मध्यप्रदेश में तेजी से प्रदूषित होती जा रही नर्मदा नदी को अब ग्रीन ब्रिज से साफ़–सुथरा और प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए मुहिम शुरू हो चुकी है। जबलपुर में 3 संरचनाएँ बन चुकी हैं तो अब 12 और नगर–कस्बों में ग्रीन ब्रिज बनाने का काम भी जल्द ही शुरू होगा। महँगे और बिजली से चलने वाले ट्रीटमेंट प्लांट की जगह अब सरकार ने नदी के पानी की सफाई के लिए आधुनिक, किफायती, सरल, पर्यावरण हितैषी, नवाचारी और प्राकृतिक तकनीक ग्रीन ब्रिज के इस्तेमाल पर जोर दिया है। यह भौतिक–जैविक पद्धति से पानी को शुद्ध करता है और उसके घातक प्रभाव को भी कम करता है। नर्मदा का सबसे अधिक प्रवाह क्षेत्र करीब 87 प्रतिशत मध्यप्रदेश में ही है लेकिन प्रकृति से छेड़-छाड़ और अनियोजित औद्योगिक विकास के चलते प्रदेश में कई जगह घातक रासायनिक पदार्थों और गन्दे पानी के नदी प्रवाह में मिलने से नर्मदा तेजी से प्रदूषित हो रही है।
प्रदेश की जीवन-रेखा मानी जाने वाली नर्मदा नदी में कई स्थानों पर गन्दे नालों का पानी मिल रहा है तो कई जगह औद्योगिक इकाइयों के खतरनाक अपशिष्ट। इसके अलावा खेतों में उपयोग किये जाने वाले रासायनिक खाद और कीटनाशकों की वजह से भी नर्मदा दूषित होती जा रही है। इतना ही नहीं अब नर्मदा घाटी में जंगल भी काफी कम हो चले हैं और कई जगह तो नर्मदा के जल स्तर में भी भारी गिरावट आ रही है। नर्मदा के सदानीरा होने से यह प्रदेश के कई शहरों और नगरों की गर्मियों में भी प्यास बुझाती है। ऐसे में प्रदूषित पानी का हानिकारक प्रभाव बहुत बड़ी जनसंख्या को प्रभावित कर सकता है। इस स्थिति में नर्मदा को अपने पुराने स्वरूप में लौटाने की जरूरत फिलहाल सरकार और समाज दोनों की ही प्राथमिकता है।
नदी के प्रदूषित होने की लगातार खबरों के बाद अब म.प्र प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड भी हरकत में आ गया है। बोर्ड ने प्रदेश सीमा में नर्मदा किनारे बसे 360 में से 310 नगरीय निकायों (नगर निगम, नगर पंचायत और नगरपालिकाओं) को नदी में सीधे गन्दे पानी छोड़े जाने पर आपत्ति जताते हुए अन्य व्यवस्था करने सम्बन्धी नोटिस दिए हैं। इनके जवाब में अधिकांश नगरीय निकायों का मत था कि उनके पास गन्दे पानी की निकासी के लिए अन्य कोई व्यवस्था नहीं होने से ऐसा करना पड़ रहा है। उनके यहाँ वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के लिए पैसा नहीं है। ऐसी स्थिति में म.प्र प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड का ध्यान पानी साफ़ करने वाली सरल–सहज तकनीकों पर गया।
ग्रीन ब्रिज तकनीक को पुणे की सृष्टि इको रिसर्च इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर संदीप जोशी ने विकसित किया है। इसमें नदी तल के क्षितिज (होरिजेंटल) में पत्थरों की पालनुमा इनवर्टेड वी आकार की संरचना बनाई जाती है, जिसे नारियल की भूसी या किसी अन्य रेशेदार कपड़े आदि से ढँका जाता है। इस वी आकार के गड्ढेनुमा कुंड में पानी को शुद्ध करने के लिए कुछ सूक्ष्म जीवाणुओं और जैविक रसायनों को रखा जाता है। अब नदी प्रवाह के पानी से ठोस पदार्थ जैसे प्लास्टिक, पूजन सामग्री, हार–फूल, घरों का कचरा, पत्तियाँ आदि पहले ही पाल से अलग हो जाते हैं। अब घुलनशील अशुद्धि के साथ पानी कुण्ड से होकर गुजरता है तो यहाँ जीवाणुओं और जैविक रसायनों के सम्पर्क में आने से अशुद्धि यहीं रुक जाती है और पूरी तरह से शुद्ध पानी आगे नदी प्रवाह के साथ बढ़ जाता है। यह तकनीक तेजी से लोकप्रिय होती जा रही है। इससे पहले भी राजस्थान में जब अहर नदी के गन्दे पानी से उदयपुर की उदयसागर झील दूषित होने लगी। यहाँ तक कि इससे मछलियाँ और अन्य जलचर भी खत्म हो गए। इसमें मानव जीवन के लिए हानिकारक औद्योगिक अपशिष्ट भी बहकर आते थे। तब स्थानीय झील संरक्षण समिति ने इसी तकनीक का इस्तेमाल कर नदी क्षेत्र को साफ़–सुथरा बनाया। इसी तरह अन्य कई स्थानों पर भी इसके सफल प्रयोग हो चुके हैं।
