मशीनीकरण तथा औद्योगिकीकरण के वर्तमान दौर में जैसे-जैसे मनुष्य विकास की ऊंचाइयों का स्पर्श करता जा रहा है, वैसे-वैसे नए रूपों में प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है, जिसमें से ‘इलेक्ट्रानिक कचरा’ भी एक है। इलेक्ट्रानिक कचरा स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है। घरों अथवा कल-कारखानों में प्रयोग में लाया जाने वाला इलेक्ट्रानिक सामान जब खराब तथा अप्रोज्य हो जाता है तथा व्यर्थ समझकर उसे फेंक दिया जाता है तो उसे ‘ई-वेस्ट’ कहा जाता है। इसी ई-कचरे के बारे में जानकारी देते नीरज कुमार तिवारी
यह खतरे का निर्यात करने जैसा है जिसके प्रति विश्वव्यापी खासकर अफ्रीकी देशों में तो जागरूकता का बिल्कुल अभाव है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार पश्चिमी देश कुछ समय पहले तक बेकार हो चुके इलेक्ट्रॉनिक पदार्थों के करीब 5 करोड़ टन कचरे का बड़ा हिस्सा भारत, चीन, बांग्लादेश में भेजते थे, लेकिन अब इन देशों में बने कुछ कानूनों के बाद ज्यादातर कबाड़ अफ्रीका भेजा जाता है। ऐसा नहीं की भारत में कबाड़ नहीं आ रहा है। ‘टाक्सिक लिंक’ जैसी संस्था का तो कहना है कि अमेरिका का 80 फीसद कबाड़ अभी भी चीन व दक्षिण एशियाई देशों में आ रहा है। अकेले दिल्ली में करीब 20 हजार टन कचरा विदेशों से आता है। बंगलुरू, चेन्नई, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद में भी यह बदस्तूर जारी है। फिर सूचना क्रांति के बाद हमारे अपने ई-कचरे भी बढ़े हैं जिन्हें खपाना ही टेढ़ी खीर साबित हो रही है।
इधर माइक्रोसॉफ्ट द्वारा नए ऑपरेटिंग सिस्टम ‘विंडोज-8’ के बाजार में उतारे जाने से ई-कचरे का खतरा और बढ़ गया है। नए ऑपरेटिंग सिस्टम के कारण पहले से ज्यादा क्षमता वाले कंप्यूटरों की जरूरत होगी और पुराने कंप्यूटरों का कबाड़ काफी मात्रा में इकट्ठा हो जाएगा। सीएसई की रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर साल 3.5 लाख टन ई-कचरा पैदा होता है और करीब 50 हजार टन कचरे का आयात होता है। इनमें से केवल 19 हजार टन कचरा ही रिसाइकिल हो पाता है। इसी तरह पर्यावरण और वन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश के कुल ई-कचरे में 70 फीसद योगदान केवल दस राज्यों का है। महाराष्ट्र इस सूची में सबसे ऊपर है। इसके बाद तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और उत्तर प्रदेश का स्थान आता है।
दरअसल, तकनीक के लगातार विकसित होते क्रम में नित नवीन व मॉडीफाइड इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की जरूरत होती है। इस कारण पुराने उपकरणों को खपाना होता है लेकिन ऐसा करने के लिए जगह व समुचित तकनीक का चुनाव मुश्किल होता है। कंप्यूटर व मोबाइल के पुराने उपकरणों में सीसा, कैडमियम, पारा, निकल, लीथियम, प्लास्टिक, अल्यूमीनियम आदि अनेक ऐसे धातु होते हैं जो कचरे के रूप में खासे नुकसानदेह होते हैं। ई-कचरे के साथ खास बात यह है कि इसे जलाकर नष्ट करना या मिट्टी के नीचे दबा देना दोनों खतरनाक है। खुले में कचरे को जलाया जाए तो इससे निकलने वाली विषैली गैसें वायुमंडलीय तापक्रम को असंतुलित करती है और जमींदोज किया जाए तो भूमिगत जल में जहर फैलता है। फिर इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी घटती है। जहां ई-कचरे को जलाकर नष्ट किया जाता है, वहां इस कार्य में लगे मजदूरों को कैंसर, फेफड़े व त्वचा रोग तथा न्यूरोलॉजिकल डिसआर्डर होने का खतरा सामान्य लोगों की तुलना में काफी अधिक होता है।
