इस बावड़ी की विशेषता यह है कि इसमें प्रवेश करने के लिये बाकायदा द्वार बना हुआ है और उसी से इसमें प्रवेश किया जा सकता है। इससे पहले तक बावड़ी जैसे जल संसाधन कभी भी बन्द दरवाजों में नहीं हुआ करते थे, वे आम लोगों के लिये खुले और सुलभ हुआ करते थे और उनके पानी का उपयोग कोई कभी भी कर सकता था। लेकिन यह बावड़ी किले की सुरक्षा से जुड़ी होने के कारण इस तरह बनाई गई थी कि एक ही द्वार से प्रवेश हो ताकि इस पर आसानी से निगरानी रखी जा सके। हम अब के दौर में भले ही वातानुकूलन के लिये एयरकूल्ड एसी का उपयोग आसानी से करते हैं पर कभी यह सब सम्भव नहीं था लेकिन तब भी उस काल के लोगों ने अपने अद्भुत ज्ञान और प्रकृति का सहारा लेते हुए वातानुकूलित बहुमंजिला भवन बनवाए थे। इनकी बानगी आज भी देखने को मिलती है। आज हम अपने आसपास को ठंडा रखने के लिये जिन मशीनों का उपयोग करते हैं, वे हमारे जलवायु के लिये बहुत घातक हैं।
इनसे उत्सर्जित होने वाला क्लोरो फ्लोरो कार्बन हमें घातक विकिरणों से बचाने वाले सदियों पुराने ओजोन परत को बड़ी तादाद में नुकसान पहुँचा रहा है। लेकिन आप यह सुनकर चौंक सकते हैं कि अठारहवीं सदी में हवा और पानी की अद्भुत तकनीकी कौशल से जिन वातानुकूलित बहुमंजिला भवनों का निर्माण बावड़ियों के रूप में हुआ, उससे प्रकृति को कोई नुकसान नहीं होता रहा बल्कि जल संसाधन के रूप में इससे लोगों को पानी भी मुहैया किया जाता रहा।
मध्य प्रदेश में उज्जैन जिले के महिदपुर कस्बे में आज भी ऐसी ही एक बहुमंजिला वातानुकूलित बावड़ी को देखा जा सकता है। करीब ढाई सौ साल पुरानी यह बावड़ी अब भी अपने वैभव की कहानी सुनाती है। यह जल विज्ञान का ही नहीं स्थापत्य कला का भी अद्वितीय नमूना है।
यहाँ के रहवासी इसे ताला-कूँची बावड़ी के नाम से पहचानते हैं। यह नाम तब से ही प्रचलित है। दरअसल इसका वास्तु ऐसा है कि कोई भी अजनबी व्यक्ति इसकी बनावट की भूल-भुलैया में खो सकता है। एक जैसे कक्ष और बावड़ी की ओर खुलने वाले एक जैसे झरोखों में कोई भी धोखा खा सकता है। इसका निर्माण कुछ इस तरह हुआ है कि वहाँ का पानी कभी सूखता ही नहीं है।
इस बावड़ी की विशेषता यह है कि इसमें प्रवेश करने के लिये बाकायदा द्वार बना हुआ है और उसी से इसमें प्रवेश किया जा सकता है। इससे पहले तक बावड़ी जैसे जल संसाधन कभी भी बन्द दरवाजों में नहीं हुआ करते थे, वे आम लोगों के लिये खुले और सुलभ हुआ करते थे और उनके पानी का उपयोग कोई कभी भी कर सकता था। लेकिन यह बावड़ी किले की सुरक्षा से जुड़ी होने के कारण इस तरह बनाई गई थी कि एक ही द्वार से प्रवेश हो ताकि इस पर आसानी से निगरानी रखी जा सके। इसीलिये इसे ताला-कूँची की बावड़ी कहा जाता है। यानी ताला लगाने पर बन्द और कूँची से खोलने पर ही खुलती थी।
अद्वितीय वास्तुकला और जल तकनीक से बनाई गई इस बावड़ी का निर्माण क्षिप्रा नदी के किनारे वाघ राजा ने 18वीं सदी में किया था। बारिश और गर्मियों के मौसम की तमाम स्थितियों को झेलते हुए भी यह बावड़ी पूरे शान से सीना ताने अब भी खड़ी है। यह इलाका 18वीं शताब्दी के बीच मराठा शासकों के आधिपत्य में आया।
सन 1730 में मराठे मालवा में निर्णायक शक्ति बन गए। लेकिन पेशवा से प्रशासन के वैधानिक अधिकार उन्हें 1741 में मिले। इन्दौर के होलकर शासक मल्हारराव को 74 परगनों की सरंजामी यानी प्रशासनिक इन्तजाम दिये गए। सन 1737 में मल्हारराव ने महिदपुर क्षेत्र के लिये सन्ताजी वाघ को सरंजामी जागीरदार नियुक्त किया।
