जल संसाधन परियोजनाएं और पर्यावरण पर उनका प्रभाव

बड़े बांध
बड़े बांध

विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश होने के साथ-साथ भारतवर्ष विश्व में तेजी से बढ़ती हुई तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रहा है। लगातार होने वाले विकास एवं जनसंख्या वृद्धि के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधिक दबाव है और जल संसाधन भी इससे अछूते नहीं हैं क्योंकि हमारे देश में आनुपातिक रूप में जल की उपलब्धता अत्यंत बेमेल है। इस कारण हमें भारत में जल संसाधन की विभिन्न परियोजनाओं की महती आवश्यकता है। यह आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि देश में जल-संकट लगातार बढ़ रहा है। भारत की जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का 18% है लेकिन जल संसाधन केवल 4% ही हैं। भारत के अधिकांश जिलों में भूजल स्तर तेजी से घट रहा है। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ और सूखे की समस्या बढ़ रही है। इसलिए, भारत सरकार के जल शक्ति मंत्रालय द्वारा अटल भूजल योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, जल शक्ति अभियान, जल जीवन मिशन आदि जैसी जल संवर्धन एवं जल संरक्षण की अनेक महत्वपूर्ण परियोजनाएं क्रियान्वित की जा रही हैं। ये परियोजनाएं ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में जल संरक्षण के प्रयासों को बढ़ावा देती हैं और भूजल प्रबंधन में सुधार करती हैं। इस प्रकार, जल संसाधन परियोजनाएं भारत में जल संकट को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। किन्तु बृहत स्तर की जल संसाधन परियोजनाओं के कुछ पर्यावरणीय प्रभाव भी होते हैं जिनमें बांधों और जलाशयों के निर्माण के कारण होने वाले प्रभावों में सूक्ष्म जलवायु परिवर्तन, वनस्पति आवरण का नुकसान, मिट्टी का कटाव, जल स्तर में बदलाव और जल के दबाव के कारण बढ़ी हुई भूकंपीय गतिविधियां प्रमुख रूप से शामिल हैं। चूंकि जलवायु परिवर्तन हमारे ग्रह पर लगातार प्रभाव डाल रहा है, इसलिए इन परियोजनाओं से जुड़े पर्यावरणीय प्रभावों को समझना जरूरी हो जाता है। इस लेख में, जल संसाधन परियोजनाओं और पर्यावरण पर उनके प्रभावों पर प्रकाश डाला गया है।

जल संसाधन परियोजनाएं क्या हैं और इनकी आवश्यकता क्यों है?

जल संसाधन परियोजनाओं में मुख्यतः मानव और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र दोनों के लिए जल की पर्याप्त व सतत आपूर्ति और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए जल संसाधनों की विभिन्न योजनाएं, विकास और प्रबंधन सम्बन्धी गतिविधियां शामिल होती हैं। इन परियोजनाओं में गतिविधियों की एक विस्तृत श्रृंखला सम्मिलित होती है, जिसमें भविष्य में जल की मांग का अनुमान लगाना, जल के संभावित नए स्रोतों का मूल्यांकन करना, मौजूदा जल स्रोतों का संरक्षण एवं संवर्धन करना और नवीनतम पर्यावरणीय नियमों का अनुपालन एवं उनको समायोजित करना शामिल है। इन परियोजनाओं की आवश्यकता कई कारणों से उत्पन्न होती है जिनमें कुछ कारण निम्नलिखित है।

बढ़ती मांग: वैश्विक जनसंख्या में तीव्र वृद्धि देखी जा रही है, और वर्तमान गति से वर्ष 2030 तक पूरे विश्व में जल की अनुमानित मांग और उपलब्ध आपूर्ति के बीच 40% की कमी का सामना करना पड़ सकता हैं। जल की कमी: विश्व की लगभग 40% से अधिक जनसंख्या जल की कमी वाले क्षेत्रों में रहती है। विश्व के कई भागों में जल संसाधन पहले से ही अल्प एवं दुलभ हैं। जलवायु परिवर्तन: जीवाश्म ईंधन (Fossil Fuel) के अत्यधिक उपयोग के कारण बढ़ते हुए वैश्विक तापमान से जलवायु परिवर्तन हो रहा है, जो जलविज्ञान चक्र को अनेक प्रकार से बदल रहा है। जिससे वर्षा जल अधिक अप्रत्याशित हो गया है और बाढ़ और सूखे की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ रही है।

