं। बायंगांव और गुनखेड़ में उनके बताए कई कुएँ आज भी पानी दे रहे हैं।
पानी बताने के इस तरीके में मिट्टी को तम्बाकू की तरह हथेली पर मसलने से कहते हैं। कि ‘पानी टपकने’ लगता है। इसका मतलब होता है। कि वहाँ पानी होगा। लक्कड़जाम गाँव के ऐसे भगत-भूमका यह तक बता देते हैं कि चट्टान घन से टूटेंगी या बारूद से। इस गाँव में भगत-भूमका से पूछकर 35-40 कुएँ खुदे हैं, जिनमें खूब पानी है।
खेत में नंगे पाँव घूमने पर जहाँ थोड़ी ऊष्णता लगे वहाँ पलाश के पत्ते रखकर उन पर मिट्टी का एक ढेला रख दिया जाता है। इस पत्ते पर सुबह यदि पानी बूँदें मिलें तो वहाँ पक्का पानी होगा। इसी तरह अकाब (एक तरह की रुई) के साथ पत्तों को चार-छह इंच मिट्टी हटाकर सबसे बड़े पत्ते को ऊपर और फिर आकार के हिसाब से एक-एक कर छोटे पत्ते उल्टे करके रखे जाते हैं। सुबह यदि इनमें से पानी टपकने लगे तो यह पानी होने का संकेत होगा। इस तरकीब से कुएँ खोदने के कई अनुभव हैं। आठनेर-भैंसदेही रोड पर दस किलोमीटर दूर हिवरा गाँव में 25 फुट पर मीठे पानी का कुआँ इसी तरकीब से खुदा है।
इंजेक्शन की छोटी शीशियों में पानी भरकर उसे धागे से बांधकर खेत में घूमने की एक पद्धति है। जहाँ पानी से भरी यह शीशी घूमने लगती है, वहाँ निश्चित ही पानी होता है।
हथेली पर नारियल लेकर खेत में चलने का तरीका भी कई लोग कर लेते हैं। कहते हैं कि जहां यह नारियल गिर जाए वहां जरूर ही पानी होगा। पानी होने वाली जगह पर कुछ लोगों के रोम तक खड़े हो जाते हैं।
शाहपुर के पास के रायपुर गाँव के बराती गोंड सिर्फ मिट्टी देखकर ही यह बता देते थे कि कितने हाथ पर पानी निकलेगा। बाराती गोंड शराब पीते थे और इसी में कुछ साल पहले उनकी मृत्यु भी हुई थी। लेकिन उनके बताए कई कुएँ आज भी लोगों को भरपूर पानी दे रहे हैं। मंडला की एक दरगाह के पास रहने वाले अजीज भाई भी पानी के बारात में बताते हैं। परासिया के उमरेठ गाँव के मुल्लू काका सिर्फ नंगे पाँव खेत में चलकर ही पानी बता देते हैं। कहते हैं कि उनके पाँव में स्फुरण होता है। इसी इलाके के जमुनिया गाँव के अयोध्या भैया भी पानी बताने में माहिर हैं।
इन पद्धतियों में सबसे प्रचलित हरिनारायण मालवीय का ही है। इसमें जामुन, अकाब, मेंहदी, बिही या गूलर की कैंटी के आकार की दो लकड़ियों को हाथ में रखकर खेत में चला जाता है। जहाँ पानी होता है। वहाँ यह लकड़ी तेजी से घूमने लगती है। कई बार इसके कारण हाथों में छाले तक पड़ जाते हैं। बैतूल बाजार में एक सज्जन इसी तरह से पानी की धारा और गहराई तक बता देते हैं। मंडला जिले के सिझोरा के पास बोडरा गाँव में भद्देलाल बिही की लकड़ी या लोहे की पत्ती से पानी बताते हैं। पास के बालाघाट जिले के ग्राम सेवक नील झेवण ने उन्हें इस तरह से पानी खोजना सिखाया था। आठनेर इलाके के धामोरी जामरी गाँव में 1998 में इसी तरह पानी देखकर कुआँ खुदवाया जाता था और 18 फुट पर पानी भी मिल गया था।
गाँव-गाँव में फैले ऐसे भगत-भूमका और दूसरे पानी के जानकारों की मान्यता है कि यदि वे अपनी प्राकृतिक क्षमताओं के उपयोग के बदले पैसा लेना शुरू कर देगें तो उनकी शक्ति खत्म हो जाएगी।
पानी बताने की इन देशी पद्धतियों का कोई आधुनिक वैज्ञानिक आधार नहीं है। ज्यादा-से-ज्यादा यह कहा जाता है कि जो लोग ‘पायली पैदाइश’ यानि की पैरों की तरफ से पैदा होते हैं, उनमें भू-गर्भीय जल बताने की क्षमता होती है। इन लोगों को ‘मोहतिरे’ कहा जाता है। और ये किसी भी जाति के हो सकते हैं। लेकिन भगत-भूमका की परम्परा सिर्फ गोंड या कोरकू आदिवासियों में ही होती है। भगत-भूमका पानी के अलावा चोरी गए जानवरों, जड़ी-बूटियों, बीमारियों, भूत-प्रेत आदि के जानकार भी होते हैं। ओला बाँधने से लगाकर खेत में जंगली सूअरों का आना रोक