नर्मदा में सिक्कों को लूटने-बीनने के चक्कर में आए दिन दुर्घटनाएं हो रही हैं। कई बच्चों की मौत हो चुकी है और कई कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के शिकार हो गए हैं। होशंगाबाद इलाके में इस तरह के लालच में फंसकर दर्जनों बच्चों ने पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी है। इस समस्या का जायजा ले रहे हैं प्रशांत कुमार दुबे।
नदियों में पुण्य के लिए नर्मदा नदी में फेंके जानेवाले सिक्के गरीब बच्चों की जान के दुश्मन हो गए हैं। ये सिक्के न केवल बच्चों की जिंदगी बर्बाद कर रहे हैं बल्कि नर्मदा नदी में इतनी बड़ी मात्रा में लोहे की मात्रा होने की वजह से पानी भी अशुद्ध हो रहा है । होशंगाबाद में करीब 125 बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी है। अधिकतर बच्चों को त्वचा रोग हो गया है। बहुत से बच्चों को मुंह में कैंसर की शिकायत आने लगी है। केवल होशंगाबाद में ही पिछले साल तीन बच्चों की मौत हो चुकी है। यह कहानी केवल होशंगाबाद की ही नहीं है, बल्कि भेड़ाघाट (जबलपुर) में पिछले दो साल में तीन बच्चे, बरमान पुल नरसिंहपुर में दो बच्चे और महेश्वर में भी दो बच्चों की मौत हो गई है।
इस सबके पीछे एक अंधी आस्था काम कर रही है। तमाम श्रद्धालु या अनुयायी यह मानते हैं कि पवित्र नदी में पैसा चढ़ाने या फेंकने से उन्हें मनोवांछित फल मिलेगा। इस वजह से वे मनौतियां मांगते हैं और नदियों में सिक्के फेंककर पुण्य कमाने की लालसा रखते हैं। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद से सुबह पंजाब मेल से चलकर भोपाल आते समय इस लेखक के सामने बैठे एक व्यक्ति ने सबसे पहले नर्मदाष्टक (त्वदीय पाद पंकजम, नमामि देवी नर्मदे) का गान शुरू किया। हालांकि वह बुदबुदा रहे थे, फिर भी वह मुझे सुनाई दे रहा था। वह पेशे से मेडिकल रिप्रेंजटेटिव थे। उन्होंने अपना नर्मदाष्टक नर्मदा नदी के पुल आते-आते पूरा किया और मां नर्मदा के दर्शन कर एक रुपए का सिक्का नदी में उछाल दिया। मेरे डिब्बे से नर्मदा नदी में सिक्का चढ़ाने वाले केवल वही नहीं थे, बल्कि 15 जनों ने सिक्के फेंके और नर्मदा नदी को नमन किया। कुछ सिक्के पुल या पटरी से टकराते हुए नदी में गए और उनकी खनखनाहट आसानी से सुनी जा सकती थी। नर्मदा नदी के पौराणिक महत्तव के विषय में थोड़ी बहुत जानकारी थी लेकिन यह पूछने पर कि यह सिक्का क्यों फेंका गया? और इससे क्या होता है? किसी ने पल्ला झाड़ा, किसी ने पौराणिक वर्णन सुनाया, लेकिन इन सिक्कों का क्या होता है? इस बात का कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला। हम यहां इस बहस में नहीं पड़ रहे हैं कि धर्म के नाम पर किया जाने वाला यह कृत्य सही है या गलत?