जल संसाधनों का विखंडन 

विश्व के 148 देशों द्वारा लगभग 276 ट्रांसबाउंड्री बेसिन आपस में साझा किए जाते हैं, जो वैश्विक मीठे जल के प्रवाह का 60% हैं। लगभग इन सभी में कुछ ना कुछ विवाद है। इसके अलावा सभी तटवर्ती इलाकों के लिए इष्टतम जल संसाधन प्रबंधन और विकास समाधान प्राप्त करने के लिए सहयोग की आवश्यकता है।

इन चुनौतियों से निपटने के लिए, सभी देशों को संस्थागत मजबूती, कुशल सूचना-प्रबंधन और बुनियादी ढांचों के विकास में निवेश करने की आवश्यकता है। जल संसाधन परियोजनाएं इस प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। साथ ही यह जल सुरक्षा (Water Security) को मजबूत करने और जल के उपयोग की स्थिरता को सुनिश्चित करने में भी मदद करती हैं।

सामान्यतः हमारे देश में जल संसाधन परियोजनाएं मुख्य रूप से बहुउद्देशीय परियोजनाओं के रूप में विकसित की जाती हैं। बहुउद्देशीय परियोजनाएं देश में जल संसाधनों के वैज्ञानिक प्रबंधन का आधार हैं। एक बहुउद्देशीय जल संसाधन परियोजना एक विशाल परियोजना होती है, जो बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई, विद्युत उत्पादन, मछली प्रजनन, मृदा संरक्षण, आदि जैसे विभिन्न उदेश्यों को पूर्ण करने में सहायक होती हैं। जबकि, जलविद्युत परियोजनाएं केवल मुख्य रूप से विद्युत उत्पादन से संबंधित होती हैं। सारणी । में हमारे देश की प्रमुख जल संसाधन परियोजनाओं का विवरण दिया गया है। 

जल संसाधन परियोजनाओं के मुख्य उद्देश्य या लाभ

कृषि जल सिंचाई आपूर्ति : जल संसाधन परियोजनाओं के मुख्य उदेश्यों में कृषि जल सिंचाई आपूर्ति प्रमुख है। विशेष रूप से शुष्क मौसमों के दौरान खेतों की सिंचाई के लिए जल की अविरल आपूर्ति की जाती है। इसका महत्व उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र में और अधिक है जहां वर्षा मात्र कुछ दिनों या महीनों के लिए ही होती है। विशाल जलाशयों में वर्षों के कारण उत्पन्न बाढ़ के जल को संचयन द्वारा एकत्रित कर और कई नहरों को खोदकर सिंचाई तंत्र बनाया जाता है और फिर शुष्क क्षेत्रों की सिंचाई की जाती है।

विद्युत की उत्पत्ति: आज भी जलविद्युत परियोजनाएं साफ-सुथरी, प्रदूषण मुक्त और सबसे सस्ती ऊर्जा के उत्पादन का सबसे बड़ा स्त्रोत हैं। यह ऊर्जा ही उद्योग, कृषि और अन्य आर्थिक गतिविधियों की रीढ़ है। स्थापित जलविद्युत क्षमता के मामले में भारत विश्व में 5वें स्थान पर है। वर्ष 2020 तक, भारत की स्थापित जलविद्युत क्षमता 46,000 मेगावाट थी।

बाढ़ नियंत्रण - जल संसाधन परियोजनाएं बाढ़ को निर्यात्रत करती हैं क्योंकि जल उनमें संग्रहित किया जा सकता है। इन परियोजनाओं ने कई अभिशप्त नदियों को वरदानी नदियों में बदल दिया है।

मृदा संरक्षण - जल संसाधनपरियोजनाओं द्वारा जल को संचित कर उसकी गति को कम कर दिया जाता है फलस्वरूप मिट्टी का कटाव एवं वहाव बहुत हद तक कम हो जाता है। इस प्रकार ये परियोजनाएं जल एवं मृदा दोनों के संरक्षण में सहायक होती हैं।

वनीकरण : पेड़ों को व्यवस्थित रूप से जलाशयों के तटों पर और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में लगाया जाता है। यह वन्य जीवन (Wild Life) और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) को संरक्षित करने में मदद करता है।

