मूत्र संक्रमण (यूरिन इन्फेक्शन) एक ऐसी बीमारी है जो किसी भी उम्र के व्यक्ति में पायी जा सकती है। परंतु यह बीमारी पुरुषों की तुलना में महिलाओं में ज्यादा पायी जाती है। 15 से 45 वर्ष की आयु की स्त्रियों को यह बीमारी अक्सर हो जाया करती है। इसमें मूत्र मार्ग में खुजली, मूत्र त्याग में जलन एवं सूई चुभने जैसी असहनीय पीड़ा होती है। इसके कारण रोगी मूत्र त्याग करने में भय महसूस करता है। तीव्र अवस्था में मूत्र के साथ मवाद एवं रक्त भी आ सकता है। इस बीमारी के कारण लगभग 26 प्रतिशत तक लोगों के गुर्दे फेल हो सकते हैं और उन्हें सी.ए.पी.डी., हीमोडायलिसिस या गुर्दा प्रत्यारोपण तक करवाना पड़ सकता है।
मूत्र में संक्रमण दो प्रकार का होता है। एक साधारण तथा दूसरा असाधारण। असाधारण संक्रमण विशेषत: मधुमेह, सिकेलसेल एनीमिया, पथरी के रोगियों, रेफ्लेक्स, बिस्तर पर मूत्र त्याग करने वाले बच्चों, मूत्र-मार्ग की रुकावट, एड्स के रोगियों तथा गुर्दा प्रत्यारोपण के रोगियों को होता है। ऐसे रोगियों में संक्रमण के कारण गुर्दा फेल होने व पूरे शरीर में जहर फैलने का भय बना रहता है जिसका इलाज ठीक प्रकार से किया जाना आवश्यक है।
ज्यादातर संक्रमण जीवाणुओं के प्रवेश के कारण होते हैं। सभी जीवों के मूत्र-मार्ग में कुछ ऐसे जीवाणु निवास करते हैं जो लाभदायक होने के साथ-साथ संक्रमण होने से भी बचाते हैं। इनमें लेक्टोबैसिलस, बैक्टीरायड्स, स्ट्रेप्टोकोकस प्रमुख हैं। जब किसी कारणवश उपरोक्त जीवाणुओं की संख्या कम हो जाती है अथवा नष्ट हो जाते हैं तो हानिकारक जीवाणु पेशाब के रास्ते प्रवेश कर जाते हैं। इन हानिकारक जीवाणुओं में ई. कोलाई, क्लेबसेल्ला, प्रोटियस प्रमुख हैं, जिनमें से प्रोटियस पुरुषों के लिंग की खाल के नीचे मिलता है। अत: लिंग की सफाई करते रहना चाहिए, अन्यथा संक्रमण का खतरा बना रहता है। कुछ ऐसे जीवाणु भी पाये गये हैं जिनका संक्रमण होने पर गुर्दे में पथरी बन सकती है। यह पथरी उस जीवाणु के बाहरी तरफ कैल्शिफिकेशन के कारण होता है। इनमें प्रोटियस, स्यूडोमोनाइस, क्लेबसेल्ला इत्यादि प्रमुख हैं।
पहले से रोगग्रस्त व्यक्तियों और लंबी बीमारी के रोगियों में मूत्र-संक्रमण अधिक पाया जाता है। यह संक्रमण मधुमेह के रोगी, सिकलसेल रोगी, जोड़ों के दर्द की दवाइयों का सेवन करने वाले रोगी, पेशाब के रास्ते की रुकावट वाले रोगी जैसे- प्रोस्टेस ग्रंथि, फाइमोसिस के रोगी, पथरी के रोगी, फालिस के रोगी, गर्भधारण के दौरान वे रोगी जिनको कैथेटर (ट्यूब) डालकर मूत्र त्याग कराई जाती है तथा अन्य गुर्दा रोगियों को अधिक होता है। मूत्र में संक्रमण पैदा करने वाले जीवाणु भी कुछ ऐसे रासायनिक पदार्थ बनाते हैं जिन्हें