यह जानना जरूरी है कि पुण्य के नाम पर फेंके गए इन सिक्कों से क्या नतीजा निकल रहा है। आकाश और पवन रैकवार ने तीन बरस पहले ही स्कूल को टा-टा, बॉय-बॉय कह दिया था। आकाश पांचवी तक पढ़ा है और पवन चौथी भी पास नहीं कर पाया है। मां कमला घरों में झाडू-पोंछा और बर्तन माजने का काम करती है। पिता डालचंद रैकवार मेडिकल स्टोर पर काम करते हैं। दो बड़ी बहनें हैं जो घर में फूलमाला बनाने का काम करती हैं। घर में फाके तो नहीं पड़ रहे, फिर भी आकाश और पवन की पढ़ाई छूट गई। अब वे कुछ ऐसा करने लगे हैं जिसमें उनकी जान को खतरा है। खतरा भी ऐसा कि उनको मुंह का कैंसर हो सकता है। उनके पैरों में अंगूठे और उंगलियों के बीच की जगह या अंगुलियों और अंगुलियों के बीच की जगह (पोर) अब गल गई है। पड़ोस में रहने वाला कुणाल रैकवार भी दूसरी कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ चुका है और पिछले चार सालों में तीन बार निमोनिया से बीमार हो चुका है।
मुंह में सिक्के रखे व नए तरह का चश्मा लगाए पवन दरअसल में ये तीनों बच्चे नर्मदा नदी से पुण्य के रूप में फेंके गए सिक्के बीनने का काम करते हैं। दिन भर आकाश की ओर लालच से देखना और एक-एक सिक्के की खनक के पीछे भागना, अब इनका रोज का काम है।
दिन भर पानी में खड़े होकर इस आस में आसमान की ओर ताकना कि कब राहगीर सिक्का फेंके और वह सिक्का उसकी जेब में हो। अब यह इन बच्चों का रोज का काम है। हाथ में कांच का एक टुकड़ा, बदन पर एक अदद चड्ढी पहने ये बच्चे पौ फटने से लेकर शाम तक ठिठुरते हुए पानी में सिक्के बीनते रहते हैं। पानी में लगातार खड़े रहने, पत्थरों से टकराने और रेत के कणों के अंगुलियों के बीच फंस जाने के कारण अब इनके पैरों में गहरे घाव हो गए हैं। कुछ बच्चे पुल के ऊपर पटरियों में फंसे सिक्के भी बीनते है जो कि जोखिम का काम है।आठ साल के दिलीप केवट ने भी अब पढ़ना छोड़ दिया है। उसके पैरों में भी अब गहरे घाव हो गए हैं। उसके छोटे भाई को दो साल में तीन बार निमोनिया हो चुका है। उसके पड़ोस में रहने वाले एक चचेरे भाई को मुंह का कैंसर हो गया है। अब यह कहानी केवल दिलीप, आकाश और पवन की नहीं हैं, बल्कि ऐसे करीब डेढ़ सौ बच्चे केवल होशंगाबाद में नर्मदा नदी पर बने पुल से सिक्के बीनने का काम करते हैं। वे सिक्के, जो धर्म के नाम पर राहगीरों द्वारा चढ़ाए (फेंके) जाते हैं। इनमें से अधिकतर बच्चे भीलपुरा, ईदगाह, बीटीआई और ग्वालटोली के हैं। दिन भर पानी में खड़े होकर इस आस में आसमान की ओर ताकना कि कब राहगीर सिक्का फेंके और वह सिक्का उसकी जेब में हो। अब यह इन बच्चों का रोज का काम है। हाथ में कांच का एक टुकड़ा, बदन पर एक अदद चड्ढी पहने ये बच्चे पौ फटने से लेकर शाम तक ठिठुरते हुए पानी में सिक्के बीनते रहते हैं। पानी में लगातार खड़े रहने, पत्थरों से टकराने और रेत के कणों के अंगुलियों के बीच फंस जाने के कारण अब इनके पैरों में गहरे घाव हो गए हैं। कुछ बच्चे पुल के ऊपर पटरियों में फंसे सिक्के भी बीनते है जो कि जोखिम का काम है, क्योंकि ट्रेन के आने-जाने पर बच्चे पुल पर ही फंसे रह जाते हैं।
