हर व्यक्ति की अपनी नर्मदा होती है- मेधा पाटकर

मेधा ताई
मेधा ताई
सन् सत्तावन के आंदोलन के सक्रिय भागीदार बसंत खानोलकर तथा 'स्वाधार' व अन्य समाजसेवी संस्थाओं से शिद्दत से जुड़ी इंदु ताई की बेटी मेधा साधारण स्त्री होती तो आश्चर्य होता। जिन्होंने नि:स्वार्थ समाजसेवा, देश के लिये पूर्ण समर्पण व दुर्धर्ष कर्मठता के संस्कार जन्मघुट्टी में पाये और वैसे ही स्वस्थ परिवेश में बड़ी हुईं। उनके व्यक्तित्व में जो धार है, वह यशस्वी माता-पिता से मिली। शिक्षा, संस्कार तथा परिवेश ने उसे और सान पर चढ़ाया। दिसंबर 1954 में जन्मी मेधा ने 'सामाजिक कार्य' विषय लेकर एम.ए. किया और पीएचडी के लिये टाटा सामाजिक संस्थान (TISS) में गई। अध्ययन के दौरान फील्डवर्क के लिये जब आदिवासी क्षेत्रों में उतरी और उनके हालात देखें तो दंग रह गई। उनका संवेदनशील मानस थर्रा उठा। फिर उनसे ऐसी जुड़ी कि शोध एक तरफ छूटा तथा खुद का वैवाहिक जीवन भी।

बाईस वर्ष की उम्र में शादी हुई और जल्दी ही वे परेशानियों में घिर गई। समाज सेविका मां के लगातार निर्देशों और हिदायतों के बावजूद कि 'इस शादी से निकल आओ' मेधा ने दस वर्ष इस उम्मीद में काट दिये कि वे सब कुछ ठीक कर लेंगी। अन्तत: ऐसा नहीं हो सका तो बड़ी शालीनता से शांति के साथ बाहर निकल आई। मुंह खोलकर न कोई शिकायत की न पीछे मुड़ कर देखा। अपनी मास्टर डिग्री के बाद वे सात साल तक मुंबई तथा पूर्वी गुजरात की स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ काम करती रही। सत्तर के दशक में युवाओं के आंदोलन सही दिशा में थे। उससे भी पहले से वे राष्ट्रीय सेवा दल में रही। स्कूल कालेजों के प्रत्येक कार्यक्रम में पूरी तत्परता तथा योग्यता से भाग लेती रही। गीत, नृत्य, नाटयकर्म, भाषण स्पर्धा, वाद-विवाद या काव्यगोष्ठी अर्थात कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जहां मेधा की उपस्थिति दर्ज न हुई हो। सामाजिक परिवर्तन व समाज सेवा की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी है।