जल परिवहन-  कुछ जल संसाधन परियोजनाओं द्वारा मुख्य नदी या नहर के माध्यम से अंतर्देशीय जल परिवहन भी किया जाता है। सभी उपलब्ध परिवहनों के साधनों में भारी माल की ढुलाई के लिए जल परिवहन सबसे सस्ता साधन है।
मत्स्य पालन - मुख्य रूप से बाँध परियोजनाएं मछली के प्रजनन के लिए आदर्श स्थिति प्रदान करती हैं तथा बाँध के जलाशयों में मछली की चुनी हुए किस्मों की पाला जाता है जिससे स्थानीय निवासियों को स्वरोजगार के साधन प्राप्त होते हैं।

पर्यटक केंद्र: जल सदा से मनुष्य के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है चाहे वह नदी हो, झरना हो या झील हो। यदि जल संसाधन परियोजनाओं की समुचित देखभाल एवं रखरखाव किया जाए और उन्हें वैज्ञानिक ढंग से विकसित किया जाए तो ये पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन जाती हैं जो पुनः स्थानीय निवासियों को स्वरोजगार के साधन उपलब्ध कराती हैं।

भूजल पुनः पूरण - भारत भूजल संसाधनों पर भी अत्यधिक निर्भर है, जो सिंचित क्षेत्र का 50 प्रतिशत से अधिक है और जिसमें 20 मिलियन नलकूप संस्थापित हैं। भारत ने नदी के जल को संग्रहित करने और भूजल पुनः पूरण को बढ़ाने के लिए लगभग 5,000 बड़े या मध्यम बांध, बैराज आदि बनाए हैं।

जल संसाधन परियोजनाओं से हानियां

मुख्य रूप से बाँध परियोजनाओं में जलाशय के जलग्रहण क्षेत्र की उपजाऊ कृषि भूमि को जलमग्न होने से बचाया नहीं जा सकता। आमतौर पर किसी परियोजना के उद्देश्य और बांध की नींव, तटबंध और जलाशय की तकनीकी आवश्यकताओं के अधीन, जलमग्न क्षेत्र को यथासंभव छोटा रखने के लिए बांध स्थल का चयन किया जाता है। सामान्यतः, जलमग्न क्षेत्र लाभान्वित क्षेत्र के 10% से कम होना चाहिए। इसी प्रकार जलाशय के भराव क्षेत्र में आने वाली वन भूमि को या तो साफ किया जाता है या जलमग्न होने दिया जाता है। यह पर्यावरण के लिए बहुत हानिकारक है।

इन परियोजनाओं के जलमग्न क्षेत्र में कुछ गाँव, कस्बे या शहर आदि स्थित होते हैं, जो यहां के स्थानीय लोगों के विस्थापन का कारण बनते हैं। उन्हें अपने घरों और घर से जुड़ी यादों को छोड़ना पड़ता है जो भावनात्मक रूप से अत्यंत कष्टकारक और दुष्कर प्रक्रिया है। नदियां अपने साथ बहुत जलोढ़ मिट्टी बहा कर लाती हैं और वह बाँध रूपी अवरोध के कारण जलाशयों में जमा हो जाती है। बांध में अवसादीकरण, परियोजना के जीवनकाल को कम करता है।

कुछ अध्ययनों से पता चलता है। कि कुछ बड़ी विदेशी बहुउद्देशीय परियोजनाओं के परिणामस्वरूप मामूली स्थानीय भूकंप आदि की घटनाएं भी हुई हैं। यद्यपि इस प्रकार का कोई भी अध्ययन हमारे देश में अभी तक साबित नहीं हो सका है। बाँधों के पीछे तलछट जमा होने से जल की गुणवत्ता बदल सकती है और जलीय आवास प्रभावित हो सकते हैं। तलछट जमा होने से समय के साथ जलाशय की क्षमता भी कम हो जाती है।

बाँधों और जलाशयों के कारण होने वाले प्रभाव - भारत में बाँधों और जलाशयों का पर्यावरण और स्थानीय समुदायों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यहां कुछ प्रभाव दिए गए हैः