बच्चे ही नहीं बल्कि बड़े भी यह काम करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक दिन भर में करीब दस हजार रुपए रोज इस पुल पर से सिक्के के तौर पर फेंके जाते हैं। इसके मायने हर महीने तीन लाख और साल भर में तीस लाख रुपए।
यह चौंकाऊ लग सकता है, लेकिन इसी घाट पर सिक्के बीनने वाले रेवती रैकवार ने बताया कि यह हम अकेले नहीं करते हैं बल्कि सुबह से नर्मदा के एक पुल पर तीन से ज्यादा लोग सिक्के बीनते हैं। रेवती ने बताया कि सौ रुपए से कम तो कोई भी नहीं लेकर जाता। वसंत मांझी का मानना है कि रोजाना कमाई डेढ़ सौ रुपए के करीब है। यह महज एक पुल की बात है। बुदनी घाट की तरफ कुछ और लोग होते हैं। इसी बीच किसी ट्रेन की आहट आने पर राजकोट एक्सप्रेस का नाम लेते हुए सभी पानी में छलांग लगा लेते हैं।
लौटने के बाद कन्हैया बताता है कि इस ट्रेन के यात्री ज्यादा पैसे फेंकते हैं। इसके बाद हम घर लौट जाते हैं। यह गाड़ी गुजरात जाती है और वहां पर भी नर्मदा नदी है। ढपली बार-बार अपना शरीर खुजाता रहता है। उसका शरीर धब्बों से भरा हुआ था। कन्हैया बताते हैं कि दिन भर इस पानी में रहने के कारण बहुत खुजली होती है और ऐसा केवल उन्हें ही नहीं बल्कि हर एक व्यक्ति को होता है। प्रदूषित पानी में निरंतर भीगते रहने से उनके शरीर में चर्मरोग हो गया है।
यह पुल राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर 69 पर है। इस पुल पर से रोजाना करीब पांच सौ बसें, तीन हजार ट्रक और अनगिनत जीप-टैक्सी और दोपहिया वाहन गुजरते हैं। इनसे गुजरने वाले लोग सिक्के चढ़ाते रहते हैं। इसी प्रकार दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग से 129 सवारी गाड़ियां गुजरती हैं। इनमें से करीब नब्बे रेलगाड़ियां दिन में गुजरती हैं। 60 रेलगाड़ियां मध्यक्षेत्र के अंतर्गत चलती हैं यानी कि इनमें बैठे यात्री नर्मदा नदी की महिमा जानते हैं और नदी में सिक्के फेंकते हैं। कन्हैया उर्फ ढपली बताते हैं कि बारिश के समय इसमें से कुछ नहीं मिलता है लेकिन बारिश के बाद तो खोद-खोद कर निकालना पड़ा है और बहुत सारा पैसा बह भी जाता है। वे कहते हैं कि नवरात्रि में बहुत पैसा आता है क्योंकि यह पुल सलकनपुर (बीजासेन माई का विश्वप्रसिद्ध धर्मस्थल) जाने वाली सड़क पर ही आता है। हर आने-जाने वाला नर्मदा माई में चढ़ौती डालता है। अमावस और पूर्णिमा पर भी जमकर कमाई होती है।
अब लगता है कि बाजार भी इस पूरी कसरत में कूद गया है। अब बाजार में साठ रुपए से लेकर 150 रुपए तक चश्मा (जिसे पहनकर तैराक तैरते हैं) मिलने लगा है। होशंगाबाद में मुल्लाजी की दुकान पर यह चश्मा मिलता है। इसी प्रकार सेठानी घाट पर चुंबक और रस्सी लगा एक यंत्र 60 से 70 रुपए में मिलने लगा है। कांच की सीट भी दस रुपए में उपलब्ध है। यानी कुल मिलाकर बाजार भी इस काम में मददगार है। बच्चों के द्वारा इकट्ठा की जाने वाली चिल्लर भी इस बाजार में अब 95 रुपए की चिल्लर सौ रुपए में बिकने लगी है यानी सीधे पांच रुपए का फायदा। यह पांच रुपए और बाजार में मिलने वाले ये समान बच्चों को इस ओर धकेलने में कारगर हैं।
