पोटेशियम ब्रोमेट एक ऐसा रसायन है, जिसके कारण इंसान में पेट का कैंसर, गुर्दे में ट्युमर, थायोराइड सम्बन्धी असन्तुलन तथा तंत्रिका तंत्र सम्बन्धी बीमारियाँ होने की सम्भावना रहती है। इसे कैंसर सम्भावित रसायनों की 2बी श्रेणी में रखा गया है। पोटेशियम आयोडेट से थायोरायड सम्बन्धी असन्तुलन पैदा होने का खतरा होता है; बावजूद इन ज्ञात खतरों के भारत में पोटेशियम ब्रोमेट का इस्तेमाल बेकरी उत्पादों को ज्यादा मुलायम, ताजा और दिखने में बेहतर बनाने के लिये किया जाता रहा है।
भारतीय निर्माता कम्पनियाँ अब तक तर्क देती रहीं कि अन्तिम तैयार बेकरी उत्पाद में पोटेशियम ब्रोमेट के अंश मौजूद नहीं होते। नई दिल्ली स्थित सीएसई नामक एक गैर सरकारी संस्था ने इस तर्क का झूठ सार्वजनिक कर दिया। उसने बाजार से बेकिंग उत्पादों के तैयार नमूने उठाए; उनकी जाँच की और बताया कि 84 प्रतिशत नमूनों में पोटेशियम ब्रोमेट और पोटेशियम आयोडेट मौजूद हैं।
सीएसई की जाँच में पैक ब्रेड के 79 प्रतिशत, सफेद ब्रेड, पाव, बन्द और पीजा ब्रेड के 100 प्रतिशत तथा बर्गर ब्रेड के 75 प्रतिशत नमूनों में यह उपस्थिति पाई गई।
गौरतलब है कि जाँच के दौरान छह कम्पनियों के नमूने उठाए गए थे, उनमें से मात्र एक निर्माता कम्पनी की पैकेट पर इसकी सूचना दी थी, बाकी ने इसे ग्राहकों से छिपाया था। गौर करने की बात यह भी है कि सीएसई की जाँच रिपोर्ट आने के बाद उसकी माँग पर कम्पनियों ने कहा कि वह अब पोटेशियम ब्रोमेट का इस्तेमाल नहीं करेंगी।
भारत सरकार के भारतीय खाद्य संरक्षा और मानक प्राधिकरण ने 21 जून, 2016 को एक अधिसूचना जारी कर पोटेशियम ब्रोमेट के इस्तेमाल पर अब रोक भी लगा दी है। पोटेशियम आयोडेट पर अन्तिम निर्णय लेने से पूर्व उसने मामले को एक वैज्ञानिक समिति को भी सौंप दिया है, किन्तु यह घटनाक्रम सोचने के लिये कई सवाल छोड़ गया है। इस लेख में हम इन्हीं सवालों पर चर्चा करेंगे।
प्रश्न यह है कि नमूने तो सरकार के फूड इंस्पेक्टर भी लेते हैं। उन्होंने कभी यह जानकारी सार्वजनिक क्यों नहीं की? अन्तिम तैयार बेकरी उत्पाद में पोटेशियम ब्रोमेट का अंश शेष रहता है। दुनिया के दूसरे देशों में इसकी पुष्टि बहुत पहले हो गई थी। इसी बिना पर यूरोपियन यूनियन ने तो वर्ष 1990 में ही खाद्य पदार्थों में पोटेशियम ब्रोमेट के उपयोग पर रोक लगा दी थी।
वर्ष 2012 में खाद्य संरक्षा एवं मानक के एक अन्तरराष्ट्रीय संगठन ने खाद्य पदार्थों में पोटेशियम ब्रोमेट की उपस्थिति को अन्तरराष्ट्रीय व्यापार की दृष्टि से असुरक्षित और गैर कानूनी घोषित कर दिया था; बावजूद इस जानकारी के भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने सीएसई की जाँच व माँग से पूर्व खाद्य पदार्थों में पोटेशियम ब्रेामेट के इस्तेमाल पर कभी स्वयं पहल कर रोक लगाना जरूरी क्यों नहीं समझा?
सीएसई ने खाद्य तेलों में नुकसानदेह वसा तत्वों (ट्रांस फैट) के उपस्थिति प्रतिशत को पाँच प्रतिशत पर लाने की माँग वर्ष 2009 में की थी। प्राधिकरण उसे अब अगस्त, 2016 से लागू करने जा रहा है। कोक-पेप्सी और बोतलबन्द पानी के नमूनों में कीटनाशक की उपस्थिति हमें सीएसई की जाँच रिपोर्ट से पहले मिली, सरकार और कम्पनियाँ बाद में चेती। क्यों?