पारिस्थितिकी विनाश -  बाँधों और भारी बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं से मू-उपयोग लगातार बदल रहा है जो इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र को तेजी से नष्ट कर रहा है। अति संवेदनशील हिमालय क्षेत्र में ये विनाश और अधिक है।

जलीय जीवन पर प्रभाव जल प्रवाह - और तापमान में परिवर्तन जलीय प्रजातियों की प्रजनन पद्धति और अस्तित्व को प्रभावित कर सकता है। कुछ मछली प्रजातियों, जैसे सेल्मन, अंडे देने के लिए विशिष्ट प्रवाह स्थितियों पर निर्भर करती हैं। मछली प्रवासन (Fish Migration) के प्रावधानों के बिना बांधों का मत्स्य पालन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है।

भौतिक और रासायनिक प्रभाव बाँध - जल के प्रवाह में बाधा उत्पन्न करते हैं, जलाशयों में अवसादन पैदा करते हैं, नदी के किनारे गंभीर कटाव करते हैं, आर्द्रता बढ़ाते हैं, स्थानीय जलवायु परिवर्तन का कारण बनते हैं, सतह के वाष्पीकरण में वृद्धि करते हैं, भूजल स्तर बढ़ाते हैं और भूमि को लवणता में बदलते हैं।

मीठे-जल की जैव-विविधता पर प्रभाव : बाँध और उनसे जुड़े जलाशय कई प्रक्रियाओं के माध्यम से मीठे जल की जैव-विविधता को स्थायी रूप से प्रभावित करते हैं। जलाशयों के निर्माण और भूमि के जलमग्न होने से प्राकृतिक आवासों को नुकसान हो सकता है,  वनस्पति और जीव-जंतु विस्थापित हो सकते हैं। परिदृश्य में यह परिवर्तन पारिस्थितिक तंत्र को भी खंडित कर सकता है, जिससे जैव विविधता प्रभावित हो सकती है। बड़े बांध एनोक्सिक अपघटन (Anoxic Decomposition) का कारण बनते हैं जिससे मीथेन गैस का निर्माण होता है।

परिवर्तित पारिस्थितिकी तंत्र  - बाँध कम नदी प्रवाह, कम तलछट प्रवाह, परिवर्तित जल तापमान, निकटवर्ती समुद्र तट पर परिवर्तित मुहाना डेल्टा, परिवर्तित संरचना और पोषक तत्वों का वितरण, परिवर्तित फाइटोप्लांकटन आबादी का वितरण, आवास विखंडन और नदी खंडों में अवरुद्ध प्रवास मार्गों के माध्यम से पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करते हैं। 

इन प्रभावों के बावजूद, जल भंडारण, सिंचाई और पनबिजली उत्पादन के संदर्भ में उनके लाभों के कारण बाँधों और जलाशयों का निर्माण निरन्तर जारी है। हालाँकि, इन पर्यावरणीय प्रभावों पर विचार करना और हानि को कम करने के लिए उपयुक्त उपायों को लागू करना महत्वपूर्ण है।

जल संसाधन परियोजनाएं-पर्यावरणीय प्रभाव - 

निर्माण चरण 

विभिन्न जल संसाधन परियोजनाओं के अन्तर्गत बाँधों, जलाशयों और अन्य बुनियादी ढांचों के निर्माण चरणों के दौरान अनेक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय प्रभाव देखने को मिलते हैं। यहां कुछ प्रमुख प्रभाव दिए गए हैंः

जल संदूषण (Water Contamination): निर्माण गतिविधियों के दौरान जलस्रोतों में आकस्मिक रूप से प्रदूषकों के प्रवाहित होने से जल संदूषण हो सकता है। इसके अतिरिक्त, मामूली रासायनिक रिसाव जमीन में प्रवेश कर जलमार्गों को प्रदूषित कर सकता है, पानी को विषाक्त कर सकता है और जलीय जीवन को नुकसान पहुँचा सकता है।

अपशिष्ट उत्पादन - विभिन्न निर्माण गतिविधियां आमतौर पर अपशिष्ट उत्पन्न करती हैं, जिसका पर्यावरण पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है।

मिट्टी का कटाव और अवसादन: कुछ निर्माण तकनीकें पर्यावरण को भौतिक क्षति पहुंचा सकती हैं, जिसमें मिट्टी का कटाव, अपवाह और अवसादन शामिल हैं। इससे नाजुक जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में स्थायी परिवर्तन हो सकता है।