रिजर्व बैंक के अनुसार सिक्के के धात्विक गुणों को देखें तो हम पाते हैं कि इन सिक्कों में लोहा (83 फीसद) और क्रोमियम (17 फीसद) होता है। यहां एक ओर चिंताजनक बात यह है कि इन बच्चों के पास सिक्के रखने के लिए कुछ भी नहीं होता है सो ये बच्चे बीने गए सारे सिक्कों को मुंह में ही रखते हैं। रसायनशास्त्रियों की मानें तो लोहा और क्रोमियम लार में पाए जाने वाले रसायन से क्रिया कर कैंसर की स्थितियां पैदा करता है। ये बच्चे रोजाना पांच से आठ घंटे तक सिक्कों को अपने मुंह में रखते हैं। इसके अलावा एक और चीज है कि इनमें बच्चे खुद कमाई करते हैं इसलिए वे गुटखा वगैरह भी खाने लगते हैं। जवाहर लाल नेहरु कैंसर अस्पताल एवं शोध केंद्र भोपाल की डॉ. अलका चतुर्वेदी कहती हैं कि बच्चों के मुंह में दिन भर सिक्के रखे होने, सिक्के के धात्विक कण लार और गुटखे के साथ क्रियाकर उन बच्चों के मुंह में कैंसर की स्थिति पैदा कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि सिक्कों के लगातार मुंह की मुलायम त्वचा से टकराने (इरीटेशन) से भी कैंसर की पूरी संभावना बनती है।
अधिकांश बच्चें मुंह के पूरे न खुलने और उसमें दर्द होने की बात भी स्वीकार करते हैं। इस कहानी का स्याह पहलू यह भी है कि पिछली बारिश में भीलपुरा का दस साल का सुनील सिक्के उठाने की चाह में तेज धार में बह गया। अर्जुन का पैर भी पत्थरों के बीच में फंसने के कारण वह बह गया। सेठानी घाट पर लखन भी खत्म हो गया।
इस कहानी के पीछे की कहानी कुछ ऐसी है कि पौराणिक काल में जब तांबे के सिक्के चला करते थे, तब धर्मावलंबी जन पवित्र नदियों, तालाब, बावड़ी, कुओं में बहते जल को देवता मानकर उसमें सिक्के चढ़ाया करते थे। पीछे मंशा यह थी कि इससे एक तो दान की परंपरा विकसित होती थी, वहीं दूसरी ओर जल भी शुद्ध होता था। यह प्रक्रिया इसलिए भी बढ़िया कही जा सकती है क्योंकि इससे जलस्रोतों का संरक्षण होता था। कई जगहों पर जल के अपव्यय और जल स्रोतों के उचित रखरखाव न होने की स्थिति में सामाजिक पंचायतों द्वारा डांड़ की व्यवस्था की जाती है।
इसी नर्मदा पुल पर खड़े होकर श्रद्धाभाव से सिक्का चढ़ाने वाले बुदनी के सुनील कुमार इस काम को गलत नहीं मानते हैं बल्कि कहते हैं कि इससे कुछ परिवारों का पेट तो भर जाता है। बच्चों के अधिकाधिक रूप से गुटखे खाने और उन्हें कैंसर जैसी बीमारियों के लक्षण होने की बात पर वह कहते हैं कि हम तो सिक्का नर्मदाजी को दान कर रहे हैं, उसे कौन उठाता है और उससे क्या होता है, यह अलग विषय है।
इस कथानक के एक और घातक पक्ष की ओर इशारा करते हुए वरिष्ठ समाजसेवी संदीप नाईक बताते हैं कि जब ये बच्चे सिक्के उठाकर लाते हैं तो न केवल अपनी जान जोखिम में डाल रहे होते हैं बल्कि उनके स्वास्थ्य का भी भारी नुकसान हो रहा है। उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्य है कि ये बच्चे न तो सर्वशिक्षा अभियान की परिधि में आते हैं और न ही स्वास्थ्य मिशन के। ये शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों से ही महरूम हैं। उनका कहना है कि ये लोग जीवनयापन के बेहतर विकल्प चुन सकते हैं।
