इब्राहिमपुर-यहाँ शिव मन्दिर को हर साल बालू हटा कर निकालना पड़ता है

इब्राहिमपुर गाँव का पुनर्वास पूर्वी तटबंध के बाहर रैन संकर में दिया गया था। पुनर्वास की जमीन बहुत कम थी जिसमें परिवार के बैठने और माल-जाल रखने की कोई गुंजाइश है ही नहीं। खेत-खलिहान, टट्टी-पेशाब आने-जाने, बकरी-मुर्गी या जानवर चराने की भी कोई जगह नहीं है। जो अत्यंत गरीब हैं और किसी अन्य की जमीन में बसे हैं उसके लिए तो पुनर्वास ठीक है पर अगर जिसके पास कुछ जमीन, खेत या जानवर हैं तो पुनर्वास उसके लिए नहीं है। एक कट्ठे जमीन में दस आदमी का परिवार कैसे रह पाता? नतीजा यह हुआ कि कुछ लोग बांध पर चले गए थे, कुछ को सरेह में जहाँ कहीं भी जगह मिली वहाँ बस गए। कुछ लोग तटबंध के बाहर हुण्डा करके रहते हैं यानी दूसरे की जमीन पर बसे हैं और मालिक से तय किया हुआ है कि जमीन पर होने वाली उपज का एक हिस्सा उनको दे देंगे। तटबंध की मरम्मत के नाम पर भले ही लोगों को अभी हटा दिया हो पर, बरसात में तो सभी लोग बांध पर चले जायेंगे। नहीं जायेंगे तो मरेंगे।

अपने पुराने घर के लिंटेल पर खड़े नागेन्द्र पासवानअपने पुराने घर के लिंटेल पर खड़े नागेन्द्र पासवानइस गाँव के समाजकर्मी नागेन्द्र पासवान बताते हैं, ‘‘...पुनर्वास में लगभग 200-250 परिवार होंगे जबकि नदी और तटबंध के बीच में 400 के आस-पास परिवार बसे होंगे। बरसात में तो मौत दोनों के सामने खड़ी होती है चाहे वह तटबंध के अंदर रहता हो या उसके बाहर। तटबंध के अंदर रहने वाले लोग नदी के व्यवहार को फिर भी समझते हैं और अगर वह पानी की वजह से मरते हैं तो उनको मरते हुए देखा जा सकता है। बाहर वाला, जो कि सुरक्षित क्षेत्र में रहता है, जब वह तटबंध टूटने के समय मरता है तो वह बह कर कहाँ चला बालू में दबा इब्राहिमपुर का शिव मंदिर गया किसी को भी दिखाई नहीं पड़ता। वहाँ तो बाढ़ के समय पति-पत्नी या मां-बेटे के सम्बंध भी समाप्त हो जाते हैं। हम जिंदा बच जाएं भले ही दूसरा मर जाए का सिद्धांत यहाँ हावी रहता है। यहाँ तटबंध के अंदर की जमीन कन्ट्रीसाइड की जमीन से 14 फुट ऊपर है। इसके ऊपर 8 फुट या उससे अधिक ऊँचा तटबंध है। यानी कन्ट्रीसाइड की जमीन तटबंध के शीर्ष से 22 फुट नीचे है। अब आप ही बताइये खतरा किस पर ज्यादा है? बागमती के दोनों तटबंधों के बीच यहाँ 3 किलोमीटर का फासला है और इस पर बना कटौंझा का पुल 300 मीटर लम्बा है। बाढ़ के समय दबाव बढ़ने पर यह पानी पुल के पीछे नदी के प्रति-प्रवाह में ऊपर उठेगा। इस नदी में बरसात के समय पानी और मिट्टी की समान मात्रा बहती है तो मिट्टी यहाँ बैठेगी और तबाही गढ़ेगी। जान बचाने के लिए लोग कहाँ जायेंगे? मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी मार्ग पर भनसपट्टी में जो पुल बन रहा है वह दरअसल पुराने पुल के ऊपर बन रहा है। 