जल जमाव के खिलाफ आन्दोलन

किसी भी अजनबी जगह पर एक इंजीनियर कितना मजबूर होता है वह मैं आपको बताता हूँ। कहीं भी भोज-भात होता है तो बहुत सारी व्यवस्था भोज-भात करवाने वाले के हाथ से निकल जाती हैं। भोज होता है तो निमंत्रित मेहमान तो आते ही हैं पर उनके अलावा बहुत से अनामंत्रित और अवांछित लोग भी आ जाते हैं। कोई मेहमान बन कर खाता है, कोई मांग कर खाता है, कुछ लोग जबर्दस्ती भी पांत में बैठ जाते हैं। अब अगर आपको अपनी इज्ज़त प्यारी है तो आप किसी को ना नहीं कर पायेंगे। अपनी व्यवस्था को बढ़ायेंगे। किसी अजनबी इलाके में भोज करेंगे तो हो सकता है कि आप पर दबाव आये कि आपको व्यवस्था हमारे जिम्मे कर देनी पड़ेगी या फलां-फलां रसोइया ही आपके यहाँ खाना बनायेगा। हमारे काम में सरकार का दबाव तो रहता ही है पर उसके बाद स्थानीय सांसद, विधायक, मुखिया, सरपंच और इन सबके ऊपर रंगदार, इन सबको अगर आप खुश रख सकें तो काम कर पायेंगे वरना सबसे लड़ते रह जायेंगे।’’

इस तरह 1950 के दशक में जल-निकासी की तबाही का जो बीज बोया गया था वह अभी भी फल-फूल रहा है। इसकी पराकाष्ठा 1987 की बाढ़ के समय देखने में आयी जब जन-आक्रोश अपने चरम पर पहुँचा। उस साल बागमती नदी का तटबंध बहुत सी दूसरी जगहों के साथ-साथ जठमलपुर और हायाघाट में भी टूटा और टूटे तटबंध से निकला पानी रोसड़ा तक पहुँचा। इन तटबंधों के टूटने की वजह से बाढ़ के पानी को रास्ता मिल गया और वह बड़ी तेजी से उतर गया। कहते हैं कि 1955 के बाद यह पहला मौका था जब इस इलाके में रबी की जबर्दस्त फसल हुई। इस घटना ने स्थानीय लोगों को इतना बोध तो जरूर करवाया कि उनकी समस्या बाढ़ की नहीं वरन् जल-निकासी की है और नदी का जो तटबंध टूट गया है उसे बांधने न दिया जाए। जल-जमाव की समस्या को लेकर वैसे भी इलाके के लोग पहले से सक्रिय थे और हर साल कुछ न कुछ धरना, प्रदर्शन आदि हुआ करता था। इस बीच सरकार को एक बार यह भी प्रस्ताव दिया था कि बेनीबाद के पास जगनियाँ में जो एक रक्सी धार निकलती है वह हायाघाट में दरभंगा-बागमती में जाकर मिलती है। उस धार का मुंह सड़क परिवहन को बनाये रखने के लिए हरकौली-चन्दौली गांव के बीच में बांध दिया गया था। उसे अगर चालू कर दिया जाए तो महेशवारा, बरुआरी और केवटसा आदि गाँवों का पानी निकल जायेगा और बागमती पर दबाव कुछ कम पड़ेगा। आज कल यह धार कटरा के निकट बकुची गाँव के पास से होकर गुजरती है। यह काम भी नहीं हुआ क्योंकि इसको चालू करने में किसानों के आपसी मतभेद थे।