भारत में किडनी फेल होने के बीस लाख से अधिक मामले हैं। हर आठ मिनट में एक औरत सर्वाइकल कैंसर का शिकार हो रही है। दिल के दौरे के बाद कैंसर दूसरा सबसे तेजी से शिकारी बन गया है। प्रतिरोधक क्षमता से सम्बद्ध प्रकार वाली टीबी के मामले भारत में वर्ष 2010-2013 के बीच पाँच गुना पाये गए।
सरकार ने यह जाँचने और सभी को बताने की कभी पहल नहीं की कि ऐसा क्यों है? एहतियात के तौर पर नागरिक क्या करें? इस प्रकार की टीबी का एक कारण प्रतिबन्धित एंटीबायोटिक्स युक्त खाद्य पदार्थों का इस्तेमाल हैं। नामी कम्पनियों के शहद उत्पाद और चिकन में छह ऐसे एंटीबायोटिक्स के इस्तेमाल की जानकारी भी हमें सीएसई से ही मिली, जिनके इस्तेमाल पर पूरी दुनिया में रोक है। ऐसी सजगता सरकारी अमले की तरफ से सुनाई क्यों नहीं दी?
एनलजीन, नवलजीन, बक्लिजिन, डी-कोल्ड, एन्टरक्वीनाॅल, फ्युरोजोन, लोमोफेन, निमुलिड, निम्सलिड, सीजा जैसी कितनी दवाइयों की बिक्री पर विदेशों में कब से रोक है। 67 तरह के कीटनाशक ऐसे हैं, जिनकी बिक्री पर अन्तरराष्ट्रीय बाजार में रोक है; किन्तु भारत में इनमें से कई की बिक्री अभी भी चालू है। चिकन को गुलाबी रंग और ताजापन देने के लिये कम्पनियाँ आर्सेनिक जैसे जहरीले रसायन का इस्तेमाल कर रही हैं।
दूध और नूडल्स जैसे प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों, बेबी शैम्पू, साबुन, उर्वरक आदि के उत्पादन में मीथाइलीन आॅक्साइड का धड़ल्ले से उपयोग कर रही हैं। बीज कम्पनी मोनसेंटो द्वारा प्रयोग में लाये जाने वाला आरबीजीएच हारमोन पर बवाल मचा ही था। सभी को मालूम है कि यूरिया, डिटर्जेंट, पाउडर, ग्लुकोज आदि मिलाकर बनाए जाने वाले दूध के टैंकर के टैंकर बेच दिये जाते हैं।
गन्दे नाले के पानी से उगाई हुई सब्जियाँ, रंगी हुई सब्जियाँ, कीटनाशकयुक्त फल-दूध, मिलावटयुक्त मसाले! हम सुनकर डरते हैं कि पोषण के नाम पर क्या खाएँ, क्या न खाएँ। कितना भी खिलाइए, बच्चे कुपोषित होंगे ही। हम चिन्तित हैं, लेकिन शासन-प्रशासन कुपोषण और प्रतिबन्धित रसायन अन्तर्सम्बन्ध पर ऐसे चुप्पी मारे रहता है, जैसे हमारी चिन्ता से चिन्तित होना उसका काम ही न हो। आखिरकार क्यों?