साइड्रोफोर, एरोबैक्टिन, हीमोलाइसिन, यूरिऐज कहते हैं। उन जीवाणुओं के सतह पर स्थित फिम्ब्री की मदद से ये मूत्र-मार्ग की आंतरिक त्वचा से चिपककर धीरे-धीरे चलते हुए ऊपर बढ़कर पेशाब की थैली, प्रोस्टेट व गुर्दे तक पहुँच जाते हैं। कुछ व्यक्तियों में जीवाणुओं को आकर्षित करने वाले रिसेप्टर पारिवारिक गुणों के कारण मौजूद रहते हैं जिससे पेशाब की थैली में कम प्रतिपदार्थ (एन्टीबाडीज) बनते हैं। इस कारण उनमें बार-बार संक्रमण होता रहता है। कुछ लोगों में आंतों की पुरानी बीमारी कोलाइटिस के कारण भी बार-बार मूत्र में संक्रमण होता है। इसके अतिरिक्त कुछ लोगों में जीवाणु शरीर के किसी दूसरे भाग से आकर गुर्दों में संक्रमण, घाव इत्यादि पैदा कर देते हैं। पेशाब में संक्रमण होने पर उसकी सभी प्रकार की जाँच विस्तारपूर्वक होनी चाहिए जिसमें यूरिन कल्चर, एक्सरे, अल्ट्रासोनोग्राफी, सिस्टोस्कोपी, आई.बी.पी. आदि प्रमुख हैं।
संक्रमण की जाँच
मूत्र में संक्रमण की जाँच का प्राथमिक व मुख्य तरीके हैं मूत्र की जाँच। इस जाँच में मूत्र का प्रयोगशाला में कल्चर कराया जाता है जिससे रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं का संवर्द्धन करके उनकी पहचान व संख्या का पता लगाया जाता है। इसी से रोग की तीव्रता भी समझी जाती है। कुछ लोग पेशाब में पस सेल (मवाद) उपस्थित होने पर संक्रमण समझ लेते हैं जो कि सही नहीं है क्योंकि गुर्दे की टी.बी. या अनेक अन्य बीमारियों में भी पेशाब में पस सेल आ सकते हैं।
पुरुषों में मूत्र-संक्रमण होने पर उनकी विस्तृत जाँच की जानी चाहिए। जिसमें यूरिन कल्चर, आर/एम, एक्सरे, अल्ट्रासाउंड, सिस्टोस्कोपी, आई.बी.पी. आदि प्रमुख हैं। आवश्यकता पड़ने पर रक्त की जाँच भी आवश्यक है। महिलाओं में 6 माह में दो बार से ज्यादा संक्रमण होने पर आई.बी.पी. की जाँच करानी चाहिए। परंतु आई.बी.पी. की जाँच गर्भधारण के दौरान, प्रसव के 6 सप्ताह के भीतर, संक्रमण के 4 सप्ताह तक तथा गुर्दा खराब होने की स्थिति में नहीं करानी चाहिए अन्यथा गुर्दे पर दुष्प्रभाव की संभावना बनी रहती है।
संक्रमण के प्रकार व निदान
सिस्टाइटिस व यूरेथ्राइटिस - मूत्र-नली व थैली में संक्रमण सिस्टाइटिस व यूरेथ्राइटिस कहलाता है। मरीज को पेशाब करने में दर्द या जलन होता है, बार-बार पेशाब लगती है, पेशाब नहीं रुकती, रात में दो से ज्यादा बार पेशाब होती है, पेशाब में खून आता है तथा स्त्रियों में पेडू व कमर में हल्की अथवा असह्य दर्द जैसी तकलीफें होती हैं। ऐसा होने पर तुरंत चिकित्सक से परामर्श लेकर दवा प्रारंभ कर देनी चाहिए और पेशाब के कल्चर की जाँच कराकर औषधि सेवन करनी चाहिए। ऐसे रोगियों को यूरिन कल्चर की रिपोर्ट के अनुसार चिकित्सक उन्हें पाँच से सात