1987 में जब बागमती के तटबंधों को बांधने के खिलाफ आन्दोलन मुखर होने लगा तब हुकुमदेव नारायण यादव और विजय कुमार मिश्र नेतृत्व देने के लिए आगे आये। धरना, जलूस, प्रदर्शन तथा पदयात्रा आदि के कार्यक्रम शुरू हुए। मानव कड़ी बनाने और जनता कर्फ्यू लगाने के सफल कार्यक्रम हुए और दरार पाटने का काम रुक गया। इसके बाद सरकार द्वारा आन्दोलन को तोड़ने का कार्यक्रम शुरू हुआ। दरभंगा के कमिश्नर ने कुछ लोगों को लगाकर तटबंधों की दरार पाटने का काम शुरू करवाया और दक्षिण के लोगों की तरफ से तटबंध की मरम्मत करने और गैप बंद करने के लिए आन्दोलन करवाया। अब मामला पानी की निकासी से हटकर दरभंगा और समस्तीपुर की अस्मिता पर जाकर टिक गया। जैसे तैसे मेल-मिलाप हुआ और स्थिति सम्भली। 27 अप्रैल 1988 को दरभंगा में राज्य के तत्कालीन सिंचाई मंत्री लहटन चौधरी के साथ आन्दोलनकारियों की आखिरी मीटिंग हुई जिसमें 19 सूत्री समझौता हुआ। इस मीटिंग में सरकार के सभी आला अधिकारी मौजूद थे। तब यह तय हुआ था कि घोघराहा में शांति धार पर एक स्लुइस फाटक बना कर नदी को फिर चालू कर दिया जायेगा। 29 अप्रैल 1988 को इस एस्केप रेगुलेटर का शिलान्यास दरभंगा के कमिश्नर ने किया। मगर रेलवे पुल को जो और लम्बा करने की बात थी वह आज तक नहीं हुई और न ही खरसड़ में बागमती का मुंह खोलने की जो बात थी वह काम हुआ। जनता का संघर्ष जारी है और फाइलें अभी तक बंद नहीं हुई हैं। यह सरकार का अलग कार्यक्रम था जिसका 1987 की घटनाओं या आन्दोलन से कोई वास्ता नहीं है।

कुल मिला कर दरभंगा, समस्तीपुर और खगड़िया आदि जिलों की जल-निकासी की समस्या खटाई में पड़ी हुई है और इस पर एक सम्यक अध्ययन और सघन कार्यक्रम की जरूरत हैं। टुकड़े-टुकड़े में, हाथ में लिए गए कार्यक्रम समस्या का समाधान नहीं करते वह समस्या को सिर्फ एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाते भर है। जिसके दरवाजे पर समस्या पहुँचायी जाती है वह निश्चित रूप से कमजोर होता है।

सवाल इस बात का है कि किसी भी जल-निकासी की योजना में पानी को अंततः मुख्य धारा में ही ले जाना होगा। बहुत से नदी-नाले इन नदियों के पास तक तो पहुँच जाते हैं मगर नदी में मिलने से पहले उनकी धारा मुड़ जाती हैं। मुख्य नदी की पेटी ऊपर उठी हुई है। जब तक नदियों और उनमें मिलने वाले नालों या धारों के तलों में फिर से संतुलन स्थापित नहीं होगा तब तक यह पानी नदी में जायेगा ही नहीं। यह संतुलन तभी स्थापित होगा जब नदी स्वाभाविक रूप से बहेगी। और नदी स्वाभाविक रूप से तभी बहेगी जब तटबंध न रहें। यह बात राज्य का जल-संसाधन विभाग नहीं जानता है, ऐसा सोचना भी बेवकूफी होगी। उसका काम योजनाएँ बनाना और उनका क्रियान्वयन करना है और वह अपना काम कर रहा है। अपने इस निष्काम कर्म के परिणाम के प्रति उसकी कोई आसक्ति नहीं है। हमारी सांस्कृतिक विरासत भी यही है।

13.15 तटबंधों ने आपस में लड़ाया


हम पिछले अध्यायों में देख आये हैं कि किस तरह तटबंधों ने लोगों को बांटने का काम किया है। तटबंध के इस पार और उस पार के हित एकदम अलग होते हैं। बरसात के मौसम में यह खाई और भी चौड़ी हो जाती है जिसका परिणाम लोहासी कांड जैसी जघन्य दुर्घटनाओं अथवा चानपुरा बांध की आपस के संबंधों में दरार पैदा करने वाली घटनाओं में होता है। इसमें अक्सर एक पक्ष बांध की सलामती चाहता है तो दूसरा उसे फूटी आंखों देखना नहीं चाहता है। इससे कभी-कभी व्यापारिक हितों को भी चोट पहुँचती है। ऐसी ही एक घटना 1998 में रोसड़ा के पास घटी थी जिसके बारे में कहा जाता है कि कुछ मछुआरों ने आपसी रंजिश या प्रतियोगिता की वजह से तटबंध को बम से उड़ा दिया था। रोसड़ा के समाजकर्मी शुभमूर्ति इस घटना का विवरण देते हुए कहते हैं, ‘‘...समस्तीपुर जिले में कोलहट्टा से लगा महेश्वर नाम का एक बहुत बड़ा चौर है। यहाँ आस-पास के गाँवों के बहुत से सहनी लोग हैं जो मछली पकड़ने का काम करते हैं। उनके आपस में कई गुट भी हैं। महेश्वर चौर मुख्यतः भिरहा गाँव के किसानों का है। थोड़े बहुत दूसरे लोग भी होंगे। जलकर मुख्यतः इन्हीं लोगों का है जिस पर सरकार का कोई अख्तियार नहीं है। मछली मारने का अधिकार आस-पास के सहनी लोग इनसे खरीद लेते हैं। चौर के मालिकों का भी संघ है मगर उसमें भी गुट हैं। अब मछुआरों के विभिन्न गुटों के बीच जिस तरह की प्रतियोगिता है, उसी तरह की प्रतियोगिता चौर के मालिकों के गुटों में भी है। अब जिसकी भी बोली सबसे ज्यादा रही हो उसने पैसा लाकर मालिकों को दे दिया मगर उसका जो प्रतियोगी रहा होगा उसे यह पूरा सौदा नागवार गुजरा और उन लोगों ने तय किया कि ऐन मौके पर बांध को काट दिया जाए तो यह पूरा सौदा ही समाप्त हो जायेगा और मछली भाग जायेगी। ऐसी हालत में उस साल जिसने चौर खरीदा है उसका पैसा डूब जायेगा। मालिकों को पैसा तो मिल ही चुका था इसलिए उनकी दिलचस्पी किसी के साथ कोई तरफदारी करने में नहीं थी।