15 साल और इंतजार कीजिये, कटौंझा वाले पुल के ऊपर तीसरा पुल बनाना पड़ जायेगा। हम लोग यहाँ तटबंध के अंदर हर साल घर बनाते हैं और वह हर साल बह जाता है या नदी के बालू में उसका कुछ न कुछ हिस्सा जरूर डूब जाता है मगर जिंदा बचे रहते हैं। हमारे गाँव में एक शिव मन्दिर है। जब नदी उफान पर होती है तो उसमें पानी घुस जाता है और जब नदी पीछे हटती है आधी ऊँचाई तक मन्दिर बालू में डूब जाता है। पूजा-पाठ के लिए हम लोग हर साल बालू हटा कर शंकर जी को बाहर निकालते हैं। नदी की धारा हमारे इर्द-गिर्द घूमती रहती है कभी इधर कभी उधर। इसकी धारा निश्चित नहीं है पर हमें उससे निबटना आता है। बागमती की मूल परियोजना में सिंचाई शामिल थी, उस शब्द को ही हटा दिया गया। अब यह केवल बागमती परियोजना है। इसका क्या औचित्य है पता नहीं। बस नदी को बांधे जा रहे हैं और पानी की निकासी की कोई व्यवस्था नहीं है। 10-15 साल में कुसहा से बड़ी तबाही यहाँ होगी क्योंकि तब तक नदी कन्ट्रीसाइड से 25 फुट ऊपर होगी और तटबंध 35 फुट। अब ऐसा तटबंध पूरब में टूटे या पश्चिम में, पर टूटेगा जरूर और इसकी सारी जिम्मेंवारी सरकार की होगी। खेती की हालत यह है कि पानी नहीं बरसा तो रोपनी तक नहीं होगी, पौधे जल जायेंगे और अगर पानी खूब बरसा और नदी का पानी असमय चारों ओर फैला तो पौधा मिट्टी में खूंटी की तरह गड़ जायेगा। अब बारिश और नदी हमारी मर्जी से चलें तो कुछ अनाज उपजेगा वरना सब समाप्त। गाँव में नव-सृजित स्कूल है। बच्चे हैं, अध्यापक हैं मगर पढ़ाई होती है या नहीं, यह मत पूछिये। खड़का में एक हेल्थ सेन्टर है, कभी-कभी एक नर्स आती है। कभी टीकाकरण का कोई कार्यक्रम हो जाता है। तटबंध से एक सुविधा जरूर हुई है कि इस पर मोटर साइकिल चल जाती है, वही एम्बुलेन्स का काम करती है। सांप काटने से लोग मरते हैं। कुत्ता काटने की न जाने कितनी घटनाएं होती हैं मगर दवा उपलब्ध नहीं है।’’

यहाँ से मिलती-जुलती परिस्थितियाँ हैं तटबंधों के बीच फंसे बेलसंड प्रखंड के मौलानगर गाँव की, जिसके बारे में बताते हैं इसी गाँव के एक बुजुर्ग मुहम्मद अरशद आलम। उनका कहना है, ‘‘...यह बांध 1977 में बनकर पूरा हुआ और 1979 की बाढ़ में लोगों के घरों में पानी घुसा और घरों का गिरना शुरू हुआ, तटबंध बनने के दूसरे साल। उस साल तो हम घर-द्वार छोड़ कर इसी पूरब वाले बांध पर भागे। बाढ़ जब उतर गयी तो फिर वापस आ गए। पानी 1978 में 17 जुलाई को भी बहुत ज्यादा आया था। यह वह समय था जब बांध पूरा नहीं बन पाया था। बागमती तीन धाराओं में बह रही थी। एक तो पिपराढ़ी ब्लॉक में बेलवा धार होकर दूसरा कुअमा-नारायणपुर के गैप से होकर और तीसरी यह मुख्यधारा थी जो नये तटबंधों के बीच में बह रही थी। दो जगह खुला होने के कारण पानी फैल गया था। 