शिक्षित होकर अपने जीवन की भावी रूपरेखा बना सकते हैं। लेकिन, अफसोस कि आपका एक रुपया उनके जीवन को बर्बाद कर रहा है। वे कहते हैं कि इस समाज को यह अवश्य सोचना चाहिए कि आपका एक-एक रुपया कितना अधर्म कर रहा है।
यह न केवल बच्चों की जिंदगी बर्बाद कर रहा है बल्कि नर्मदा नदी में इतनी बड़ी मात्रा में लोहे की मात्रा जाने पर वह नदी का पानी भी अशुद्ध कर रहा है। इससे हटकर यह भी देखना होगा कि इन बच्चों के मुंह में कैंसर होने और इनकी मौत का जिम्मेदार कौन है? ये बच्चे स्वयं, इनके परिवार या फिर वह धर्मावलंबी समाज जो अपने पुण्य के चलाते इन बच्चों को जाने-अनजाने इस काल कोठरी में धकेल रहा है।
नदियों में पुण्य के लिए नर्मदा नदी में फेंके जानेवाले सिक्के गरीब बच्चों की जान के दुश्मन हो गए हैं। ये सिक्के न केवल बच्चों की जिंदगी बर्बाद कर रहे हैं बल्कि नर्मदा नदी में इतनी बड़ी मात्रा में लोहे की मात्रा होने की वजह से पानी भी अशुद्ध हो रहा है । होशंगाबाद में करीब 125 बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी है। अधिकतर बच्चों को त्वचा रोग हो गया है। बहुत से बच्चों को मुंह में कैंसर की शिकायत आने लगी है। केवल होशंगाबाद में ही पिछले साल तीन बच्चों की मौत हो चुकी है। यह कहानी केवल होशंगाबाद की ही नहीं है, बल्कि भेड़ाघाट (जबलपुर) में पिछले दो साल में तीन बच्चे, बरमान पुल नरसिंहपुर में दो बच्चे और महेश्वर में भी दो बच्चों की मौत हो गई है।
इस सबके पीछे एक अंधी आस्था काम कर रही है। तमाम श्रद्धालु या अनुयायी यह मानते हैं कि पवित्र नदी में पैसा चढ़ाने या फेंकने से उन्हें मनोवांछित फल मिलेगा। इस वजह से वे मनौतियां मांगते हैं और नदियों में सिक्के फेंककर पुण्य कमाने की लालसा रखते हैं। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद से सुबह पंजाब मेल से चलकर भोपाल आते समय इस लेखक के सामने बैठे एक व्यक्ति ने सबसे पहले नर्मदाष्टक (त्वदीय पाद पंकजम, नमामि देवी नर्मदे) का गान शुरू किया। हालांकि वह बुदबुदा रहे थे, फिर भी वह मुझे सुनाई दे रहा था। वह पेशे से मेडिकल रिप्रेंजटेटिव थे। उन्होंने अपना नर्मदाष्टक नर्मदा नदी के पुल आते-आते पूरा किया और मां नर्मदा के दर्शन कर एक रुपए का सिक्का नदी में उछाल दिया। मेरे डिब्बे से नर्मदा नदी में सिक्का चढ़ाने वाले केवल वही नहीं थे, बल्कि 15 जनों ने सिक्के फेंके और नर्मदा नदी को नमन किया। कुछ सिक्के पुल या पटरी से टकराते हुए नदी में गए और उनकी खनखनाहट आसानी से सुनी जा सकती थी। नर्मदा नदी के पौराणिक महत्तव के विषय में थोड़ी बहुत जानकारी थी लेकिन यह पूछने पर कि यह सिक्का क्यों फेंका गया? और इससे क्या होता है? किसी ने पल्ला झाड़ा, किसी ने पौराणिक वर्णन सुनाया, लेकिन इन सिक्कों का क्या होता है? इस बात का कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला। हम यहां इस बहस में नहीं पड़ रहे हैं कि धर्म के नाम पर किया जाने वाला यह कृत्य सही है या गलत?