सहनी लोग केवल मछली पकड़ने का ही काम नहीं करते, उनमें से बहुत से लोग बाहर जाकर पत्थर तोड़ने का भी काम करते हैं। पत्थर तोड़ने में विस्फोटक का इस्तेमाल होता है और यह लोग उसे प्रयोग करना जानते हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि तटबंध टूटने के पहले धमाका हुआ था जिसकी आवाज लोगों ने सुनी थी। इसी से शक होता है कि विस्फोटकों का प्रयोग हुआ होगा। इसके विपरीत कुछ लोगों का मानना है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था। नदी में उस साल बहुत पानी आया था और तटबंध पर दबाव था और वह अपने आप टूट गया। जहाँ तक मछलियों का सवाल है तो मालिकों को पैसा मिल ही चुका था और जिनका पैसा डूब गया, उनकी कोई औकात ही नहीं थी कि वह शोर करते। तटबंध टूट जाने के बाद प्राथमिकताएं बदल गईं। लोगों का बचाव करना था और उन्हें राहत पहुँचाने का काम करना था।

बिहार सरकार ने घटना की पूरी जानकारी हासिल करने के लिए एक कमेटी बनायी जिसकी अध्यक्षता दरभंगा के बच्चा बाबू कर रहे थे। अब यह एक व्यक्ति की कमेटी थी या समूह था यह तो पता नहीं मगर जब बच्चा बाबू यहाँ आये थे तो उनके साथ कुछ लोग और भी थे। बच्चा बाबू बड़े आदमी थे, हो सकता है उनके साथ कुछ लोग यूँ भी हो लिये हों। यह लोग नाव से कोलहट्टा जाने वाले थे मगर पानी का वेग बहुत ज्यादा था और यह लोग भिरहा से ही वापस चले गए। जाने की सूरत बनी 20-25 दिन बाद मगर फिर, जहाँ तक मैं जानता हूँ, कोई गया नहीं। उन्होंने कोई रिपोर्ट लिखी या नहीं यह स्थानीय तौर पर किसी को नहीं मालुम। किस्सा वहीं खत्म हो गया पर अपने पीछे कड़वाहट तो छोड़ ही गया।’’

13.16 इंजीनियर बोलते नहीं हैं मगर...


नाम न बताने की शर्त पर हमने एक वरिष्ठ इंजीनियर से बात की। उनका कहना था, ‘‘...राजनीतिज्ञ दो तरह के होते हैं। एक वह जो बहुत सी बारीकियों को समझते हैं और उन्हें लगता है कि ऐसा करने से नुकसान ज्यादा होगा तो वह इसका विरोध करते हैं। दूसरे किस्म के राजनीतिज्ञ वह हैं जो किसी भी कीमत पर कुछ होते देखना चाहते हैं। तकनीकी मसलों में इंजीनियरों की राय सर्वोपरि होनी चाहिये मगर उसमें भी रास्ते हैं। ज्यादा आबादी फंसने जा रही होगी तो अलाइनमेन्ट बदलेगा। कहीं पुनर्वास बहुत मंहगा हो जायेगा तो रिंग बांध बनेगा। इन सभी चीजों केलिए मानक हैं और उनके पालन के लिए निर्देश हैं।

