इमरजेन्सी में लागू की गयी पुनर्वास नीति

खेती की जमीन के बदले जमीन दिये जाने का प्रावधान न तो कोसी परियोजना में किया गया था और न ही बागमती परियोजना में इसकी कोई चर्चा थी। इतना जरूर तय हो गया था कि तटबंधों के बीच फंसने वाले परिवार रहेंगे तो तटबंध के बाहर पुनर्वास में, मगर खेती-किसानी के लिए उन्हें तटबंधों के बीच ही जाना पड़ेगा क्योंकि उनकी जमीन तो वहीं थी।

इस अधिसूचना को सिंचाई विभाग, बिहार, पटना द्वारा ज्ञाप संख्या सी/ई-4-20367/75/12447 पटना, दिनांक 7.8.75 के माध्यम से राज्य के सभी अधीक्षण अभियंताओं तथा कार्यपालक अभियंताओं को भेज दिया गया था। यह दोनों तारीखें (11 जुलाई 1975 और 7 अगस्त 1975) देश में इमरजेन्सी (25 जून 1975) लगने के बाद की हैं और इस पुनर्वास योजना को दो अलग-अलग सन्दर्भों में देखा जा सकता है। एक तो यह कि विस्थापितों के पुनर्वास का जो मसला अब तक लटका हुआ था और जिसके लिए छिट-पुट आवाजें उठ रही थीं उनकी ओर सरकार का ध्यान गया और उसने इस पूरे प्रकरण को गंभीरता से लिया और लोक-हित में यह अधिसूचना जारी की। इसका दूसरा पक्ष यह है कि इमरजेन्सी लगने के बाद जनता के व्यक्तिगत अधिकारों की सीमा तय हो चुकी थी और सरकार जिस तरीके से भी हो सके पुनर्वास के मसले को निपटा देना चाहती थी और अब उसे इस बात की आजादी मिली हुई थी जिस पर तब किसी प्रतिवाद की कोई गुंजाइश नहीं होती।

1958 में कोसी परियोजना में दिये जाने वाले पुनर्वास के साथ अगर इस अधिसूचना के प्रावधानों की तुलना की जाए तो कुछ अंतर जरूर दिखाई पड़ता है। नये प्रावधान में सार्वजनिक सुविधाओं के तहत मिलने वाली जमीन के साथ ‘आवश्यकतानुसार’ शब्द जोड़ा गया। यह ‘आवश्यकता’ कौन निर्धारित करेगा, इसके बारे में कोई स्पष्टता नहीं थी। कोसी परियोजना में यह जमीन बाद में रिहाइशी जमीन के 40 प्रतिशत पर निर्धारित की गयी थी। कोसी परियोजना में गृह निर्माण के लिए अनुदान की व्यवस्था थी मगर अब गृह निर्माण पर होने वाले खर्च के बजाय केवल घर के आवश्यक सामानों को पुनर्वास स्थल तक ले जाने के लिए थोड़े बहुत नकद संसाधन की व्यवस्था की गयी थी। अचल संपत्ति के बारे में यह पुनर्वास नीति बिल्कुल खामोश थी और फूस से बने कच्चे घरों के लिए अनुदान की यह सीमा 300 रुपये तय की गयी थी। बाकी बेहतर घरों के लिए कुछ कहा नहीं गया था और उस पर निर्णय आने वाले समय के लिए टाल दिया गया था।

पुनर्वासित हो जाने के बाद अपनी खेती की जमीन पर कृषिकार्य में आने-जाने के लिए नावों की ‘यथेष्ट व्यवस्था’ के बारे में पुनः इस बार कुछ नहीं कहा गया था यद्यपि कोसी की तरह बागमती भी तटबंधों के बीच बंधने के बाद अपनी धारा बदलेगी, यह सभी को मालुम था और बिना नाव के अधिकांश किसानों का खेतों तक पहुँचना नामुमकिन था। खेती की जमीन के बदले जमीन दिये जाने का प्रावधान न तो कोसी परियोजना में किया गया था और न ही बागमती परियोजना में इसकी कोई चर्चा थी। इतना जरूर तय हो गया था कि तटबंधों के बीच फंसने वाले परिवार रहेंगे तो तटबंध के बाहर पुनर्वास में, मगर खेती-किसानी के लिए उन्हें तटबंधों के बीच ही जाना पड़ेगा क्योंकि उनकी जमीन तो वहीं थी। जिस समय इस पुनर्वास योजना की घोषणा हुई उस समय इमरजेन्सी के कारण किसी में भी इसका विरोध करने या उसमें सुधार करने के सुझाव देने की हिम्मत नहीं थी क्योंकि अगर वह व्यक्ति सत्ता पक्ष का समर्थक होता तो वह बिना बात नेताओं की निगाहों में चढ़ता और अगर उसका संबंध किसी विरोधी पार्टी से होता तो जबान खोलने के साथ ही जेल के फाटक अपने आप खुल जाने का अंदेशा था।