सार्वजनिक जल निकासी प्रणालियों को नुकसान - निर्माण गतिविधियाँ सार्वजनिक जल निकासी प्रणालियों को नुकसान पहुंचा सकती हैं।
दृश्य प्रभाव और ध्वनि प्रदूषण निर्माण परियोजनाएं अक्सर दृश्य प्रभाव और ध्वनि प्रदूषण का कारण बनती हैं, जो स्थानीय समुदायों को परेशान कर सकती हैं।

यातायात में वृद्धि और पार्किंग स्थल की कमी: निर्माण गतिविधियों से यातायात में वृद्धि हो सकती है और पार्किंग स्थानों की कमी हो सकती है, जिससे स्थानीय - जनमानस को असुविधा हो सकती है।

जल संसाधनों की मांग परियोजना निर्माण गतिविधियाँ - जल संसाधनों की मांग उत्पन्न करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप जल पर्यावरण और जल संसाधनों के उपयोगकर्ताओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। 

संचालन चरण

बाँधों और जलाशयों सहित जल संसाधन परियोजनाएं, अपने संचालन चरणों के दौरान महत्वपूर्ण पर्यावरणीय प्रभाव डाल सकती हैं। यहां कुछ प्रमुख प्रभाव दिए गए हैं:

सामाजिक-आर्थिक लाभ संचालन - चरण की गतिविधियों के प्रमुख सामाजिक-आर्थिक लाभ हो सकते हैं। जैसे स्थानीय जनसंख्या को रोजगार के अवसर, विकास कार्यों में भागीदारी, बिजली उत्पादन में वृद्धि, नवीन सड़कों का निर्माण, आदि ।

जल संसाधनों पर प्रभाव - इन परियोजनाओं के पूर्ण होने के बाद क्षेत्र में पूरे वर्ष जल आपूर्ति में सुधार होता है और जल संसाधनों की उपलब्धता बढ़ जाती है जिसका सीधा प्रभाव सिंचाई के माध्यम से कृषि फसल की उत्पादकता पर देखा जा सकता है।

बाढ़ नियंत्रण - यदि क्षेत्र बाँध निर्माण से पूर्व बाढ़ की विभीषिका से ग्रस्त था तो विशाल जलाशय के कारण बाढ़ आपदा (Flood Moderation) से निवारण प्राप्त होता है।

भूजल पुनर्भरण - जलाशय के माध्यम से जल की उपलब्धता के कारण लगातार जल रिसाव होता रहता है। प्रायः यह देखा गया है कि परियोजनाओं के निचले क्षेत्रों में कुछ वर्षों में ही बेहतर भूजल पुनर्भरण के परिणामस्वरूप भूजल स्तर में वृद्धि पाई जाती है।

मिट्टी का कटाव और अवसादन : स्थानीय लोग, विशेष रूप से बाँध के ऊपरी हिस्से में, जल आपूर्ति के प्रावधान के कारण अपने खेत का विस्तार करने का प्रयास कर सकते हैं। इससे बाँध जलाशय में मिट्टी का कटाव और तलछट में वृद्धि हो सकती है।
जैव-विविधता समृद्धि - आमतौर पर जल संसाधन परियोजनाओं के जलाशय में जलीय जीवन में वृद्धि और प्रवासी पक्षियों के आगमन में वृद्धि भी देखी जाती है।

अपशिष्ट निपटान : इस चरण का मुख्य प्रभाव अपशिष्ट निपटान है। इसके लिए पुनर्चक्रण योग्य अपशिष्टों को अलग से एकत्र किया जाएगा और पुनः उपयोग या पुनर्चक्रित किया जाएगा, उदाहरण के लिए कंक्रीट, लकड़ी, स्क्रैप स्टील और ऑफ-कट्स, पैलेट्स, प्लास्टिक, कागज और गत्ता, तेल आदि ।

