हर समाज के लिए नदी एक संस्कृति है


नदी की प्रकृति है उसका प्रवाह। निरंतर बहते रहना ही नदी में जीवन का संचार करता है। नदी का अस्तित्व इस प्रवाह से ही है। नदी के किनारे एकाग्रचित्त होकर बैठिए और कल-कल बहते पानी को निहारिए। आपको लगेगा मानो वह कोई संदेश दे रहा है। जैसे नदी निरंतर बहती रहती है, आगे बढ़ती रहती है; वैसे ही जीवन में भी प्रवाह बना रहना चाहिए। जीवन थककर या हारकर रुकने में नहीं है; बल्कि निरंतर आगे बढ़ते रहने में है।

नदी का प्राकृतिक प्रवाह यदि बाधित होगा; तो नदी की जीवन लीला संकट में पड़ जाएगी! उसके प्राकृतिक प्रवाह और प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ करो; तो नदी की जीवंतता नष्ट हो जाएगी! जीवन के सहज प्रवाह से भी कृत्रिम छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए।

नदी जब अपने स्त्रोतों-पहाड़ों, वनों, सरोवरों, ग्लेशियरों से निकलती है; तब प्राय: संकरी होती है। मार्ग में इसमें अनेक जल धाराएं, छोटे नदी-नाले, सहायक नदियां आकर मिलती हैं। इससे नदी में जल राशि का विस्तार होता है, उसका पाट विशाल होता है। अपनी जीवन यात्रा में मनुष्य को भी इतने व्यापक व खुले दिलो-दिमाग का होना चाहिए कि चारों ओर से जल राशि की तरह ज्ञान राशि को अपने में समाता चले। जीवन यात्रा में दो सबल अस्तित्वों का मिलन मानो संगम तीर्थ के समान पवित्र हो जाता है।

नदियों को सागर-पत्नी भी कहा गया है। इसी तरह समुद्र के भी अनेक नामों में से एक है - सरित्पति। सभी नदियां अंतत: समुद्र में ही समा जाती हैं। नदियां समुद्र तट पर उपजाऊ इकोलॉजी का निर्माण करती हैं। नदियों के किनारे ही हमारी आरंभिक सभ्यताएं फली-फूलीं हैं। विभिन्न इलाकों व वहां तट पर बसे लोगों की पहचान उन नदियों के नाम से हुई।

नदी के बहते जल से नदी के आसपास बसने वाले लोगों, राहगीरों व अन्य जीवों ने सदा अपनी प्यास बुझाई है। नदी के जल ने किसानों के खेत सींचे। लोग नदी में नहाए-धोए और तैरे। नदी की बहती धारा के साथ नाव खेकर दूर-दूर की यात्राएं करते रहे हैं। नदी मछुआरों की आजीविका सुनिश्चित करती रही है और प्रवासी पक्षियों को भी उनका भोजन उपलब्ध कराती रही है। नदी किनारे के बालू पत्थर से नदी किनारे बसे लोग अपने घर बनाते रहे हैं। नदी तटों पर प्राय: स्थानीय सामुदायिक जीवन और पर्यटन की चहल-पहल से रौनक रहती है।

मानव नदी के असंख्य उपकारों के आगे नतमस्तक हुआ है। वह नदी पर श्रद्धा रखता है। मानव मन ने नदी के साथ रिश्ता जोड़ा है। नदी को माँ की संज्ञा दी है। जैसे माँ बिल्कुल निस्वार्थ भाव से अपने सभी बच्चों को समान रूप से पालती-पोसती है, उनकी कई जरूरतें पूरी करती है; वैसी ही भूमिका नदी सभी जीवों के साथ समान रूप से निभाती आई है। नदी को माँ या देवी के रूप में पूजा जाता है। विभिन्न धमोंर् में नदी की पूजा-अर्चना का प्रावधान है और उसके संरक्षण की प्रेरणा दी गई है। कई धार्मिक कथा-कहानियां व कर्म-कांड नदी से जुड़े रहे हैं। कई नदी तटों, विशेषकर संगम स्थलों का विकास प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों के रूप में हुआ है।

हर नदी वहां के स्थानीय लोगों के लिए पवित्र है और उनकी संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़ी हैं। वस्तुत: नदी प्रवाहमय संस्कृति की पहचान है। नदियों का संगम मानो संदेश देता है कि विभिन्न संस्कृतियों को भी परस्पर घुलना-मिलना चाहिए। संस्कृतियों का संगम भी पवित्र होगा। मनुष्य को नदी की प्राकृतिक बाढ़ से अनुकूलन करना सीखना होगा। धैर्य और समझदारी से उसे ग्रहण करना होगा।

नदी के प्राकृतिक प्रवाह की कल-कल ध्वनि, नदी के बदलते हुए रंग-रूप, आसपास फैली हरितिमा, ऊपर आकाश के बदलते रंग - ये खूबसूरत प्राकृतिक दृश्य आध्यात्मिक अनुभूति की ओर ले जाते हैं। हम प्रकृति के संकेतों से प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। नदी किनारे बैठकर चिंतन-मनन करने से जीवन की गहरी सचाईयों का अहसास होता है। गहरा दर्शन उपजता है। कवि की कल्पना को नई उड़ानें मिलती हैं। नदियां आध्यात्मिक-दार्शनिक विचारधारा के प्रवाह का भी एक महत्वपूर्ण आधार रही हैं।

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