यह जानना जरूरी है कि पुण्य के नाम पर फेंके गए इन सिक्कों से क्या नतीजा निकल रहा है। आकाश और पवन रैकवार ने तीन बरस पहले ही स्कूल को टा-टा, बॉय-बॉय कह दिया था। आकाश पांचवी तक पढ़ा है और पवन चौथी भी पास नहीं कर पाया है। मां कमला घरों में झाडू-पोंछा और बर्तन माजने का काम करती है। पिता डालचंद रैकवार मेडिकल स्टोर पर काम करते हैं। दो बड़ी बहनें हैं जो घर में फूलमाला बनाने का काम करती हैं। घर में फाके तो नहीं पड़ रहे, फिर भी आकाश और पवन की पढ़ाई छूट गई। अब वे कुछ ऐसा करने लगे हैं जिसमें उनकी जान को खतरा है। खतरा भी ऐसा कि उनको मुंह का कैंसर हो सकता है। उनके पैरों में अंगूठे और उंगलियों के बीच की जगह या अंगुलियों और अंगुलियों के बीच की जगह (पोर) अब गल गई है। पड़ोस में रहने वाला कुणाल रैकवार भी दूसरी कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ चुका है और पिछले चार सालों में तीन बार निमोनिया से बीमार हो चुका है।
मुंह में सिक्के रखे व नए तरह का चश्मा लगाए पवन दरअसल में ये तीनों बच्चे नर्मदा नदी से पुण्य के रूप में फेंके गए सिक्के बीनने का काम करते हैं। दिन भर आकाश की ओर लालच से देखना और एक-एक सिक्के की खनक के पीछे भागना, अब इनका रोज का काम है।
दिन भर पानी में खड़े होकर इस आस में आसमान की ओर ताकना कि कब राहगीर सिक्का फेंके और वह सिक्का उसकी जेब में हो। अब यह इन बच्चों का रोज का काम है। हाथ में कांच का एक टुकड़ा, बदन पर एक अदद चड्ढी पहने ये बच्चे पौ फटने से लेकर शाम तक ठिठुरते हुए पानी में सिक्के बीनते रहते हैं। पानी में लगातार खड़े रहने, पत्थरों से टकराने और रेत के कणों के अंगुलियों के बीच फंस जाने के कारण अब इनके पैरों में गहरे घाव हो गए हैं। कुछ बच्चे पुल के ऊपर पटरियों में फंसे सिक्के भी बीनते है जो कि जोखिम का काम है।आठ साल के दिलीप केवट ने भी अब पढ़ना छोड़ दिया है। उसके पैरों में भी अब गहरे घाव हो गए हैं। उसके छोटे भाई को दो साल में तीन बार निमोनिया हो चुका है। उसके पड़ोस में रहने वाले एक चचेरे भाई को मुंह का कैंसर हो गया है। अब यह कहानी केवल दिलीप, आकाश और पवन की नहीं हैं, बल्कि ऐसे करीब डेढ़ सौ बच्चे केवल होशंगाबाद में नर्मदा नदी पर बने पुल से सिक्के बीनने का काम करते हैं। वे सिक्के, जो धर्म के नाम पर राहगीरों द्वारा चढ़ाए (फेंके) जाते हैं। इनमें से अधिकतर बच्चे भीलपुरा, ईदगाह, बीटीआई और ग्वालटोली के हैं। दिन भर पानी में खड़े होकर इस आस में आसमान की ओर ताकना कि कब राहगीर सिक्का फेंके और वह सिक्का उसकी जेब में हो। अब यह इन बच्चों का रोज का काम है। हाथ में कांच का एक टुकड़ा, बदन पर एक अदद चड्ढी पहने ये बच्चे पौ फटने से लेकर शाम तक ठिठुरते हुए पानी में सिक्के बीनते रहते हैं। पानी में लगातार खड़े रहने, पत्थरों से टकराने और रेत के कणों के अंगुलियों के बीच फंस जाने के कारण अब इनके पैरों में गहरे घाव हो गए हैं। कुछ बच्चे पुल के ऊपर पटरियों में फंसे सिक्के भी बीनते है जो कि जोखिम का काम है, क्योंकि ट्रेन के आने-जाने पर बच्चे पुल पर ही फंसे रह जाते हैं।
बच्चे ही नहीं बल्कि बड़े भी यह काम करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक दिन भर में करीब दस हजार रुपए रोज इस पुल पर से सिक्के के तौर पर फेंके जाते हैं। इसके मायने हर महीने तीन लाख और साल भर में तीस लाख रुपए।