दोनों ही चरणों के ये प्रभाव दीर्घकालिक होते हैं और पर्यावरण पर उनके प्रभाव को कम करने के लिए सावधानीपूर्वक प्रबंधन और उपचारात्मक रणनीतियों की आवश्यकता होती है। पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन (Environmental Impact Assessment, (EIA)) एक ऐसी पद्धति है जिसका उपयोग परियोजना के नियोजन और अभिकल्पन चरण के दौरान प्रस्तावित विकास के परिणामस्वरूप होने वाले संभावित पर्यावरणीय विषयों का अनुमान लगाने और उनका समाधान करने के लिए किया जाता है। यह प्रस्तावित परियोजना की स्थिरता का निर्धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और निर्णय निर्माताओं को EIA रिपोर्ट के आधार पर प्रस्तावित परियोजना को स्वीकार या अस्वीकार करने में सहायता करता है।

प्रमुख पर्यावरणीय प्रभावों का प्रबंधन

जल संसाधन परियोजनाओं के निर्माण एवं संचालन चरणों के दौरान पर्यावरणीय प्रभावों को कई रणनीतियों के माध्यम से कम किया जा सकता है।

एक पर्यावरण प्रबंधन योजना (Environmental Management Plan (EMP)) विकसित करें : संभावित पर्यावरणीय जोखिमों की पहचान करें और प्रभावों को कम करने के लिए स्पष्ट लक्ष्य और कार्यविधि निर्धारित करें।

अविरत अभिकल्पन (Sustainable Design) और निर्माण तकनीकों को लागू करें: टिकाऊ अभिकल्प सिद्धांतों और निर्माण तकनीकों को शामिल करें जो विभिन्न संसाधनों की कम खपत करते हैं और साथ ही न्यूनतम अपशिष्ट पैदा करते हैं।

कुशल अपशिष्ट प्रबंधन - अपशिष्ट उत्पादन को दोनों चरणों में कम करें और प्रबंधित करें। इसके लिए पुनरूपयोग, पुनर्चक्रण, सामग्री को बचाने और पैकेजिंग अपशिष्ट को कम करने जैसी रणनीतियों को लागू करें।

कुशल संसाधन प्रबंधन - सटीक ऑर्डर देकर और अतिरिक्त निर्माण या अन्य सामग्री को कम करके सामग्री के उपयोग को अनुकूलित करें। जब भी संभव हो टिकाऊ और पुनर्चक्रित सामग्रियों के उपयोग को बढ़ावा दें।

शोर और वायु प्रदूषण नियंत्रण: शोर के स्तर को नियंत्रित करने के उपायों को लागू करें, जैसे गैर-संवेदनशील समयावधि के दौरान शोर वाली गतिविधियों को निर्धारित एवं क्रियान्वित करना। धूल नियंत्रण उपायों का उपयोग करके, सामग्री को ढककर और कम उत्सर्जन वाले उपकरणों का उपयोग करके धूल और वायु प्रदूषण को कम करें।

प्राकृतिक आवासों और जैव विविधता की रक्षा: आर्द्रभूमि, पेड़ों और वन्यजीव आवासों सहित प्राकृतिक विशेषताओं की सुरक्षा और संरक्षण को प्राथमिकता दें।

स्थानीय सामग्रियों को प्राथमिकताः स्थानीय सामग्रियों को अधिक से अधिक उपयोग में लाएं इससे परिवहन उत्सर्जन कम हो जाता है और दुलाई की लागत भी कम आती है।

मशीनरी की कुशल योजना को अधिकतम बनानाः यह विभिन्न परियोजनाओं और पोर्टफोलियो में किया जा सकता है।

कार्बन-तटस्व जैव इंधन या नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग - जीवाश्म ईंधन पर चलने वाले संयंत्र और उपकरण की अधिक से अधिक सोर्सिंग से निर्माण प्रक्रियाओं और गतिविधियों के कार्बन प्रभाव को कम करने में मदद मिल सकती है।

इन उपायों को लागू करके, आप टिकाऊ निर्माण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हुए एक हरित भविष्य में योगदान कर सकते हैं।

पर्यावरण प्रबंधन योजना (EMP): जल संसाधन प्रबंधन में पर्यावरण प्रबंधन योजना (Environmental Management Plan (EMP)) एक महत्वपूर्ण रणनीतिक दस्तावेज है जो बताता है कि एक परियोजना या संगठन पर्यावरणीय नियमों का अनुपालन करते हुए पर्यावरण को होने वाली क्षति को न्यूनतम कैसे करेगा। EMP में परियोजना क्षेत्र में सुरक्षा उपायों का विवरण शामिल होता है और इसके कार्यान्वयन के लिए जिम्मेदार प्रमुख व्यक्तियों की सूची बनाई जाती है। आपदा प्रबंधन योजना भी EMP का एक प्रमुख भाग होता है। जल संसाधन प्रबंधन में EMP के कुछ प्रमुख घटक यहां दिए गए हैं।