देने तक काम में माहिर ये लोग इलाज भी करते हैं। कहते हैं कि साँप के काटे का इलाज देवताओं के गुरु ‘गुरुआ’ करते हैं जिनकी पूजा-भूमका-भगत करते हैं। सांप के काटने पर सन की रस्सी में पाँच-सात गठानें डालकर ‘रख्खन’ डाला जाता है। और चौबीस घण्टे तीन दिन तक पूजा होती है। भूमका काटे स्थान से जहर खींच लेता है। और आदमी को लहर भी आती है। शाहपुर के पास के रायपुर गाँव में कहते हैं कि आज तक कोई साँप के काटे से नहीं मरा। हर दो-चार गाँवों के बीच मिल जाने वाले भगत-भूमका को गाँव के हर घर से एक कुड़ा यानि आठ पाई अनाज सालाना दिया जाता है।
पानी के बताने का एक आधुनिक वैज्ञानिक तरीका ‘मूर और बेली’ का भी है। जिसमें इन वैज्ञानिकों ने मानक ग्राफ बनाए थे। इस तरीके में जमीन में एक केंद्र के समान दूरियों पर इलेक्ट्रोड्स गाड़कर करंट छोड़ा जाता है। जिसमें पानी का बहाव देखा जाता है। इनसे प्राप्त आंकड़ों का ग्राफ ‘मूर और बेली’ के ग्राफ से मिलाकर पानी का पता किया जाता है। इस यंत्र के प्रयोग में एक तो तीन सौ मीटर के घेरे में बिजली के कोई तार नहीं होने चाहिए और दूसरे यंत्र ठीक-ठाक और उसके तार सीधे होने चाहिए। आमतौर पर पानी के बहाव के ग्राफ की व्याख्याएँ सही नहीं होतीं इसलिए इसे दुबारा जाँचना जरूरी होता है। लेकिन अक्सर इस पद्धति में लगने वाला पारदर्शी कागज तक उपलब्ध नहीं हो पाता। इस तरीके में सब कुछ ठीक-ठाक होने पर 60 से 70 प्रतिशत तक सफलता मिल जाती है। लेकिन कहते हैं कि भूमका-भगत और दूसरे पानी बताने वालों को 90-95 प्रतिशत तक सफलताएँ मिली हैं।
पानी को भू-गर्भ में वापस पहुँचाने या किसी क्षेत्र में पानी की भू-गर्भीय जरूरत के लिहाज से इलाकों को तीन तरह से बाँटा जाता है। पहला 0 से 65 प्रतिशत पानी की जरूरत होने पर ‘सफेद क्षेत्र’ माना जाता है। यानि इस क्षेत्र में पानी उपलब्ध है। दूसरा 65 से 85 प्रतिशत जरूरत वाला ‘भूरा क्षेत्र’ होता है जिसमें कम पानी उपलब्ध होता है। इस इलाके में आंशिक सिंचाई और पेयजल मिलता है तथा नलकूपों के खोदने पर पाबंदी रहती है। तीसरा 85 प्रतिशत से अधिक का ‘काला क्षेत्र’ होता है। जिसमें बिल्कुल पानी नहीं होता है। मध्यप्रदेश में ऐसे काले क्षेत्र नहीं माने गए हैं। भू-गर्भीय पानी की उपलब्धता के ऐसे अध्ययन हर दो साल में जल संसाधन विभाग के अन्तर्गत भू-जल विद् करवाते हैं। ऐसे एक जल सर्वेक्षण के अनुसार सन् 2015 तक जबलपुर में जल स्तर 600 फुट की गहराई तक चला जाएगा। पहले यह स्तर 30 से 150 फुट तक था।
पानी बताने पारम्परिक पद्धतियों के मुकाबले आधुनिक तकनीक के अनुभव बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं रहे हैं। सिंझौरा में बताया गया कि इस वैज्ञानिक पद्धति के आधे से अधिक नलकूप और हैण्डपम्प सफल नहीं हुए। शाहपुर में भी ऐसे कई अनुभव हुए हैं जहाँ आधुनिक मशीनों से बताए गए नलकूपों से पेयजल तक नहीं मिल पा रहा है। दूसरी तरफ भूमका के बताए नलकूप सिंचाई तक कर रहे हैं। सुहागपुर ढाना में 5-6 नलकूप भूमका के ही बताने से बने थे जो अब भी खूब पानी दे रहे हैं। इस इलाके में पानी बताने के लिए महाराष्ट्र से भी भूमका-भगत आते हैं।
भू-गर्भीय जल की धारा के बारे में संस्कृत में एक ग्रंथ ‘उदकार्गल’ है लेकिन आम लोगों की एक प्रचलित पद्धति उन वृक्षों को जानने-पहचाने की भी होती है जिनके आसपास पानी होता है। टेसू या पलास, छींद, अकाबू या अकाब के वृक्ष पानी के संकेतक हैं। अकाब की झाड़ियों की श्रृंखला भू-गर्भीय जल की धारा का पता देती है। गूलर, कोहा या अर्जुन, जामुन, अमरूद, चंदरजोत आदि पेड़ों के पास भी भू-गर्भीय जल मिलता है। मान्यता है कि ऊमर या ऊमड़ के पेड़ के 20 फुट पूर्व में पानी होता है। इसी तरह चींटियों का बमीठा (घर), झरबेरी या जंगली बेर की झाड़ियाँ भी भू-गर्भीय जल होने की पहचान हैं। आम के पेड़ के 80-85 फुट के घेरे में निश्चित ही पानी होना माना जाता है। कहा जाता है। कि ऐसे इलाके में जहाँ नीम, बड़, आँवला, आम और जामुन के वृक्ष न हों तो वहाँ भू-गर्भीय जल में फ्लोराइड मिलने की संभावना रहती है। इसी तरह साल के वृक्षों के इलाके का भू-गर्भीय जल भारी होता है और उसे पीने से पाचनशक्ति पर असर पड़ता है। सागौन तथा पीपल के पास पानी होने की बहुत कम संभावना मानी जाती है।