यह सच है कि हायाघाट से बदलाघाट तक के बागमती के तटबंध की इतना क्षमता नहीं है कि वह नदी में ढेंग, रुन्नी सैदपुर और हायाघाट के रास्ते आने वाले प्रवाह को सुरक्षित तौर पर कोसी तक पहुँचा सके। इसके लिए पुणे में मॉडल टेस्ट हो रहा है और बहुत मुमकिन है कि हायाघाट के नीचे एक तटबंध को शिफ्ट करना पड़ेगा। ऐसा अगर होता है तो कुछ नये गाँव तटबंधों के बीच फंसेंगे और उनका पुनर्वास करना पड़ेगा। अब अगर लोग ऐसा नहीं चाहेंगे तो फिर यह काम नहीं होगा। लेकिन यह सब पुणे वाले मॉडेल टेस्ट पर निर्भर करेगा। इस सवाल का जवाब कि तकनीकी फैसले कौन करता है राजनीतिज्ञ या इंजीनियर तो इसका जवाब सिर्फ यह या वह में देना बड़ा मुश्किल है। ऐसा इसलिए कि जो भारतीय मानक है उसमें बड़े विकल्प और गुंजाइशें दी गयी हैं। अगर आबादी दूसरी जगह जाने के लिए तैयार है तो उसका खर्च, वाजिब जगह की तलाश, जिस गाँव में पुनर्वास होगा उसकी सहमति और विरोध को देखना पड़ेगा। इसी सन्दर्भ में रिंग बांध के निर्माण और उसके रख-रखाव के खर्च की तुलना कर के ही कोई निर्णय लेना पड़ेगा। हमारी जो विधायिका है उसका काम है कि वह जनता की आवाज सरकार तक पहुँचाये लेकिन यह बहुत हद तक उस व्यक्ति पर निर्भर करता है जो जनता का प्रतिनिधित्व करता है। इनमें से कुछ नुमाइन्दे जरूर ऐसे होते हैं जो सरकार पर प्रभाव डालते हैं और अपनी बात मनवा लेते हैं।

किसी भी अजनबी जगह पर एक इंजीनियर कितना मजबूर होता है वह मैं आपको बताता हूँ। कहीं भी भोज-भात होता है तो बहुत सारी व्यवस्था भोज-भात करवाने वाले के हाथ से निकल जाती हैं। भोज होता है तो निमंत्रित मेहमान तो आते ही हैं पर उनके अलावा बहुत से अनामंत्रित और अवांछित लोग भी आ जाते हैं। कोई मेहमान बन कर खाता है, कोई मांग कर खाता है, कुछ लोग जबर्दस्ती भी पांत में बैठ जाते हैं। अब अगर आपको अपनी इज्ज़त प्यारी है तो आप किसी को ना नहीं कर पायेंगे। अपनी व्यवस्था को बढ़ायेंगे। किसी अजनबी इलाके में भोज करेंगे तो हो सकता है कि आप पर दबाव आये कि आपको व्यवस्था हमारे जिम्मे कर देनी पड़ेगी या फलां-फलां रसोइया ही आपके यहाँ खाना बनायेगा। हमारे काम में सरकार का दबाव तो रहता ही है पर उसके बाद स्थानीय सांसद, विधायक, मुखिया, सरपंच और इन सबके ऊपर रंगदार, इन सबको अगर आप खुश रख सकें तो काम कर पायेंगे वरना सबसे लड़ते रह जायेंगे।’’

13.17 तटबंधों के साथ जीवन निर्वाह


तटबंध अगर ठीक से काम करें तो वह बाढ़ के पानी को सुरक्षित क्षेत्रों में फैलने नहीं देंगे लेकिन इससे पानी में मिली गाद भी तटबंधों के अंदर ही अटक जाती है। किसान गाद के फायदे को छोड़ना नहीं चाहता है मगर उसके खेतों पर गाद तभी पड़ेगी जब बाढ़ आयेगी। बाढ़ नियंत्रण के लाभार्थी और व्यवस्था का द्वन्द्व बिना किसी सार्थक वार्तालाप और पहल के जिन्दा है।

थोड़ी देर के लिए अगर हम मान लें कि तटबंध अपनी जगह बने रहेंगे तब खेतों तक गाद पहुँचाने का क्या कोई प्रबंध किया जा सकता है? इसका समाधान कोई भी आम आदमी या विशेषज्ञ तुरंत सुझायेगा कि स्लुइस गेट के निर्माण से यह काम बड़ी सरलता से किया जा सकता है। यहाँ तक सब ठीक है मगर जब स्लुइस गेट के संचालन की बात आती है तब वहाँ जल-संसाधन विभाग का आदमी मौजूद ही नहीं रहता। अगर वह रहे तो भी गेट को उठाने और गिराने का ‘जुगाड़’ ठीक नहीं रहता और कुल मिलाकर गेट अगर बंद है तो वह बंद ही रहेगा और खुला है तो खुला ही रह जाता है। कुछ दिनों बाद लोग टुकड़े-टुकड़े कर के हिस्से-पुर्जे बेच डालते हैं या स्लुइस गेट नदी की रेत में दफन हो जाता है। ऐसी कोई क्रान्ति भी नहीं आयी कि जल-संसाधन विभाग का कर्मचारी अपनी जवाबदेही आगे से जरूर निभायेगा।