पर्यावरण नीति - यहाँ विशेष रूप से जल संसाधनों के संबंध में पर्यावरणीय प्रबंधन और स्थिरता के लिए संगठन प्रतिबद्ध है। बिना पर्यावरण नीति के पर्यावरण प्रबंधन योजना का अनुपालन असंभव हैं। जल संसाधन परियोजना द्वारा संचालित कम वन आवरण वाले जिलों/क्षेत्रों में वन की गुणवत्ता (जैसे घनत्व, प्राकृतिकता, आदि) और मात्रा (विस्तार, आदि) में सुधार के लिए वन प्रबंधन कार्य योजना होनी चाहिए। इसमें हरित पट्टी (जलग्रहण क्षेत्र को छोड़कर) की योजना, जियोमेम्ब्रेन और जियोफैब्रिक सामग्री (जैसे, टेरामेश सिस्टम, गेवियन बास्केट, पैरालिंक, बायोमैक, जियोटेक्सटाइल्स आदि) का उपयोग करके जलाशय रिम उपचार योजना, परियोजना स्थल के सात किलोमीटर के भीतर आवास प्रवासी पथ (Habitat/Migratory Path) की योजना, प्रभावित वनस्पतियों जीवों के लिए संरक्षण योजना (जिसमें दुर्लभ लुप्तप्राय प्रजातियों के लिए पुनर्वास योजना शामिल है), भोजन और आश्रय के लिए वैकल्पिक प्रजनन स्थल (Breeding Spaces) और गलियारे (Corridors) की कार्य योजना भी शामिल होनी चाहिए।


व्यावहारिक लक्ष्य: EMP के ये विशिष्ट लक्ष्य, मापने योग्य उद्देश्य होते हैं जिनका लक्ष्य जल संसाधनों पर इसके पर्यावरणीय प्रभाव को कम करना है। वार्षिक लक्ष्यों (भौतिक एवं वित्तीय) एवं जलग्रहण क्षेत्र उपचार योजना (Catchment Area Treatment Plan) के साथ जलग्रहण क्षेत्रों का सूचकांक मानचित्र तैयार करना भी आवश्यक है।

जल संसाधन आवंटन योजना - यह स्पष्ट करता है कि आवंटन के लिए कौन जिम्मेदार है और इसके कार्यान्वयन के लिए आवंटित संसाधन कौन से हैं, और इसके विभिन्न चरण क्या हैं। अत्यधिक सिंचाई के प्रतिकूल प्रभावों के अन्तर्गत जल भराव को कम करने के लिए, कृषि के लिए जल के इष्टतम उपयोग हेतु प्रजातियों फसलों की पसंद, नीतियों - सहित सिंचाई विधि, जल भराव, लवणता आदि के नियंत्रण के लिए कार्य योजना, सिंचाई क्षमता के संबंध में सिंचित क्षेत्र के लिए विकास की कार्य योजना, भूजल प्रबंधन कार्य योजना जिसमें सतही जल के साथ भूजल का दोहन भी शामिल हो, जल भराव की समस्या पर विशेष जोर देते हुए भूमि उपयोग प्रबंधन सम्मिलित हैं।

कार्य योजना - इसमें उन कदमों की रूपरेखा दी जाती है जो संगठन या परियोजना अपने पर्यावरणीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उठाएगा, जैसे कि जल आपूर्ति और सीवरेज प्रणालियों का निर्माण और सुधार, पेयजल सुधार और अपशिष्ट जल उपचार सुविधाएं।

सतत निगरानी योजना - इसमें निगरानी और समीक्षा गतिविधियों की कार्य प्रणाली, आवृत्ति और अवधि शामिल है। इसमें ट्रिगर भी शामिल हैं जिनके तहत सुधारात्मक कार्रवाई की जाती है। पोस्ट प्रोजेक्ट पर्यावरण निगरानी योजना भी इसका एक भाग है।