धरती के पेट में पानी होने का पता चल जाने के बाद फिर कुआँ खोदना उतना कठिन नहीं रहता। गाँव-गाँव में अपने इलाके की मिट्टी समेत दूसरी भौगोलिक विशेषताओं को जानने वाले लोग कुआँ खोद लेते हैं। लेकिन कई जगह कुआँ खोदने वाले विशेषज्ञों की टीम भी लगती है जो चट्टानें आ जाने पर बुलवाई जाती है। इन लोगों के पास बारूद और खास तरह की छेनी होती है जिससे विस्फोट करके तथा चट्टानें तोड़कर आगे की खुदाई की जाती है। ये विशेषज्ञ सल्फर आदि रसायनों से विस्फोटक आदि बना लेने में माहिर होते हैं। आमतौर पर ऊपर के पाँच-सात फुट तक को बाँधने और फिर, कड़ी पीली मिट्टी होने के कारण, खोदते जाने की पद्धति कुओं की खुदाई में तो थी ही, आज के नलकूपों में भी उपयोग की जाती है। खुदाई के बाद कुओं को सुन्दर ईंटों से पाटा जाता है। आजकल के सीमेंट की टक्कर में पहले चूना, गुड़, बेल, रेत गोंद आदि को पत्थर के एक वजनी चाक से पीसकर मसाला बनाया जाता था, जिससे कुएँ और बावड़ी पाटी जाती थी। कुओं पर जगत या चांगा बनाया जाता था जिस पर चका-परोंता या घिर्री लगाई जाती थी। इसी तरह बावड़ियाँ भी ग्रामीण वास्तुकारों की कला और सुन्दरता का नमूना होती थीं।
तालाबों और कुओं के विवाह होते थे जो अक्सर परिवार में सम्पन्न होने वाले विवाह के पहले किए जाते थे। इसमें विवाह की सारी पद्धतियाँ, पूजा, प्रदक्षिणा आदि होती थी। कुओं के ये विवाह उनमें पानी को रोकने, मजबूती और साफ रखने के लिए की गई बँधाई से होते थे। आज भी विवाहों में परम्परा है कि जगत पर वर की माँ कुएँ में पैर लटकाकर यह कहते हुए बैठ जाती ही कि विवाह के बाद आने वाली बहू के कारण उसकी हैसियत कम हो जाएगी। दूल्हा माँ को मनाता है और कुएँ की पूजा करके ही बारात निकलती है।
कुआँ या बावड़ी तैयार हो जाने के बाद पीने और निस्तार के लिए पानी निकालने में रस्सी-बाल्टी का उपयोग होता है। लेकिन सिंचाई आदि के लिए इस इलाके में ‘मोट’ का प्रचलन था। भैंस के चमड़े से बनाया गया एक बड़ा थैला ‘मोट’ कहलाता है। इसमें लकड़ी का एक फ्रेम जिसे ‘घेरा’ या ‘ढेरा’ कहा जाता है, ईंट या पत्थर का वजन जिसे ‘धनबेल’ कहते हैं और मोट की ‘सूँड’ या ‘मुँह’ होता है। ‘धनबेल’ के कारण ‘मोट’ पानी में डूबती है और ‘घेरा’ या ‘ढेरा’ के कारण उसमें पानी भर जाता है। बैलों या भैंसा के खींचने पर कोट कुएँ से भरकर बाहर आती है। और दूसरे छोर पर बनी ‘सूंड’ पर बंधी रस्सी खोलकर उसे खेतों तक पहुँचाने के लिए नाली में उलट देते हैं।
हर साल ‘मोट’ के उपयोग की शुरुआत बाकायदा पूजा करके होती थी। खरीफ की फसल के लिए आषाढ़ माह में पहली बरसात वाले दिन मोट शुरू होती थी। इस दिन सभी देवी-देवताओं की पूजा करके सात ‘कांस’ या हल जोते जाते हैं और वे सात चक्कर लगाते हैं। लेकिन इससे पहले नाड़ी पूजन के लिए खेत में दूध उबाला जाता है। और उफन कर गिरे दूध को छोड़कर बाकी को प्रसाद मानकर वितरित कर देते हैं। पूरे गाँव के घर-घर से इकट्ठे किए गए पैसों से नारियल, मुर्गा, तीतरी या बकरा लाया जाता है। और गाँव के बाहर छायादार पेड़ के नीचे गाँव-खेड़े के भूमका या पाढियार ‘बिदरी’ या पूजा करवाते हैं। भूमका को सभी से चार-चार पाई अन्न दक्षिणा की तरह दिया जाता है।