1978 में 1979 से ज्यादा बाढ़ होने के बावजूद बाढ़ का उतना असर नहीं पड़ा था। पुनर्वास के लिए जमीन हमें चन्दौली में मिलने वाली थी। चन्दौली बड़े किसानों का प्रभावशाली गाँव है। वहाँ जिस जमीन का अधिग्रहण हुआ वह बड़े किसानों की नहीं वरन् कमजोर किस्म के किसानों की थी। हम लोगों को 3-4 डेसिमल जमीन मिली। यह जमीन बसने के लिए नाकाफी है, जाने का रास्ता नहीं है। अच्छी खासी जमीन पर जल-जमाव है। परिवार तो बढ़ता है उसके लिए जमीन चाहिये जिसकी वहाँ कोई गुंजाइश नहीं थी। इसलिए हम लोग यहीं रह गए। पुनर्वास में वही गया जिसके पास यहाँ कुछ नहीं था या बहुत कम था। उसे किफायत हो गयी। हमारे गाँव की सारी खेती की जमीन यहीं तटबंधों के अंदर है। जो बाहर पुनर्वास में चले भी गए हैं, उन सभी की कुछ न कुछ जमीन यहाँ हैं। वो या तो खुद यहाँ आकर खेती करते हैं या बटाई पर दे देते हैं। वहाँ से यहाँ आकर खेती करने वालों को 3 घंटा आने-जाने का फाजिल समय लगता है। यहाँ नावें प्राइवेट हैं और एक बार नदी पार करने का 5 रुपया लगता है। हम लोग साल भर में प्रति परिवार दो बार खरीफ और रबी की फसल में नाव वालों को उनकी खिदमत की एवज में अनाज देते हैं। कभी फसल मारी गयी तो पैसा दे देते हैं। सरकार पहले बरसात के महीनें में नाव का इंतजाम करती थी। पिछले तीन-चार साल से नाव नहीं मिलती। मल्लाहों का भुगतान नहीं होता, इसलिए वे नाव चलाते नहीं हैं। ब्लॉक के अफसर कमीशन मांगते हैं। पैसा आकर पड़ा रहता है, भुगतान नहीं होता। जो कमीशन दे-दे उसको पैसा मिल जायेगा वरना घूमते रहिये। दो साल से पानी यहाँ नहीं आ रहा है मगर रास्ता तो बंद हो ही जाता है। स्कूल इस गाँव में नहीं है मगर दरियापुर में मिडिल स्कूल है। बाकी सब स्कूल तटबंधों के बाहर हैं। बच्चों को हम लोग डुमरा मिडिल स्कूल भेजते हैं-यहाँ से 2 कि.मी. दूर। बरसात के तीन महीनें बच्चे स्कूल नहीं जाते। लड़कियाँ भी अब स्कूल जाती हैं। डॉक्टरी सहायता के लिए बेलसंड जाना पड़ता है। हाल ही में एक मास्टर साहब को हम लोग इलाज के लिए ले जा रहे थे, रास्ते में ही मर गए। हम लोग अल्पसंख्यक हैं, आन्दोलन करेंगे तो लोग उसका दूसरा मतलब लगाते हैं। मेरा घर तीन बार कट चुका है। यह हमारा चौथा मकान है। दरियापुर इतना नहीं कटा है। नदी ने नुनौरा के तीन टुकड़े कर दिये हैं। मौलानगर में अब तीन टोले हैं-300 परिवार होंगे। रोजगार का कोई साधन नहीं है। खेती-बाड़ी से ही चलता है। मिट्टी मगर वह नहीं रही जिस पर उपज होती थी। सिंचाई की समस्या है। खेती का पैटर्न नहीं बदला है यहाँ मगर पहले लागत नहीं पड़ती थी, अब हर चीज की कीमत देनी पड़ती है। ब्लॉक में बीज आया था, हम लोगों को मिला ही नहीं। सब्जी/दाल/कपड़े वगैरह की किल्लत है। कभी-कभी मालगुजारी देने भर को पैदावार नहीं