इस तकनीक के कई फायदे हैं जैसे यह अपेक्षाकृत बहुत सस्ती और सरल तकनीक है। यह पूरी तरह से प्राकृतिक और परम्परागत पद्धति को ही विकसित कर तैयार की गई है। इसके संधारण में कोई खर्च नहीं आता। इसमें न तो बिजली का खर्च लगता है और न ही मनुष्य के श्रम की कोई ख़ास जरूरत ही लगती है। बस थोड़े–थोड़े दिनों में कुछ देर इसकी सफाई ही करना होती है। यह पूरी तरह से पर्यावरण के हक़ में है और किसी भी तरह से वहाँ के पारिस्थितिकी तन्त्र को कोई नुकसान नहीं करती है, बल्कि उसे और समृद्ध करती है। इससे मानव स्वास्थ्य पर बुरा असर डालने वाले पदार्थों और अशुद्धियों को दूर किया जाता है तो यह बीमारियों की आशंका को भी काफी हद तक कम कर देती है। यह पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाता है तथा आस-पास के भू-जल को भी दूषित होने से बचाता है। पहले पानी में घुलनशील घातक रसायनों और अशुद्धियों को दूर करने के लिए बहुत महँगे और जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता था। इसके बावजूद सिमित मात्रा में ही पानी शुद्ध हो पाता था। इसे नदी आदि वृहद जलस्रोतों की सफाई सम्भव नहीं हो पाती थी। यह नदी के पानी में घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ा देता है इससे मछलियों और अन्य जलचरों को रहने के लिए अनुकूल स्थितियाँ बन जाती हैं।
यह नदी क्षेत्र से करीब 40 से 80 प्रतिशत तक सॉलिड कन्ट्रोल यानी बड़े कचरे की सफाई कर देता है जबकि 40 से 90 प्रतिशत तक प्रदूषण को भी रोक देता है। देखा जाता है कि कई जगह गाँवों में लोग नदी किनारे ही शौच करते हैं। मानव मल में मौजूद कॉलीफार्म जीवाणु स्वास्थ्य के लिए बहुत घातक होता है पर इस तकनीक से शुद्ध पानी में इसकी मात्रा करीब 50 से 100 फीसदी तक कम हो जाती है। पानी में घुला अशुद्धियों का घातक प्रभाव भी इस तकनीक से पूरी तरह ख़त्म हो जाता है इसी तरह पानी में घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा 150 से 1200 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इसका फायदा यह होता है कि जलीय पौधों तथा जीव–जन्तुओं की संख्या में करीब 200 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो जाती है।
नदी क्षेत्र के साफ़ सुथरे हो जाने से जहाँ उसका प्राकृतिक सौन्दर्य बढ़ जाता है वहीं पेड़–पौधों और वन्यजीवों की तादाद भी बढ़ जाती है। इस तरह यह एक स्वास्थ्यप्रद और खुशनुमा वातावरण भी तैयार करता है। इसकी सबसे बड़ी खासियत है उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों और अन्य रसायनों से पानी को शुद्ध करना। इससे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तत्वों जैसे लेड, आर्सेनिक और फ्लोराइड आदि से भी निजात मिलती है। नर्मदा नदी में शुरुआत के तौर पर म.प्र. में जबलपुर के आस-पास तीन संरचनाएँ बनाई गई है वहीं अब आगे बढ़ाते हुए ओंकारेश्वर, महेश्वर, मंडलेश्वर, नेमावर, धरमपुरी, डिंडौरी, मंडला, जबलपुर और नरसिंहपुर में बनाया जा रहा है म.प्र. प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के अध्यक्ष नर्मदा प्रसाद शुक्ला ने बताया कि नर्मदा के पानी के दूषित होते जाने की खबरों के चलते बोर्ड ने निरी और सीरी जैसे रिसर्च इंस्टीट्यूट से सम्पर्क किया है। प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए बोर्ड लगातार अध्ययन कर प्रयास कर रहा है। अभी नर्मदा के उद्गम अमरकंटक से म.प्र. की सीमा तक अलग–अलग 25 स्थानों से नर्मदा पानी के सैम्पल लिए हैं इनकी जाँच के बाद यह खुलासा हुआ है कि इनमें करीब 90 फीसदी सैम्पल में ‘ए’ ग्रेड आया है यानी यह पानी बिना किसी उपचार के पीने हेतु मानव उपयोग में लाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि नर्मदा हमारे लिए प्रकृति का सबसे अनमोल और अनुपम सौगात है, इसे हमें हर हाल में सहेजने की जरूरत है।
(फोटो इंटरनेट से लिया गया है।)
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