यह चौंकाऊ लग सकता है, लेकिन इसी घाट पर सिक्के बीनने वाले रेवती रैकवार ने बताया कि यह हम अकेले नहीं करते हैं बल्कि सुबह से नर्मदा के एक पुल पर तीन से ज्यादा लोग सिक्के बीनते हैं। रेवती ने बताया कि सौ रुपए से कम तो कोई भी नहीं लेकर जाता। वसंत मांझी का मानना है कि रोजाना कमाई डेढ़ सौ रुपए के करीब है। यह महज एक पुल की बात है। बुदनी घाट की तरफ कुछ और लोग होते हैं। इसी बीच किसी ट्रेन की आहट आने पर राजकोट एक्सप्रेस का नाम लेते हुए सभी पानी में छलांग लगा लेते हैं।
लौटने के बाद कन्हैया बताता है कि इस ट्रेन के यात्री ज्यादा पैसे फेंकते हैं। इसके बाद हम घर लौट जाते हैं। यह गाड़ी गुजरात जाती है और वहां पर भी नर्मदा नदी है। ढपली बार-बार अपना शरीर खुजाता रहता है। उसका शरीर धब्बों से भरा हुआ था। कन्हैया बताते हैं कि दिन भर इस पानी में रहने के कारण बहुत खुजली होती है और ऐसा केवल उन्हें ही नहीं बल्कि हर एक व्यक्ति को होता है। प्रदूषित पानी में निरंतर भीगते रहने से उनके शरीर में चर्मरोग हो गया है।
यह पुल राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर 69 पर है। इस पुल पर से रोजाना करीब पांच सौ बसें, तीन हजार ट्रक और अनगिनत जीप-टैक्सी और दोपहिया वाहन गुजरते हैं। इनसे गुजरने वाले लोग सिक्के चढ़ाते रहते हैं। इसी प्रकार दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग से 129 सवारी गाड़ियां गुजरती हैं। इनमें से करीब नब्बे रेलगाड़ियां दिन में गुजरती हैं। 60 रेलगाड़ियां मध्यक्षेत्र के अंतर्गत चलती हैं यानी कि इनमें बैठे यात्री नर्मदा नदी की महिमा जानते हैं और नदी में सिक्के फेंकते हैं। कन्हैया उर्फ ढपली बताते हैं कि बारिश के समय इसमें से कुछ नहीं मिलता है लेकिन बारिश के बाद तो खोद-खोद कर निकालना पड़ा है और बहुत सारा पैसा बह भी जाता है। वे कहते हैं कि नवरात्रि में बहुत पैसा आता है क्योंकि यह पुल सलकनपुर (बीजासेन माई का विश्वप्रसिद्ध धर्मस्थल) जाने वाली सड़क पर ही आता है। हर आने-जाने वाला नर्मदा माई में चढ़ौती डालता है। अमावस और पूर्णिमा पर भी जमकर कमाई होती है।
अब लगता है कि बाजार भी इस पूरी कसरत में कूद गया है। अब बाजार में साठ रुपए से लेकर 150 रुपए तक चश्मा (जिसे पहनकर तैराक तैरते हैं) मिलने लगा है। होशंगाबाद में मुल्लाजी की दुकान पर यह चश्मा मिलता है। इसी प्रकार सेठानी घाट पर चुंबक और रस्सी लगा एक यंत्र 60 से 70 रुपए में मिलने लगा है। कांच की सीट भी दस रुपए में उपलब्ध है। यानी कुल मिलाकर बाजार भी इस काम में मददगार है। बच्चों के द्वारा इकट्ठा की जाने वाली चिल्लर भी इस बाजार में अब 95 रुपए की चिल्लर सौ रुपए में बिकने लगी है यानी सीधे पांच रुपए का फायदा। यह पांच रुपए और बाजार में मिलने वाले ये समान बच्चों को इस ओर धकेलने में कारगर हैं।
रिजर्व बैंक के अनुसार सिक्के के धात्विक गुणों को देखें तो हम पाते हैं कि इन सिक्कों में लोहा (83 फीसद) और क्रोमियम (17 फीसद) होता है। यहां एक ओर चिंताजनक बात यह है कि इन बच्चों के पास सिक्के रखने के लिए कुछ भी नहीं होता है सो ये बच्चे बीने गए सारे सिक्कों को मुंह में ही रखते हैं। रसायनशास्त्रियों की मानें तो लोहा और क्रोमियम लार में पाए जाने वाले रसायन से क्रिया कर कैंसर की स्थितियां पैदा करता है। ये बच्चे रोजाना पांच से आठ घंटे तक