होती। हमारे गांव के जवान बाहर नहीं गए रोजी-रोटी के लिए। अपनी जमीन से इतना अभी भी पैदा कर लेते हैं कि बाहर की ओर ताकना नहीं पड़ा। हमारे गाँव में शादी के लिए एक अगुआ आया था पिछले साल। हम लोगों ने उससे पूछा कि आप कितने सालों से बाहर रह रहे हैं। उनका जवाब था-यही कोई तीस साल। हमारे गाँव के बुजुर्गों का उनसे कहना कि आपका चूल्हा तीस साल पहले लटपटा गया और हम अभी भी अपनी जमीन के दम पर जिंदा हैं। वह शादी नहीं हुई। अल्लाह का फजल है और उसकी मेहरबानी है कि हम अभी भी अपनी जमीन से जुड़े हुए हैं। सरकारी नौकरी किसी को मिल गयी और वह चला गया तो अलग बात है।’’

तटबंधों के अंदर बसे गाँवों का बाहर की दुनियाँ से संपर्क बनाये रखने वाले नाविकों की अलग कहानी है। बरसात के मौसम में प्रखंड कार्यालय की तरफ से इन नाविकों की व्यवस्था की जाती है और उनके पारिश्रमिक का भुगतान सरकार करती है। जहाँ यह नाविक सरकार के हत्थे चढ़ गए, वहाँ उनकी दुर्गति शुरू हो जाती है। अपनी व्यथा कहते हुए इब्राहिमपुर के रंगी बैठा कहते हैं, ‘‘...मैं 1954 से लेकर अब तक नाव चलाते-चलाते बूढ़ा हो गया। दो बेटे हैं, उनको काम पर लगाया हुआ है। बागमती नदी में महादेव मठ के पास नाव रहती है। तटबंध के अंदर घर है जिसे हर साल बनाना पड़ता है। 50-60 रुपये प्रति नग बांस मिलता है। कहाँ से घर बनायेंगे? जमीन क्या है-एक-दो कट्ठा होगी। उसका कोई मतलब नहीं है। मैं नाव चलाता हूँ। 2004 में चन्दौली में तटबंध टूटा था और 2006 में पचनौर में टूटा। उसके बाद 2007 में सरकार के लिए नाव चलाई मगर इन तीन वर्षों में से किसी का भी पैसा आज तक नहीं मिला। मैंने यहाँ ब्लॉक में भुगतान के लिए बात की तो मुझसे कहा गया कि डुमरा जाइये। वहीं पैसा लेगा। डुमरा गए तो वहाँ का किरानी घूस मांगता है। यहाँ पेट में दाना नहीं है, उस कफन घसीट को घूस कहाँ से देंगे? एक हजार रुपया मांगता था। वहीं सीतामढ़ी में मेरी एक बेटी रहती है उससे कुछ पैसा लेकर दिया। मेरा 2004 का 18,000 रु. और 2006 का 19,000 रुपया सरकार पर बाकी है। 2007 वाला हिसाब मुझे मालुम नहीं है। यह भी किरानी ही बतायेगा। गरीब आदमी हूँ, कितना दौड़ूंगा? इन्दिरा आवास योजना में घर मिलना था सो खाते में लिख गया कि मेरे पास घर है। चल कर के देख लीजिये, किन परिस्थितियों में मैं जी रहा हूँ। मैं तो डी.एम. से या मुख्यमंत्री से भी कहने को तैयार हूँ, कि या तो मेरा ख्याल कीजिये या अपनी गाड़ी के चक्के के नीचे दबा कर मार डालिये मुझे।’’