उनकी उर्जा व दक्षता देखकर तभी लगता था कि वे कुछ तो करेंगी...मगर क्या? यह उस वक्त तय हो गया जब वे सरदार सरोवर परियोजना से जुड़ीं। नर्मदा आंदोलन में कूद पड़ी। हर व्यक्ति की अपनी 'नर्मदा' होती है अर्थात जीवन का लक्ष्य। मेधा को भी अपनी नर्मदा मिल गई थी और वे उसमें गहरे उतर चुकी थी। आदिवासियों के बीच गई तो पता चला कि वहां कोई बांध बनने वाला है। तमाम आंकड़े देखे, अध्ययन किया। सम्बध्द लोगों से मिली। लंबा विमर्श चला। तब उन्हें समझ आया कि वहां के लोगों पर कैसी विपत्ति आने वाली है। इस योजना के लाभ बढ़ा-चढ़ा कर बताए गए, जबकि नुकसान का कोई जिक्र नहीं किया गया। पुनर्वास की नीति क्या होगी, प्रावधान क्या होगा, सब मालूम किया। मेधा की खूबी यही है कि वे जब किसी चीज के पीछे पड़ जाती हैं तो उसके आखिरी छोर तक जाकर दम लेती हैं। अपने शोधकार्य को परे रख कर आदिवासियों के बीहड़ में उतर गई। 30-40 किलोमीटर पैदल चलना और उनसे संपर्क बनाने के लिये आदिवासी भाषाएं सीखना उन्हीं के बूते का काम था। उनके साथ कई अच्छे लोग जुड़ गए थे। संजय शर्मा जैसे पत्रकार साथ थे पिछले वर्ष ही उनका निधन हो गया। तीन बड़े इंजीनियर श्रीपाद धर्माधिकारी, मध्यप्रदेश के आलोक जी, हिमांशुजी, गुजरात की नंदिनी बहन, मध्यप्रदेश के चित्तु पारकर जी जैसे लोग जो अपने-अपने कार्य क्षेत्र के विशेषज्ञ थे। सभी ने पूरी योजना के प्रत्येक पहलू पर गहन चिंतन किया। छोटी से छोटी बात को भी नजर अंदाज न करने वाला यह जबरदस्त ग्रुप था। वह 85-86 का समय था।

आंदोलन के चढ़ाव के दिनों में एक अधिकारी के साथ हमेशा बहसें, मतभेद विवाद चल रहे थे। इस पर भी वही व्यक्ति आदर सहित उन्हें अपने घर आने का निमंत्रण देने को विवश हो जाता है क्योंकि उनकी बेटी मेधा की घनघोर प्रशंसक है और उन्हें घर बुलाना चाहती है। बेचारे अधिकारी को घर और कार्यालय दोनों जगह कैसी मुठभेड़ का सामना करना पड़ता होगा कल्पना की जा सकती है। यह कोई करिश्मा नहीं है। यह है एक समर्पित व्यक्तित्व की अनुपम निस्वार्थ सेवाभावना का आदर। हमारे यहां लक्ष्य पाने के लिये जिस ताकत की जरुरत रही उसकी कमी हमेशा दिखी। वामपंथी, नक्सलवादी, सर्वोदयी, मार्क्सवादी, माओवादी या समाजवादी चाहे कोई वाद या पंथ रहा मगर कार्य को सिध्द करने के लिये जिस कर्मठता की जरुरत रही वह हमेशा कम पड़ी और इसलिये कभी सिध्दि भी नहीं मिली। जबकि मेधा ने लक्ष्य से अपनी नजरें कभी नहीं हटाई। बहुत अच्छी संघटक होने के कारण जो लोग उनसे जुड़े वे पूरी प्राणप्रणता के साथ उनके साथ रहे। गणमान्य लेखकों, बुध्दिजीवियों, पत्रकारों के साथ उनकी हमेशा घनिष्ठता रही। अपने आंदोलन के बारे में लगातार आदिवासियों पर अधिकारपूर्वक लिखने वाली बंगाल की वरिष्ठ लेखिका महाश्वेता देवी के साथ मेधा का गहरा अपनापा है। तो ऐसा नहीं है कि मेधा ने अपने आंदोलन पर अड़ियल रुख रखा। परिवर्तन तो उनके स्वभाव का अहम गुण है ही इसके अतिरिक्त उनका विभाग किसी कम्प्यूटर जैसा क्रियाशील है। हजारों फोन नंबर, आंकड़े और चेहरे उसमें अंकित है। एक बार जिससे मिल ले उसे कभी नहीं भूलती। साथ ही पकड़ पहचान ऐसी कि जो व्यक्ति जैसी योग्यता रखता है उसके अनुरुप उससे समाजसेवा का काम करवा सकती हैं। प्रतिभा को परखना और उससे उपयोगी जगह लगा कर सार्थक काम करवा लेना उनका दुर्लभ गुण है। इतने लंबे समय तक, कड़े विरोध के बावजूद उनका आंदोलन जीवित रहा, उसकी वजह यही है कि मेधा के अंदर का व्यक्तित्व इतना परिष्कृत है कि वे किसी के प्रति व्यक्तिगत कडुवाहट नहीं पालती।