कुओं से पानी निकालने के लिए उपयोग की जाने वाली ‘मोट’ गोंडवाने में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती रही है। मंडला के ग्रामीण इलाकों में, जहाँ ‘मोट’ की परम्परा थी, 1950 के पहले तक सौ रुपए में कुआँ खुद जाता था और ढाई सौ रुपए में पाट, जगत, घिर्री आदि के साथ पूरी तरह तैयार हो जाता था। बैतूल इलाके में लोग जनहित में कुएँ खुदवाते थे और दो बैलों की ‘मोट’ का यहाँ भी खूब प्रचलन था। झल्लार में भी ‘मोट’ लगाई जाती थी। शाहपुर के पास के जामुनढाना गाँव में, जहाँ बिजली नहीं है, आज भी 10-12 मोट काम कर रही हैं। धीर-धीरे बिजली आने और पानी को बटन दबाकर खींचने वाली मोटरों के चलन से ‘मोट’ का काम भी ठप्प हो गया है। बैतूल में 1970 के पहले तक ‘मोट’ थी लेकिन अब नहीं है। इनमें अच्छे, मजबूत बैलों की जरूरत होती है, लेकिन आजकल चरोखर तथा रख-रखाव की कमी के चलते पशु-धन कमजोर हुआ है। नतीजे में ‘मोट’ का उपयोग कम हुआ है।
1945-50 के आसपास पंजाब से आकर यहाँ बसे किसानों ने ‘रहट’ का प्रयोग और इन्हें बनाकर बेचने का काम शुरू किया था। तब दो सौ रुपए में एक ‘रहट’ बन जाती थी। ‘मोट’ से ज्यादा और तेजी से पानी देने वाली ‘रहट’ एक गोल फ्रेम में बाल्टियाँ लगाकर बैलों से पानी खींचने की पद्धति होती है। इसमें आम तौर पर डेढ़ से दो फुट के फासले पर बावन या छप्पन बाल्टियाँ लगाई जाती हैं। इसलिए इस इलाके में इसका एक नाम ‘बावन बाल्टी’ भी है। ‘रहट’ 20 से 25 हाथ चौड़े और इतने ही गहरे कुओं या बावड़ियों में ही काम करती हैं। उथली और चौड़ी बावड़ियां इसके लिए सबसे उपयुक्त होती हैं। सस्ती बनाने के लिए इसमें बाल्टियों की जगह टीन के छोटे पीपे भी लगाए जाते हैं। बैतूल के पास के सोहागपुर गाँव के एक किसान ने तो मटकों की ‘रहट’ बनवाई थी।
वैसे तो इन तरीकों से होने वाली कोदों, कुटकी, ज्वार, मूँग, तुअर, समा, बाजरा और तिल्ली आदि यहाँ की प्रमुख फसलें रही हैं लेकिन इनमें भी कौन-सी बीज कब ठीक पैदा होगा यह बताने वाले भीलटबाबा हैं जिनका स्थान होशंगाबाद के केसला विकासखण्ड के भड़कदा गाँव के पढिहार या गुनिया के यहाँ है। 1998 में उन्होंने घोषणा की थी कि सफेद बीज की फसल होगी और इसीलिए कहते हैं कि तिल्ली और ज्वार की फसलें ठीक हुईं। इलाके में कुछ साल पहले से गेहूँ और सोयाबीन की फसलें भी शुरू हुई हैं।
साल में बरसात कितनी और कैसी होगी यह बताने वाले भूमका-भगत के अलावा और भी दर्जनों तरीके हैं। घाघ और भड्डरी समेत ‘अण्डा ले चींट चढ़े तो बरसा भरपूर’ सरीखी कहावत के साथ-साथ आखातीज या अक्षय तृतीया को पाँच या सात मटकों में पानी भरकर मिट्टी के ढेलों पर रखने की परम्परा भी है। इन मटकों में से पूरे दिन भर में जितना पानी झिरता है। उससे वर्षा का अंदाजा लग जाता है।
खेती की इन तरकीबों से अपने खाने लायक अनाज पैदा करने के अलावा पानी की भी बचत होती थी और समाज का जल स्रोतों से जीवंत सम्बन्ध बना रहता था। लेकिन प्रचार के हल्ले में आजकल इन्हें उपयोग करने वाले लोग ही भूलते जा रहे हैं। यह भूल 21 वीं सदी में सबको सूखे और अकाल की छाया में धकेल देगी, इसका अब भी अहसास हो सके तो बड़ी बात है।
पानी के भू-गर्भीय स्रोत की ऐसी खबर देने वाले हरिनारायण मालवीय अकेले नहीं हैं। गोंडवाने के हर दो-चार गाँवों के पीछ एक भूमका-भगत भी मिल जाते हैं। जो अपने इलाके के ओझा गुनिया होने के अलावा पानी के स्रोतों के जानकार भी होते हैं। आजकल के जानकार कहे जाने वाले ब्लॉक और जिला मेडिकल ऑफिसरों द्वारा दी गई चेतावनियों के बावजूद भूमका-भगत आज भी गाँवों में इलाज करते हैं, चोरी पकड़ते हैं, मुहूरत बताते हैं, वर्षा, गर्मी और उपज, बीज आदि की भविष्यवाणियाँ करते हैं। जमीन में जल की धारा बताने के इनके तरीके अद्भुत हैं।