पुराविद डॉ. प्रशान्त पुराणिक कहते हैं- 'वाघ राजा ने अपनी सरंजामी के अच्छे प्रशासन और प्रजा के लिये निर्माण कार्यों की और उत्साहपूर्वक ध्यान दिया। उन्होंने महिदपुर के मुगलकालीन जर्जर किले को फिर से बनाने का बीड़ा उठाया और इसी जर्जर जिले के सामने क्षिप्रा नदी के पूर्वी तट पर एक नवीन किले का निर्माण करवाया। किले में विशाल राजमहल और नदी की ओर पक्के घाट बनवाए गए। इसके आसपास धार्मिक स्थलों का निर्माण भी किया गया है। किले की जगह देखते समय उसकी सुरक्षा का पूरा बन्दोबस्त किया गया था। किले से कुछ ही दूरी पर छत्रीबाग बनाया गया है और इसी बाग में स्थित है बहुमंजिली ताला-कूँची की बावड़ी। वाघ राजा द्वारा निर्मित ताला-कूँची की बावड़ी का स्थापत्य देखते ही बनता है। इसे देखकर लगता है कि वाघ कला मर्मज्ञ थे और उन्हें भारतीय वास्तुकला के साथ संस्कृति का विशेष अध्ययन भी था। इन्हीं के शासनकाल में इस क्षेत्र में अन्य कई स्थानों पर मन्दिरों, बावड़ियों और विशाल भवनों का निर्माण भी हुआ था।'
ताला-कूँची की बावड़ी का निर्माण तीन से चार मंजिलों वाले कई कमरों के महल के रूप में किया गया। इसकी निर्माण तकनीक प्राकृतिक रूप से वातानुकूलित होने के साथ ही तब की प्रचलित भूल-भुलैया शैली में है। इसमें नया अजनबी आदमी अपने आप को बावड़ी के आस-पास के एक से जुड़े दूसरे कमरे में भूल-भुलैया जैसा पशोपेश में पड़ जाता है। यह बावड़ी उस काल की वास्तु शिल्प की नायाब बानगी है। गर्मियों में यहाँ वाघ राजा का दरबार सजता था और रियाया की फरियाद सुनी जाती थी।
19वीं सदी में जब महिदपुर मराठों से छिनकर अंग्रेजों के अधीन आया तब अंग्रेजों ने इसका उपयोग अपनी छावनी के कार्यकाल के रूप में कुछ समय तक के लिये किया है। गर्मी के दिनों में अंग्रेजी एजेंट इस स्थान का उपयोग न्यायालय के रूप में करते थे। समय के थपेड़ों के बावजूद आज तक यह ऐतिहासिक किला और ताला कूँची की बावड़ी भी मौजूद है। सुरक्षा के लिहाज से उन दिनों यह किला मजबूत गढ़ के रूप में स्थापित था।
बावड़ी के चारों ओर पंक्तिबद्ध एक से जुड़े एक कमरे और झरोखे बनाए गए हैं सभी कमरे और झरोखे एक ही आकार तथा एक जैसे दिखने की वजह से कोई भी इनकी भूल-भुलैया में पड़ सकता है। इलाके में अभी यह बात कही-सुनी जाती है कि इस बावड़ी के अन्दर से कई तिलस्मी रास्ते हैं जो तब के महत्त्वपूर्ण ग्वालियर, उज्जैन और इन्दौर तक जाते थे। इसके अलावा बावड़ी का निर्माण महिदपुर से कुछ ही दूरी पर स्थित किले की आवाजाही के लिये इस्तेमाल किया जाता रहा होगा। इसी गोपनीय रास्ते से बावड़ी का महत्त्व रहा होगा।
इस बावड़ी को वातानुकूलित रखने के लिये यहाँ हवा और पानी की अद्भुत तकनीक अपनाई गई थी वह उस समय के वास्तुशिल्प की अब भी मौन गवाही देती है इलाके में पहली बार आने वाले लोग बावड़ी देखने यहाँ पहुँचते हैं। ताला-कूँची की बावड़ी के पास ही पश्चिम दिशा में इसे बनाने वाले राजा वाघ की छतरी भी मौजूद है। इस पर भी अद्भुत नक्काशी और बारीक कारीगरी की गई है।
महिदपुर के शहर के पश्चिम में क्षिप्रा नदी बहती है। पौराणिक ग्रंथों में क्षिप्रा नदी को मोक्षदायी माना गया है। इसके किनारे ही 12 वर्षों में एक बार सिंहस्थ लगता है। क्षिप्रा नदी का उल्लेख स्कंद पुराण के अवंती खण्ड में भी मिलता है। नदी के किनारे विशाल जलराशि के कारण प्राकृतिक मनोहारी दृश्य बनते हैं। नदी तट पर कई बड़े-बड़े घाट बने हुए हैं।