धीरे-धीरे पुनर्वास योजना का स्वरूप कुछ और स्पष्ट हुआ। विधायक रघुनाथ झा द्वारा बागमती परियोजना में पुनर्वास की व्यवस्था पर किये गए एक अल्पकालिक प्रश्न के उत्तर में सरकार की तरफ से मुहम्मद हुसैन आज़ाद (1976) ने बताया, ‘‘...इसके लिए स्केल यह है कि हर फैमिली को जिसको थैच्ड रूफ है, उसको 300 रुपये, जिसको टाइल्ड रूफ है उसको 500 रुपये तथा जिसको पक्का मकान है उसको 4 रुपये स्क्वायर फीट (प्रति वर्ग) के हिसाब से दिये गए हैं।’’ इसके साथ ही आजाद ने सदन को यह भी बताया कि अब तक तटबंधों से प्रभावित 73 गाँवों में से 18 गाँवों को इस तरह का ढुलाई-शुल्क दिया जा चुका है और 8 गाँवों के लोग तो पुनर्वास स्थलों में चले भी गए हैं। रघुनाथ झा सरकार से यह जरूर जानना चाहते थे कि बाकी गाँवों को सरकार ने किसके भरोसे छोड़ रखा है? सरकार के साथ समस्या यह थी कि वह केवल परिवार के मुखिया को ही ढुलाई शुल्क की रकम देना चाहती थी जबकि परिवार के सदस्यों का कहना था कि उनमें आपस में बटवारा हो चुका है और वह एक छत के नीचे रहते हुए भी अलग-अलग थे। एक दूसरी समस्या भी थी। बहुत से लोग यह ढुलाई शुल्क लेकर भी तटबंधों के अंदर अपने पुराने गाँव-घर में ही रह रहे थे, वह पुनर्वास में नहीं गए क्योंकि उनकी जमीन-जायदाद और कृषि भूमि तटबंध के अंदर ही स्थित थी। सरकार की कोशिश थी कि जो लोग ‘कम्पेन्सेशन’ (सरकार ढुलाई शुल्क को इसी नाम से पुकारना पसंद करती थी) ले चुके हैं वह पुनर्वास स्थल में चले जायें।

सरकार की तरफ से डॉ. जगन्नाथ मिश्र का कहना था कि सरकार यथाशीघ्र बाकी गाँवों को तटबंधों के बाहर बसाने का काम करेगी। उन्होंने सदन को यह भी आश्वासन दिया कि तब तक बने तटबंधों में 5 स्थानों पर गैप रखे हुए हैं जिनकी वजह से तटबंधों के अंदर नदी के पानी का लेवेल बेजा तरीके से नहीं बढ़ने पायेगा और वहाँ रहने वाले लोगों को बहुत ज्यादा परेशानी नहीं होने दी जायेगी। इस पर रघुनाथ झा ने चुटकी ली थी कि यही गैप तो पटना शहर को बचाने वाले तटबंधों में भी रखे गए थे जिनकी वजह से 1975 में अगस्त महीनें में शहरपूरी तरह से डूबने-डूबने की हालत में पहुँच गया था। यहाँ यह याद दिलाना सामयिक है कि 1975 में अगस्त महीनें के अंत में गंगा और सोन में एक साथ आयी बाढ़ के कारण बाढ़ का पानी पटना शहर में घुस आया था और वहाँ सामान्य जन-जीवन हफ्तों अस्त-व्यस्त रहा था। तटबंधों के बीच इन खुली जगहों के कारण 1975 और 1978 में सीतामढ़ी में क्या कुछ हुआ उसकी एक झलक हम पहले देख आये हैं।

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Post By: tridmin
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