दिनों तक दवा खाने की सलाह देते हैं। दवा को बीच में छोड़ना हानिकारक होता है, उसे पूरी अवधि तक खाना चाहिए। इस प्रकार का संक्रमण युवा वर्ग की महिलाओं में बहुत होता है। इसके बचाव के लिये उन्हें पानी की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए और दिन में कम से कम 2-3 लीटर पानी पीना चाहिए। कब्ज से बचना चाहिए, सोने के पहले तथा सहवास के बाद मूत्र त्याग जरूर करना चाहिए। कॉपर-टी इत्यादि का कम से कम प्रयोग करना लाभकारी होता है।
वैजीनाइटिस - महिलाओं के मूत्र-मार्ग में होने वाले संक्रमण को वैजीनाइटिस कहते हैं। यह बीमारी ज्यादातर बच्चों वाली महिलाओं तथा वृद्ध महिलाओं में पायी जाती है। इस बीमारी में भी सिस्टाइटिस व यूरेथ्राइटिस जैसी ही सभी तकलीफें होती हैं। यदि इस रोग से ग्रस्त मरीज के यूरिन कल्चर में कोई संक्रमण नहीं मिलता तो ऐसे रोगी महिलाओं को अन्य दवाओं के साथ-साथ इन तकलीफों से दूर रखने वाली दवाओं का भी प्रयोग करना हितकर होता है।
प्रोस्टेटाइटिस - पुरुषों में प्रोस्टेट ग्रंथि के संक्रमण को प्रोस्टेटाइटिस कहते हैं। इसमें रोगियों को खुलकर पेशाब नहीं होता और उन्हें बार-बार पेशाब करने जाना पड़ता है। इसके साथ ही उन्हें मूत्र त्याग में जलन एवं दर्द महसूस होता है, बेचैनी बनी रहती है, पेडू में दर्द होता है, पेशाब में रुकावट हो जाती है, सहवास में दर्द तथा वीर्य में खून आने जैसी तकलीफें होने लगती हैं। ऐसे में अक्सर पेशाब के कल्चर में संक्रमण नहीं मिलता। अत: बीमारी की पकड़ बड़ी मुश्किल से हो पाती है। ऐसे में एक विशेष प्रकार की जाँच की जाती है जिसमें प्रोस्टेट ग्रंथि के मसाज के बाद निकले मूत्र की कल्चर करायी जाती है। इसमें अल्ट्रासाउण्ड की सहायता से प्रोस्टेट की वृद्धि व आकार को देखा जा सकता है। इस बीमारी में कुछ विशेष एन्टीबायटिक दवाइयाँ ही कारगर होती हैं। कुछ उपयुक्त एंटीबायटिक 4 से 6 सप्ताह तक लेने पर यह बीमारी दूर हो सकती है।
पाइलोनेफ्राइटिस - गुर्दे के अंदर के संक्रमण को पाइलोनेफ्राइटिस कहा जाता है। इसमें मरीज को जाड़ा के साथ बुखार हो जाता है, साथ ही कमर में दर्द, बदन में दर्द, उल्टी, भूख न लगना, बच्चों में पतले दस्त व पीलिया होना जैसे लक्षण मिलते हैं। इसमें गुर्दा फेल होने की संभावना बनी रहती है। यह बीमारी उन मरीजों को ज्यादा होती है जिनमें मूत्र-संक्रमण का पूर्णरूप से इलाज नहीं हो पाता अथवा जिनको गुर्दे की दूसरी बीमारियाँ होती हैं। गर्भधारण के दौरान यदि यह बीमारी हो जाय तो गुर्दा फेल होने की संभावना बढ़ जाती है। इसकी जाँच यूरिन कल्चर, अलट्रासाउंड, सी.टी. स्कैन आदि के द्वारा की जाती है।