मुलताई के पास के अमरावती घाट गाँव में एक बुजुर्ग बाबा थे, जो मिट्टी देखकर बता देते थे कि कितने हाथ पर चट्टानें, कितने पर मिट्टी और कितने पर पानी निकलेगा। उनके पास खेत के चारों कोनों से निशान लगाकर अलग-अलग पुड़ियाँ में मिट्टी ले जाना पड़ता था। गुलताई के एक व्यापारी के आष्टा गाँव के खेत में बाबा ने पाँच हाथ पर कठोर पत्थर और फिर 30-35 फुट पर पानी मिलने का बताया था और खोदने पर लगभग इतनी ही गहराई पर पानी और दूसरी चीजें मिली भी थीं। बायंगांव और गुनखेड़ में उनके बताए कई कुएँ आज भी पानी दे रहे हैं।
पानी बताने के इस तरीके में मिट्टी को तम्बाकू की तरह हथेली पर मसलने से कहते हैं। कि ‘पानी टपकने’ लगता है। इसका मतलब होता है। कि वहाँ पानी होगा। लक्कड़जाम गाँव के ऐसे भगत-भूमका यह तक बता देते हैं कि चट्टान घन से टूटेंगी या बारूद से। इस गाँव में भगत-भूमका से पूछकर 35-40 कुएँ खुदे हैं, जिनमें खूब पानी है।
खेत में नंगे पाँव घूमने पर जहाँ थोड़ी ऊष्णता लगे वहाँ पलाश के पत्ते रखकर उन पर मिट्टी का एक ढेला रख दिया जाता है। इस पत्ते पर सुबह यदि पानी बूँदें मिलें तो वहाँ पक्का पानी होगा। इसी तरह अकाब (एक तरह की रुई) के साथ पत्तों को चार-छह इंच मिट्टी हटाकर सबसे बड़े पत्ते को ऊपर और फिर आकार के हिसाब से एक-एक कर छोटे पत्ते उल्टे करके रखे जाते हैं। सुबह यदि इनमें से पानी टपकने लगे तो यह पानी होने का संकेत होगा। इस तरकीब से कुएँ खोदने के कई अनुभव हैं। आठनेर-भैंसदेही रोड पर दस किलोमीटर दूर हिवरा गाँव में 25 फुट पर मीठे पानी का कुआँ इसी तरकीब से खुदा है।
इंजेक्शन की छोटी शीशियों में पानी भरकर उसे धागे से बांधकर खेत में घूमने की एक पद्धति है। जहाँ पानी से भरी यह शीशी घूमने लगती है, वहाँ निश्चित ही पानी होता है।
हथेली पर नारियल लेकर खेत में चलने का तरीका भी कई लोग कर लेते हैं। कहते हैं कि जहां यह नारियल गिर जाए वहां जरूर ही पानी होगा। पानी होने वाली जगह पर कुछ लोगों के रोम तक खड़े हो जाते हैं।
शाहपुर के पास के रायपुर गाँव के बराती गोंड सिर्फ मिट्टी देखकर ही यह बता देते थे कि कितने हाथ पर पानी निकलेगा। बाराती गोंड शराब पीते थे और इसी में कुछ साल पहले उनकी मृत्यु भी हुई थी। लेकिन उनके बताए कई कुएँ आज भी लोगों को भरपूर पानी दे रहे हैं। मंडला की एक दरगाह के पास रहने वाले अजीज भाई भी पानी के बारात में बताते हैं। परासिया के उमरेठ गाँव के मुल्लू काका सिर्फ नंगे पाँव खेत में चलकर ही पानी बता देते हैं। कहते हैं कि उनके पाँव में स्फुरण होता है। इसी इलाके के जमुनिया गाँव के अयोध्या भैया भी पानी बताने में माहिर हैं।
इन पद्धतियों में सबसे प्रचलित हरिनारायण मालवीय का ही है। इसमें जामुन, अकाब, मेंहदी, बिही या गूलर की कैंटी के आकार की दो लकड़ियों को हाथ में रखकर खेत में चला जाता है। जहाँ पानी होता है। वहाँ यह लकड़ी तेजी से घूमने लगती है। कई बार इसके कारण हाथों में छाले तक पड़ जाते हैं। बैतूल बाजार में एक सज्जन इसी तरह से पानी की धारा और गहराई तक बता देते हैं। मंडला जिले के सिझोरा के पास बोडरा गाँव में भद्देलाल बिही की लकड़ी या लोहे की पत्ती से पानी बताते हैं। पास के बालाघाट जिले के ग्राम सेवक नील झेवण ने उन्हें इस तरह से पानी खोजना सिखाया था। आठनेर इलाके के धामोरी जामरी गाँव में 1998 में इसी तरह पानी देखकर कुआँ खुदवाया जाता था और 18 फुट पर पानी भी मिल गया था।
गाँव-गाँव में फैले ऐसे भगत-भूमका और दूसरे पानी के जानकारों की मान्यता है कि यदि वे अपनी प्राकृतिक क्षमताओं के उपयोग के बदले पैसा लेना शुरू कर देगें तो उनकी शक्ति खत्म हो जाएगी।