नाव जैसी एक जरूरी और उपयोगी चीज के प्रति सरकारी अमले का क्या रुख रहता है उसकी बिहार विधान सभा में एक मिसाल देते हैं विधायक शकूर अहमद जिनका सवाल था, ‘‘...मैं सरकार से जानना चाहता हूँ कि तटबंध के नीचे जो लोग पड़ गए हैं उनके लिए सरकार को इंतजाम करना है कि नहीं। वहाँ उनकी जमीन है, इसलिए वे हट नहीं सकते हैं। मैं जब अपने इलाके में गया था तो पता लगा कि वहाँ का बाबू मही इलाका अफेक्टेड है। वहाँ यह भी पता लगा कि नाव नहीं है। मैंने लोगों से पूछा कि यहाँ की नाव क्या हुई तो लोगों ने बताया कि चूंकि नाव पुरानी हो गयी थी इसलिए यहाँ के बी.डी.ओ. साहब ने उसको चिरवा कर जलावन में लगा दिया। ...यहाँ पर जो 20-22 नावें थीं उनको पुरानी करार कर बी.डी.ओ. साहब ने उनको चिरवा कर जलावन में लगा दिया है।’’

यातायात की असुविधा केवल तटबंध के अंदर वालों की ही नहीं हैं। बहुत से बाहर वाले गाँव भी उसी टीस को झेलते हैं। शिवहर जिले के पुरनहिया प्रखंड के गाँव बखार की हालत भी कम बुरी नहीं है। यह लोग पहले तटबंध के अंदर थे, अब पुनर्वास में हैं। इनकी सबसे बड़ी दिक्कत है कि यहाँ से निकल कर बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं है। बरसात के मौसम में यह लोग यहाँ से निकल कर सीतामढ़ी, शिवहर की कौन कहे पड़ोस के गाँव चनडीहा भी नहीं जा सकते। अपनी बात सरकार तक पहुँचाने के लिए गाँव वालों ने संगठित होकर 2009 के लोकसभा चुनाव का बहिष्कार किया और किसी ने भी यहाँ वोट नहीं दिया। बरसात और उसके बाद के छः महीनों में कोई बीमार पड़ जाए तो उसे किसी डॉक्टर या अस्पताल तक ले जाने की कोई व्यवस्था नहीं है। अपनी हालत के बारे में गाँव वालों ने कलक्टर से लेकर प्रधानमंत्री तक को लिखा मगर कोई फायदा नहीं हुआ। बखार की पंचायत का नाम तरडीहा है जिसकी गाँव से सीधी दूरी एक किलोमीटर होगी मगर वहाँ जाने के लिए इन्हें बांध पकड़ कर अदौरी या अखता होकर जाना पड़ेगा। दोनों ही हालत में दस किलोमीटर चलना पड़ता है। सड़क चाहिये मगर बीच में रैयत की जमीन पड़ती है। वह भी पड़ोसी ही लोग हैं, उनकी जमीन चली जायेगी तो वह भी उजड़ जायेंगे।

तटबंधों के अंदर बसे लोगों के जीवन के बारे में उन जगहों को देखे बिना समझ पैदा नहीं की जा सकती। इन जगहों के रहन-सहन के बारे में बड़ा ही मार्मिक चित्रण करते हैं डुमरा के श्याम बिहारी सिंह। वह पूछते हैं, ‘‘...आपने ठेहा देखा है? यह लकड़ी का वह टुकड़ा होता है जिसे जमीन में थोड़ा गाड़ देते हैं और उसी पर रख कर गंड़ासे से चारा काटते हैं। गंड़ासे की हर चोट ठेहे पर पड़ती है और वह धीरे-धीरे कट कर समाप्त हो जाता है। हमारी स्थिति ठीक वैसी ही है। हर साल थोड़ा-थोड़ा कर के नदी हमारी जिंदगी को कम कर रही है और हम चोट खाने के अलावा कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं हैं।’’