अमेरिका जैसे देश, जहां आज हर साल करीब 3 करोड़ कंप्यूटर कबाड़ में फेंके जाते हैं, इस तर्क पर गरीब या विकासशील देशों को यह कबाड़ भेजते हैं कि इनकी रिसाइकिलिंग कर वे इसका उपयोग कंप्यूटर क्रांति के लिए करें, लेकिन ऐसा सामान्यत: हो नहीं पाता। एक तो वे उपकरण पुराने होते हैं जिनकी कोई खास उपयोगिता नहीं होती, दूसरे कबाड़ के उपयोग के क्रम में कुछ हानिकारक धातुओं का क्षय बगैर हानिकारक प्रभाव छोड़े संभव नहीं। यह आज पर्यावरणविदों के लिए घोर चिंता का विषय बना हुआ है। पर्यावरणविद व टॉक्सिक लिंक के सहायक निदेशक सतीश सिन्हा बताते हैं कि रिसाइकलिंग की पूरी प्रक्रिया ज्यादातर असंगठित क्षेत्र के हवाले है जहां सुरक्षा की गंभीर अनदेखी की जाती है।
नए कानून तो बने हैं, लेकिन निगरानी तंत्र दुरुस्त नहीं है। सिन्हा के मुताबिक मुद्दा यह भी है कि असंगठित कबाड़वालों को मुख्यधारा में कैसे लाया जाए। हालांकि नियमन में कहा गया है कि उल्लंघन करने वालों को पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम के तहत दंडित किया जाएगा, लेकिन इसमें जुर्माने का स्पष्ट जिक्र नहीं है। घरेलू की तरह बाहरी खतरा भी कम नहीं। दूसरे देशों से ई-कचरे का आयात न हो पाए इसके कोई विश्वस्तरीय प्रयास नहीं हुए हैं। इस समस्या को लेकर 1992 में ही ‘बेंसल कंन्वेंशन’ के तहत 158 देशों के बीच सहमति हुई, जिसमें भारत भी था। अमेरिका इसमें शामिल नहीं था और उसने कचरे का निर्यात इस तर्क पर जारी रखा कि यह कचरा नहीं ‘सेकेंड हैंड’ कंप्यूटर है। अभी न सिर्फ आयातित कचरा बल्कि खुद हमारे यहां पैदा हो रहे ई-कचरे से बचने के भी विकल्प हमें खोजने हैं। आयात रोकने के संबंध में एक दर्जन से अधिक कानून हैं लेकिन कोई भी विशेष प्रभावी नहीं हो पा रहा है।
फिर इन कचरों को कैसे हानिकर प्रभाव छोड़ने से बचाया जाए इसके प्रयास भी किए जाने बाकी है। यूरोपीय देशों व जापान ने तो इलेक्ट्रॉनिक उपकरण निर्माताओं पर ही इससे निपटने की जिम्मेदारी डाल रखी है। वहां ई-कचरे का 60 फीसद रिसाइकिल करना अनिवार्य हो गया है। जापान अब रिसाइकिलिंग के बेहतरीन तरीके आजमा कर ही सालाना दो करोड़ कंप्यूटर कचरे को ठिकाने लगा रहा है। हमें भी कुछ ऐसे प्रावधान लागू कर खतरे को बढ़ने से रोकना होगा। साथ ही उपभोक्ताओं में गैजेट के अंधाधुंध इस्तेमाल करने से बचने की समझदारी विकसित हो तभी बात बन सकती है।
ई-कचरे के साथ खास बात यह है कि इसे जलाकर नष्ट करना या मिट्टी के नीचे दबा देना दोनों खतरनाक है। खुले में कचरे को जलाया जाए तो इससे निकलने वाली विषैली गैसें वायुमंडलीय तापक्रम को असंतुलित करती है और जमींदोज किया जाए तो भूमिगत जल में जहर फैलता है। फिर इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी घटती है। जहां ई-कचरे को जलाकर नष्ट किया जाता है, वहां इस कार्य में लगे मजदूरों को कैंसर, फेफड़े व त्वचा रोग तथा न्यूरोलॉजिकल डिसआर्डर होने का खतरा सामान्य लोगों की तुलना में काफी अधिक होता है।