पानी बताने की इन देशी पद्धतियों का कोई आधुनिक वैज्ञानिक आधार नहीं है। ज्यादा-से-ज्यादा यह कहा जाता है कि जो लोग ‘पायली पैदाइश’ यानि की पैरों की तरफ से पैदा होते हैं, उनमें भू-गर्भीय जल बताने की क्षमता होती है। इन लोगों को ‘मोहतिरे’ कहा जाता है। और ये किसी भी जाति के हो सकते हैं। लेकिन भगत-भूमका की परम्परा सिर्फ गोंड या कोरकू आदिवासियों में ही होती है। भगत-भूमका पानी के अलावा चोरी गए जानवरों, जड़ी-बूटियों, बीमारियों, भूत-प्रेत आदि के जानकार भी होते हैं। ओला बाँधने से लगाकर खेत में जंगली सूअरों का आना रोक देने तक काम में माहिर ये लोग इलाज भी करते हैं। कहते हैं कि साँप के काटे का इलाज देवताओं के गुरु ‘गुरुआ’ करते हैं जिनकी पूजा-भूमका-भगत करते हैं। सांप के काटने पर सन की रस्सी में पाँच-सात गठानें डालकर ‘रख्खन’ डाला जाता है। और चौबीस घण्टे तीन दिन तक पूजा होती है। भूमका काटे स्थान से जहर खींच लेता है। और आदमी को लहर भी आती है। शाहपुर के पास के रायपुर गाँव में कहते हैं कि आज तक कोई साँप के काटे से नहीं मरा। हर दो-चार गाँवों के बीच मिल जाने वाले भगत-भूमका को गाँव के हर घर से एक कुड़ा यानि आठ पाई अनाज सालाना दिया जाता है।
पानी के बताने का एक आधुनिक वैज्ञानिक तरीका ‘मूर और बेली’ का भी है। जिसमें इन वैज्ञानिकों ने मानक ग्राफ बनाए थे। इस तरीके में जमीन में एक केंद्र के समान दूरियों पर इलेक्ट्रोड्स गाड़कर करंट छोड़ा जाता है। जिसमें पानी का बहाव देखा जाता है। इनसे प्राप्त आंकड़ों का ग्राफ ‘मूर और बेली’ के ग्राफ से मिलाकर पानी का पता किया जाता है। इस यंत्र के प्रयोग में एक तो तीन सौ मीटर के घेरे में बिजली के कोई तार नहीं होने चाहिए और दूसरे यंत्र ठीक-ठाक और उसके तार सीधे होने चाहिए। आमतौर पर पानी के बहाव के ग्राफ की व्याख्याएँ सही नहीं होतीं इसलिए इसे दुबारा जाँचना जरूरी होता है। लेकिन अक्सर इस पद्धति में लगने वाला पारदर्शी कागज तक उपलब्ध नहीं हो पाता। इस तरीके में सब कुछ ठीक-ठाक होने पर 60 से 70 प्रतिशत तक सफलता मिल जाती है। लेकिन कहते हैं कि भूमका-भगत और दूसरे पानी बताने वालों को 90-95 प्रतिशत तक सफलताएँ मिली हैं।
पानी को भू-गर्भ में वापस पहुँचाने या किसी क्षेत्र में पानी की भू-गर्भीय जरूरत के लिहाज से इलाकों को तीन तरह से बाँटा जाता है। पहला 0 से 65 प्रतिशत पानी की जरूरत होने पर ‘सफेद क्षेत्र’ माना जाता है। यानि इस क्षेत्र में पानी उपलब्ध है। दूसरा 65 से 85 प्रतिशत जरूरत वाला ‘भूरा क्षेत्र’ होता है जिसमें कम पानी उपलब्ध होता है। इस इलाके में आंशिक सिंचाई और पेयजल मिलता है तथा नलकूपों के खोदने पर पाबंदी रहती है। तीसरा 85 प्रतिशत से अधिक का ‘काला क्षेत्र’ होता है। जिसमें बिल्कुल पानी नहीं होता है। मध्यप्रदेश में ऐसे काले क्षेत्र नहीं माने गए हैं। भू-गर्भीय पानी की उपलब्धता के ऐसे अध्ययन हर दो साल में जल संसाधन विभाग के अन्तर्गत भू-जल विद् करवाते हैं। ऐसे एक जल सर्वेक्षण के अनुसार सन् 2015 तक जबलपुर में जल स्तर 600 फुट की गहराई तक चला जाएगा। पहले यह स्तर 30 से 150 फुट तक था।
पानी बताने पारम्परिक पद्धतियों के मुकाबले आधुनिक तकनीक के अनुभव बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं रहे हैं। सिंझौरा में बताया गया कि इस वैज्ञानिक पद्धति के आधे से अधिक नलकूप और हैण्डपम्प सफल नहीं हुए। शाहपुर में भी ऐसे कई अनुभव हुए हैं जहाँ आधुनिक मशीनों से बताए गए नलकूपों से पेयजल तक नहीं मिल पा रहा है। दूसरी तरफ भूमका के बताए नलकूप सिंचाई तक कर रहे हैं। सुहागपुर ढाना में 5-6 नलकूप भूमका के ही बताने से बने थे जो अब भी खूब पानी दे रहे हैं। इस इलाके में पानी बताने के लिए महाराष्ट्र से भी भूमका-भगत आते हैं।