उन पर कितने हमले हुए, हाथापाई, भूख हड़तालें, कीचड़ उछालना अर्थात उन्हें दबाने में कोई कमी नहीं रखी गई मगर जितना दबाया गया वे और अधिक मजबूत होकर उभरीं। बेहद सकारात्मक चिंतन खुली व उदार दृष्टि है। नपे तुले शब्दों में अपनी बात कहती है और गाब की वक्ता है। जब बोलती है तो लगता है सरस्वती स्वयं जिहा पर आ विराजी है। मेधा नाम शब्दश: सार्थक हुआ जान पड़ता है। श्रोता मंत्रबिध्द से सुनते ही नहीं भक्त भी बनते चले जाते है। आंदोलन के चढ़ाव के दिनों में एक अधिकारी के साथ हमेशा बहसें, मतभेद विवाद चल रहे थे। इस पर भी वही व्यक्ति आदर सहित उन्हें अपने घर आने का निमंत्रण देने को विवश हो जाता है क्योंकि उनकी बेटी मेधा की घनघोर प्रशंसक है और उन्हें घर बुलाना चाहती है। बेचारे अधिकारी को घर और कार्यालय दोनों जगह कैसी मुठभेड़ का सामना करना पड़ता होगा कल्पना की जा सकती है। यह कोई करिश्मा नहीं है। यह है एक समर्पित व्यक्तित्व की अनुपम निस्वार्थ सेवाभावना का आदर।

बड़ी जद्दोजहद के बाद सुप्रीम कोर्ट का बांध पर काम रोकने का आदेश आया तो अफवाहें फैलाई गई कि मेधा पाटकर ने विदेशों से भारी पैसा खाया है बांध न बनने देने के लिये क्योंकि विदेशी नहीं चाहते भारत का विकास हो और बांध परियोजना ठप्प हो जाएं। उन्हीं दिनों नर्मदा आंदोलन के आफिस पर हमला हुआ। छोटा सा मामूली आफिस कागजों से भरा था उसे जला दिया गया। विरोधी भी हैरत में पड़ गए। विदेशी पैसा और ऐसा खस्ता हाल आफिस...। समझदार लोगों की सोच पलटी और वे उनके साथ हो गए। सभी आंदोलनों की कमजोरी यही रही कि लोगों तक सच्चाई नहीं पहुंचने दी जाती। अनेक मिथ्या भ्रम फैलाए जाते हैं। आंदोलनकारियों का दमन किया जाता है। दरअसल विकास के माने क्या है इसे समझना अभी बाकी है। मेधा हमेशा कहती रही हैं कि पर्यावरणवाद उस तथाकथित पूंजीवादी आधुनिकतावाद का विरोधी है जो उपभोक्तावादी लूट-खसोट जनित संस्कृति का सहोदर है। जो अपनी लच्छेदार बातों में जन सामान्य को फंसा कर अपना उल्लू-सीधा करता है। आधुनिकतावाद विकास नहीं पश्चिमी अमीर समाज का अंधानुकरण है जिससे हमारी गरीब जनता पर चौतरफा मार पड़ती है। यह विकास नहीं पतन है। पर्यावरणवाद जनसामान्य के सच्चे और स्वाभाविक ज्ञानपूर्ण विकास की वकालत करता है जिसका ढांचा बिल्कुल स्वदेशी हो। भारत के पर्यावरणवाद और पर्यावरण आंदोलन को राज्य और उसके प्रतिक्रियावादी दोस्तों तथा प्रतिगामी ताकतों की तरफ से लगातार धमकियां मिल रही है। समझा जा सकता हैं कि इस आंदोलन को नेस्तनाबूद करना ठेकेदारों, औद्योगिक घरानों और पूजीपतियों का परम ध्येय है, जिनकी प्रवृत्ति सदा से ही लुटेरी रही है।

