हिमालय को तबाह करती परियोजनाएं

तबाही की योजनाएँ
तबाही की योजनाएँ
आज दुनिया-भर में जलवायु-परिवर्तन के कारण संकट के बादल मंडरा रहे हैं, लेकिन अन्य क्षेत्रों के मुकाबले हिमालय के पर्वतीय इलाकों में बढ़ते तापमान के असर साफ नजर आ रहे हैं।

एशिया और हिमालय की महानदियों- सिंधु, गंगा और नूं-के तेजी से पिघलते ग्लेशियर इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जलवायु-परिवर्तन से ग्लेशियर पिघलने, नदी का जलस्तर बढ़ने, बाढ़ आने और बादल फटने जैसी घटनाएं बढ़ जाएंगी। जैसे-जैसे पानी और नदियों की स्थिति में परिवर्तन आएगा, जलवायु और मौसम चक्र का पूर्वानुमान लगाना कठिन हो जाएगा।

दिसम्बर 2008 में छपी अपनी रपट 'माउंटेन्स ऑफ कांक्रीट' में शोधकर्ता श्रीपद धर्माधिकारी बताते हैं कि हिमालय क्षेत्र में बन रही अधिकतर जल विद्युत परियोजनाएं नदियों पर जलवायु-परिवर्तन के प्रभावों का आकलन किए बिना ही बनाई जा रही हैं। 'दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भी इन जोखिमों का आकलन नहीं किया जा रहा- न एकल परियोजनाओं के लिए और न ही एक नदी पर निर्मित सैकड़ों परियोजनाओं के संघीय प्रभावों के लिए।'

इन क्षेत्रों की सरकारों ने जलवायु-परिवर्तन जैसे संकट को अनदेखा कर अपना ध्यान केवल जल विद्युत परियोजनाओं से होने वाले फायदों पर केंद्रित रखा है। नेपाल और भूटान की सरकारें बड़े बांधों के माध्यम से भारत जैसे देश को बिजली बेचकर आय बढ़ाने और 'हाइड्रो डॉलर' कमाने की होड़ में हैं। वहीं भारत न केवल अपने पड़ोसी देशों से बिजली खरीदने के लिए तैयार है, बल्कि अपने पहाड़ी क्षेत्रों को भी जल विद्युत इलाकों के रूप में तेजी से विकसित कर रहा है।

हालांकि बिजली के इस अभाव का कारण उसके उत्पादन में कमी नहीं है। विशेषकर तब जब भारत में ऊर्जा निर्माण और वितरण में ही कम से कम 35 से 45 फीसद बिजली का घाटा होता जाता है। पिछले कुछ समय से ऊर्जा के बढ़ते दामों और घटती सब्सिडी की वजह से भी गरीब लोगों की बिजली तक पहुंच कम हुई है। विद्युत उत्पादन में बढ़ोतरी होने से यह जरूरी नहीं है कि बिजली गांव-गांव तक पहुंच जाएगी। इसके उलट पहाड़ी क्षेत्रों, जहां पर ये विद्युत परियोजनाएं बन रही हैं, में निर्माण कार्य में निवेश ज्यादा होने से ऊर्जा की कीमत और बढ़ जाएगी।

बढ़ते तापमान और जलवायु-परिवर्तन के साथ-साथ इन प्रस्तावित परियोजनाओं को पूंजी की कमी की मार भी झेलनी पड़ रही है। इसके अलावा विस्थापित और प्रभावित समुदायों द्वारा विरोध और तीव्र आंदोलनों के चलते नेपाल में पश्चिम सेती और भारत में 3000 मेगावाट की दिबांग (अरुणाचल प्रदेश) जैसी बड़ी परियोजनाएं लटकी पड़ी हैं। दिबांग परियोजना को पर्यावरण जन-सुनवाई के पुरजोर विरोध के कारण कई-कई बार प्रशासन द्वारा निरस्त किया गया है और सिक्किम की राज्य सरकार ने भी हाल में तीस्ता नदी पर प्रस्तावित चार परियोजनाओं को स्थानीय विरोध की वजह से खारिज कर दिया है। कुल मिलाकर धर्माधिकारी की रपट का इशारा एक ही तरफ है-'हिमालय की हर नदी पर प्रस्तावित हर परियोजना का पुन: विस्तृत आकलन अनिवार्य है।'

(लेख के संपादित अंश 'युवा संवाद' से साभार)

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