ग्रामीण विकास के प्रयास


हमारे देश का विकास गाँवों के विकास से सीधे-सीधे जुड़ा हुआ है। महात्मा गाँधी ने कहा था कि भारत गाँवों का देश है, यदि गाँवों की कायापलट दी जाए तो समूचे राष्ट्र का विकास सम्भव हो सकेगा। वास्तव में गाँवों की खुशहाली में ही देश की खुशहाली निहित है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व ग्रामीण विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया, जिस कारण हमारे गाँव आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़े रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नियोजित आर्थिक विकास के माध्यम से ग्रामीण विकास कार्यक्रमों पर विशेष बल दिया गया है।

ग्रामीण विकास जहाँ एक ओर कृषि, पशुपालन और कुटीर उद्दोगों के विकास पर निर्भर है, वहीं इन कार्यों के लिये आधारभूत संसाधनों की उपलब्धता तथा ग्रामीण रोजगार भी जरूरी है जिससे गाँवों की निर्धनता दूर होकर उनका कायाकल्प हो सके। इस दृष्टि से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ग्रामीण विकास के लिये सरकारी स्तर पर अनेक प्रयास किए गए।

ग्रामीण विकास की परियोजनाएं


गाँवों के विकास के लिये सरकार द्वारा जो बड़ी संख्या में परियोजनाएं और कार्यक्रम अपनाए गए उनमें से प्रमुख परियोजनाएं व कार्यक्रम इस प्रकार हैं :

सामुदायिक विकास परियोजना (1952)


राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम (1953), खादी एवं ग्रामीण उद्योग कार्यक्रम (1957), ग्रामीण आवासीय परियोजना (1957), बहु-उद्देश्यीय अनुसूचित जनजाति विकास खंड कार्यक्रम (1957), पैकेज कार्यक्रम (1960), गहन जिला कृषि कार्यक्रम (1960), व्यावहारिक आहार कार्यक्रम (1962), ग्रामीण उद्दोग परियोजना (1962), गहन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम (1964), कृषक प्रशिक्षण एवं शिक्षा कार्यक्रम (1966), कुँआ निर्माण कार्यक्रम (1966), ग्रामीण जनशक्ति कार्यक्रम (1969), सूखा क्षेत्र पीड़ित कार्यक्रम (1970), ग्रामीण रोजगार नगदी योजना (1971), लघु कृषक विकास एजेंसी (1971), जनजाति क्षेत्र विकास कार्यक्रम (1972), ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम (1972), न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम (1972), सूखाग्रस्त क्षेत्र कार्यक्रम (1973), विशेष दुग्ध उत्पादक कार्यक्रम (1975), बीस सूत्री कार्यक्रम (1977), मरुभूमि विकास कार्यक्रम (1977), काम के बदले अनाज कार्यक्रम (1977), संपूर्ण ग्रामीण विकास कार्यक्रम (1979), अन्त्योदय कार्यक्रम (1979), समन्वित ग्रामीण विकास क्रार्यक्रम (1979), स्वरोजगार हेतु ग्रामीण युवा प्रशिक्षण कार्यक्रम, ट्राइसेम (1979), राष्ट्रीय रोजगार कार्यक्रम (1980), नया बीस सूत्रीय कार्यक्रम (1982), ग्रामीण क्षेत्रों में महिला एवं बाल विकास कार्यक्रम (1983), ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम (1983)।

इनके अलावा सातवीं पंचवर्षीय योजना में 1985 से 1990 की अवधि में ग्रामीण क्षेत्रों के सर्वांगीण विकास के लिये समन्वित ग्रामीण विकास योजना, इंदिरा आवास योजना, ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम, अग्नि बीमा योजना, सामाजिक सुरक्षा कोष, सामूहिक बीमा योजना, जवाहर रोजगार योजना, जनसंख्या पर्यावरण सुधार परियोजनाओं का कार्यक्रम, जलधारा एवं कुटीर ज्योति कार्यक्रम प्रारम्भ किए गए। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास में समय-समय पर इन परियोजनाओं, कार्यक्रमों तथा योजनाओं ने भारी योगदान किया है। इन कार्यक्रमों को और अधिक प्रभावी व गतिमान बनाने के लिये इन्हें पंचायती राज व्यवस्था से जोड़ने की योजना है। यों तो ग्रामीण विकास की सरकारी परियोजनाओं और कार्यक्रमों ने गाँवों की प्रगति में आवश्यक भूमिका निभाई है, किन्तु अभी भी यह कहा जा सकता है कि कुछ कारणों से ग्रामीणों को इन परियोजनाओं तथा कार्यक्रमों का अपेक्षित लाभ नहीं मिल सका। अधिकांश गाँव वैज्ञानिक, तकनीकी एवं औद्योगिक प्रगति का समुचित लाभ नहीं उठा पाए हैं। आठवीं योजना में ग्रामीण विकास की गति को तीव्र करने के लिये विकास कार्यक्रमों को जिला, विकासखंड एवं ग्राम स्तर तक ले जाने का लक्ष्य है। प्रभावी क्रियान्वयन तथा जनसहयोग से ही यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।