इनमें परमारकालीन मूर्तियों और शिल्प का प्रयोग किया गया है। होल्कर वंश की महिला शासिका अहिल्याबाई ने भी यहाँ क्षिप्रा नदी के किनारे सुन्दर घाट और शिव मन्दिर का निर्माण कराया था। इसे अब भी सरकारी घाट के नाम से पहचाना जाता है। महिदपुर की क्षिप्रा नदी के तट पर परमार काल से लेकर सल्तनत और मुगल काल से लेकर मराठा काल तक अनेक घाटों के निर्माण और पुनर्निर्माण को देखा जा सकता है।
महिदपुर के क्षिप्रा किनारे प्रमुख घाटों में गंगावाड़ी, किलाघाट, पयसा का संगम, तारकेश्वरी घाट अहल्या घाट और रावला घाट प्रमुख है। क्षिप्रा नदी से मिले एक शिलालेख में उल्लेख मिलता है कि 5 जून 1815 को होलकर राज्य में नदी के कुछ क्षेत्रों में शिकार प्रतिबन्धित कर दिया गया था। इस शिलालेख में तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट का आदेश उत्कीर्ण है कि कोई भी गंगावाड़ी से पयसा संगम तक शिकार नहीं करेगा।
20 सितम्बर 1817 को क्षिप्रा किनारे गंगावाड़ी के मैदान पर ही अंग्रेज ओर होलकरों का प्रसिद्ध युद्ध हुआ था। यहाँ दुबली गाँव में बड़े युद्ध में 3000 से ज्यादा होलकर सैनिक मारे गए थे। इस युद्ध के बाद से ही मराठा होलकर का प्रभुत्व खत्म हुआ और उन्हें पराजित होकर अपमानजनक संधि अंग्रेजों से करना पड़ी। अंग्रेज अधिकारी और उनके सैनिकों की कब्रें आज भी यहाँ के क्रिश्चन कब्रिस्तान में रखी हुई है।
भौतिक संसाधनों की दृष्टि से महिदपुर और उसके आसपास कई नदियाँ हैं। जिनके पानी का उपयोग पेयजल, निस्तारी और सिंचाई के उपयोग के लिये किया जाता है। इसके आसपास क्षिप्रा, कालीसिंध, मंदाकिनी और गांगी नदियाँ हैं।
आश्चर्य होगा कि वर्ष 1897 में सिंहस्थ उज्जैन में नहीं होकर महिदपुर में आयोजित किया गया था। आज से 118 वर्ष पूर्व 1897 में उज्जैन भीषण अकाल की चपेट में था। उस समय भीषण अकाल के कारण लोग अन्न-जल के लिये तरस गए थे। सिंहस्थ के साल लोग पलायन करने लगे। ऐसे में क्षिप्रा नदी में पानी सूख गया था। क्षिप्रा में स्नान की समस्या उठ खड़ी हुई।
तत्कालीन सिंधिया रियासत सिंहस्थ की व्यवस्था में असहाय महसूस करने लगी तो उन्होंने इन्दौर के होल्कर राजा के माध्यम से साधुओं को यह सन्देश दिया कि अकाल के कारण उनके लिये उज्जैन में सिंहस्थ का आयोजन करना असम्भव है। इसलिये वे उज्जैन न आएँ। तब साधु और अन्य लोग इन्दौर से उन्हेल होते हुए महिदपुर पहुँचे, जहाँ होल्कर रियासत ने व्यवस्थाएँ की थीं।
क्षिप्रा नदी की एक उगाल अर्थात पानी का एक बड़ा हिस्सा महिदपुर के गंगवाड़ी क्षेत्र में भी था, होल्कर राजा ने साधुओं के सिंहस्थ स्नान की व्यवस्था गंगवाड़ी में की और यहाँ आने वाली साधु जमातों की व्यवस्था भी की गई। साधुओं के गंगवाड़ी पहुँचने पर महिदपुर में सिंहस्थ मेला लगा और साधुओं को गंगवाड़ी में स्थित क्षिप्रा नदी की उगाल में ही स्नान कर सन्तोष करना पड़ा।
सिंहस्थ के इतिहास में यह पहली घटना थी, जब सिंहस्थ के दौरान उज्जैन का रामघाट और समूचा स्थान सूना रहा और सिंहस्थ यहाँ से 60 किलोमीटर दूर महिदपुर के गंगवाड़ी में आयोजित हुआ। इसके बाद सन 1919 में पुन: अगला सिंहस्थ परम्परागत रूप से उज्जैन में ही लगना शुरू हुआ। 10 अप्रैल 1907 में छपी इन्दौर स्टेट गजेटियर में महिदपुर के सिंहस्थ का उल्लेख है।
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Post By: RuralWater