इस बीमारी के मरीज को अस्पताल में भर्ती करके आवश्यक उपचार किया जाना चाहिए। इसके दौरान गुर्दा फेल होने की जाँच बराबर कराते रहना चाहिए। यदि गुर्दा फेल हो जाय तो एक या दो डायलिसिस की भी जरूरत पड़ सकती है। इस बीमारी के ठीक होने के चार सप्ताह बाद आई.बी.पी. जरूर करानी चाहिए जिससे इस रोग का कारण पता चल सके और मरीज को दुबारा यह बीमारी होने अथवा गुर्दा फेल होने से बचाया जा सके।
विशेष स्थितियों के संक्रमण
गर्भधारण के दौरान मूत्र-संक्रमण - गर्भधारण के दौरान मूत्र संक्रमण अक्सर हो जाया करता है। यद्यपि ऐसी महिलाओं को मूत्र संक्रमण होने पर भी मूत्र त्याग में कोई परेशानी नहीं होती। ऐसे संक्रमण को समय पर पता न चलने व इलाज न कराने के कारण लगभग 40 प्रतिशत महिलाओं को पाइलोनेफ्राइटिस व गुर्दा फेल होने की संभावना बनी रहती है। अत: सभी महिलाओं को गर्भधारण के दौरान हर तीन माह पर पेशाब के कल्चर की जाँच अवश्य करानी चाहिए। संक्रमण पाये जाने पर उपयुक्त दवाइयों द्वारा इसका इलाज करवा के गर्भधारण का बाकी समय सुरक्षित किया जाना चाहिए।
बच्चों में मूत्र-संक्रमण - जिन बच्चों को तीन साल की उम्र के बाद रात या दिन में बिस्तर पर पेशाब करने की शिकायत होती है उनमें लगभग 40 से 50 प्रतिशत बच्चों को रेफ्लेक्स की बीमारी हो सकती है। इस बीमारी में पेशाब करते समय मूत्र नीचे ऊपर उछल कर गुर्दे पर आक्रमण करता है। ऐसे बच्चों को बार-बार पेशाब में संक्रमण हो जाता है और 20 से 25 साल की उम्र तक धीरे-धीरे गुर्दा फेल हो सकता है। यद्यपि इस बीमारी का बचाव अब शत-प्रतिशत उपलब्ध है। ऐसे बच्चों में पेशाब का कल्चर, अल्ट्रासाउंड तथा एमसीयू जैसी जाँच करने पर बीमारी पकड़ी जा सकती है और दवाओं अथवा छोटे से ऑपरेशन द्वारा इसे बढ़ने से रोका जा सकता है। इसके साथ ही इससे होने वाली गुर्दे की खराबी को भी बचाया जा सकता है। गुर्दे में बार-बार संक्रमण होने पर बच्चे का शारीरिक और हड्डियों का विकास भी प्रभावित होता है।
मूत्र-संक्रमण से बचाव - मूत्र व गुर्दे में संक्रमण से बचाव के लिये आवश्यक है कि खूब पानी पिया जाय। सोने से पहले तथा सहवास के बाद अनिवार्य रूप से मूत्र-त्याग किया जाय। कब्ज न होने दें। गर्भधारण के दौरान प्रत्येक तीन माह में मूत्र का कल्चर कराकर अपनी स्थिति का आकलन कराते रहना चाहिए। बिस्तर पर मूत्र-त्याग करने वाले बच्चों की जल्द से जल्द उचित जाँच कराकर उपचार कराना चाहिए। जिन लोगों में बार-बार संक्रमण होने की शिकायत होती है, उन्हें जाँच कराकर समय रहते उपचार करवाना चाहिए। यदि संक्रमण के साथ गुर्दा फेल होने की शिकायत हो तो दवाइयों का प्रयोग कम मात्रा में तथा विशेष सावधानी के साथ चिकित्सक की देख-रेख में करना चाहिए।
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