भू-गर्भीय जल की धारा के बारे में संस्कृत में एक ग्रंथ ‘उदकार्गल’ है लेकिन आम लोगों की एक प्रचलित पद्धति उन वृक्षों को जानने-पहचाने की भी होती है जिनके आसपास पानी होता है। टेसू या पलास, छींद, अकाबू या अकाब के वृक्ष पानी के संकेतक हैं। अकाब की झाड़ियों की श्रृंखला भू-गर्भीय जल की धारा का पता देती है। गूलर, कोहा या अर्जुन, जामुन, अमरूद, चंदरजोत आदि पेड़ों के पास भी भू-गर्भीय जल मिलता है। मान्यता है कि ऊमर या ऊमड़ के पेड़ के 20 फुट पूर्व में पानी होता है। इसी तरह चींटियों का बमीठा (घर), झरबेरी या जंगली बेर की झाड़ियाँ भी भू-गर्भीय जल होने की पहचान हैं। आम के पेड़ के 80-85 फुट के घेरे में निश्चित ही पानी होना माना जाता है। कहा जाता है। कि ऐसे इलाके में जहाँ नीम, बड़, आँवला, आम और जामुन के वृक्ष न हों तो वहाँ भू-गर्भीय जल में फ्लोराइड मिलने की संभावना रहती है। इसी तरह साल के वृक्षों के इलाके का भू-गर्भीय जल भारी होता है और उसे पीने से पाचनशक्ति पर असर पड़ता है। सागौन तथा पीपल के पास पानी होने की बहुत कम संभावना मानी जाती है।
धरती के पेट में पानी होने का पता चल जाने के बाद फिर कुआँ खोदना उतना कठिन नहीं रहता। गाँव-गाँव में अपने इलाके की मिट्टी समेत दूसरी भौगोलिक विशेषताओं को जानने वाले लोग कुआँ खोद लेते हैं। लेकिन कई जगह कुआँ खोदने वाले विशेषज्ञों की टीम भी लगती है जो चट्टानें आ जाने पर बुलवाई जाती है। इन लोगों के पास बारूद और खास तरह की छेनी होती है जिससे विस्फोट करके तथा चट्टानें तोड़कर आगे की खुदाई की जाती है। ये विशेषज्ञ सल्फर आदि रसायनों से विस्फोटक आदि बना लेने में माहिर होते हैं। आमतौर पर ऊपर के पाँच-सात फुट तक को बाँधने और फिर, कड़ी पीली मिट्टी होने के कारण, खोदते जाने की पद्धति कुओं की खुदाई में तो थी ही, आज के नलकूपों में भी उपयोग की जाती है। खुदाई के बाद कुओं को सुन्दर ईंटों से पाटा जाता है। आजकल के सीमेंट की टक्कर में पहले चूना, गुड़, बेल, रेत गोंद आदि को पत्थर के एक वजनी चाक से पीसकर मसाला बनाया जाता था, जिससे कुएँ और बावड़ी पाटी जाती थी। कुओं पर जगत या चांगा बनाया जाता था जिस पर चका-परोंता या घिर्री लगाई जाती थी। इसी तरह बावड़ियाँ भी ग्रामीण वास्तुकारों की कला और सुन्दरता का नमूना होती थीं।
तालाबों और कुओं के विवाह होते थे जो अक्सर परिवार में सम्पन्न होने वाले विवाह के पहले किए जाते थे। इसमें विवाह की सारी पद्धतियाँ, पूजा, प्रदक्षिणा आदि होती थी। कुओं के ये विवाह उनमें पानी को रोकने, मजबूती और साफ रखने के लिए की गई बँधाई से होते थे। आज भी विवाहों में परम्परा है कि जगत पर वर की माँ कुएँ में पैर लटकाकर यह कहते हुए बैठ जाती ही कि विवाह के बाद आने वाली बहू के कारण उसकी हैसियत कम हो जाएगी। दूल्हा माँ को मनाता है और कुएँ की पूजा करके ही बारात निकलती है।
कुआँ या बावड़ी तैयार हो जाने के बाद पीने और निस्तार के लिए पानी निकालने में रस्सी-बाल्टी का उपयोग होता है। लेकिन सिंचाई आदि के लिए इस इलाके में ‘मोट’ का प्रचलन था। भैंस के चमड़े से बनाया गया एक बड़ा थैला ‘मोट’ कहलाता है। इसमें लकड़ी का एक फ्रेम जिसे ‘घेरा’ या ‘ढेरा’ कहा जाता है, ईंट या पत्थर का वजन जिसे ‘धनबेल’ कहते हैं और मोट की ‘सूँड’ या ‘मुँह’ होता है। ‘धनबेल’ के कारण ‘मोट’ पानी में डूबती है और ‘घेरा’ या ‘ढेरा’ के कारण उसमें पानी भर जाता है। बैलों या भैंसा के खींचने पर कोट कुएँ से भरकर बाहर आती है। और दूसरे छोर पर बनी ‘सूंड’ पर बंधी रस्सी खोलकर उसे खेतों तक पहुँचाने के लिए नाली में उलट देते हैं।