जैनुल आबदीनजैनुल आबदीनकन्सार (प्रखंड बेलसंड, जिला सीतामढ़ी) के किसान जैनुल आबदीन कहते हैं, ‘‘...मैं दूसरों की मदद करता था, आज खुद मदद का मोहताज हूँ। कनसर का रिहायशी हिस्सा बागमती तटबंध के बाहर है मगर खेती की जमीन पूरी की पूरी तटबंधों के अंदर है और इसलिए नदी के रहम-ओ-करम पर है। गाँव के लोग बताते हैं कि 1960 के आस-पास डॉ. के. एल. राव यहाँ आये थे और नदी के पानी को देख कर कहा था कि इसकी सिल्ट बहुत उपजाऊ है और इसकी धारा भी काफी तेज है। इस नदी को बांधना ठीक नहीं होगा क्योंकि यह नदी कभी एक स्थान पर बनी नहीं रहेगी। फिर पता नहीं क्या हुआ कि एक दिन यहाँ तटबंध बनने लगा। गाँव वालों ने शुरू-शुरू में विरोध किया फिर समाज के व्यापक हित का ख्याल करके चुप रह गए। 1974-75 के आस-पास बांध यहाँ पहुँचा होगा। इसके बनने के बाद जो सब जगह हुआ वह कन्सार में भी हुआ। तटबंध के बाहर जल-जमाव था और अंदर की जमीन पर बालू। ...तटबंध बनने के पहले मैं एक औसत किसान हुआ करता था और फिर भी सैकड़ों मन धान के साथ-साथ दलहन और तेलहन बेच लिया करता था। जिंदगी की रफ्तार आराम से चल रही थी। अब साल में 365 दिन मैं चावल, दाल और तेल बाहर से खरीद कर खाता हूँ। इतनी तरक्की हमारी हुई है इस बांध की वजह से। नदी की धारा बदल गयी है और अब यह बायें तटबंध पर दबाव बनाये रखती है। पहले पानी चारों ओर फैल जाता था, बरसात में तकलीफ जरूर होती थी पर उसके बाद जबर्दस्त फसल होती थी और बाढ़ में कोई मरता नहीं था। अब फसल भी खत्म हो गयी और खतरा भी पहले से ज्यादा बढ़ गया। हमारी जमीन जो तटबंधों के बीच फंस गयी उसकी कीमत गिरी है और वहाँ अगर खेती करनी हो तो पहले जंगल, झाड़ी, काँटा और बालू हटाइये और तब खेती के बारे में सोचिये। सारी ताकत इसी में खत्म हो जाती है। अब उस जमीन पर खेती के लिए बटाईदार तक नहीं मिलते।’’

रेलवे वाला बांध पूरा होगा तब हमारा हाल पूछने आइयेगा- मु. वासीमु. वासीढेंग से रुन्नी सैदपुर वाले अलाइनमेन्ट का आखिरी बड़ा गाँव है रक्सिया। इसके बाद शिवनगर और पोता (तिलक ताजपुर) नाम के दो और गाँव पड़ते हैं। रक्सिया तक बांध पहुँचते-पहुँचते 1975 हो गया था। रक्सिया के मुहम्मद वासी बताते हैं, ‘‘...इमरजेन्सी लग चुकी थी और जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री थे तथा रामचन्द्र अभियंता प्रमुख थे और अबदुस समद चीफ इंजीनियर थे। गाँव वाले चाहते थे कि बागमती के बायें तटबंध को पश्चिम की तरफ थोड़ा-सा ठेल दिया जाए तो पूरा रक्सिया गाँव तटबंध के बाहर आ जायेगा और उसका बाढ़ से बचाव हो सकेगा। इसके लिए लिखा-पढ़ी भी हुई और गाँव के लोग मुख्यमंत्री और चीफ इंजीनियर से पटना जाकर मिले। गाँव वालों का कहना है कि उन्हें इस बात का आश्वासन भी सरकार से मिला था। मगर जब यह लोग गाँव लौटे तो उन्हें स्वीकृत नक्शे वाले अलाइनमेन्ट पर जगह-जगह मिट्टी पड़ी दिखाई पड़ी और लगा कि सरकार की तरफ से वायदा-खिलाफी हुई है। बाद में जब चीफ इन्जीनियर समद साहब रक्सिया आये तब तक तटबंध का काम काफी