एक मई से बहुप्रतीक्षित ई-कचरा प्रबंधन के नियम लागू कर दिए गए हैं, लेकिन केवल नियम लागू कर देने भर से शायद ही किसी समस्या का हल हुआ हो। नए कानून में विनिर्माताओं के लिए निपटान प्रक्रियाओं का जिक्र किया गया है। इसमें विनिर्माताओं को रिसाइकलिंग, इलेक्ट्रॉनिक्स वस्तुओं में खतरनाक पदार्थों का स्तर घटाने और संग्रहण केंद्र स्थापित करने के लिए जिम्मेदार बनाया गया है। इन सारे नियमों के क्रियान्वयन की सालाना रिपोर्ट केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को वन-पर्यावरण मंत्रालय को सौंपनी होगी। यह रिपोर्ट राज्य प्रदूषण बोर्ड से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर होगी। ये सारी बातें अभी सिर्फ कागजी हैं, सचाई यह है कि प्रगति का अंधाधुंध लाभ उठाने में जुटा तंत्र अभी ई-कचरे के हानिकारक प्रभावों के प्रति सचेत नहीं है। दरअसल, लक्ष्य के निर्धारण और उत्पादक तथा उपभोक्ताओं को प्रोत्साहन दिये बिना दुनिया के किसी भी देश में ई-कचरे की समस्या का समाधान संभव नहीं। इस कचरे से निबटने में अमेरिका जैसे तकनीकी रूप से दक्ष देश को भी मुश्किल हुई और अपनी चालाकी भरी नीतियों से वह वर्षों से इसे महज सामान्य कबाड़ बताकर विकासशील व पिछड़े देशों में खपाने में जुटा हुआ है।यह खतरे का निर्यात करने जैसा है जिसके प्रति विश्वव्यापी खासकर अफ्रीकी देशों में तो जागरूकता का बिल्कुल अभाव है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार पश्चिमी देश कुछ समय पहले तक बेकार हो चुके इलेक्ट्रॉनिक पदार्थों के करीब 5 करोड़ टन कचरे का बड़ा हिस्सा भारत, चीन, बांग्लादेश में भेजते थे, लेकिन अब इन देशों में बने कुछ कानूनों के बाद ज्यादातर कबाड़ अफ्रीका भेजा जाता है। ऐसा नहीं की भारत में कबाड़ नहीं आ रहा है। ‘टाक्सिक लिंक’ जैसी संस्था का तो कहना है कि अमेरिका का 80 फीसद कबाड़ अभी भी चीन व दक्षिण एशियाई देशों में आ रहा है। अकेले दिल्ली में करीब 20 हजार टन कचरा विदेशों से आता है। बंगलुरू, चेन्नई, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद में भी यह बदस्तूर जारी है। फिर सूचना क्रांति के बाद हमारे अपने ई-कचरे भी बढ़े हैं जिन्हें खपाना ही टेढ़ी खीर साबित हो रही है।
इधर माइक्रोसॉफ्ट द्वारा नए ऑपरेटिंग सिस्टम ‘विंडोज-8’ के बाजार में उतारे जाने से ई-कचरे का खतरा और बढ़ गया है। नए ऑपरेटिंग सिस्टम के कारण पहले से ज्यादा क्षमता वाले कंप्यूटरों की जरूरत होगी और पुराने कंप्यूटरों का कबाड़ काफी मात्रा में इकट्ठा हो जाएगा। सीएसई की रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर साल 3.5 लाख टन ई-कचरा पैदा होता है और करीब 50 हजार टन कचरे का आयात होता है। इनमें से केवल 19 हजार टन कचरा ही रिसाइकिल हो पाता है। इसी तरह पर्यावरण और वन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश के कुल ई-कचरे में 70 फीसद योगदान केवल दस राज्यों का है। महाराष्ट्र इस सूची में सबसे ऊपर है। इसके बाद तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और उत्तर प्रदेश का स्थान आता है।