यहाँ से स्लुइस गेट संचालन के दो रास्ते नजर आते हैं। पहला कि विभाग पूरी जिम्मेवारी के साथ स्लुइस गेट का न सिर्फ निर्माण करे बल्कि उसका संचालन भी उसी जिम्मेवारी के साथ करे। यह शायद विभाग के कर्मचारी होने नहीं देंगे और इसी लापरवाही का कुपरिणाम है कि पूरे उत्तर बिहार में अधिकांश स्लुइस गेट जाम पड़े हुए हैं। दूसरा रास्ता यह है कि स्लुइस गेट की जगह स्लुइस वाल्व जैसी किसी व्यवस्था का आश्रय लिया जाए जो दुतरफा काम करता है। यह नदी की रिवर साइड और कन्ट्रीसाइड को जोड़ने वाले पाइप की तरह काम करता है जिसमें ऑटोमैटिक वाल्व लगे होते हैं। यदि रिवर साइड में पानी ज्यादा हो तो यह वाल्व अपने आप खुल जाता है पानी कन्ट्रीसाइड में निकल जाता है। कन्ट्रीसाइड में पानी का दबाव रिवर साइड से ज्यादा होने पर वाल्व दूसरी तरफ खुलता है और पानी नदी में जाता है। दोनों तरफ समान पानी रहने पर वाल्व निष्क्रिय रहता है।

इंजीनियर कवीन्द्र कुमार पाण्डेय का कहना है, ‘‘...दिक्कत यह होती है कि इन संरचनाओं की देख-रेख होती नहीं है। बरसात का मौसम खतम होने के बाद नदी तो उतर जाती है मगर रख-रखाव के अभाव में अगर स्लुइस वाल्व काम न करे तो कन्ट्रीसाइड में जल-जमाव बना ही रहता है। यह जल-जमाव तब भी बना रहता है जब स्लुइस वाल्व की जगह फाटक लगे हों। उस हालत में किसान पानी की निकासी के लिए इन संरचनाओं को क्षति पहुँचा कर पानी की निकासी की व्यवस्था कर लेते हैं। संरचना एक बार बना देने के बाद विभाग उनके रख-रखाव में रुचि नहीं लेता। इतना निश्चित है कि अपनी जिम्मेवारी समझते हुए कर्मठता से कर्तव्य पालन के बिना कोई भी व्यवस्था काम करने वाली नहीं है। नाकारा लोगों में कर्तव्य बोध किस तरह जगाया जाए, यह एक सामाजिक समस्या है और इसका कोई तकनीकी या वैज्ञानिक समाधान नहीं है।’’

बाढ़ प्रभावित जनता इसे किस रूप में लेगी या स्वीकार भी करेगी या नहीं यह बात निश्चित रूप से कही नहीं जा सकती क्योंकि अमूमन दृष्टि यही होती है कि बाढ़ से सुरक्षा या तो पूरी चाहिये या फिर नहीं चाहिये। यह बात अलग है कि बाढ़ नियंत्रण के इस तरीके की तारीफ विलियम विल्कॉक्स ने भी की थी जिसे कुछ इंजीनियर इसे नियंत्रित बाढ़ (Controlled Flooding) की संज्ञा देते हैं। ऐसा लगता है कि बागमती नदी पर इस तरह के एक प्रस्ताव पर कुछ काम 1960 के दशक में हुआ था। पूर्व केन्द्रीय मंत्री हरिकिशोर सिंह ने लेखक को बताया, ‘‘...मुझे याद आता है कि सिंचाई विभाग के एक इंजीनियर ने एक प्रस्ताव किया था कि बागमती पर तटबंध मात्र 5 से 7 फुट की ऊँचाई तक के बनाये जाएं और बाढ़ के मौसम में पानी को उसके ऊपर से बहने दिया जाय। इससे गाद भी फैलेगी और सिंचाई का काम भी हो जायेगा। बाकी जरूरतभर सिंचाई ट्यूब वेल के माध्यम से कर ली जायेगी। के. एल. राव भी शायद ऐसा ही कुछ चाहते थे।’’

Path Alias

/articles/jala-jamaava-kae-khailaapha-anadaolana

Post By: tridmin
×