सिक्कों को अपने मुंह में रखते हैं। इसके अलावा एक और चीज है कि इनमें बच्चे खुद कमाई करते हैं इसलिए वे गुटखा वगैरह भी खाने लगते हैं। जवाहर लाल नेहरु कैंसर अस्पताल एवं शोध केंद्र भोपाल की डॉ. अलका चतुर्वेदी कहती हैं कि बच्चों के मुंह में दिन भर सिक्के रखे होने, सिक्के के धात्विक कण लार और गुटखे के साथ क्रियाकर उन बच्चों के मुंह में कैंसर की स्थिति पैदा कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि सिक्कों के लगातार मुंह की मुलायम त्वचा से टकराने (इरीटेशन) से भी कैंसर की पूरी संभावना बनती है।
अधिकांश बच्चें मुंह के पूरे न खुलने और उसमें दर्द होने की बात भी स्वीकार करते हैं। इस कहानी का स्याह पहलू यह भी है कि पिछली बारिश में भीलपुरा का दस साल का सुनील सिक्के उठाने की चाह में तेज धार में बह गया। अर्जुन का पैर भी पत्थरों के बीच में फंसने के कारण वह बह गया। सेठानी घाट पर लखन भी खत्म हो गया।
इस कहानी के पीछे की कहानी कुछ ऐसी है कि पौराणिक काल में जब तांबे के सिक्के चला करते थे, तब धर्मावलंबी जन पवित्र नदियों, तालाब, बावड़ी, कुओं में बहते जल को देवता मानकर उसमें सिक्के चढ़ाया करते थे। पीछे मंशा यह थी कि इससे एक तो दान की परंपरा विकसित होती थी, वहीं दूसरी ओर जल भी शुद्ध होता था। यह प्रक्रिया इसलिए भी बढ़िया कही जा सकती है क्योंकि इससे जलस्रोतों का संरक्षण होता था। कई जगहों पर जल के अपव्यय और जल स्रोतों के उचित रखरखाव न होने की स्थिति में सामाजिक पंचायतों द्वारा डांड़ की व्यवस्था की जाती है।
इसी नर्मदा पुल पर खड़े होकर श्रद्धाभाव से सिक्का चढ़ाने वाले बुदनी के सुनील कुमार इस काम को गलत नहीं मानते हैं बल्कि कहते हैं कि इससे कुछ परिवारों का पेट तो भर जाता है। बच्चों के अधिकाधिक रूप से गुटखे खाने और उन्हें कैंसर जैसी बीमारियों के लक्षण होने की बात पर वह कहते हैं कि हम तो सिक्का नर्मदाजी को दान कर रहे हैं, उसे कौन उठाता है और उससे क्या होता है, यह अलग विषय है।
इस कथानक के एक और घातक पक्ष की ओर इशारा करते हुए वरिष्ठ समाजसेवी संदीप नाईक बताते हैं कि जब ये बच्चे सिक्के उठाकर लाते हैं तो न केवल अपनी जान जोखिम में डाल रहे होते हैं बल्कि उनके स्वास्थ्य का भी भारी नुकसान हो रहा है। उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्य है कि ये बच्चे न तो सर्वशिक्षा अभियान की परिधि में आते हैं और न ही स्वास्थ्य मिशन के। ये शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों से ही महरूम हैं। उनका कहना है कि ये लोग जीवनयापन के बेहतर विकल्प चुन सकते हैं।
शिक्षित होकर अपने जीवन की भावी रूपरेखा बना सकते हैं। लेकिन, अफसोस कि आपका एक रुपया उनके जीवन को बर्बाद कर रहा है। वे कहते हैं कि इस समाज को यह अवश्य सोचना चाहिए कि आपका एक-एक रुपया कितना अधर्म कर रहा है।
यह न केवल बच्चों की जिंदगी बर्बाद कर रहा है बल्कि नर्मदा नदी में इतनी बड़ी मात्रा में लोहे की मात्रा जाने पर वह नदी का पानी भी अशुद्ध कर रहा है। इससे हटकर यह भी देखना होगा कि इन बच्चों के मुंह में कैंसर होने और इनकी मौत का जिम्मेदार कौन है? ये बच्चे स्वयं, इनके परिवार या फिर वह धर्मावलंबी समाज जो अपने पुण्य के चलाते इन बच्चों को जाने-अनजाने इस काल कोठरी में धकेल रहा है।
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