विगत गर्मियों में बैंगलोर शहर सुर्खियों में रहा, कारण था जल संकट। अब, जहां-तहां से बाढ़ की खबरें आ रही हैं। यह बात विचारणीय है कि यह सूखे और बाढ़ का चक्र विगत कुछ वर्षों से काफी तेज़ी से घूम रहा है। इस घटनाक्रम पर विचार करने पर शायद हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह सब प्रकृति का प्रकोप है। लॉकडाउन के दौरान जब मानव गतिविधियां सीमित हो गई थीं और मानव का प्रकृति में हस्तक्षेप कम हो गया था, तब हवा की गुणवत्ता, जो-टख द्वारा प्रदर्शित होती, में काफी सुधार देखा गया था। स्वच्छ जल की स्रोत, नदियों की ढउड (जल में घुलित अशुद्धियों) की रीडिंग भी सुधर गई थी। प्रदूषण पर नियंत्रण लगते ही मानव को शुद्ध वायु और शुद्ध जल प्राप्त होने लगे थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि नदियों को माता कहकर पूजने वाले ही उनके सबसे बड़े अपराधी हैं। आज हमें उनको पूजने से ज़्यादा उनको समझने की ज़रूरत है।
अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते मानव ने शहरों का डामरीकरण करना, कॉन्क्रीट के जंगल खड़े करना, हर तरफ सड़कों का जाल बिछाना शुरू कर दिया। इससे एक तरफ तो मानव सभ्यता काफी उन्नत हुई, हमने सुख के साधन बटोरे और यातायात को सुगम और सुलभ बनाया। वहीं दूसरी ओर, इनके कारण जो बरसात का जल मिट्टी के माध्यम से धरती में जाना था, वही अब सीमेंट और डामर की सड़कों से होता हुआ नालों के माध्यम से नदियों में जाता है। एक तरफ तो ऐसा अचानक जल भराव और साथ में उचित ड्रेनेज की कमी के कारण बाढ़ का रूप लेकर तबाही फैलाता है। वहीं दूसरी ओर, पानी के तुरंत बह जाने से और धरती में न समाने से भूजलस्तर में कमी के चलते सूखे के हालत बनते हैं। तो क्या हम विकास और विकास-जनित विनाश के बीच कोई सामंजस्य नहीं बैठा सकते जिससे संपूर्ण मानवता विकास के लाभों को प्राप्त करते हुए संभावित विनाश से बच सके ? दरअसल, ऐसे कई उपाय हैं जिन्हें ध्यान में रख कर योजनाएं बनाई जाएं और परियोजनाओं का क्रियान्वन किया जाए तो समाज के सभी वर्गों को ही नहीं, पर्यावरण को भी लाभ पहुंचेगा। अमीर उद्योगपति से लेकर गरीब गड़रिये तक तथा शहरी नागरिक से लेकर जंगल के जानवर तक लाभान्वित होंगे। अतः हमें योजना बनाते वक्त यह विचार करना चाहिए कि उसके क्रियान्वयन से किन- किन उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते हैं और कौन-कौन से लक्ष्य बिना अतिरिक्त व्यय और व्यवधान के प्राप्त हो सकते हैं। ऐसे कई मॉडल उपलब्ध हैं। मसलन एक प्रयास बॉरो पिट्स (Borrow pits) का है। इसके तहत हाईवे बनाने के लिए सामग्री आसपास से ली जाती है और उसके कारण बने गड्ढे का उपयोग तालाब के रूप में किया जाता है। ये शिकागो और ओहायो में हाईवे के किनारे बनाए जाते हैं जिनमें मछली पालन आदि कार्य होते हैं।
भारत में भी नेशनल रोड एंड हाईवे डेवलपमेन्ट अथॉरिटी द्वारा अमृत सरोवर के नाम से यह काम किया जा रहा है। आगे हम एक ऐसे ही मॉडल की चर्चा करेंगे। जब हम कोई निर्माण कार्य करते हैं जैसे सड़क, पुल या रेल की पटरी बिछाना आदि, तो उसमें हमें कई बार मिट्टी का भराव करना पड़ता है। इस मिट्टी का खनन अगर अनुशासित तरीके से किया जाए तो इसी खुदाई से आसपास के गांवों, तहसील या जंगल की शासकीय ज़मीन पर तालाबों का निर्माण हो सकता है। निर्माण कार्य के लिए मिट्टी भी उपलब्ध हो जाएगी और बिना किसी अतिरिक्त व्यय के तालाब भी तैयार हो जाएगा। यह अगर जंगल में बना तो वन्य प्राणियों को गर्मी के दिनों में पानी उपलब्ध कराएगा। तालाब शहरों के आसपास बनें तो वहां के भूजलस्तर में सुधार आएगा। गांव के आसपास बनने पर भूजलस्तर के साथ आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी क्योंकि गांव में जल केवल जीवन का ही नहीं, बल्कि पशुपालन, मछली पालन तथा तालाब आधारित खेती (जैसे सिंघाड़ा, कमल) आदि आर्थिक गतिविधियों का भी आधार होता है। अर्थात ये तालाब न केवल राज्य की आय बल्कि व्यक्तिगत आय और भोजन सम्बंधित समस्या भी हल कर सकेगी।
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