दरअसल, तकनीक के लगातार विकसित होते क्रम में नित नवीन व मॉडीफाइड इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की जरूरत होती है। इस कारण पुराने उपकरणों को खपाना होता है लेकिन ऐसा करने के लिए जगह व समुचित तकनीक का चुनाव मुश्किल होता है। कंप्यूटर व मोबाइल के पुराने उपकरणों में सीसा, कैडमियम, पारा, निकल, लीथियम, प्लास्टिक, अल्यूमीनियम आदि अनेक ऐसे धातु होते हैं जो कचरे के रूप में खासे नुकसानदेह होते हैं। ई-कचरे के साथ खास बात यह है कि इसे जलाकर नष्ट करना या मिट्टी के नीचे दबा देना दोनों खतरनाक है। खुले में कचरे को जलाया जाए तो इससे निकलने वाली विषैली गैसें वायुमंडलीय तापक्रम को असंतुलित करती है और जमींदोज किया जाए तो भूमिगत जल में जहर फैलता है। फिर इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी घटती है। जहां ई-कचरे को जलाकर नष्ट किया जाता है, वहां इस कार्य में लगे मजदूरों को कैंसर, फेफड़े व त्वचा रोग तथा न्यूरोलॉजिकल डिसआर्डर होने का खतरा सामान्य लोगों की तुलना में काफी अधिक होता है।
अमेरिका जैसे देश, जहां आज हर साल करीब 3 करोड़ कंप्यूटर कबाड़ में फेंके जाते हैं, इस तर्क पर गरीब या विकासशील देशों को यह कबाड़ भेजते हैं कि इनकी रिसाइकिलिंग कर वे इसका उपयोग कंप्यूटर क्रांति के लिए करें, लेकिन ऐसा सामान्यत: हो नहीं पाता। एक तो वे उपकरण पुराने होते हैं जिनकी कोई खास उपयोगिता नहीं होती, दूसरे कबाड़ के उपयोग के क्रम में कुछ हानिकारक धातुओं का क्षय बगैर हानिकारक प्रभाव छोड़े संभव नहीं। यह आज पर्यावरणविदों के लिए घोर चिंता का विषय बना हुआ है। पर्यावरणविद व टॉक्सिक लिंक के सहायक निदेशक सतीश सिन्हा बताते हैं कि रिसाइकलिंग की पूरी प्रक्रिया ज्यादातर असंगठित क्षेत्र के हवाले है जहां सुरक्षा की गंभीर अनदेखी की जाती है।
नए कानून तो बने हैं, लेकिन निगरानी तंत्र दुरुस्त नहीं है। सिन्हा के मुताबिक मुद्दा यह भी है कि असंगठित कबाड़वालों को मुख्यधारा में कैसे लाया जाए। हालांकि नियमन में कहा गया है कि उल्लंघन करने वालों को पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम के तहत दंडित किया जाएगा, लेकिन इसमें जुर्माने का स्पष्ट जिक्र नहीं है। घरेलू की तरह बाहरी खतरा भी कम नहीं। दूसरे देशों से ई-कचरे का आयात न हो पाए इसके कोई विश्वस्तरीय प्रयास नहीं हुए हैं। इस समस्या को लेकर 1992 में ही ‘बेंसल कंन्वेंशन’ के तहत 158 देशों के बीच सहमति हुई, जिसमें भारत भी था। अमेरिका इसमें शामिल नहीं था और उसने कचरे का निर्यात इस तर्क पर जारी रखा कि यह कचरा नहीं ‘सेकेंड हैंड’ कंप्यूटर है। अभी न सिर्फ आयातित कचरा बल्कि खुद हमारे यहां पैदा हो रहे ई-कचरे से बचने के भी विकल्प हमें खोजने हैं। आयात रोकने के संबंध में एक दर्जन से अधिक कानून हैं लेकिन कोई भी विशेष प्रभावी नहीं हो पा रहा है।
फिर इन कचरों को कैसे हानिकर प्रभाव छोड़ने से बचाया जाए इसके प्रयास भी किए जाने बाकी है। यूरोपीय देशों व जापान ने तो इलेक्ट्रॉनिक उपकरण निर्माताओं पर ही इससे निपटने की जिम्मेदारी डाल रखी है। वहां ई-कचरे का 60 फीसद रिसाइकिल करना अनिवार्य हो गया है। जापान अब रिसाइकिलिंग के बेहतरीन तरीके आजमा कर ही सालाना दो करोड़ कंप्यूटर कचरे को ठिकाने लगा रहा है। हमें भी कुछ ऐसे प्रावधान लागू कर खतरे को बढ़ने से रोकना होगा। साथ ही उपभोक्ताओं में गैजेट के अंधाधुंध इस्तेमाल करने से बचने की समझदारी विकसित हो तभी बात बन सकती है।
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