हर साल ‘मोट’ के उपयोग की शुरुआत बाकायदा पूजा करके होती थी। खरीफ की फसल के लिए आषाढ़ माह में पहली बरसात वाले दिन मोट शुरू होती थी। इस दिन सभी देवी-देवताओं की पूजा करके सात ‘कांस’ या हल जोते जाते हैं और वे सात चक्कर लगाते हैं। लेकिन इससे पहले नाड़ी पूजन के लिए खेत में दूध उबाला जाता है। और उफन कर गिरे दूध को छोड़कर बाकी को प्रसाद मानकर वितरित कर देते हैं। पूरे गाँव के घर-घर से इकट्ठे किए गए पैसों से नारियल, मुर्गा, तीतरी या बकरा लाया जाता है। और गाँव के बाहर छायादार पेड़ के नीचे गाँव-खेड़े के भूमका या पाढियार ‘बिदरी’ या पूजा करवाते हैं। भूमका को सभी से चार-चार पाई अन्न दक्षिणा की तरह दिया जाता है।
कुओं से पानी निकालने के लिए उपयोग की जाने वाली ‘मोट’ गोंडवाने में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती रही है। मंडला के ग्रामीण इलाकों में, जहाँ ‘मोट’ की परम्परा थी, 1950 के पहले तक सौ रुपए में कुआँ खुद जाता था और ढाई सौ रुपए में पाट, जगत, घिर्री आदि के साथ पूरी तरह तैयार हो जाता था। बैतूल इलाके में लोग जनहित में कुएँ खुदवाते थे और दो बैलों की ‘मोट’ का यहाँ भी खूब प्रचलन था। झल्लार में भी ‘मोट’ लगाई जाती थी। शाहपुर के पास के जामुनढाना गाँव में, जहाँ बिजली नहीं है, आज भी 10-12 मोट काम कर रही हैं। धीर-धीरे बिजली आने और पानी को बटन दबाकर खींचने वाली मोटरों के चलन से ‘मोट’ का काम भी ठप्प हो गया है। बैतूल में 1970 के पहले तक ‘मोट’ थी लेकिन अब नहीं है। इनमें अच्छे, मजबूत बैलों की जरूरत होती है, लेकिन आजकल चरोखर तथा रख-रखाव की कमी के चलते पशु-धन कमजोर हुआ है। नतीजे में ‘मोट’ का उपयोग कम हुआ है।
1945-50 के आसपास पंजाब से आकर यहाँ बसे किसानों ने ‘रहट’ का प्रयोग और इन्हें बनाकर बेचने का काम शुरू किया था। तब दो सौ रुपए में एक ‘रहट’ बन जाती थी। ‘मोट’ से ज्यादा और तेजी से पानी देने वाली ‘रहट’ एक गोल फ्रेम में बाल्टियाँ लगाकर बैलों से पानी खींचने की पद्धति होती है। इसमें आम तौर पर डेढ़ से दो फुट के फासले पर बावन या छप्पन बाल्टियाँ लगाई जाती हैं। इसलिए इस इलाके में इसका एक नाम ‘बावन बाल्टी’ भी है। ‘रहट’ 20 से 25 हाथ चौड़े और इतने ही गहरे कुओं या बावड़ियों में ही काम करती हैं। उथली और चौड़ी बावड़ियां इसके लिए सबसे उपयुक्त होती हैं। सस्ती बनाने के लिए इसमें बाल्टियों की जगह टीन के छोटे पीपे भी लगाए जाते हैं। बैतूल के पास के सोहागपुर गाँव के एक किसान ने तो मटकों की ‘रहट’ बनवाई थी।
वैसे तो इन तरीकों से होने वाली कोदों, कुटकी, ज्वार, मूँग, तुअर, समा, बाजरा और तिल्ली आदि यहाँ की प्रमुख फसलें रही हैं लेकिन इनमें भी कौन-सी बीज कब ठीक पैदा होगा यह बताने वाले भीलटबाबा हैं जिनका स्थान होशंगाबाद के केसला विकासखण्ड के भड़कदा गाँव के पढिहार या गुनिया के यहाँ है। 1998 में उन्होंने घोषणा की थी कि सफेद बीज की फसल होगी और इसीलिए कहते हैं कि तिल्ली और ज्वार की फसलें ठीक हुईं। इलाके में कुछ साल पहले से गेहूँ और सोयाबीन की फसलें भी शुरू हुई हैं।
साल में बरसात कितनी और कैसी होगी यह बताने वाले भूमका-भगत के अलावा और भी दर्जनों तरीके हैं। घाघ और भड्डरी समेत ‘अण्डा ले चींट चढ़े तो बरसा भरपूर’ सरीखी कहावत के साथ-साथ आखातीज या अक्षय तृतीया को पाँच या सात मटकों में पानी भरकर मिट्टी के ढेलों पर रखने की परम्परा भी है। इन मटकों में से पूरे दिन भर में जितना पानी झिरता है। उससे वर्षा का अंदाजा लग जाता है।
खेती की इन तरकीबों से अपने खाने लायक अनाज पैदा करने के अलावा पानी की भी बचत होती थी और समाज का जल स्रोतों से जीवंत सम्बन्ध बना रहता था। लेकिन प्रचार के हल्ले में आजकल इन्हें उपयोग करने वाले लोग ही भूलते जा रहे हैं। यह भूल 21 वीं सदी में सबको सूखे और अकाल की छाया में धकेल देगी, इसका अब भी अहसास हो सके तो बड़ी बात है।
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