आगे बढ़ चुका था। गाँव के लोग गुस्से में थे मगर इमरजेन्सी लगने की वजह से कुछ भी बोल नहीं सकते थे। तटबंध, जैसा बनना था वैसा बन गया। अब दस आना रक्सिया अंदर और छः आना तटबंध के बाहर। जमीन जायदाद सब अंदर थी जिसकी वजह से बहुत से लोग अंदर ही रह गए, पुनर्वास मिलने पर भी बाहर पुनर्वास में नहीं आये। बहुत से लोगों को पुनर्वास में मिली जमीन के साइज पर ऐतराज था, वह जमीन लेने ही नहीं आये। कुछ ने खुद जमीन खरीद कर उस पर घर बनाया। पुनर्वास की जमीन का परचा किसी को मिला, किसी को नहीं। जिसको परचा मिला वह जायज है या फर्जी यह भी नहीं मालुम क्योंकि यह परचे तो घूस देने के बाद मिले हैं। तटबंध के अंदर बालू का कितना जमाव होता है उसे समझने के लिए इस गाँव की ईदगाह का जायजा ले लेना चाहिये। गाँव के लोग बताते हैं कि उनकी ईदगाह की यह मीनार 27 फुट ऊँची थी मगर अब उसकी मीनार का महज 4 फुट ऊपरी हिस्सा बचा है। बाकी पूरी की पूरी ईदगाह नदी के बालू में जमींदोज हो गयी है।’’

रक्सिया में अभी तक तटबंध टूटा नहीं है मगर यह जब भी कभी ऊपर टूटता है तो पानी रक्सिया में घुसता है। रमनी, ओलीपुर, जाफरपुर, मधकौल, मांडर और चन्दौली के बाद पचनौर में 2007 में जब तटबंध टूटा था तब भी रक्सिया तबाह हुआ था। रक्सिया तब भी तबाह हुआ था जब तटबंध नीचे मधौल में टूटा था। उस समय बाढ़ के पानी ने पीछे लौटकर रक्सिया को डुबाया था। आगे मुहम्मद वासी कहते हैं, ‘‘...मैंने खुद जमीन खरीद कर अपना घर बनाया हुआ है। पूरे गाँव में बालू पटा पड़ा है, यहाँ बाहर कुछ पैदा नहीं हो सकता। तटबंध के अंदर की हालत खुद जा कर देख आइये। अभी लगता है कि हम तटबंध के बाहर हैं मगर यह बगल में मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी रेल लाइन बन रही है वह भी तो एक तरह का बांध ही है। हम बागमती के बायें तटबंध के बाहर होते हुए भी अब जल्दी ही इस तटबंध और रेल लाइन के बीच फंसने वाले हैं। रेलवे वाला बांध पूरा होगा तब हमारा हाल पूछने आइयेगा।’’

तटबंध निर्माण फेज-2 का आखिरी गाँव है तिलक ताजपुर उर्फ पोता जो 2009 में तटबंध टूटने के कारण सुर्खियों में आ गया था। यहाँ की हालत बयान करते हैं बैजनाथ राय। उनका कहना है, ‘‘...हमारा मूल गांव बागमती तटबंधों के बीच में था और हमें पुनर्वास मिला रायपुर में बांध के पश्चिम। यह तटबंध हमारे गांव की जमीन पर बना है और इसने गांव के दो टुकड़े कर दिये हैं। गांव में बासडीह की जमीन तटबंध के अंदर थी और खेत बाहर थे। रायपुर का टोला है मधौल सानी, थाना रुन्नी सैदपुर। अंदर 300-400 घर थे। पुनर्वास में न तो रास्ता है, न पेय जल की व्यवस्था है। मेरी जमीन 5 डेसिमल थी घर की और मुझे 5 डेसिमल मिला बाहर-उसमें कोई गड़बड़ी नहीं थी। लेकिन बहुत लोगों को कम मिला। अधिकांश लोगों के