ग्रामीणों को स्वावलम्बी बनाने में सामुदायिक विकास परियोजनाओं की विशेष भूमिका रही है। इस परियोजना के मुख्य उद्देश्य थे—ग्रामीण जनता में प्रगतिशील दृष्टिकोण का विकास करना, सहकारी ढंग से काम करने की आदत, उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि करना। सामुदायिक विकास परियोजना के इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये गाँवों में शिक्षा के प्रसार, स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार कुटिर एवं ग्रामीण उद्दोग, गृह निर्माण, वृक्षारोपण, भूमि सुधार, सड़क निर्माण आदि कार्यों पर जोर दिया गया। सामुदायिक विकास परियोजना एक बहु-उद्देश्यीय कार्यक्रम है, जो ग्रामीणों के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं नैतिक उत्थान को प्रेरित करता है। पं. जवाहरलाल नेहरू सामुदायिक विकास परियोजनाओं को भारत की जगमगाती, जीवन से परिपूर्ण एवं गतिमान रोशनियाँ मानते थे, जिनसे शक्ति, आशा व उत्साह की किरणें फूटती हैं।

ग्रामीण एवं कुटीर उद्योग


स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के आधारभूत उद्दोगों के साथ-साथ ग्रामीण लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास पर भी पर्याप्त बल दिया गया। बड़े उद्योगों में विकेन्द्रीकरण, वैज्ञानिक प्रबंध तथा आधुनिक तकनीकों को अपनाकर औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि के लिये निरंतर प्रयत्न किए गए। औद्योगिक विकास को भारतीय परिवेश में गति देने के लिये वर्ष 1948 में औद्योगिक नीति की रचना की गई जिसमें वर्ष 1956,1977 तथा वर्ष 1980 में आवश्यकतानुसार संशोधन किया गया। परिणामस्वरूप विगत 40 वर्षों में औद्योगिक उत्पादन बढ़कर लगभग पाँच गुना हो गया। इससे भारत ने औद्योगिक उत्पादन में विश्व में महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया।

ग्रामीण लघु एवं कुटीर उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख अंग हैं। सरकार ने इस सत्य को दृष्टिगत रखते हुए लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास पंचवर्षिय योजनाओं तथा औद्योगिक निती में समुचित स्थान दिया। सरकार ने इन उद्योगों को करों में छूट, तकनीकी सहायता, वित्तिय सहायता तथा विपणन आदि की पर्याप्त सुविधाएं प्रदान की है। सरकार ने सैकड़ों वस्तुओं को लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिये सुरक्षित कर दिया है। सरकार द्वारा लघु उद्योगों के क्षेत्र में सहकारिता को बढ़ावा दिया गया है जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक लोग लघु एवं कुटीर उद्योगों में संलग्न होकर रोजगार प्राप्त कर सकें।

समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम


ग्रामीण गरीब परिवारों को गरीबी रेखा के ऊपर उठाने के लिये 2 अक्टूबर 1980 को समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। इसके अन्तर्गत निर्धन परिवारों को रोजगार हेतु अनुदान और ऋण उत्पादक परिसंपत्तियां दी जाती है। इस कार्यक्रम में अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लोगों, महिलाओं, मुक्त बंधुआ मजदूरों तथा विकलांगों को प्राथमिकता दी जाती है। समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम के सभी लाभार्थियों के लिये सामूहिक बीमा योजना लागू की गई है। जिसका खर्च सरकार द्वारा वहन किया जाएगा।

समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम के अंतर्गत वर्ष 1992-1993 के अंत तक 18,75,135 परिवारों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाने का लक्ष्य रखा गया था जिनमें से नवंबर, 92 तथा 9,66,175 परिवारों को इस कार्यक्रम के अंतर्गत लाया जा चुका है। इस कार्यक्रम से ग्रामीण निर्धन परिवारों को निश्चय ही लाभ हुआ है किन्तु क्रियान्वयन में कुछ कमियाँ होने के कारण यह कार्यक्रम ग्रामीण विकास में अपेक्षित योगदान नहीं कर पा रहा है। इस कार्यक्रम में ऋण और अनुदान के आधार पर मिलने वाली परिसंपत्तियां सही व्यक्तियों तक नहीं पहुँच पाती है। इसमें बाधक बनती है। अतः ग्रामीण विकास के लिये इस कार्यक्रम का प्रभावी क्रियान्वयन जरूरी है।

स्वरोजगारी प्रशिक्षण कार्यक्रम (ट्राइसेम)


निर्धन ग्रामीण युवाओं को स्वरोजगार हेतु तकनीकी प्रशिक्षण देने का कार्यक्रम ट्राइसेम 15 अगस्त, 1979 को प्रारम्भ हुआ। इसके अंतर्गत गाँवों के 18-35 आयु वर्ग के गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के युवाओं का निजी काम-धंधा शुरू करने के लिये प्रशिक्षण दिया जाता है। यह प्रशिक्षण औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थाओं, पॉलिटेक्निकों, कृषि विज्ञान केन्द्रों, नेहरू युवा केन्द्रों, खादी ग्रामोद्योगों बोर्डों, ग्रामीण विकास संस्थानों, विस्तार केन्द्रों आदि में दिया जाता है। ट्राइसेम में प्रशिक्षण पाने वाला प्रत्येक व्यक्ति समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम का संभावित लाभार्थी होता है। प्रतिक्षित व्यक्ति को इच्छुक होने पर समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम के अंतर्गत सहायता दी जाती है।

प्रशिक्षण के दौरान प्रतिक्षणार्थियों को छात्रवृत्ति के अलावा औजार-किट मुफ्त दी जाती है। इस कार्यक्रम में 50 प्रतिशत अनुसूचित जाति और जनजाति के ग्रामीण युवा तथा 40 प्रतिशत महिलाएं होना आवश्यक हैं। ट्राइसेम के अंतर्गत छठी योजना 10-10 लाख, सातवीं योजना में 9.98 लाख, 1990-91 में 2.36 लाख तथा 1991-92 में 3.07 लाख युवाओं को प्रशिक्षित किया जा चुका है।

औजार-किट आपूर्ति कार्यक्रम


ग्रामीण कारीगरों की क्षमता बढ़ाने के लिये आधुनिक औजार किटों की आपूर्ति का कार्यक्रम 20 जुलाई, 1992 से देश भर में लागू किया गया। यह कार्यक्रम समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम के एक भाग के रूप में कार्यान्वित किया जा रहा है। इसके अंतर्गत पारंपरिक कारीगरों को उन्नत किस्म के औजार उपलब्ध कराए जाते हैं जिनका औसत मूल्य 2,000 रुपये होता हैं। इसमें से 10 प्रतिशत लागत कारीगर को देनी होती है 10 प्रतिशत राशि केन्द्र सरकार अनुदान के रूप में देती है। आठवीं योजना में इस कार्यक्रम के अंतर्गत 5 लाख ग्रामीण कारीगरों को सम्मिलित किया जाएगा।

जवाहर रोजगार कार्यक्रम


ग्रामीण विकास के लिये ग्रामीण गरीबों को रोजगार उपलब्ध कराना अत्यंत जरूरी है। इसके लिये रोजगार सृजन करने वाले अनेक कार्यक्रम समय-समय पर चलाए गए। अप्रैल, 1989 से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम और ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रमों का विलय करके जवाहर रोजगार योजना नाम से एक ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगार और अर्द्ध बेरजगार महिलाओं व पुरुषों को रोजगार के अवसर प्रदान करना है। इसके लिये ग्रामीण आर्थिक ढांचे को मजबूत करना जरूरी है।

जवाहर रोजगार योजना में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों तथा मुक्त बंधुआ मजदूरों को प्राथमिकता दी जाती है। 30 प्रतिशत अवसर महिलाओं के लिये निर्धारित है।