उद्योगवाद की आड़ में ये तमाम प्राकृतिक स्त्रोतों को निगलते जा रहे हैं। मेधा डंके की चोट पर चेताती है कि विकास के ये दिवास्वरप्न जनसामान्य को दिखाकर और स्वर्गीय संसार की कल्पना का झांसा देकर ये तमाम तत्व सारे वन्य संपदाओं को अपने मिलों कारखानों में गिरवी रख रहे हैं। यह अति खतरनाक आधुनिक उपभोक्तावादी लुटेरी मानसिकता है और पर्यावरण के लिये घातक है। हमारे सारे संसाधन इन्हीं तत्वों के हाथों में केन्द्रित हो चुके हैं।

मेधा को बुलाया जाता है और वे देश भर में दौड़ती रहती हैं। आदिवासी तो उन्हें देवी का अवतार मानने लगे थे मगर उन्होंने व्यक्ति पूजा का सख्त विरोध किया। आदर व श्रध्दा उन्हें भरपूर मिली जिसकी वे वाजिब हकदार हैं। सरकार ने मेधा का आदिवासी क्षेत्रों में आना रोकने में बल प्रयोग करने में कसर नहीं छोड़ी। आदिवासियों को अपने हक के लिये जागरुक करना उनमें विकास की चेतना फूंकने का जो कष्टसाध्य कार्य उन्होंने किया उसे सरकारें याद रखेंगी। बड़े बांध नहीं बनेंगे इससे लाभ कम हानि अधिक है। इस शाश्वत सच को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मनवाने में मेधा ने अपना जीवन खपा दिया।मेधा जब तमाम बातें पूरे अधिकार व आंकड़ों के साथ बताती हैं तो उनका मुंह बंद करने के लिये जो दमन चक्र चलते है उन्हें हम आये दिन अखबारों व टीवी पर पढ़ते देखते है। कोंकण जा रही मेधा व उनके सहकर्मियों को जबरदस्ती बस से उतार कर इतना पीटा गया कि कुछ बेहोश हो गए। भूख हड़ताल के दौरान डंडे बरसाना, अपशब्द कहना जेल में डाल देने जैसे कार्य अनेकों बार हुए। मेधा की पूरी पीढ़ी गांधीवादी कार्यक्रमों से जुड़ी थी। गांधीवाद उनके रेशे-रेशे में बहता है तो विरोध-अहिंसात्मक तरीके से करना, भूख हड़ताल करना, असहयोग करना जैसे शस्त्र उनके संस्कारों में रचे बसे हैं। बीस दिन की लंबी भूख हड़ताल पर वे 2006 मार्च महीने में रही। सिंगूर में दो दिसम्बर 2006 में उन्हें गिरफ्तार किया गया जब वे किसानों के हक में आगे आयीं। जो उड़ीसा में हुआ, सिंगूर में हुआ, कंधमाल में हुआ था इतने विशाल देश के कोने कोने में दमन चक्र चल रहे हैं उन्हें नजरअंदाज मेधा कर ही नहीं सकती। दमित लोगों के अधिकारों के लिये लड़ने वे देश भर में भागती रहती हैं। उन्होंने दमित लोगों की मजदूरों की, आदिवासियों की समस्याओं को गहरायी से समझा है उसकी जड़े तलाशी हैं,उसके आर्थिक व समाजशास्त्रीय पहलुओं पर गहन विमर्श किया है। कानूनी पक्ष को समझा है तभी वे अपनी बात पूरे आत्म विश्वास के साथ कहती हैं कि विदेशी पूंजी निवेश का रवैया बड़ा आक्रामक है। इससे हालात बद से बदतर होते जायेंगे। थोड़े से निवेश ने हमें नतमस्तक कर दिया है जबकि मजदूरों का श्रम और पानी समेत तमाम संसाधनों का अनुपात उनकी थोड़ी सी पूंजी के मुकाबले में बहुत ज्यादा है जिसे हम समझना ही नहीं चाहते और उनकी गुलामी करने को तत्पर हो जाते हैं। इस पूंजी की घुसपैठ कहां नहीं है। कृषि, वनस्पतियों, बाग बगीचों तक तो पहुंच चुकी है यहां तक कि हमारे पेड़ पौधों पर भी कुंडली मार कर बैठी है।