कागज भी सही नहीं हैं और प्लॉटिंग भी नहीं की गयी। यह बांध करीब तीस साल पहले बना था और यहाँ से कोई दस चेन आगे जाकर समाप्त हो जाता था। बरसात में तटबंध के अंदर तो पानी रहता ही था, आगे खुला रहने के कारण नदी का पानी उलट कर पुनर्वास की जमीन में हर साल घुसता था। न तटबंध के अंदर रहने लायक और न उसके बाहर। तब सारे लोग तटबंध पर ही आकर रहने की जगह खोजते थे। पानी घटने पर लोग अपनी-अपनी जगह चले जाते थे। तटबंध की मरम्मत के नाम पर चार-चार बार हम लोग यहाँ से हटाये गए हैं अब तक। घर बनाने का पैसा तो कभी मिला ही नहीं केवल घर का सामान उठा कर यहाँ लाने के लिए थोड़ा बहुत पैसा मिला था। 100 घर साहनी लोग भीतर ही हैं। बाहर रास्ता ही नहीं है। पुनर्वास की जमीन खाली है। पुनर्वास की इस जमीन को पहले के मालिक जोत रहे हैं। जिसकी जमीन यहाँ तटबंध के बाहर थी उसमें से कुछ लोगों ने बाहर आकर जमीन ऊँची की और अपने घर बना लिये हैं। दो साल पहले 2007 में भी खरहुआँ में यह तटबंध टूटा था। बागमती का पश्चिमी तटबंध कहीं भी टूटेगा तो पानी हमारे यहाँ जरूर आ जायेगा। बांध पर शरण लेने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं है। इस बार 2009 में जिस दिन बांध टूटा उस दिन 11 फुट ऊँचा पानी गांव में घुसा था। तटबंध टूटा है कुछ तो विभागीय लापरवाही से और कुछ ट्रैक्टर वालों की करनी से। रिवर साइड की जमीन कुछ दलदल जैसी थी और उधर से ही ट्रैक्टर गुजरते थे। उन्होंने तटबंध की ही मिट्टी काट कर रास्ता बना लिया। विभाग वाले लोग सब कुछ चुप-चाप देखते रहे, कुछ बोले नहीं, हो सकता है उनकी मिली भगत रही हो। इतने के बावजूद यह जगह ऐसी नहीं थी कि तटबंध टूट जाए। रिलीफ बांटने और तटबंध की मरम्मत करने में बहुत पैसा है। यहाँ मिट्टी के जो बोरे भर कर तटबंध पर रखे जा रहे हैं उसके लिए पेटी ठेकेदार को प्रति बोरा बारह रुपये का भुगतान होता है। ढाई लाख बोरे डाले जा चुके हैं अब तक (10 अगस्त 2009) तो सोचिये कितना खर्च हुआ होगा और कितना पैसा बचा होगा पेटी ठेकेदार को और मालिक को। उस हालत में कौन नहीं चाहेगा कि वह यहाँ ठेकेदारी करे और निहित स्वार्थ वाले सभी लोग क्यों नहीं चाहेंगे कि तटबंध टूटे। यहाँ भी मेन ठेकेदार तो एच.एस.सी.एल. ही है पर वह खुद तो कोई काम करता नहीं है, वह भी तो काम बांट देता है ठेकेदारों में। फिर वह ठेकेदार आपस में काम पाने के लिए लड़ते हैं। इंजीनियरों पर भी यहाँ बड़ा दबाव रहता है।’’[img_assist|nid=36765|title=बालू में डूबी हुई रक्सिया की ईदगाह-इसकी मीनारें कभी जमीन से 27 फुट ऊपर थीं|desc=|link=none|align=left|width=640|height=398]
Path Alias

/articles/ibaraahaimapaura-yahaan-saiva-manadaira-kao-hara-saala-baalauu-hataa-kara-naikaalanaa

Post By: tridmin
×