जवाहर रोजगार योजना में से राष्ट्रीय स्तर पर इन्दिरा आवास योजना के लिये 20 प्रतिशत राशि आवंटित की जाती है। इन्दिरा आवास योजना के अंतर्गत अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों तथा मुक्त बंधुआ मजदूरों के गरीबों को मकान उपलब्ध कराए जाते हैं। इस योजना में वर्ष 1985-86 से 1992-93 तक 11,81,383 मकान बनाए गए। इसी प्रकार दस लाख कुँओं की योजना के अंतर्गत अनुसूचित जातियों/ अनुसूचित जनजातियों के छोटे व सीमान्त किसानों तथा मुक्त बंधुआ मजदूरों को मुफ्त खुले सिंचाई कुएँ प्रदान किए जाते है। यह योजना वर्ष 1988-89 के दौरान प्रारम्भ हुई। दिसम्बर, 1992 तक इस योजना में 4,58,749 कुँओं का निर्माण हो चुका है।

जवाहर रोजगार योजना के अंतर्गत वृक्षारोपण, भूमि तथा जल संरक्षण, लघु सिंचाई कार्य, बाढ़ से संरक्षण, मछली पालन, ग्रामीण स्वच्छता, आवास निर्माण, सड़क निर्माण, पंचायतघरों, सामुदायिक केन्द्रों, आंगनबाड़ियों, चिकित्सा केन्द्रों स्कूल भवनों आदि का निर्माण जैसे कार्य सम्मिलित किए गए हैं। इस योजना में मजदूरों को खाद्यान्न दिया जाता है। जवाहर रोजगार योजना में वर्ष 1989 से वर्ष 1991-92 तक 254.71 करोड़ श्रम दिवसों के बराबर रोजगार का सृजन किया गया। वर्ष 1992-93 में दिसम्बर, 92 तक 38.35 करोड़ श्रम दिवसों का सृजन हुआ। इस योजना में 1989 से 1991-92 तक 18,460.60 लाख पेड़ लगाए गए, 1,48,772.99 हेक्टेयर भूमि को लघु सिंचाई और बाढ़ संरक्षण के अन्तर्गत लाया गया, 43,068 तालाबों का निर्माण किया 4,28,416.40 किलोमीटर सड़कें बनाई गई। 103706 स्कूल भवन बनाए गए, 2,10,996 आवासों का निर्माण किया गया, 30,527 पंचायतघर बनाए गए तथा 95,012 स्वस्चछ शौचालयों का निर्माण हुआ। जवाहर रोजगार योजना के अंतर्गत ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है।

पंचायती राज


ग्रामीण क्षेत्रों के लिये विक्रेन्द्रित प्रशासन द्वारा गाँवों को आत्मनिर्भर बनाने में पंचायती राज व्यवस्था की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पंचायतें सच्चे लोकतंत्र की बुनियाद होती है। भारत के गाँवों के विकास के लिये प्राचीन काल से ही ग्राम पंचायतें कार्य करती आई हैं। ग्राम-पंचायतें गाँवों की आर्थिक, सामाजिक तथा न्यायिक सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान करके ग्रामीण विकास के अवसर बढ़ाती हैं।

पंचायतें गाँवों में सड़क निर्माण, स्वच्छता, पेयजल, परिवार कल्याण, स्वास्थ्य, कृषि, पशुपालन, मछली पालन, सहकारिता, शिक्षा, कुटीर उद्योग आदि विकास कार्यों को निष्पादित कराती हैं। देश में लगभग 2 लाख 17 हजार ग्राम पंचायतें हैं। एक ग्राम पंचायत पर लगभग 2,306 जनसंख्या आच्छदित है।

देश में पंचायती राज संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने के लिये दिसंबर, 1992 में संसद द्वारा बहत्तरवां संविधान संशोधन पारित किया गया। इसमें पंचायती राज संस्थाओं को प्रभावी बनाने के लिये अनेक प्रावधानों के साथ महिलाओं तथा अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों की भागीदारी आरक्षण के आधार पर सुनिश्चित की गई है।

ग्रामीण जल आपूर्ति एवं स्वच्छता कार्यक्रम


जल जीवन का अनिवार्य तत्व होने के बाद भी हमारे गाँव पेयजल की विकट समस्या से ग्रसित हैं। देश के 5,83,003 गाँवों में रहने वाली 62.87 करोड़ ग्रामीण जनसंख्या में से अभी तक 47.45 करोड़ जनसंख्या को ही शुद्ध पेयजल की आपूर्ति की सीमा में लाया जा सका है। लगभग 77 हजार गाँवों में 24.53 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या अभी भी शुद्ध पेयजल से वंचित है। वर्ष 1986 में ग्रामीण जल आपूर्ति के उद्देश्य से राष्ट्रीय पेयजल मिशन शुरू किया गया जिसको 1991-92 में राजीव गाँधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन नाम दे दिया गया।

ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल की आपूर्ति की दृष्टि से 9 चलती-फिरती तथा 23 स्थाई प्रयोगशालाओं का निर्माण किया गया है। 31.3.92 तक लौह दूर करने वाले 4,596 संयंत्र, खारापन दूर करने वाले 134 संयंत्र, फ्लोराइड दूर करने वाले 201 संयंत्र तथा 102 सोलर फोटो बोल्टिक पम्प लगाए जा चुके हैं। आठवीं योजना में बिना जल स्रोत वाले सभी गाँवों में पेयजल आपूर्ति का लक्ष्य रखा गया है।

स्वस्थ्य के लिये स्वच्छता जरूरी है। 80 प्रतिशत बीमारियाँ गंदे जल की आपूर्ति और स्वच्छता में कमी के कारण फैलती हैं। स्वच्छता के मुख्य घटक शुद्ध पेयजल व्यवस्था, मानव मल-मूत्र का निपटान, कूड़ा-करकट का निपटान आदि हैं। गंदगी का पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे स्वस्थ्य प्रभावित होता है। एक अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 1.70 लाख बच्चे पोलियों से ग्रस्त हैं, प्रति वर्ष 2.50 लाख बच्चे टिटनस से तथा 15 लाख बच्चे पेचिश और पानी की कमी से मर जाते हैं। इसका मुख्य कारण अपर्याप्त स्वच्छता है।

वर्ष 1954 में स्वच्छता कार्यक्रम को योजनाओं में स्वास्थ्य क्षेत्र के अंतर्गत शुरू किया गया था। 1986 में यह बीस सूत्री कार्यक्रम का अंग बन गया। इसी वर्ष केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम भी शुरू किया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता के लिये 1985-86 से 1991-92 तक की अवधि में जवाहर रोजगार योजना के अंतर्गत 3,02,984, इन्दिरा आवास योजना में 10,65,343, न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम में 5,16,123, केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम में 1,98,060 तथा यूनीसेफ प्रायोजित परियोजनाओं के अंतर्गत 1,85,152 घरेलू शौचालयों का निर्माण किया गया।

बहुउद्देश्यीय परियोजनाएं


सरकार द्वारा स्थापित बहुउद्देश्यीय परियोजनाओं ने देश के विकास में विशेष रूप से ग्रामीण विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है इन परियोजनाओं में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इन परियोजनाओं में भाखड़ा-नांगल, दामोदर घाटी, रिहन्द, चम्बल, राजस्थान नहर, कोसी, हीराकुण्ड, गण्डक, रामगंगा, बाण सागर, नागार्जुन सागर, तुंगभद्रा, महानदी, फरक्का आदि प्रमुख परियोजनाएं हैं। इन परियोजनाओं से सिंचाई, परिवहन, बिजली उत्पादन, भूमि संरक्षण व बाढ़- नियंत्रण, मत्स्य पालन, पेय जल आदि का लाभ एक साथ प्राप्त होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने कम समय में इतनी बड़ी संख्या में इस प्रकार की बहुउद्देश्यीय परियोजनाएं किसी भी देश में नहीं बनाई गईं। इन परियोजनाओं ने गाँवों को नया जीवन दिया है।

ग्रामीण विकास के लिये शासन स्तर पर उपरोक्त प्रयत्नों के अलावा कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के लिये भूमि सुधार कार्यक्रम सूखा क्षेत्र तथा मरु विकास कार्यक्रम, आदि चलाए जाते हैं। कृषकों को उनकी उपज का सही मूल्य मिल सके, इसके लिये विपणन के अंतर्गत प्रशीतनघरों व गोदामों का निर्माण, नियमित मण्डियों की स्थापना, परिवहन साधनों का विकास, श्रेणीकरण व मानकीकरण की व्यवस्था, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का क्रियान्वयन आदि उपाय किए जाते हैं। इन सबका मूल्यांकन करने पर प्रतीत होता है कि ग्रामीण विकास के लिये जितना व्यय विभिन्न योजनाओं व कार्यक्रमों पर किया गया है, उसका प्रतिफल नहीं मिल पाया है। ऐसा भी तथ्य प्रकाश में आया है कि योजनाओं व कार्यक्रमों में संलग्न बिचौलियों के कारण सही मात्रा में लाभ ग्रामीणों तक नहीं पहुँच सका है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक योजना व कार्यक्रम को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए जिससे ग्रामीण क्षेत्रों का सही मायने में विकास हो सके। इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं का अपेक्षित सहयोग लिया जा सकता है।

“हिमदीप” राधापुरी, हापुड-245101 (उ.प्र.)

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