मेधा गला फाड़ कर बार-बार लोगों को चेताती है कि पूंजीवादी और उपभोक्तावादी समाज व्यवस्था में अर्थतंत्र सरकारीतंत्र पर हावी रहता है। सरकार का रोल मात्र एक ट्रक क्लीनर की तरह है। ड्राइविंग सीट पर तो मुनाफाखोर और कमीशनखोर तत्व बैठे हैं और सरकार उनके फायदे के लिये रास्ता साफ करती है। सरकारें चाहे राज्यों की हो या केंद्र की रोल हमेशा कमोबेश एक ही रहता है। और भोली भाली असहाय गरीब जनता जो उनके अपने देश की है अपनी सरकारों की मेहरबानी से बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देशी साहूकारों के जरिये विस्थापित होकर दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हो जाती है। मेधा की ऐसी ंखरी मगर खारी बातें सुनकर आम जनता जागरुक न हो जाये उनकी आंखों पर पड़े भ्रम के परदे न उठ पाए इसके लिये मेधा व उन जैसे समाज सेवियों पर लाठियां बरसाती है उन्हें जेल में ठूंस दिया जाता है उनकी सच उगलती वाकशक्ति पर पहरे बैठा दिये जाते हैं। मेधा की काबिलियत में पूरा विश्वास रखने व उनके सिध्दांतों का सम्मान करने वाले लोग चाहते हैं कि अब वे किसी एक जगह थमकर कुछ ठोस कार्य करने की योजना तैयार करे। जिस तरह बिजली, साफ पानी जैसी मामूली जरुरतें भी आज तक सरकार पूरी नहीं कर पायी। ऐसे ही किसी एक मुद्दे को लेकर उसका समाधान प्रस्तुत करे तो जनता को भी लगेगा कि बिना संसाधनों के छोटे पैमाने पर ही सही मगर जब वे समस्या को सुलझाने का व्यावहारिक विकल्प बता सकती है तो सरकार क्यों नहीं कर पाती। वर्षों का कड़ा संघर्ष अनुभव, अध्ययन, कानूनी पहलु, तथ्यों का सटीक विश्लेषण नागरिक अधिकारों का ज्ञान तथा समाधान उनके पास है वे कर सकती है। उनका कोई स्थायी निवास या कोई आश्रम हो। जहां उनसे मिलने वाले, सलाह करने वाले, सहयोग देने वाले, सेवाएं देने वाले, जुड़ने वाले उनकी अर्हता से लाभ ले सकें। उससे भी ज्यादा जरुरी है कि उनकी जैसी एक पीढ़ी को तैयार करना ताकि वह उनकी परम्परा के वाहक बने रहें। यह आसान तो नहीं है मगर मेधा ने आसान काम कब हाथ में लिया है। जो सही नहीं हो रहा है उसका ठोस विकल्प प्रमाणिक रुप से वे प्रस्तुत कर सकती हैं क्योंकि उनमें अद्भुत क्षमता है, साहस भी है और अपने जैसे लोगों को साथ लेकर चलने का माद्दा भी है।