आॅक्सीटोसिन इंजेक्शन से लौकी जैसे सब्जियों की तेज बढ़त और भैंस का दूध निकालने का चलन जगजाहिर होने के बावजूद चालू है। केला, पपीता, आम आदि को पकाने में कैल्शियम कार्बाइड का इस्तेमाल होता है। इसकी मात्रा अधिक होने पर उल्टी, दस्त, आँख-छाती-पेट में जलन, प्यास, कमजोरी, निगलने में दिक्कत से लेकर अल्सर होने के मामले मिले हैं; बावजूद इसके भारत में इसका मनमर्जी इस्तेमाल बेरोकटोक जारी है। इन पर नियंत्रण की कोई सरकारी अभियान नहीं है।ऐसा शायद इसलिये है कि क्योंकि मामला चाहे वनस्पति में चर्बी कांड का हो या फिर किसी अन्य खाद्य उत्पाद का भारत सरकार तब तक नहीं चेतती है, जब तक कि इन पर मीडिया में बहस नहीं छिड़े अथवा कोई गैर सरकारी संगठन शोर न मचाये। पतंजलि के नूडल्स आने से पूर्व मैगी नूडल्स में सीसे की उपस्थिति की जाँच के प्रकरण को यदि अपवाद मान लें, तो पहल हमेशा गैर-सरकारी स्तर पर ही हुई।
गौर कीजिए कि भारत में पाँच साल से कम 48 फीसदी बच्चे अल्पविकसित हैं। 70 फीसदी किशोरियाँ खून की कमी की शिकार हैं। मोटापा, रक्तचाप और मधुमेह युवा वर्ग को तेजी से चपेट में लेती बीमारियाँ हैं। चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण का यह नतीजा माँ-बाप को डराता है। इस कुपोषण का प्रतिबन्धित रसायन के इस्तेमाल से सम्बन्ध है।
गन्दे नाले के पानी से उगाई हुई सब्जियाँ, रंगी हुई सब्जियाँ, कीटनाशकयुक्त फल-दूध, मिलावटयुक्त मसाले! हम सुनकर डरते हैं कि पोषण के नाम पर क्या खाएँ, क्या न खाएँ। कितना भी खिलाइए, बच्चे कुपोषित होंगे ही। हम चिन्तित हैं, लेकिन शासन-प्रशासन कुपोषण और प्रतिबन्धित रसायन अन्तर्सम्बन्ध पर ऐसे चुप्पी मारे रहता है, जैसे हमारी चिन्ता से चिन्तित होना उसका काम ही न हो। आखिरकार क्यों?
यह स्थिति सिर्फ खाद्य क्षेत्र में नहीं है, सूखे को लेकर देखिए स्वराज अभियान द्वारा मामला सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने के बाद सरकारें थोड़ी हरकत में आईं। भारत में नदी संरक्षण मुद्दा तब बना, जब नदी संगठनों ने चिन्ता की। भारत के भूजल में तेजी से बढ़ते आर्सेनिक, फ्लोराइड, भारी धातु और नाइट्रेट की किसी भी सरकारी स्रोत से ज्यादा जानकारी तो हमें मीडिया से मिल रही है।
याद कीजिए कि डीजल से प्रदूषण को लेकर कभी सीएसई की सुनीता नारायण की उठाई आवाज के बाद ही एक वक्त दिल्ली की बसों में सीएनजी आवश्यक बनाई गई थी। वनवासियों के अधिकार, भूमि का अधिकार, स्वच्छ पेयजल का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, खाद्य-सुरक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, ग्रामीणों को रोजगार का अधिकार, से लेकर राष्ट्रभाषा, राष्ट्रध्वज समेत जाने कितने मोर्चें हैं, जिन पर शुरुआती वैचारिक पहल गैर सरकारी स्तर पर ही हुई।
शासन-प्रशासन सम्बन्धी कार्यों की जवाबदेही तय करने को लेकर पहल अभी-अभी राजस्थान में अरुणा राय द्वारा की गई है। खेती, दवाई, पढ़ाई, आवास, पेयजल आपूर्ति, निजी सुरक्षा, डाक-शासन से सहयोग की अपेक्षा करते किसी भी बुनियादी क्षेत्र को देख लीजिए, सरकारें दायित्वपूर्ति से पीछे हटी हैं। इन सभी क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की पैठ, व्यावसाय तथा उनकी मुनाफाखोरी ज्यादा बढ़ी है; उपभोक्ता की जेब ज्यादा कटी है।
प्रश्न है कि शासन-प्रशासन का इतना लम्बा चौड़ा अमला आखिर है किसलिए? राज्यवार आँकड़े उठाइए, तो बजट का 70 प्रतिशत सिर्फ सरकारी व्यवस्था के रख-रखाव पर ही खर्च हो जाता है; दूसरी तरफ गैर सरकारी स्तर पर काम करने वाले संगठन अपने खर्च के लिये हमेशा दूसरे के मोहताज रहते हैं।
यदि शासन-प्रशासन अपने दायित्व की पूर्ति ठीक से नहीं कर पा रहा, तो सभी गैर-सरकारी संगठनों को कोसने का हक उसे किसने दिया? अच्छा हो कि हमारे शासकीय-प्रशासकीय खुद सजग हों। बेईमान गैर सरकारी संगठनों को ठिकाने लगाएँ और अच्छे गैर सरकारी संगठनों को अपनी ताकत बनाएँ। अच्छे संगठनों का साथ लेकर उस लक्ष्य के लिये कार्य करें, जिससे भारत और भारतीयों की सेहत, समृद्धि और शान्ति की रक्षा हो सके। अच्छे गैर सरकारी भारतीय प्रयासों की चेतावनियों और सुझावों पर संवाद, समन्वय, साझा और भरोसा किये बगैर यह हो नहीं सकता।
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