घटना/आपातकालीन तैयारी और प्रतिक्रिया: यह रेखांकित करता है कि संगठन या परियोजना के प्रबंधक आकस्मिक पर्यावरणीय घटनाओं या आपात स्थितियों पर किस तरह से प्रतिक्रिया करेंगे। यह एक तरह की आपातकालीन कार्य योजना है, जिसमें जोखिम और बाँध टूटने के विश्लेषण सहित आपदा प्रबंधन योजना आदि निहित है।

कानूनी अनुपालन : EMP को प्रासंगिक कानून, परियोजना-विशिष्ट अनुमोदन और अन्य हितधारक आवश्यकताओं का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिए। इसमें मुख्य रूप से पुनस्र्थापन एवं पुनर्वास योजना, निर्माण गतिविधियों के दौरान पर्यावरण सुरक्षा उपाय, संवेदनशील एवं पुरातात्विक स्मारक स्थलों का संरक्षण, खदान क्षेत्रों और उत्खनन सामग्री को डंप करने के क्षेत्रों की बहाली की योजना आदि सम्मिलित होती है। लागत-लाभ विश्लेषण के साथ प्रति पूरक वनरोपण योजना आदि भी EMP का अभिन्न अंग है।

EMP एक गतिशील दस्तावेज़ है जिसकी परियोजना के संचालन, पर्यावरणीय प्रभाव और नियामक आवश्यकताओं में परिवर्तन को प्रतिबिंवित करने के लिए नियमित रूप से समीक्षा और अद्यतन किया जाना चाहिए। यह व्यवसायों के लिए पर्यावरणीय स्थिरता और कानूनी अनुपालन के प्रति अपनी प्रतिवद्धता प्रदर्शित करने का एक महत्वपूर्ण उपकरण है।

सारांश

बढ़ता हुआ जल संकट एक गंभीर चिंता का विषय है, जो कुशल जल प्रबंधन प्रथाओं की आवश्यकता को बढ़ाता है। मीठे जल की मांग तेजी से बढ़ रही है, खासकर शहरी क्षेत्रों में जहां जनसंख्या वृद्धि तेजी से हो रही है। कुशल जल प्रबंधन, पारिस्थितिक संभावना को बढ़ावा देते हुए इस बहुमूल्य संसाधन के स्थायी उपयोग को सुनिश्चित करता है। सभी प्रकार की विकासात्मक परियोजनाओं के लिए वास्तविक पर्यावरणीय प्रभावों को यथासंभव प्रबंधित करने की आवश्यकता है जिसमें जल संसाधन परियोजना कोई अपवाद नहीं है। कभी-कभी परियोजना अधिकारियों और स्थानीय समुदाय के बीच गलतफहमी और संचार अंतराल (communication gaps) होते हैं और परियोजनाओं में अत्यंत विलंब हो जाता है और परोक्ष रूप से देश के नागरिकों को ही उसकी कीमत चुकानी होती है। इसलिए परियोजना अधिकारियों और स्थानीय समुदाय के बीच सतत वार्ता, कार्यविधि में पारदर्शिता और शिक्षा की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए। किसी भी विकास परियोजना में पर्यावरणीय परिवर्तन ना हो यह संभव नहीं है, किन्तु पर्यावरण प्रबंधन योजना (Environmental Management Plan) जैसे सशक्त उपकरण के माध्यम से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को कम अवश्य किया जा सकता है। जल संसाधन परियोजनाओं के निर्माण एवं संचालन के विभिन्न चरणों के दौरान अनेक प्रकार के पर्यावरणीय प्रभाव उत्पन्न होते हैं किन्तु समग्र, समुचित, व्यावहारिक कार्य योजना बनाकर इन प्रभावों को कम किया जा सकता है। अतः नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे ऐसी नीति एवं विधान बनाएं जो आम जनमानस को जल संरक्षण के महत्व के की स्थायी जल प्रबंधन के प्रति जिम्मेदारी और स्वामित्व की भावना को बढ़ावा मिलेगा। हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए बेहतर भविष्य सुनिश्चित करने हेतु टिकाऊ जल संसाधन प्रबंधन को प्राथमिकता देने के लिए सरकारों, संगठनों और व्यक्तियों को एक साथ आना होगा।

सम्पर्क करें: डॉ. मनीष कुमार नेमा, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की
 

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Post By: Kesar Singh
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