अज्ञानी लोगों की नारों में उनकी छवि विकास विरोधी बनी है। यद्यपि ऐसी कोई जरुरत नहीं है कि वे मुट्ठी भर लोगों की आंखों का परदा हटाने लगे। मगर दिशा सही होने पर भी बीहड़ यात्रा में वाहन के गियर बदलने जरूरी हो जाते हैं। माना कि वे बड़ी जुझारू जीवट वाली महिला हैं। उन्होंने अपने आंदोलन के लिये श्रम किया है। असामान्य जीवन जिया है उसका असर शरीर पर हुआ ही है। उम्र का अपना तकाजा होता है। चूंकि वे आम औरत नहीं है उनमें ऊर्जा का अजस्त्र स्त्रोत बहता है अत: बहुत जरुरी है कि अपनी जैसी पीढ़ी तैयार करें। स्वभाव से बड़ी स्नेही, उदार और लोगों को साथ लेकर चलने का पैतृक गुण उनमें है। समाज सेवा के इच्छुक लोगों को पास बुलाकर जोड़ने के लिये उनके विलक्षण जीवन के दृष्टांत ही काफी है। वे दोनों की पुकार सुनकर रुक नहीं सकती दौड़ पड़ती है। यह गुण है या कमजोरी-मगर अब जरुरत स्थायित्व की है क्योंकि देश को समाज को उनसे बहुत अपेक्षाएं है। बाबा आमटे के वे बहुत करीब थी उनके निधन से बड़ी क्षति हुई है। मेधा को उनके कार्यों के एवज में हमारे देशवासी बहुत नहीं लौटा पाएं हैं। फिर भी सन 1991 में उन्हें राईट लाइवलीहुड एवार्ड दिया गया। सन 1999 में ए.ए. थॉमस नेशनल ह्युमन राइट एवार्ड विजल इंडिया मूवमेंट की तरफ से दिया गया। दीनानाथ मंगेशकर एवार्ड, गोल्डमेन एन्वायरमेंट प्राईज, ग्रीन रिबन एवार्ड, बेस्ट इंटरनेशनल केम्पेनर बाई बी.बी.सी. तथा ह्युमन राइट्स डिफेन्डर एवार्ड एमनेस्टी इंटरनेशनल की तरफ से प्रदान किया गया। वे कमिश्नर टू द वर्ल्ड कमीशन आन डेम नियुक्त की गई थी। आज के दौर में तमाम सामाजिक आंदोलन ठंडे हो गए हैं। वैश्वीकरण की आंधी चल रही है। आदिवासियों या गरीबों के मरने जीने की परवाह करने का प्रश्न ही नहीं है। हर बड़े कार्यों में इस तरह के दौर आते हैं। नर्मदा आंदोलन के बाद एक राष्ट्रीय स्तर का पैनल बनाया गया है। जिसके तहत अनेक जन सामाजिक संघटन कार्यरत हैं। जहां भी संघर्ष उठते हैं, अन्याय दमनचक्र चलते हैं मेधा को बुलाया जाता है और वे देश भर में दौड़ती रहती हैं। आदिवासी तो उन्हें देवी का अवतार मानने लगे थे मगर उन्होंने व्यक्ति पूजा का सख्त विरोध किया। आदर व श्रध्दा उन्हें भरपूर मिली जिसकी वे वाजिब हकदार हैं। सरकार ने मेधा का आदिवासी क्षेत्रों में आना रोकने में बल प्रयोग करने में कसर नहीं छोड़ी। आदिवासियों को अपने हक के लिये जागरुक करना उनमें विकास की चेतना फूंकने का जो कष्टसाध्य कार्य उन्होंने किया उसे सरकारें याद रखेंगी। बड़े बांध नहीं बनेंगे इससे लाभ कम हानि अधिक है। इस शाश्वत सच को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मनवाने में मेधा ने अपना जीवन खपा दिया। उनके निस्वार्थ समाज सेवा के जज्बे को सलाम।


लेखक सम्पर्क- निर्मला डोसी
डी 7 शिवप्रभा सेक्टर 1,
चारकोप कांडिवली परिपत्र,
मुंबई-400067, 28686806

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